Study Material : माटी की मूरतें खाचित्र बालगोबिन भगत Maati Ki Muratein Rekhachitra Baal Govind Bhagat

Study Material : माटी की मूरतें खाचित्र बालगोबिन भगत Maati Ki Muratein Rekhachitra Baal Govind Bhagat

महत्वपूर्ण कथन या तथ्य (Important statements or facts)

माटी की मूरतें का प्रकाशन 1946 में हुआ था। दूसरा संस्करण 1953 में हुआ था। इसमें 12 रेखाचित्र हैं, नवीन संस्करण में ‘रजिया’ नाम का रेखाचित्र जोड़ा गया था

1. रजिया, 2. बलदेव सिंह, 3. सरजू भैया, 4. मंगर, 5. रूपा की आजी, 6. देव, 7. बालगोविन भगत, 8. भौजी, 9. परमेसर, 10. बैजू मामा, 11. सुभान खां, 12. बुधिया।

आदि से अंत तक सचित्र भी कर दिया गया है।

यह रेखाचित्र मामा द्वारिका सिंह जी को समर्पित किया गया है।

बालगोबिन भगत का परिचय (Introduction to Balgobin Bhagat)

पत्नी की मृत्यू के बाद पति का दूसरा विवाह स्वाभाविक है, इसके लिए समाज और परिवार दोनों प्रयास करता है। लेकिन पति की मृत्यू के बाद ऐसा होना सरल नहीं होता, इसके लिए न तो मायके वाले अधिक प्रयास करते न ही ससुराल वाले।

इस स्थिति में जब ससुर बहू का दूसरा विवाह करवाना चाहे तो यह आश्चर्य की बात है।

हम ऐसी ही रेखाचित्र की बात कर रहे हैं, जिसका नाम है— बालगोविन भगत। बालगोबिन भगत लेखक के गाँव का एक तेली है, जिसने अपने बेटे की मृत्यू के बाद अपनी बहू का विवाह उसके भविष्य को देखते हुए करने की बात की। उसके भाई को बुलाकर दूसरा विवाह करने के लिए उसके साथ भेज दिया।

बालगोबिन भगत घटना व संवाद (Balgobin Bhagat incidents and dialogues)

न जाने वह कौन सी प्रेरणा थी, जिसने मेरे ब्राहमण का गर्वोन्नत सिर उस तेली के निकट झुका दिया था।

ऊपर की तसवीर से यह नहीं माना जाए कि बालगोबिन भगत साधु थे। नहीं, बुलकुल गृहस्थ। उसकी गृहणी की तो मुझे याद नहीं, उनके बेटे और पतोहू का तो मैने देखा था। थोड़ी खेतीबारी भी थी, एक अच्छा साफ-सुथरा मकान भी था।

किंतु खेतीबारी करते, परिवार रखते भी बालगोबिन भगत साधु थे। साधु की सब परिभाषाओं में खरे उतरनेवाले। कबीर को ‘साहब’ मानते थे। उन्हीं के गीतों को गाते, उन्हीं के आदेशों पर चलते। कभी झूठ नहीं बोलते, खरा व्यवहार रखते।

जो कुछ खेत में पैदा होता, सिर पर लादकर पहले उसे ‘साहब के दरबार’ में ले जाते, जो उनके घर से चार कोस दूर पर था—एक कबीरपंथी मठ से मतलब! वह दरबार में ‘भेंट’ रूप रख लिया जाकर ‘प्रसाद’ रूप में जो उन्हें मिलता, उसे घर लाते औऱ उसी से गुजारा चलाते।

असाढ़ की रिमझिम है। समूचा गाँव खेतों में उतर पड़ा है। कहीं हल चल रहे हैं, कहीं रोपनी हो रही है।

भादों की वह अँधेरी अधरतिया। अभी, थोड़ी ही देर पहले मूसलधार वर्षा खत्म हुई ह। बादलों की गरज, बिजली की तड़प में आपने कुछ नहीं सुना हो, किंतु अब झिल्ली की झंकार या या दादुरों की टर्र-टर्र बालगोबिन भगत के संगीत को अपने कोलाहल में डुबो नहीं सकतीं। उनकी खँजड़ी डिमक-डिमक बज रही है और वे गा रहे हैं—“गोदी में पियवा, चमक उठे सखिया, चिहुँक उठे न”!

अरे, जब सारा संसार निस्तब्धता में सोया है, बालगोबिन भगत का संगीत जाग रहा है, जगा रहा है। “तेरी गठरी में लगा चोर मुसाफिर जाग जरा”।

कातिक आया नहीं कि बालगोबिन भगत की प्रभातियाँ शुरू हुई, जो फागुन तक चला करतीं। इन दिनों वह सवेरे ही उठते। न जाने किस वक्त जगकर वह नदी-स्नान को जाते—गाँ से दो मील दूर।

गरमियों में उनकी संझा कितनी ही उमस भरी शाम को न शीतल करती। अपने घर के आँगन में आसन जमा बैठते। खँज़डियाँ और करतालों की भरमार हो जाती।

बालगोबिन भगत की संगीत-साधना का चरम उत्कर्ष उसदिन देखा गया, जिस दिन उनका बेटा मरा। इकलौता बेटा था वह। कुछ सुस्त और बोदा-सा था; किन्तु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ में, ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नज़र रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए; क्योंकि ये निगरानी और मुहब्बत के ज्यादा हकदार होते हैं।

पतोहू रो रही है, जिसे गाँव की स्त्रियाँ चुप कराने की कोशिश कर रही हैं। किंतु, बालगोबिन भगत गाए जा रहे हैं। हा, गाते-गाते कभी-कभी पतोहू के नजदीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते—“आत्मा परमात्मा के पास चली गई, विरहिणी अपने प्रेमी से जा मिली, भला इससे बढ़कर आनंद की कौन बात?” मैं कभी-कभी सोचता, यह पागल तो नहीं हो गए। किंतु नहीं, वह जो कुछ कह रहे थे, उसमें उनका विश्वास बोल रहा था—वह चरम विश्वास, जो हमेशा ही मृत्यु पर विजयी होता आया है।

बेटे के क्रिया-कर्म में तूल नहीं किया, पतोहू से ही आग दिलाई उसकी। किंतु ज्यों ही श्राद्ध की अवधि पूरी हो गई, पतोहू के भाई को बुलाकर उसके साथ कर दिया, यह आदेश देते हुए कि इसकी शादी कर देना। उनकी जाति में पुनर्विवाह कोई नई बात नहीं, किन्तु पतोहू का आग्रह था कि वह यहीं रहकर भगतजी की सेवा-बंदगी में अपने वैधव्य के दिन गुजार देगी। लेकिन भगतजी का कहना था—नहीं, यह अभी जवान है। वासनाओं पर बरबस काबू रखने की उम्र नहीं है इसकी। मन मतंग है, कहीं इसने गलती से नीच-ऊँच में पैर रख दिए तो? नहीं-नहीं, तू जा! तू जा, नहीं तो मैं ही इस घर को छोड़कर चल दूँगा”— यह थी उनकी आखिरी दलील और इस दलील के आगे बेचारी की क्या चलती?

बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के अनुरूप हुई। गंगास्नान करके इस बार लौटे तो तबीयत कुछ सुस्त थी। खाने-पीने के बाद भी तबीयत नहीं सुधरी, थोड़ा बुखार आने लगा। किन्तु नेम-व्रत तो छोड़नेवाले नहीं थे। दोनों जून गीत, स्नान-ध्यान, खेतीबारी देखना। उस दिन भी संध्या में गीत गाए; किन्तु मालूम होता है जैसे तागा टूट गया हो; माला का एक-एक दाना बिखरा हुआ! भोर में लोगों ने गीत नहीं सुना; जाकर देखा तो बालगोबिन भगत नहीं रहे, सिर्फ उनका पंजर पड़ा है।


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