Study Material : माटी की मूरतें श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी रेखाचित्र रजिया | Maati Ki Muratein Rekhachitra Rajiya | घटना संवाद और सारांश | Ghatna Samvaad aur Saaraansh
महत्वपूर्ण कथन या तथ्य (Important statements or facts)
माटी की मूरतें का प्रकाशन 1946 में हुआ था। दूसरा संस्करण 1953 में हुआ था। इसमें 12 रेखाचित्र हैं, नवीन संस्करण में ‘रजिया’ नाम का रेखाचित्र जोड़ा गया था
आदि से अंत तक सचित्र भी कर दिया गया है।
यह रेखाचित्र मामा द्वारिका सिंह जी को समर्पित किया गया है।
ये माटी की मूरतें (शब्द चित्र) | Maati Ki Muratein (Shabd Chitra)
बड़ या पीपल के पेड़ के नीचे, चबूतरे पर कुछ मूरतें रखी हैं—माटी की मूरतें।
न इनमें कोई खूबसूरती है, न रंगीनी। बौद्ध या ग्रीक रोमन मूर्तियों के हम शैदाई (प्रेमी) माटी की मूरतें में दिलचस्पी न लें, तो अचरज की कौन सी बात?
किन्तु इन कुरूप, बदशकल मूरतों में भी एक चीज है, शायद उस ओर हमारा ध्यान नहीं गया, वह है ज़िंदगी। ये माटी की बनी हैं, माटी पर धरी हैं, इसलिए ज़िंदगी के नज़दीक हैं, ज़िंदगी से सराबोर हैं। ये देखती हैं, सुनती हैं, खुश होती हैं, आशीर्वाद देती हैं।
ये मूरतें आसमानी देवता या अवतारी की नहीं होती हैं। गाँव के ही किसी साधारण व्यक्ति की होती हैं।
ये मूरतें खुश होती हैं, – संतान मिली, अच्छी फसल मिली, यात्रा में सुख मिला, मुकदमें में जीत मिली। और इनकी नाराज़गी—बीमार पड़ गए, महामारी फैली, फसल पर ओले गिरे, घर में आग लग गई। ये ज़िंदगी के नज़दीक ही नहीं हैं, ज़िन्दगी मे समाई हुई हैं।
हजारीबाग सेंट्रल जेल के एकांत जीवन में अचानक मेरे गाँव और मेरे ननिहाल के कुछ ऐसे लोगों की मूरतें मेरी आँखों के सामने आकर नाचने और मेरी कलम से चित्रण की याचना करने लगीं। जेल में रहने के कारण बैजू मामा भी इनकी पांत में आ बैठे और अपनी मूरत मुझसे गढ़वा ही ली।
ये कहानियाँ नहीं, जीवनियाँ हैं। चलते-फिरते आदमियों के शब्दचित्र हैं।
कला का काम जीवन को छिपाना नहीं, उसे उभारना है। कला वह, जिसे पाकर जिंदगी निखर उठे, चमक उठे। डरता था, सोने-चाँदी के इस युग में मेरी ये ‘माटी की मूरतें’ कैसे पूजा पाती हैं।
यह मेरी कलम या कला की करामात नहीं, मानवता और मन में मिट्टी के प्रति जो स्वाभाविक स्नेह है, उसका परिणाम है।
दिवाली 1946
श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी
रेखाचित्र का क्रम
1. रजिया, 2. बलदेव सिंह, 3. सरजू भैया, 4. मंगर, 5. रूपा की आजी, 6. देव, 7. बालगोविन भगत, 8. भौजी, 9. परमेसर, 10. बैजू मामा, 11. सुभान खां, 12. बुधिया।
रजिया रेखाचित्र का संक्षिप्त सारांश (Brief summary of Rajiya sketch)
कभी-कभी जीवन में ऐसे लोगों से मुलाकात होती है, जिनसे हम मनोवैज्ञानिक रूप से जुड़ाव महसूस करते हैं, कहीं-न-कहीं उन्हें अपना भी मानते हैं, लेकिन सामाजिक रूप से न तो हम उन्हें अपना कह सकते हैं, न वह हमें अपना कह पाते हैं। यह रिश्ते मनोवैज्ञानिक से सामाजिक तक का सफ़र नहीं तय कर पाते।
आज हम ऐसे ही रेखाचित्र की बात कर रहे हैं, जिसका नाम है—रजिया।
लेखक अपने माता-पिता की एकलौती संतान है, माता के स्वर्गवास के बाद लेखक अपनी मौसी के साथ रहता है। एक दिन रजिया की माँ चूड़िहारिन है, जब लेखक और रजिया छोटे थे एक दिन वह रजिया की माँ मज़ाक करते हुए कहती है, लेखक से की क्या वह रजिया से शादी करेंगे?
वह मज़ाक की बात लेखक और रजिया दोनों के मन में कहीं बैठ जाती है। दोनों ही भवनात्मक रूप से एक-दूसरे के प्रति लगाव महसूस करते हैं लेकिन व्यक्त कभी नहीं करते। जिसका पता छोटी-छोटी घटनाओं से लगता है। लेखक की शादी रानी से और रजिया की शादी हसन से हो जाती है। ज़िंदगी के अंतिम क्षणों में रजिया लेखक को देखकर खुद को ज़िन्दा और सकारात्मक महसूस करती है।
रजिया रेखाचित्र का घटना व संवाद (Incidents and dialogues of Rajiya sketch)
रजिया छोटी सी लड़की, काली साड़ी का छोर गले में लपेटे हुए वर्णन।
ठेठ हिंदुओ की बस्ती है, मेरी और मुझे मेले-पेठिए में भी अधिक नहीं जाने दिया जाता। क्योंकि बचपन में मैं एक मेले में खो गया था।
मैं बाप-माँ का एकलौता-माँ चल बसी थीं। इसलिए उनकी इस एकमात्र धरोहर को मौसी आँखों में जुगोकर रखतीं।
अर्थात लेखक अपनी मौसी के यहाँ रहता था, रजिया लेखक के मौसी के गाँव की पात्र है।
लेखक रजिया की माँ को चूडियों की खँचिया लेकर आते देखता आया था।
लेखक रजिया ने रजिया से कई प्रश्न पूछे, जिसका उत्तर उसने न में ही दिया था। छठ का व्रत और ठेकुआ के बारे में भी पूछा।
रजिया की माँ ने मज़ाक में लेखक से कहा—बबुआजी, रजिया से ब्याह कीजिएगा?
रजिया, चूड़ीहारिन।
एक बार रजिया और लेखक बात कर रहे थे, तो लेखक की भौजी ने कहा—देखियो री रजिया, बबुआजी को फुसला नहीं लीजियो। वह उनकी ओर देखकर हँस तो पड़ी, किंतु लेखक ने पाया, उसके दोनों गाल लाल हो गए हैं और उन नीली आँखों के कोनो लेखक को सजल-से लगे।
लेखक सोचता है, जब रजिया चूड़ी पहनाती होगी तो बहनो के प्रति भ्रातृभाव या रजिया के प्रति अज्ञात आकर्षण उन्हें खींच लाता है? पतिदेव दूर खड़े कनखियों से देखते रहते हैं-
रज़िया भी जिसे चूड़ी पहनाती है, उनसे मज़ाक करती है। धीरे-धीरे वह अपने पेशें में निपुर्ण हो जाती है।
चूड़ीहारिन का पेशा चूड़ियों के साथ चूड़ीहारिनों में बनाव-श्रृंगार, रूप-रंग, नाज़ोअदा भी खोजता है, जो चूड़ी पहननेवालियों को ही नहीं, उनको भी मोह सके, जिनकी जेब से चूडियों के लिए पैसे निकलते हैं। सफल चूड़ीहारिन रजिया की माँ भी किसी ज़माने में क्या कुछ कम रही होगी? खँडहर कहता है, इमारत शानदार थी।
कुछ समय बाद लेखक जब शहर से गाँव गया तो पाया रजिया के साथ एक पुरूष भी चूड़ियाँ लेकर चलता है, पूछने पर रजिया ने बताया—यह मेरा खाबिंद है, मालिक!
जिस दिन लेखक किसी का खाबिंद अर्थात पति बना तो उस दिन उसकी पत्नी को चूड़ियाँ पहनाने भी रजिया ही आई थी।
उसके बहुत दिनों बाद लेखक रजिया से अचनाक पटना में मिला था। पीपल के पेड़ के नीचे रज़िया मिलती है।
जब लेखक ने उसके पटना में होने का कारण पूछा तो रजिया कहती है- सौदा-सुलफ करने आई हूँ, मालिक! अब तो नए किस्म के लोग हो गए न? अब लाख की चूडियाँ कहाँ किसी को भाती हैं। नए लोग, नई चूडियाँ। साज-सिंगार की कुछ और चीजें भी ले जाती हूँ—पौडर, किलप, क्या-क्या चीजें हैं न। नया ज़माना, दुलहनों के नए-नए मिजाज!
रजिया ने इस मुलाकात में लेखक से बताया कि— “दुनिया बदल गई है। एब तो ऐसे भी गाँव हैं, जहाँ के हिंदू मुसलमानों के हाथ से सौदे भी नहीं खरीदते। अब हिंदू चूड़ीहारिनें हैं, हिंदू दर्जीं हैं। इसलिए रजिया जैसे खानदानी पेशेवालों को बड़ी दिक्कत हो गई है”। किन्तु लेखक रजिया के गाँव में यह पागलपन नहीं है, और लेखक की पत्नी रजिया के हाथ से चूडियाँ लेती है।
हसन भी रजिया के साथ आया था, जब रजिया ने लेखक के घर का पता पूछा तो लेखक असहज हो गया, तब रजिया यह पति से लिपटते हुए कहती है- इसके साथ आऊँगी।
हसन का कथन – पगली, पगली, यह शहर है, शहर! यों हसन ने हँसते हुए बाँहें छुड़ाई और बोला, “बाबू बाल-बच्चोंवाली हो गई, किन्तु इसका बचपना नहीं गया’।
कई सालों बाद अचनाक लेखक चुनाव के कारण रजिया के गाँव पहुँच जाता है। लेखक वहाँ नेता बनकर गया था इसलिए रजिया और उसके पति के बारे में पूछने पर उसे शर्म आ रही थी।
इसी दौरान अचानक रजिया की पोती लेखक के पास आती है जो बिल्कुल रजिया जैसी लगती है। चालीस-पैंतालीस साल पहले रजिया ऐसी लगती थी। रजिया की पोती लेखक को अपने घर ले जाती है। रजिया इन दिनों बीमार है।
रजिया के पति हसन की मृत्यू हो गई है। रजिया के तीन बेटे हैं- बड़ा बेटा कलकत्ता कमाता है, मँझला पुश्तैनी पेशें में लगा है, छोटा शहर में पढ़ रहा है।
रजिया जो बहुत बीमार है, लेखक को सलाम कहते ही उसका चेहरा अचानक बिजली के बल्ब की तरह चमक उठा और चमक उठीं वे नीली आँखें, जो कोटरों में धँस गई थीं! अरे चमक उठी हैं आज फिर वे चाँदी की बालियाँ और देखो, अपने को पवित्र कर लो। उसके चेहरे पर फिर अचानक लटककर चमक रही हैं वे लटें, जिन्हें समय ने धो-पोंछकर शुभ्र-श्वेत बना दिया है।
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