UGC Net JRF Hindi :  पिता कहानी संवाद व सारांश | Pita Story Dialogue And Summary

UGC Net JRF Hindi :  पिता कहानी संवाद व सारांश | Pita Story Dialogue And Summary

कहानी का परिचय (Introduction To The Story)

पिता कहानी के लेखक ज्ञानरंजन हैं। यह कहानी “फेंस के इधर उधर” संग्रह 1968 में प्रकाशित हुई है।

इस कहानी में पिता-पुत्र के संवाद का अभाव और अभाव के प्रभाव का चित्रण किया गया है।

परंपरागत और आधुनिक होते जाने के बीच उभरे द्वंद्व और इस द्वंद्व इस कहानी में देखने को मिलता है।

कहानी के पात्र – सुधीर, पिता, कप्तान भाई, देवा, दादा भाई।

कथावाचक सुधीर को वह कहकर संबोधित करता है। देवा सुधीर की पत्नी है।

कहानी का संक्षिप्त सारांश (Brief Summary Of The Story)

यह कहानी पिता पुत्र के मनोवैज्ञानिक टकराव की है। इस कहानी में पिता पुराने तौर-तरीकों से जीवन व्यतीत करना करते हैं, लेकिन उनके बेटे चाहते हैं, कि वह आधुनिक जीवन शैली अपनाएँ। आधुनिक सुख-सुविधाओं का लाभ उठाएँ।

यह पुरी कहानी एक रात की है। इस कहानी में सुधीर अपने पिता को रात में बाहर गर्मी से परेशान देखकर खुद भी परेशान रहता है। सारी रात अपने पिता के व्यवहार के बारे में सोचता रहता है। कैसे उनका स्वभाव है, क्यों बार-बार हमारे कहने पर भी वह हमारे साथ अन्दर नहीं सोते बल्कि रात भर बाहर गर्मी में सोते हैं। गर्मी इतनी ज़्यादा है कि उन्हें नींद नहीं आती, वह खुद रात भर इधर-उधर परेशान रहते हैं।

पिता पुत्र के बीच शीतयुद्ध रहता है, यदि ऐसा न होता तो सुधीर जबरदस्ती अपने पिता को अन्दर लाकर सुला देता।

कप्तान भाई ने अपनी बहन की पढ़ाई के लिए रूपया भेजा था, भविष्य में कहीं वह अपनी बहन पर अहसान न जताएँ, यह सोचकर पिता ने 1200 रूपए की पासबुक कप्तान भाई को देते हुए, उसके रूपए लौटा दिए।

दादा भाई ने नहाने के लिए शावर लगवाया था यह सोचकर कि पिता खुश होंगे, लेकिन पिता ने कोई खुशी ज़ाहिर नहीं कि बल्कि पहले की तरह वे बाहर खुले में ही स्नान करते रहे।

सुधीर अपने पिता के कोट का कपड़ा लाया था, जिसे पिता ने पहले लेने से मना कर दिया फिर लिया भी तो अपने पुराने दर्ज़ी से सिलवा लिया जो सुधीर के अनुसार ठीक से कपड़े नहीं सिलता है।

यह सब सोचते-सोचते आधी रात निकल जाती है, सुधीर अर्थात वह यह सोचकर सो जाता है कि शायद अब पिताजी भी सो गए होंगे।

पिता कहानी की घटना व संवाद (Story Events And Dialogues)

अभी घनश्यामनगर के मकानों के लंबे सिलसिलों के किनार-किनारे सवारी गाड़ी धड़धड़ाती हुई गुज़री।

गर्मियों में साढ़े ग्यारह का कोई विशेष मतलब नहीं होता।

घर में सभी जल्दी सोया करते, जल्दी खाया और जल्दी उठा करते हैं।

पंखे की हवा बहुत गर्म थी, पुराना होने के कारण चिढ़ाती सी आवाज़ भी कर रहा है। उसको लगा, दूसरे कमरों में भी लोग शायद उसकी ही तरह जम्हाइयाँ ले रहे होंगे। लेकिन दूसरे कमरों के पंखे पुराने नहीं हैं।

पिता की चारपाई बाहर थी, अर्थात पिता बाहर सो रहे थे। पिता ने डाँटकर उस बिल्ली का रोना चुप कराया जो शुरू हो गया था।

उसे इस स्थिति से रोष हुआ। सब लोग, पिता से अंदर पंखे के नीचे सोने के लिए कहा करते हैं, पर पिता नहीं सुनते…

पिता को गर्मी के कारण बाहर नींद नहीं आ रही थी, उन्होंने कई बार करवटें बदलीं।

पिता ने कहा- बड़ी भयंकर गर्मी है, एक पत्ता भी नहीं डोलता।

इस साल जो नया पैडस्टल खरीदा गया है वह आँगन में दादी अम्मा के लिए लगता है। बिजली का मीटर तेज चल रहा होगा। पैसे खर्च हो रहे हैं, लेकिन पिता की रात कष्ट में ही है।

ग़ज़ब तो पिता की ज़िद है। पिता जीवन की अनिवार्य सुविधाओं से भी चिढ़ते हैं।

तीन आने में आने वाले रिक्शे के स्थान पर दो आने में आने वाले रिक्शे के लिए पिता घंटो खड़े रहते हैं। धीरे-धीरे सबके लिए सुविधाएँ जुटाते रहेंगे, लेकिन ख़ुद उसमें नहीं या कम से कम शामिल होंगे

दादा भाई ने अपनी पहली तनख़्वाह में ग़ुसलख़ाने में उत्साह के साथ एक ख़ूबसूरत शावर लगवाया, लेकिन पिता को अर्सें से हम सब आँगन में धोती को लँगोटे की तरह बाँधकर तेल चुपड़े बदन पर बाल्टी-बाल्टी पानी डालते देखते हैं।

शावर लगाने पर पिता उत्साहित नहीं हुए जिस कारण दादा भाई निराश हो गए।

दादा भाई ने कहा- आप अंदर आराम से क्यों नहीं नहाते?

लड़कों द्वारा बाज़ार से लाई बिस्किटें और महँगे फल पिता कुछ नहीं लेते।

पिता अपनी अमावट, गजक और दाल-रोटी के अलावा दूसरों द्वारा लाई चीज़ों की श्रेष्ठता से वह कभी प्रभावित नहीं होते।

वे पुत्र, जो पिता के लिए कुल्लू का सेब मँगाने और दिल्ली एम्पोरियम से बढ़िया धोतियाँ मँगाकर उन्हें पहनाने का उत्साह रखते थे, अब तेज़ी से पिता-विरोधी होते जा रहे हैं।

लद्द-लद्द बाहर आम के दो सीकरों के लगभग एक साथ गिरने की आवाज़ आई।

कई बार कहा, मुहल्ले में हम लोगों का सम्मान है, चार भले लोग आया-जाया करते हैं, आपको अंदर सोना चाहिए, ढंग के कपड़े पहनने चाहिए और चौकीदारों की तरह रात को पहरा देना बहुत ही भद्दा लगता है।

किसी भी दर्ज़ी से उल्टा-सीधा, कुर्ता-क़मीज़ सिलवा लेते हैं, बोलने पर पिता कहते हैं- आप लोग जाइए न भाई, कॉफ़ी हाउस में बैठिए, झूठी वैनिटी के लिए बेयरा को टिप दीजिए, रहमान के यहाँ डेढ़ रुपए वाला बाल कटाइए, मुझे क्यों घसीटते हैं।

बात-बहस में पिता को खीचा जाता है, तो हिंसात्मक बात कह जाते हैं। घेरने वाले भाई-बहन ही अपराधी बन जाते हैं।

अंदर फिर माँ जाएँगी और पिता, विजयी पिता कमरे में गीता पढ़ने लगेंगे या झोला लेकर बाज़ार सौदा लेने चले जाएँगे।

पिता अद्भुत और विचित्र हैं, वह सोचते हुए उठा।

वह (पुत्र) पिछले जाड़ों में एक कोट का बेहतरीन कपड़ा पिता के लिए लाया। पहले तो लेने से मना कर दिया… फिर ख़ुल्दाबाद के किसी लपटूँ मुल्ला दर्ज़ी के यहाँ सिलाने चल दिए।

सुधीर ने कहा- कपड़ा क़ीमती है, चलिए अच्छी जगह में आपका नाप दिलवा दूँ, परिणाम स्वरूप पिता ने काफ़ी हिक़ारत उगली।

वह चिढ़ उठे, “मैं सबको जानता हूँ, वही म्यूनिसिपल मार्केट के छोटे-मोटे दर्जियों से काम कराते और अपना लेबल लगा लेते हैं। साहब लोग, मैंने कलकत्ते के ‘हाल एंडरसन के सिले कोट पहने हैं अपने ज़माने में, जिनके यहाँ अच्छे-खासे युरोपियन लोग कपड़े सिलवाते थे। ये फ़ैशन-वैशन, जिसके आगे आप लोग चक्कर लगाया करते हैं, उसके आगे पाँव की धूल है। मुझे व्यर्थ पैसा नहीं ख़र्च करना है।

लंबे समय से वह केवल दो ही ग्रंथ पढ़ते आ रहे हैं- यंत्रवत, नियमवत-रामायण और गीता। लंबे पैंतीस वर्षों तक अखंड केवल रामायण और गीता।

यह देख-सोचकर कि कोई व्यक्ति केवल दो पुस्तकों में ज़िंदगी के पैंतीस वर्ष काट सकता है।

देवा कहानी की पात्र है।

पिता के लिए पुत्र सोचता है- बाहर रहकर बाहरी होते जा रहे हैं।

पुरानी जीवन-व्यवस्था कितनी कठोर थी, उसके मस्तिष्क में एक भिंचाव आ गया। विषाद सर्वोपरि था।

अगर पिता-पुत्र में शीत-युद्ध न होता तो वह (पुत्र) उन्हें जबरन खींच के नीचे लाकर सुला देता।

दरअसल उसका (पुत्र का) जी अक्सर चिल्ला उठने को हुआ है। पिता, तुम हमारा निषेध करते हो। तुम ढोंगी हो, अहंकारी-बज्र अहंकारी।

मौसम की गर्मी से कहीं अधिक प्रबल पिता हैं।

वायु-सेना में नौकरी करने वाला उसका कप्तान भाई, बहन के यूनिवर्सिटी के ख़र्चें के लिए दो वर्ष तक पचास रुपए महीना भेजता रहा था। होली-अवकाश में भाई आया तो…पिता ने उसके हाथ में उसके नाम की बारह सौ रुपयों वाली एक पासबुक थमा दी।

कप्तान भाई ज़्यादा सोचते नहीं। खिलाड़ी तबियत के हैं। यान की तरह चुटकी में धरती छोड़ देते हैं।

वह (पुत्र) असंतोष और सहानुभूति, दोनों के बीच असंतुलित भटकता रहा।

धूमनखंज स्थान का ज़िक्र है।

खाँस-खँखार, कुत्ते-बिल्लियों को हड़काना- कुछ सुन नहीं पड़ रहा है। इस विचार से कि पिता सो गए होंगे, उसे (पुत्र) परम शांति मिली और लगा कि अब वह भी सो सकेगा।

पिता को बाहर जगा हुआ देखकर उसकी नींद काफ़ूर हो गई।

पिता ने- हे राम तू ही सहारा है, कहकर जम्हाई ली है।

वह जागते हुए सोचने लगा, अब पिता निश्चित रूप से सो गए हैं शायद!

कहानी का निष्कर्ष (Conclusion of the Story)

कहानी मे ऐसा लगता है कि पिता बच्चों के विरोधी हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। पिता बहुत स्वाभिमानी हैं, वे रात को बाहर गर्मी में भी इसलिए सोते हैं, ताकि बहु-बेटों को कोई समस्या न हो।

वे सबके लिए सुविधाएँ जुटाते हैं, लेकिन खुद उन सुविधाओं का हिस्सा कभी नहीं बनते हैं। इससे स्पष्ट है, वह अपने परिवार के लिए चिंतित रहते हैं, लेकिन अपनी चिन्ता व्यक्त नहीं करते हैं। वह बच्चों को किसी प्रकार के खर्च़ से नहीं रोकते हैं, लेकिन खुद ऐसा खर्च नहीं करना चाहते जो उनकी नज़र में अनावश्यक खर्च है।

बच्चे भी पिता की चिंता करते हैं, लेकिन पिता के अनावश्यक डाँटने के कारण अपनी चिंताओं को व्यक्त नहीं करते हैं। सुधीर इस सोच में नहीं सो पा रहा है, कि पिता को परेशानी हो रही है, वे नहीं सो रहे हैं। लेकिन उसकी इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपने पिता को अन्दर बुला सके।

साहित्य समाज का दर्पण होता है, भारत में सम्भवत: ऐसे कई परिवार होंगे जहाँ पिता-पुत्र एक दूसरे के लिए चिन्ता या प्रेम प्रत्यक्ष रूप में व्यक्त नहीं कर पाते होंगे।

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