study material : प्रेमघन की छाया स्मृति का सारांश व समीक्षा | Summary and Review of Premghan kee chhaaya smrti
प्रेमघन की छाया स्मृति का परिचय (Introduction)
कहानी के पात्र
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल — लेखक, जिनकी यादों से यह संस्मरण लिखा गया है।
उपाध्याय बद्रीनाथ चौधरी (प्रेमघन) — हिंदी के वरिष्ठ कवि, जिनसे लेखक की मित्रता और संपर्क हुआ।
केदारनाथ पाठक — पुस्तकालय के संस्थापक, जिनसे लेखक की गहरी मित्रता हुई।
भारतेंदु मंडल के अन्य कवि — जैसे काशी प्रसाद जायसवाल, भगवान दास हलना, पंडित उमाशंकर द्विवेदी, आदि, जो लेखक के साहित्यिक समूह के सदस्य थे।
लेखक के पिता — फारसी के ज्ञाता और हिंदी को प्रेम करने वाले, जिन्होंने लेखक के साहित्य प्रेम को प्रारंभिक प्रेरणा दी।
लेखक की मित्र मंडली — हिंदी प्रेमी कवि और विद्यार्थी, जिनका नाम “निसंदेह मंडली” पड़ा।
“प्रेमघन की छाया स्मृति” आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखा गया एक संस्मरणात्मक निबंध है। इसमें लेखक ने अपने बचपन से हिंदी साहित्य के प्रति अपने प्रेम तथा साहित्यिक माहौल के बारे में बताया है। लेखक के पिता की साहित्यिक रुचि और मित्र मंडली का आधिकारिक नाम “निसंदेह मंडली” की चर्चा है, जो शुद्ध हिंदी बोलने वाली मंडली थी। मिर्जापुर में प्रेमघन से पहली भेंट और उनकी विशेषताओं का विवेचन है। साथ ही भारतेंदु मंडल और उनके साहित्य से लेखक की रुचि और मित्रता का इतिहास भी बताया गया है।
प्रेमघन की छाया स्मृति का विस्तृत सारांश (Summary of Premghan kee chhaaya smrti)
“प्रेमघन की छाया स्मृति” आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखा गया एक संस्मरणात्मक निबंध है, जिसमें लेखक ने अपने बचपन से हिंदी साहित्य के प्रति बढ़ते प्रेम और साहित्यिक वातावरण का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। यह संस्मरण एक ऐसे काल की झलक देता है, जब हिंदी साहित्य की नवोदयी प्रगति हो रही थी और उसके प्रमुख कवि-पाठक साहित्य के प्रति गहरी लगन और समर्पण दिखा रहे थे।
लेखक ने अपने पिता की विशेषताओं के साथ विषय की शुरुआत की है। उनके पिता फारसी भाषा के अच्छे विद्वान और प्राचीन हिंदी भाषा के प्रेमी थे, जो परिवार में हिंदी साहित्य का वह वातावरण बनाते थे, जिसमें रामचरितमानस और रामचंद्रिका का वाचन होता था। पिता के सान्निध्य में साहित्यिक रुचि और प्रेम ने लेखक के मन में साहित्य के प्रति प्रेम के बीज बोए।
मिर्जापुर में उनके पिता के तबादले के पश्चात लेखक की मित्र मंडली बनती है, जिसमें सभी हिंदी प्रेमी युवा कवि और विद्यार्थी थे। यह मंडली “निसंदेह मंडली” के नाम से प्रसिद्ध हुई क्योंकि उनके संवादों में शुद्ध हिंदी के शब्द जैसे “निसंदेह” का बार-बार प्रयोग होता था, जो आस-पास के उर्दू भाषी लोग अजीब समझते थे। यह मंडली हिंदी भाषा के प्रति गहन समर्पण का प्रतीक थी।
लेखक की पहली मुलाकात उपाध्याय बद्रीनाथ चौधरी से हुई, जो प्रेमघन के नाम से विख्यात थे। प्रेमघन एक वरिष्ठ, अनुभवी और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी कवि थे, जिनकी भाषा पर पकड़, हास्य, और सामाजिक व्यवहार ने लेखक को बहुत प्रभावित किया। चौधरी साहब की मेहमाननवाजी और उत्सवों का विवरण भी संस्मरण में है, जो उनकी एक रईस और सामाजिक व्यक्तित्व को दर्शाता है।
लेखक अपनी मित्रता भारतेंदु मंडल के अन्य प्रमुख कवियों के साथ भी बताते हैं, जिनमें केदारनाथ पाठक का विशेष स्थान है। पाठक जी के नेतृत्व में हिंदी साहित्य का प्रचार-प्रसार होता था, जिससे लेखक की साहित्यिक रूचि और भी बढ़ी।
संस्मरण में लेखक ने अपने हिंदी साहित्य के प्रति झुकाव के विकास को भी विस्तार से बताया है। परिवार की प्रेरणा, मित्र मंडली का प्रभाव, साहित्यिक पुस्तकालयों का सान्निध्य, और प्रतिष्ठित कवियों से मुलाकात ने लेखक के मन में हिंदी साहित्य के प्रति गहरा आकर्षण उत्पन्न किया।
समग्र रूप से, यह संस्मरण हिंदी साहित्य के प्रेमियों की एक साहित्यिक मंडली की कहानी है, जिसमें भाषा, संस्कृति, मित्रता, और साहित्य के प्रति समर्पण की भावना उजागर होती है। यह आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी की हिंदी प्रेम यात्रा को भी दर्शाता है, जो बाद में हिंदी साहित्य के इतिहासकार और आलोचक के रूप में विख्यात हुए।
यह निबंध विद्यार्थियों व साहित्य प्रेमियों को हिंदी साहित्य के इतिहास एवं सांस्कृतिक संदर्भ की जानकारी देता है और प्रेमघन जैसे कवि की छवि को जीवंत करता है, जो हिंदी साहित्य की समृद्ध परंपरा के प्रमुख स्तंभ रहे हैं।
प्रेमघन की छाया स्मृति की समीक्षा (Review of Premghan kee chhaaya smrti)
“प्रेमघन की छाया स्मृति” एक उत्कृष्ट संस्मरण है जो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बचपन, उनकी साहित्यिक यात्रा और हिंदी साहित्य के प्रति उनके प्रेम की गहरी झलक प्रस्तुत करता है। यह निबंध हिंदी साहित्य के उस कालखंड को जीवंत करता है जब भाषा और साहित्य के प्रति युवाओं में उत्साह और समर्पण प्रबल था।
संस्मरण की सबसे बड़ी खासियत इसकी भाषा और शैली की सरलता है, जिससे यह न केवल विद्यार्थियों के लिए समझने में आसान है, बल्कि साहित्य प्रेमियों के लिए भी बहुत रोचक बन जाता है। लेखक ने अपनी व्यक्तिगत यादों को एक सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ में पिरोया है, जो पाठक को उस समय की परिस्थितियों, भाषा के प्रयोग, और साहित्यिक मंडलियों के उत्साह से परिचित कराता है।
प्रेमघन जैसे वरिष्ठ कवि की छवि को लेखक ने प्रभावी ढंग से उकेरा है, जो हिंदी साहित्य के प्रति लगन और सजगता का प्रतीक हैं। चौधरी साहब के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं जैसे उनकी वक्तव्य क्षमता, हास्यप्रद स्वभाव, और सामाजिक प्रतिष्ठा का विवेचन संस्मरण को जीवंत बनाता है।
साथ ही, “निसंदेह मंडली” और भारतेंदु मंडल के कवियों का उल्लेख संस्मरण को सामाजिक और साहित्यिक आयाम देता है। यह पाठक को हिंदी भाषा और साहित्य के संरक्षण और प्रचार के शुरुआती प्रयासों से परिचित कराता है, जिसमें परिवार, मित्र मंडली, और पुस्तकालयों की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
समीक्षा में यह भी कहा जा सकता है कि लेखक ने अपनी भावनात्मक अनुभूतियों को बगैर अतिशयोक्ति के सजगता से व्यक्त किया है, जिससे यह पाठ एक इतिहास के साथ-साथ सांस्कृतिक दस्तावेज़ का भी रूप लेता है। यह संस्मरण हिंदी साहित्य के इतिहास के अध्ययन के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत है, जो रामचन्द्र शुक्ल जी के व्यक्तित्व के साथ-साथ हिंदी साहित्य की पारंपरिक विरासत को भी संजोता है।
कुल मिलाकर, “प्रेमघन की छाया स्मृति” न केवल एक व्यक्तिगत संस्मरण है, बल्कि हिंदी साहित्य की समृद्ध परंपरा और उसकी सांस्कृतिक धारा को समझने के लिए अनमोल योगदान है। इसकी पठनीयता, सूचनात्मकता और भावनात्मक प्रगाढ़ता इसे एक यादगार और प्रेरणादायक दस्तावेज बनाती है।
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