Study Material : NTA – UGC NET JRF निबन्ध नाखून क्यों बढ़ते हैं | Essay Nakhoon Kyon Badhate Hain
“नाखून क्यों बढ़ते हैं” निबन्ध के नोट्स (Notes on Nakhoon Kyon Badhate Hain)
नाखून बढ़ना सहजातवृत्ति अर्थात स्वाभाविक है। इन निबन्ध में नकारात्मक दृष्टि से कहा है, क्योंकि प्रश्न किया है- क्यों बढ़ते हैं? लेखक ने चिंतन किया है, विचार किया है।
लेखक ने आधुनिक युग में नाखून का बढ़ना नकारात्मक लिया है, आदिम युग में यह सकारात्मक था। नाखून क्यों बढ़ते हैं, कल्पलता निबन्ध संग्रह में संकलित है, जो 1951 में प्रकाशित हुआ था। लेखक का नाम हजारी प्रसाद द्विवेदी है।
विशेष तथ्य – यह विचार प्रधान निबंध है। नाखून का बढ़ना पशुता का प्रतीक है, नाखून का काटना मनुष्यता का प्रतीक है। इस निबन्ध में मानवतावादी स्वर प्रमुख। साथ ही प्राचीनता और नवीनता का ज़िक्र किया है।
नाखून के माध्यम से लेखक ने मनुष्य की पशुता और मानवता पर विचार किया है, साथ ही प्रश्न भी किया है। लेखक का कहना है, नाखून पशुता की निशानी है, आदिम युग में यह मनुष्य के आत्मरक्षा के लिए काम आते थे, लेकिन वर्तमान में मनुष्य को इसकी कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि उसने अब रक्षा के साथ आक्रमण करके दूसरो को नुकसान पहुचाना शुरू कर दिया है, जिसके लिए उसने हथियार विकसित कर लिए हैं। मनुष्य के हथियार का क्रम – 1 पत्थर के ढेले 2 हड़्डियाँ 3 धातु के हथियार। आर्यों के पास घोडे और लोहे की अस्त्र दोनों चीजे थीं।
लेकिन यह बात नखूनों को नहीं पता है, इसलिए वे लगातार बढ़ते रहते हैं। मनुष्य ने अभी अपनी पशुता नहीं छोड़ी है, जिसका पता लेखक की इस बात से लगता है- “मेरा मन पूछता है-किस ओर? मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है? पशुता की ओर या मनुष्यता की ओर, अस्त्र बढ़ाने की ओर या अस्त्र काटने की ओर?”
लेखक इस निबन्ध के माध्यम से कहना चाहते हैं, मनुष्य ने पशुता की निशानी नाखूनों को काटना तो शुरू कर दिया है, लेकिन अपनी पशुता नहीं छोड़ी है, वे कहते हैं-“ नाखून काटने से क्या होता है? मनुष्य की बर्बरता घटी कहाँ है?”।
नाखून क्यों बढ़ते हैं? निबन्ध का विस्तार (Nakhoon Kyon Badhate Hain Essay Extension)
बच्चे कभी-कभी चक्कर में डाल देनेवाले प्रश्न कर बैठते हैं। अल्पज्ञ पिता बड़ा दयनीय जीव होता है। मेरी छोटी लड़की ने जब उस दिन पूछ लिया कि आदमी के नाखून क्यों बढ़ते हैं? तो मैं कुछ सोच ही नहीं सका। हर तीसरे दिन नाखून क्यों बढ़ जाते हैं। बच्चे कुछ दिन अगर उन्हें बढ़ने दें, तो माँ-बाप अक्सर उन्हें डाँटा करते हैं, पर कोई नहीं जानता कि ये अभागे नाखून क्यों इस प्रकार बढ़ा करते हैं। काट दीजिए, वे चुपचाप दंड स्वीकार कर लेंगे, पर निर्लज्ज अपराधी की भाँति फिर छूटते ही सेंध पर हाजिर। आखिर ये इतने बेहया क्यों हैं?
कुछ ही लाख वर्षों की बात है, जब मनुष्य जंगली था, वनमानुष जैसा। उसे नाखून की जरूरत थी। उसकी जीवन-रक्षा के लिए नाखून बहुत जरूरी थे। असल में वही उसके अस्त्र थे। दाँत भी थे, पर नाखून के बाद ही उनका स्थान था। उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वन्द्वियों को पछाड़ना पड़ता था, नाखून उसके लिए आवश्यक अंग था। फिर वह धीरे-धीरे अपने अंग से बाहर की वस्तुओं का सहारा लेने लगा। पत्थर के ढेले और पेड़ की डालें काम में लाने लगा (रामचन्द्र जी की वानरी सेना के पास ऐसे ही अस्त्र थे)।
उसने हड्डियों के हथियार बनाए। इन हड्डी के हथियारों में सबसे मजबूत और ऐतिहासिक था देवताओं के राजा का वज्र, जो दधीचि मुनि की हड्डियों से बना था। मनुष्य और आगे बढ़ा। उसने धातु के हथियार पाए। जिनके पास लोहे के शस्त्र और अस्त्र थे, वे विजयी हुए। देवताओं के राजा तक को मनुष्य के राजा से इसलिए सहायता लेनी पड़ती थी कि मनुष्यों के राजा के पास लोहे के अस्त्र थे। असुरों के पास अनेक विद्याएँ थीं, पर लोहे के अस्त्र नहीं थे, शायद घोड़े भी नहीं थे।
आर्यों के पास ये दोनों चीजें थीं। आर्य विजयी हुए। फिर इतिहास अपनी गति से बढ़ता गया। नाग हारे, सुपर्ण हारे, यक्ष हारे, गंधर्व हारे, असुर हारे। लोहे के अस्त्रों ने बाजी मार ली थी। इतिहास आगे बढ़ा। पलीतेवाली बन्दूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने, बमवर्षक वायुयानों ने इतिहास को किस कीचड़ भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है। नखधर मनुष्य अब एटम बम पर भरोसा करके आगे की ओर चल पड़ा। पर उसके नाखून अब भी बढ़ रहे हैं।
अब भी प्रकृति मनुष्य को उसके भीतरवाले अस्त्र से वंचित नहीं कर रही है। अब भी वह याद दिला देती है कि तुम्हारे नाखून को भुलाया नहीं जा सकता। तुम वही लाख वर्ष पहले के नख-दन्तावलम्बी जीव हो— पशु के साथ एक ही सतह पर विचरनेवाले और चरनेवाले।
ततः किम्। मैं हैरान होकर सोचता हूँ कि मनुष्य आज अपने बच्चों को नाखून न काटने के लिए डाँटता है। किसी दिन, कुछ थोड़े लाख वर्ष पूर्व वह अपने बच्चों को नाखून नष्ट करने पर डाँटता रहा होगा। लेकिन प्रकृति है कि यह अब भी नाखून को जिलाए जा रही है और मनुष्य है कि वह अब भी उसे काटे जा रहा है।
वे कमबख़्त रोज बढ़ते हैं, क्योंकि वे अन्धे हैं, नहीं जानते कि मनुष्य को इससे कोटि-कोटि गुणा शक्तिशाली अस्त्र मिल चुका है। मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्य अब नाखून को नहीं चाहता। उसके भीतर बर्बर युग का कोई अवशेष रह जाए, यह उसे असह्य है। लेकिन यह भी कैसे कहूँ, नाखून काटने से क्या होता है? मनुष्य की बर्बरता घटी कहाँ है?
वह तो उसका नवीनतम रूप है। मैं मनुष्य के नाखूनों की ओर देखता हूँ, तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ। ये उसकी भयंकर पाशवी वृत्ति के जीवन्त प्रतीक हैं। मनुष्य की पशुता को जितनी बार भी काट दो, वह मरना नहीं जानती।
कुछ हजार साल पहले मनुष्य ने नाखून को सुकुमार विनोदों के लिए उपयोग में लाना शुरू किया था। वात्स्यायन के कामसूत्र से पता चलता है कि आज से दो हजार वर्ष पहले का भारतवासी नाखूनों को जमकर सँवारता था। उनके काटने की कला काफी मनोरंजक बताई गई है।
त्रिकोण, वर्तुलाकार, चन्द्राकार, दन्तुल आदि विविध आकृतियों के नाखून उन दिनों विलासी नागरिकों के न जाने किस काम आया करते थे। उनको सिक्थक मोम और अलत्तक (आलता) से यत्नपूर्वक रगड़कर लाल और चिकना बनाया जाता था। गौड़ देश (बंगाल) के लोग उन दिनों बड़े-बड़े नखों को पसन्द करते थे और दक्षिणात्य लोग छोटे नखों को। बात अपनी-अपनी रुचि है, देश की भी और काल की भी।
लेकिन समस्त अधोगामिनी वृत्तियों को और नीचे खींचनेवाली वस्तुओं को भारतवर्ष ने मनुष्योचित बनाया है, यह बात चाहूँ भी तो भूल नहीं सकता।
मानव शरीर का अध्ययन करनेवाले प्राणि— विज्ञानियों का निश्चित मत है कि मानव-चित्त की भाँति मानव शरीर में भी बहुत-सी अभ्यासजन्य वृत्तियाँ रह गई हैं। दीर्घकाल तक उनकी आवश्यकता रही है।
अतएव शरीर ने अपने भीतर एक ऐसा गुण पैदा कर लिया है कि वे वृत्तियाँ अनायास ही और शरीर के अनजाने में भी, अपने आप काम करती हैं। नाखून का बढ़ना उनमें से एक है, केश का बढ़ना दूसरा है, दाँत का दुबारा उगना तीसरा है, पलकों का गिरना चौथा है! और असल में सहजात वृत्तियाँ अनजानी स्मृतियों को ही कहते हैं।
हमारी भाषा में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। अगर आदमी अपने शरीर की, मन की और वाक् की अनायास घटनेवाली वृत्तियों के विषय में विचार करे, तो उसे अपनी वास्तविक प्रवृत्ति पहचानने में बहुत सहायता मिले। पर कौन सोचता है? सोचता तो क्या, उसे इतना भी पता नहीं चलता कि उसके भीतर नख बढ़ा लेने की जो सहजात वृत्ति है, वह उसके पशुत्व का प्रमाण है।
काटने की जो प्रवृत्ति है, वह उसकी मनुष्यता की निशानी है और यद्यपि पशुत्व के चिह्न उसके भीतर रह गए हैं, पर वह पशुत्व को छोड़ चुका है। पशु बनकर वह आगे नहीं बढ़ सकता। उसे और कोई रास्ता खोजना चाहिए। शस्त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति मनुष्यता की विरोधिनी है।
मेरा मन पूछता है-किस ओर? मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है? पशुता की ओर या मनुष्यता की ओर, अस्त्र बढ़ाने की ओर या अस्त्र काटने की ओर? मेरी निर्बोध बालिका ने मानो मनुष्य जाति से ही प्रश्न किया है—जानते हो, नाखून क्यों बढ़ते हैं? ये हमारी पशुता के अवशेष हैं। मैं भी पूछता हूँ—जानते हो, ये अस्त्र-शस्त्र क्यों बढ़ रहे हैं? ये हमारी पशुता की निशानी हैं। भारतीय भाषाओं में प्रायः ही अंग्रेजी के ‘इंडिपेंडेंस‘ शब्द का समानार्थक शब्द नहीं व्यवहृत होता।
15 अगस्त को जब अंग्रेजी भाषा के पत्र ‘इंडिपेंडेंस‘ की घोषणा कर रहे थे, देशी भाषा के पत्र ‘स्वाधीनता दिवस‘ की चर्चा कर रहे थे। ‘इंडिपेंडेंस‘ का अर्थ है अनधीनता या किसी की अधीनता का अभाव, पर ‘स्वाधीनता शब्द का अर्थ है—अपने ही अधीन रहना। अंग्रेजी में कहना हो, तो ‘सेल्फ डिपेंडेंस’ कह सकते हैं। मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि इतने दिनों तक अंग्रेजी की अनुवर्तिता करने के बाद भी भारतवर्ष ‘इंडिपेंडेंस’ को अनधीनता क्यों नहीं कह सका?
उसने अपनी आजादी के जितने भी नामकरण किए स्वतंत्रता, स्वराज्य, स्वाधीनता— उन सब में ‘स्व’ का बन्धन अवश्य रखा। यह क्या संयोग की बात है या हमारी समूची परम्परा ही अनजाने में हमारी भाषा द्वारा प्रकट होती रही है? मुझे प्राणी-विज्ञान की बात फिर याद आती है— सहजात वृत्ति अनजानी स्मृतियों का ही नाम है। स्वराज्य होने के बाद स्वभावतः ही हमारे नेता और विचारशील नागरिक सोचने लगे हैं कि इस देश को सच्चे अर्थ में सुखी कैसे बनाया जाए।
हमारे देश के लोग पहली बार यह सोचने लगे हों, ऐसी बात नहीं है। हमारा इतिहास बहुत पुराना है, हमारे शास्त्रों में इस समस्या को नाना भावों और नाना पहलुओं से विचारा गया है। हम कोई नौसिखुए नहीं हैं, जो रातोरात अनजान जंगल में पहुँचकर अरक्षित छोड़ दिए गए हों। हमारी परम्परा महिमामयी, उत्तराधिकारी विपुल और संस्कार उज्ज्वल हैं।
हमारे अनजाने में भी ये बातें हमें एक खास दिशा में सोचने की प्रेरणा देती हैं। यह जरूर है कि परिस्थितियाँ बदल गई हैं। उपकरण नए हो गए हैं और उलझनों की मात्रा भी बहुत बढ़ गई है, पर मूल समस्याएँ अधिक नहीं बदली हैं। भारतीय चित्त जो आज भी ‘अनधीनता‘ के रूप में न सोचकर ‘स्वाधीनता‘ के रूप में सोचता है, वह हमारे दीर्घकालीन संस्कारों का फल है। वह ‘स्व’ के बन्धन को आसानी से नहीं छोड़ सकता।
अपने आप पर अपने आप के द्वारा लगाया हुआ बन्धन हमारी संस्कृति की बड़ी भारी विशेषता है। मैं ऐसा तो नहीं मानता कि जो कुछ हमारा पुराना है, जो कुछ हमारा विशेष है, उससे हम चिपटे ही रहें। पुराने का ‘मोह’ सब समय वांछनीय ही नहीं होता। अपने बच्चे को गोद में दबाए रहनेवाली ‘बन्दरिया‘ मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती। परन्तु मैं ऐसा भी नहीं सोच सकता कि हम नई अनुसंधित्सा के नशे में चूर होकर अपना सर्वस्व खो दें।
कालिदास ने कहा था कि सब पुराने अच्छे ही नहीं होते, सब नए खराब ही नहीं होते, भले लोग दोनों की जाँच कर लेते हैं; जो हितकर होता है उसे ग्रहण करते हैं और मूढ़ लोग दूसरों के इशारे पर भटकते रहते हैं। सो हमें परीक्षा करके हितकर बात सोच लेनी होगी और अगर हमारे पूर्वसंचित भंडार में वह हितकर वस्तु निकल आवे, तो इससे बढ़कर और क्या हो सकता है?
जातियाँ इस देश में अनेक आई हैं। लड़ती-झगड़ती भी रही हैं, फिर प्रेमपूर्वक बस भी गई हैं। सभ्यता की नाना सीढ़ियों पर खड़ी और नाना ओर मुख करके चलनेवाली इन जातियों के लिए सामान्य धर्म खोज निकालना कोई सहज बात नहीं थी। भारतवर्ष के ऋषियों ने अनेक प्रकार से, अनेक ओर से इस समस्या को सुलझाने की कोशिश की थी। पर एक बात उन्होंने लक्ष्य की थी। समस्त वर्णों और समस्त जातियों का एक सामान्य आदर्श भी है। वह है अपने ही बन्धनों में अपने को बाँधना।
मनुष्य पशु से किस बात में भिन्न है? आहार, निद्रा आदि पशु-सुलभ स्वभाव उसके ठीक वैसे ही हैं, जैसे अन्य प्राणियों के। लेकिन वह फिर भी पशु से भिन्न है। उसमें संयम है, दूसरों के सुख-दुख के प्रति संवेदना है, श्रद्धा है, तप है, त्याग है। मनुष्य के स्वयं के उद्भावित बन्धन हैं। इसीलिए मनुष्य झगड़े-टंटे को अपना आदर्श नहीं मानता, गुस्से में आकर चढ़ दौड़नेवाले अविवेकी को बुरा समझता है और वचन, मन और शरीर से किए गए असत्याचरण को गलत आचरण मानता है।
यह किसी खास जाति या वर्ण या समुदाय का धर्म नहीं है। यह मनुष्य मात्र का धर्म है। महाभारत में इसलिए निर्वेर भाव, सत्य और अक्रोध को सब वर्णों का सामान्य धर्म कहा है—
एतद्धि त्रितयं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत।
निर्वेरता महाराज सत्यमक्रोध एव च।।
अन्यत्र इसमें निरन्तर दानशीलता को भी गिनाया गया है।
गौतम ने ठीक ही कहा था कि मनुष्य की मनुष्यता यही है कि वह सबके सुख-दुख को सहानुभूति के साथ देखता है। यह आत्म-निर्मित बन्धन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है। अहिंसा, सत्य और अक्रोधमूलक धर्म का मूल उत्स यही है। मुझे आश्चर्य होता है कि अनजाने में भी हमारी भाषा में यह भाव कैसे रह गया है। लेकिन मुझे नाखून के बढ़ने पर आश्चर्य हुआ था।
अज्ञान सर्वत्र आदमी को पछाड़ता है, और आदमी है कि सदा उससे लोहा लेने को कमर कसे है। मनुष्य को सुख कैसे मिलेगा? बड़े-बड़े नेता कहते हैं, वस्तुओं की कमी है, और मशीन बैठाओ, उत्पादन बढ़ाओ, और धन की वृद्धि करो, और बाह्य उपकरणों की ताकत बढ़ाओ।
एक बूढ़ा (गाँधी) था। उसने कहा— बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो, काम करने की बात सोचो। उसने कहा— प्रेम ही बड़ी चीज है, क्योंकि वह हमारे भीतर है।
उच्छंखलता पशु की प्रवृत्ति है, ‘स्व’ का बन्धन मनुष्य का स्वभाव है। बूढ़े की बात अच्छी लगी या नहीं, पता नहीं। उसे गोली मार दी गई। आदमी के नाखून बढ़ाने की प्रवृत्ति ही हावी हुई।
मैं हैरान होकर सोचता हूँ-बूढ़े ने कितनी गहराई में बैठकर मनुष्य की वास्तविक चरितार्थता का पता लगाया था। ऐसा कोई दिन आ सकता है, मनुष्य के नाखूनों का बढ़ना बन्द हो जाएगा।
प्राणिशास्त्रियों का ऐसा अनुमान है कि मनुष्य का अनावश्यक अंग उसी प्रकार झड़ जाएगा, जिस प्रकार उसकी पूँछ झड़ गई है। उस दिन मनुष्य की पशुता भी लुप्त हो जाएगी।
शायद उस दिन वह मरणास्त्रों का प्रयोग भी बन्द कर देगा। तब तक इस बात से छोटे बच्चों को परिचित करा देना वांछनीय जान पड़ता है कि नाखून का बढ़ना मनुष्य के भीतर की पशुता की निशानी है और उसे नहीं बढ़ने देना मनुष्य की अपनी इच्छा है। अपना आदर्श है। वृहत्तर जीवन में अस्त्र-शस्त्र का बढ़ने देना मनुष्य की पशुता की निशानी है और उनकी बाढ़ को रोकना मनुष्यत्व का तकाजा है।
मनुष्य में जो घृणा है, जो अनायास— बिना सिखाए-आ जाती है, वह पशुत्व की द्योतक है और अपने को संयत रखना, दूसरे के मनोभावों का आदर करना मनुष्य का स्वधर्म है। बच्चे यह जानें तो अच्छा हो कि अभ्यास और तप से प्राप्त वस्तुएँ मनुष्य की महिमा को सूचित करती हैं। सफलता और चरितार्थता में अन्तर है।
मनुष्य मरणास्त्रों के संचय से, बाह्य उपकरणों के बाहुल्य से उस वस्तु को पा भी सकता है जिसे उसने बड़े आडम्बर के साथ सफलता नाम दे रखा है। परन्तु मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए निःशेष भाव से दे देने में है।
नाखून का बढ़ना मनुष्य की उस अन्ध-सहजात वृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता ले आना चाहती है, उसको काट देना उस ‘स्व’ – निर्धारित आत्म-बन्धन का फल है जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाता है। कमबख्त नाखून बढ़ते हैं तो बढ़ें, मनुष्य उन्हें बढ़ने नहीं देगा।
निष्कर्ष (Conclusion)
1) नाखून क्यों बढ़ते हैं, यह प्रश्न लेखक से उनकी छोटी बेटी ने पूछा था।
2) “कालिदास ने कहा था कि सब पुराने अच्छे ही नहीं होते, सब नए खराब ही नहीं होते”। कालीदास का जिक्र किया है।
3) देवताओं ने मनुष्यों से सहायता ली थी क्योंकि उन्होंने लोहे के हथियार थे।
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