UGC Net JRF Hindi : कोसी का घटवार संवाद व घटना | Kosi Ka Ghatwar Dialogue and Incident
कोसी का घटवार का परिचय (Introduction to Ghatwar of Kosi)
यह कहानी कोसी नदी के किनारे की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है। उत्तराखण्ड क्षेत्र का वर्णन किया गया है। इस कहानी का नायक गोसाई है, जो फौजी था। नायिका लछमा है, जो गौसाई की प्रेमिका होती है, लेकिन उससे शादी नहीं हो पाती है।
कोसी का घटवार कहानी का प्रकाशन 1958 में होता है।
कहानी का विषय – सामाजिक जड़ता के कारण से उपेक्षित प्रेम की मार्मिक कहानी है। जिसमें आंचलिक विशेषताओं का वर्णन है।
यह कहानी कल्पना पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
कहानी में फ्लैश बैक शैली का भी प्रयोग किया गया है।
कोसी का घटवार कहानी संग्रह में दस कहानियाँ संकलित हैं।
पात्र – लछमा, राम सिंह, गोसाई (फौजी)
पर्वतीय प्रदेश का वर्णन है।
कोसी का घटवार कहानी संग्रह की कहानियाँ—
दाज्यू 2 उस्ताद 3 कविप्रिया 4 बन्द दरवाजे 5 किंकरोमि जनार्दन 6 कोसी का घटवार 7 जी-हरिया 7 पद्मा की कहानी 8 शुभो दीदी 9 बदबू 10 खुली खिड़कियाँ
कोसी का घटवार संवाद व घटना | Kosi Ka Ghatwar Dialogue and Incident
गुसाईं का मन चिलम में भी नहीं लगा।
मिहल की छाँह का जिक्र है।
घट का प्रवेश-द्वार बहुत कम ऊँचा था।
गोसाईं बुदबुदाया – “जा स्साला। सुबह से अब तक दस पंसेरी भी नहीं हुआ। सूरज कहाँ का कहाँ चला गया है! कैसी अनहोनी बात!”
जेठ बीत रहा है। बाकी सालों मे अब तक धान रूपाई हो जाती थी, लेकिन इस साल नदी-नाले सूखे पड़े हैं।
कोसी के किनारे है गुसाईं का यह घट। पर इसकी भी चाल ऐसी कि लद्दू घोड़े (धीमी चाल) की चाल को मात देती है।
चक्की यानी घट की अवाज़ छच्छिर-छच्छिर आती है।
फ़ौजी पैंट घुटनों तक मोड़कर गुसाईं पानी की गूल में अंदर चलने लगा। पानी रोकने के लिए।
गोसाईं को दूर से कोई पिसान (आटा) पिसाने के लिए आता दिखाई देता है, जिसे वह कहता है, नम्बर देर से आएगा।
गोसाईं के घट के अतरिक्त ऊपर (ऊचाँई) उमेदसिंह का घट भी है, जहाँ वह आटा पिसाने की सलाह देता है।
मिहल की छाँव में बैठकर गुसाईं चिलम पिता है।
गुसाईं सूखी नदी के किनारे बैठ कर सोच रहा था क्यों उस आदमी को लौटा दिया।
गुसाईं को अकेलापन महसूस होता है। “ज़िंदगी भर साथ देने के लिए जो अकेलापन उसके द्वार पर धरना देकर बैठ गया है, वही।
पुरानी फ़ौजी पैंट का ज़िक्र है।
गुसाईं को बीती बातों की याद आई— इसी पैंट की बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है। नही, याद करने को मन नहीं करता।
फौज़ी पैंट पहनकर हवलदार धरमसिंह आया था। वैसी ही पैंट पहनने के लिए गुसाईं फ़ौज में गया था। लौटा तो अकेलापन भी साथ आ गया।
बैसाख के महीने में पहली बार गुसाईं अनुअल-लीव पर घर आया था। चाचा का गोठ मिलने वालों से भर गया था।
नाले-पार के अपने गाँव से भैंस के कट्या (बछड़ा) को खोजने के बहाने दूसरे दिन लछमा आई थी। पर मिल नहीं पाई गुसाईं से।
बुड्ढे नरसिंह प्रधान उन दिनों ठीक ही कहते थे, आजकल गुसाईं को देखकर सोबनियाँ का लडका भी अपनी फटी घेर की टोपी को तिरछी पहनने लग गया है।
जंगल में गाँव की सीमा से बहुत दूर, काफल के पेड़ के नीचे गुसाईं के घुटने पर सिर रखकर, लेटी-लेटी लछमा काफल खा रही थी। काफलों का गाढ़ा लाल रस उसकी पैंट पर गिर गया था।
लछमा ने कहा था “इसे यहीं रख जाना, मेरी पूरी बाँह की कुर्ती इसमें से निकल आएगी”।
गुसाईं ने कहा था— तेरे लिए मखमल की कुर्ती ला दूँगा, मेरी सुवा! या कुछ ऐसा ही।
पहाड़ी पार के रमुवाँ ने, जो तुरीनिसाण (वाद्ययंत्र) लेकर उसे ब्याहने आया था? उसने मखमल की कुर्ती पहनाई।
“जिसके आगे-पीछे भाई-बहन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोंक पर जान रखनेवाले को छोकरी कैसे दे दें हम? लछमा के बाप ने कहा था।
किसनसिंह ने कहा— “हमारे गाँव के रामसिंह ने जिद की, तभी छुट्टियाँ बढ़ानी पडी। इस साल उसकी शादी थी। खूब अच्छी औरत मिली है, यार! शक्ल-सूरत भी ख़ूब है, एक़दम पटाखा! बडी हँसमुख है।
किसनसिंह ने लछमा के ब्याह की बात गुसाईं को बताई थी।
रम-डे था उस दिन। आधा पैग के स्थान पर दो पैग रम लेकर वह अपनी चारपाई पर पड़ गया था।
हवलदार मेजर ने दूसरे दिन पेशी करवाई थी— मलेरिया प्रिकॉशन न करने के अपराध में।
उस साल घर से विदा होने से पहले मौका निकालकर वह (गुसाईं) लछमा से मिला था।
गंगानाथज्यू की क़सम, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूँगी। आँखों में आँसू भरकर लछमा ने कहा था।
जितने दिन नौकरी रही गुसाईं अपने गाँव नहीं आया। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन का वालंटियरी ट्रांसफर लेने वालों की लिस्ट में नायक गुसाईं का नाम ऊपर आता रहा- लगातार पंद्रह साल तक।
बैसाख में ही वह गाँव लौटा है।
ऊपर की सारी बातें गुसाईं याद कर रहा था, अचानक उसका ध्यान टुट गया।
नारी घट के द्वार पर आकर कहती है- कब बारी आएगी? स्त्री (लछमा) ने गुसाई को नहीं पहचाना।
देर लगेगी आटा पीसने में यह सुनकर स्त्री जाने लगी, नदी के किनारे पहुँच गई तो गुसाईं ने अपनी लड़खड़ाती अवाज़ में उसे पुकारा, लछमा।
मायके में उसे लछमा नाम से ही पुकारते हैं।
मिहल की छाँव के अलावा वहाँ बैठने के लिए कोई और स्थान नहीं था, इसलिए लछमा वहीं चली गई।
लछमा गुसाईं को घटवार जी कहकर संबोधित करती है।
लछमा दाड़िम की छाया में बैठी।
कुछ क्षण लछमा और गुसाईं एक-दूसरे को पहचानने के बाद भी कुछ नहीं बोले।
लछमा के गले में काला चरेऊ (सुहाग-चिन्ह) नहीं था। हतप्रभ-सा गुसाईं उसे देखता रहा।
इस समय गुसाईं श्रोता बनकर रह जाना चाहता है।
लछमा कहती है— जिसका भगवान नहीं होता, उसका कोई नहीं होता।
लछमा के ससुराल में जेठ-जिठानी है, जिनसे पीछा छुडाकर वह अपनी माँ के पास आई थी, लेकिन उसकी भी मृत्यु हो चुकी है। अब लछमा एक विधवा है, जिसका एक छोटा बेटा है।
लछमा कहती है— मुश्किल पडने पर कोई किसी को नहीं होता जी!
दोपहर के दो बजने का उल्लेख है।
सड़क किनारे की दुकान से दूध लेकर लौटते-लौटते गुसाईं को काफ़ी समय लग गया था।
लछमा का बेटा छ:-सात साल का बच्चा है।
लछमा ने कहा— “इस छोकरे को घड़ी-भर के लिए भी चैन नहीं मिलता। जाने कैसे पूछता-खोजता मेरी जान खाने को यहाँ भी पहुँच गया है”।
लछमा ने रोटी पकाने की इच्छा प्रकट की, गुसाईं न नहीं कह सका।
गुसाईं ने दो रोटियाँ बच्चे की ओर बढ़ा दीं।
“मर अब ले क्यों नहीं लेता? जहाँ जाएगा, वहीं अपने लच्छन दिखाएगा”।
गुसाईं ने कहा— लोग ठीक ही कहते हैं, औरत के हाथ की बनी रोटियों में स्वाद ही दूसरा होता है”।
गुसाई कहता है, बच्चे के लिए— कुछ साग-सब्ज़ी होती, तो बेचारा एक-आधी रोटी और खा लेता”।
गुसाईं पैसों से लछमा की मदद करना चाहता है, लेकिन लछमा रूपए लेने से मदद कर देती है।
गुसाईं बोला— “दु:ख तकलीफ़ के वक़्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है। स्साला। कितना कमाया, कितना फूँका हमने इस ज़िन्दगी में। है कोई हिसाब! पर क्या फ़ायदा! किसी के कान नहीं आया। इसमें अहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है साला। किसी के काम नही आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी”।
लछमा ने कहा— गंगनाथ दाहिने रहें, तो भले-बुरे दिन निभ ही जाते हैं, जी। पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाए। अपने-पराए प्रेम से हँस-बोल दें, तो वह बहुत है दिन काटने के लिए”।
गुसाईं ने कहा – कभी चार पैसे जुड़ जाएँ, तो गंगनाथ का जागर लगाकर भूल-चूक की माफ़ी माँग लेना। पूत-परिवारवालों को देवी-देवता के कोप से बचा रहना चाहिए”।
काठ की चिड़िया किट-किट आवाज़ कर रही थीं। लछमा अपने बेटे को लेकर चली जाती है, फिर से गुसाईं के आसपास सुनसान, निस्तब्ध सन्नाटा छा जाता है, और कहानी यहीं पर समाप्त हो जाती है।
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