Study Material :  आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ का घटना संवाद व सारांश | summary of the Autobiography ‘Ek Kahani Yeh Bhi’

Study Material :  NET JRF Hindi आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ का घटना संवाद व सारांश | summary of the Autobiography ‘Ek Kahani Yeh Bhi’

एक कहानी यह भी का परिचय (Introduction Ek Kahani Yeh Bhi)

जब भी हम किसी की सफलता देखते हैं, तो यह अंदाज़ा भी नहीं लगाते कि यहाँ तक पहुँचने के लिए सामने वाले व्यक्ति ने कितना जतन किया होगा या क्या कुछ सहा होगा। सम्भव है, हमारे सामने सफ़ल व्यक्ति का वही हिस्सा है, जो चमक रहा है, जिस पर रोशनी है, लेकिन दूसरा पक्ष वह भी है, जिस पर रोशनी नहीं पड़ रही। जो श्वेत होने के बजाय स्याह है।

इसी बात को हिन्दी साहित्य की लेखिका मन्नू भण्डारी कहती हैं—

लेखिका कहती हैं- लेखक भी आखिर है तो मनुष्य ही और यदि उसकी ज़िन्दगी का श्वेत पक्ष औरों की अपेक्षा अधिक प्रबल है तो उसका श्याम पक्ष भी तो उतना ही प्रबल हो सकता है-होता है।

आज हम मन्नू भण्डारी की आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ के सारांश को जानेंगे। जिसमें उन्होंने अपने साहित्यिक सफ़र और इस सफ़र में राजेन्द्र यादव की भूमिका के बारे में बताया है। राजेन्द्र यादव एक लेखक की भूमिका में तो सफ़ल रहे, लेकिन पति और पिता के किरदार में खुद को सफ़ल नहीं बना सकें। अपनी आत्मकथा के अंत में पूरक प्रसंग में लेखिका ने अपने पति राजेन्द्र की प्रेमिका का ज़िक्र करते हुए, अपनी वैवाहिक स्थिति पर प्रकाश डाला है। जिसे उन्होंने अपनी आत्मकथा में पहले नहीं लिखा था, लेकिन राजेन्द्र यादव जी की आत्मकथा के उत्तर में वह प्रसंग लिखा है।

‘एक कहानी यह भी’ घटना संवाद व सारांश (‘Ek Kahani Yeh Bhi’ – Event, Dialogue and Summary)

इस आत्मकथा की भूमिका मन्नू भण्डारी स्पष्टीकरण शीर्षक से लिखती हैं।

लेखिका कहती हैं हर कथाकार अपनी रचनाओं में भी दूसरों के बहाने से कहीं न कहीं अपनी ज़िन्दगी के, अपने अनुभव के टुकडे ही तो बिखेरता रहता है।

इस रचना में उन्हें कल्पना की उडान भरने की छूट नहीं मिली क्योंकि यह उनकी साहित्यिक आत्मकथा है।

वे कहती हैं यहाँ न किसी के साथ तादात्मय स्थापित करने की अपेक्षा थी, न सम्भावना। यह शुद्ध मेरी ही कहानी है और इसे मेरा ही रहना था, इसलिए न कुछ बदलने-बढ़ाने की आश्यकता थी।

दूसरे शब्दों में कहूँ तो जो कुछ मैंने देखा, जाना, अनुभव किया, शब्दश उसी का लेखआ-जोखा है यह कहानी।

वे कहती हैं- एक बात अच्छी तरह स्पष्च कर देना चाहती हूँ कि यह मेरी आत्मकथा क़तई नहीं है, इसलिए मैंने इसका शीर्षक भी ‘एक कहानी यह भी ही रखा’। यह भी मरी ज़िन्दगी का एक टुकड़ा मात्र ही है, जो मुख्यत: मेरे लेखन और मेरी लेखकीय यात्रा पर केन्द्रित है।

कहती हैं, वे जो भी हैं, जैसी भी हैं उसका बहुत-सा अंश विरासत के रूप में शायद मुझे पिता से ही मिला है।

लेखिका कहती हैं—निश्छल स्नेह और सहयोग से जिन्होंने जीवन के प्रति मेरी आस्था को बढ़ाया उन्हें मैं भूल सकती हूँ, क्या इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेरा अस्तित्व ही इन साहित्यिक, साहित्येतर मित्रों पर ही टिका हुआ है। उसके बावजूद मैंने इनमें से किसी का भी व्यक्तित्व-विश्लेषण नहीं किया।

यों भी एक लेखक की यात्रा होती ही क्या है? बस, उसकी दृष्टि परिवार के छोटे-से दायरे से निकलकर धीरे-धीरे अपने आसपास के परिवेश को समेटते हुए समाज ओर देश तक फैलती चलती है।

इस आत्मकथा के अंत में लेखिका ने ‘पूरक प्रसंग’ नाम से  अपने जीवन के स्याह पक्ष को लिखा है, जिसे पहले तदभव पत्रिका में प्रकाशित करवाया था।

लेखिका कहती हैं—मेरा और राजेन्द्र का सम्बन्ध जितना निजता और अन्तरंगता के दायरे में आता है, उससे कहीं अधिक लेखन के दायरे में आता है। लेखन के कारण ही हमने विवाह किया था…हम पति-पत्नी बने थे”। उन्हें लगता था विवाह के बाद लेखन के लिए तो जैसे राजमार्ग खउल जाएगा।

लेखन एक अनवरत यात्रा-जिसका न कोई अन्त है, न मंज़िल। बस निरन्तर “चलते चले जाना ही जिसकी अनिवार्यता है, शायद नियति भी।

लेखिका ने जैसा सोचा था, वैसा नहीं हुआ शादी के बाद बेटी और घर की पूरी ज़िम्मेदारी उनके ऊपर थी। घर चलाने के लिए नौकरी की ज़िम्मेदारी भी उन पर ही थी। यह सारी ज़िम्मेदारी निभाते हुए उन्होंने लेखन का समय निकाला, अपनी ज़िम्मेदारियों की कीमत पर कभी नहीं लिखा, क्योंकि उन्हें अपने पति का सहयोग ज़िम्मेदारियों को निभाने में कभी नहीं मिला।

लेखिका महसूस करती हैं कि— क़लम और शब्द के साथ रिश्ता टूटते चले जाने की प्रक्रिया में कैसे ज़िन्दगी के साथ भी मेरा रिशअता टूटता चला गया- कैसे मैं सबसे कटी-छंटी अपने में ही सिमटती-सिकुड़ती चली गई।

कुछ समय के लिए लेखिक उज्जैन भी चली गईं थीं। वहाँ एक दिन गमले में पौधे की सभी पत्तियों के झडने के बाद बची-कुची पत्तियाँ जब माली झाड़ देता है, तो लेखिका प्रश्न करती हैं- माली उत्तर देता है— “इन पत्तियों को तो अब झड़ना ही होगा, इनसे मोह रखकर अब काम नहीं चलेगा, क्योंकि ये अब जान नहीं देनेवाली इस पौधे को… अब तो जड़ को देखना होगा”  इस वाक्य ने लेखिका के मन में अपनी जगह बना ली थी, वे सोचती हैं क्या अपने को पुनर्जीवित करने के लिए मैं भी अपनी जड़ों की ओर लौटूं, सारे सड़े-गले रेशों को उखाड़कर, उन रेशों को देखू-परखू, सहेजूं-सँवारूँ, जिनकी जीवनी शक्ति ही मुझे यहाँ तक लाई?

 आगे बढ़ने के लिए पीछे मुड़कर देखना सहायक ही नहीं, कभी-कभी अनिवार्य भी नहीं हो जाता?

लेखिका का जन्म 1931 में मध्यप्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ था, लेकिन यादों का सिलसिला अजमेर के ब्रहमपुरी मोहल्ले से शुरू होता है।

लेखिका अपनी माँ को बेपढ़ी-लिखी व्यक्तित्वहीन कहती हैं क्योंकि मां-सवेरे से शाम तक सबकी इच्छाओं और पिताजी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं। अर्थात लेखिका की माँ का अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं था।

लेखिका के पिता पहले इन्दौर में थे, वे कांग्रेस के साथ-साथ समाज-सुधार के कामों से भी जुड़े थे। एक बहुत बड़े आर्थिक झटके के कारण इदौर से अजमेर आ गए थे।

लेखिका आपस में पाँच बहन-भाई थे। जिनमें से चार कि शादियाँ लेखिका के पिता ने ही की थीं।

लेखिका कहती हैं- हम लोग जैन हैं पर पिताजी आर्यसमाजियों के बीच दीक्षित हुए थे, इसलिए हम लोगों ने कभी जैनियों जैसे व्रत-उपवास नहीं किए। यहाँ तक कि संवत्सरी के दिन भी नहीं। मन्दिर या मुनि-आचार्यों के व्याख्यान सुनने उपाश्रय नहीं गए।

एक बार लेखिका के घर में साध्वियाँ आईं जिनसे मिलने लेखिका के पिता नहीं गए तो लेखिका को जाकर बैठना पड़ा। जैन दर्शन पर उनकी अच्छी पकड़ थी, लेखिका ने अपनी नज़र में उनके आडम्बरों पर इतनी बहस की कि वहाँ एकत्रित लोग भैंचक होकर देकते ही रह गए। क्योंकि मारवाड़ी परिवार लड़की की जात और ये तेवर…ये हौसला। मर्दों के बीच बैठकर साध्वियों से बहस। लेखिका कहती हैं, बहस करने की फ़ितरत तो घुट्टी में मिली थी हमें।

लेखिका के यहाँ आर्यसमाजियों वाले हवन-यज्ञ या मन्त्रोच्चार भी कभी नहीं हुए। लेखिका के पिता ने उनका समाज-सुधारवाला पक्ष ही अपनाया था।

पड़ोसियों की देखादेखी लेखिका का परिवार जन्माष्टमी की झाँकी ज़रूर सजाता था, त्यौहारों में केवल दीवाली मानाते थे।

गोर रंग लेखिका के पिता की कमज़ोरी थी, लोखिका सांवली और दुबली पतली थी इसलिए ठीक दो साल बड़ी सुशीला बहन सुशीला से उनकी तुलना की जाती थी, जिस कारण लेखिका के मन में हीनभाव की ग्रन्थि पैदा हो गई जिससे लेखिका इतना मास-सम्मान प्रतिष्ठा पाने के बाद भी नहीं उबर पाई हैं।

लेखिका कहती हैं, होश सँभालने के बाद किसी न किसी बात पर हमेशा उनकी टक्कर उनसे होती रही है, वे तो न जाने कितने रूपों में मुझमें हैं।

वे कहती हैं- समय का प्रवाह भले ही हमें विपरीत दिशाओं में बहाकर ले जाए स्थितियों का दबाव भले ही हमारा रूप बदल दे, हमें पूरी तरह उससे मुक्त तो नहीं कर सकता।

पिता से ठीक विपरीत थी लेखिका की बेपढ़ी-लिखी माँ। धरती से कुछ ज़्यादा ही धैर्य और सहनशक्ति थी शायद उनमें। लेखिका कहती हैं उन्होंने ज़िन्दगी भर अपने लिए कुछ नहीं माँगा नहीं, चाहा नहीं, केवल दिया ही दिया। हम भाई बहन का सारा लगाव माँ के साथ था, लेकिन निहायत असहाय मजबूरी में लिपटा उनका यह त्याग कभी मेरा आदर्श नहीं बन सका…न उनका त्याग, न उनकी सहिष्णुता।

लेखिका पाँच भाई बहिनों में सबसे छोटी थीं, जब उनकी सबसे बड़ी बहन की शादी हुई थी, तब वे केवल सात साल की थीं। अपने से सिर्फ दो साल बड़ी सुशीला के साथ उन्होंने अपना बचपन बिताया और शादी के बाद भी जब राजेन्द्र यादव से सहयोग नहीं मिला तो अपनी बेटी की परवरिश में सुशीला का ही साथ लेखिका को मिला था।

लेखिका को आत्मकथा लिखने के दौरान महसूस होता है कि- अपनी जिन्दगी खुद जीने के इस आधुनिक दबाव ने महानगरों के फ्लैट में रहनेवालों को हमारे इस परम्परागत ‘पड़ोस-कल्चर’ से विच्छिन्न करके हमें कितना संकुचित, असहाय और असुरक्षित बना दिया है।

मेरी कम-से-कम एक दर्जन आरम्भिक कहानियों के पात्र उस मोहल्ले के हैं, जहाँ मैंने अपनी किशोरावस्था गुज़ार अपनी युवावस्था का आरम्भ किया था।

महाभोज में मौजूद दा साहब भी अजमेर के उसी मोहल्ले के किरदार हैं, जिसे महाभोज में लेखिका ने कल्पना के साथ चित्रित किया है।

लेखिका किताबें पढ़ती थी कहानी और उपन्यास।

लेखिका के पिता का निजी पुस्तकालय था, जिसमें कथा-साहित्य की पुस्तकें नहीं होती थीं, सिर्फ शरतचन्द्र और प्रेमचन्द की कुछ किताबें वहाँ मौजूद थीं।

लेखिका को किताब पढ़ने के लिए प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता जीतमलजी लूणिया से मिलती थीं, जो पड़ोस में रहते थे। यह किताबें सामाजिक समस्या या क्रान्तिकारी जीवन पर केन्द्रित होती थीं।

लेखक के रूप में मन्नू भण्डारी केवल शरत और प्रेमचन्द से पहचान हुई अर्थात सिर्फ इनकी किताबें पढ़ी थीं।

उस समय तक मन्नू भण्डारी के परिवार में लड़की के विवाह की अनिवार्य योग्यता सोलह वर्ष और मैट्रिक पास थी।  1944 में सुशीला ने योग्यता प्राप्त की और शादी करके कलकत्ता चली गई।

लेखिका बताती हैं कि- पिताजी का आग्रह रहता था कि मैं रसोई से दूर ही रहूँ। रसोई को वे भटियारखाना कहते थे।

लेखिका के घर में आए दिन राजनीतिक पार्टियों के जमावड़े होते थे, जिसमें कांग्रेस, प्राज सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, आर.एस.एस. के लोग आते थे और जमकर बहसें होती थीं। बहस करना पिताजी का प्रिय शगल था।

लेखिका 1945 में दसवीं पास करके फर्स्ट इयर में आई, हिन्दी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से परिचय हुआ। उन्होंने लेखिका को साहित्य की दुनिया में प्रवेश करवाया। उसके बाद लेखिका ने जैनेन्द्र, अत्रेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा की भी रचनाएँ पढ़ी। जैनेन्द्र का सुनीता उपन्यास बहुत अच्छा लगा और अज्ञेय का शेखर:एक जीवनी पढ़ा जरूर पर उस समय लेखिका की समझ में नहीं आया। ‘नदी के द्वीप’ लेखिका को पसंद आया।

इस सब लेखकों को पढने के बाद मन्नू जी के प्रिय लेखक यशपाल बन गए थे। लेखिका कहती हैं- क्रान्ति की कैसी-कैसी रोमानी भावनाएँ आक्रान्त किए रहती थीं उन दिनो

अपने हाथ खर्च के पैसों से लेखिन ने पहली दो पुस्तकें दादा कॉमरेड और पार्टी कॉमरेड खरीदी थी।

क्रांतिकारी गतिविधियों में भी लेखिका सम्मिलिति होने लगी 1946-47 का यही महौल था, इस बात से नराज़ प्रिंसिपल ने जब लेखिका के पिता को पत्र लिखकर बुलाया तो वे बहुत नराज़ हुए, लेकिन जब प्रिंसिपल ने बताया कि इनके एक इशारे पर क्लास छोड़कर बाहर निकलकर लड़कियाँ नारे लगाने लगती हैं। तो लेखिका के पिता ने गर्व से कहा पूरे देश की पुकार है।

आज़ाद हिन्द फौज के मुकदमे का भी ज़िक्र है।

एक मुसलमान रंगरेज़ था। जो अजमेर में रहता था लेकिन बँटवारे के समय पाकिस्तान चला गया था।  धाई-तीन साल बाद की बात है- रंगरेज की अवाज़ दोबारा सुनाई दी। जब सबने बाबा से पूछा कहाँ चले गए थे, तो रंगरेज़ बाबा फफककर रो पड़े एक ही बात उन्होंने कही थी- “अपनी मिट्टी को छोड़कर कोई रह सकता है क्या…अपनी माँ को छोड़कर कोई रह सकता है क्या?”

शीलाजी के दिल्ली के आई.पी. कॉलेज में चले जाने के बाद लेखिका के लिए अजमेर रहने का कोई आकर्षण नहीं रह गया इसलिए वे कलकत्ता चली गई।

प्राइवेटली, लेखिका ने कलकत्ता से बी.ए. और बनारस से एम.ए किया।

कलकत्ता जाने के बाद पुस्तक पढ़ने का क्रम कोमल कोठारी ने जोड़ा था। उन्होंने ही भक्ति रंग में रंगी मीरा के क्रान्तिकारी रूप को लेखिका के सामने रखा। जल्दी ही कोमल कोठारी कलकत्ता छोड़कर चली गईं।

लेखिका को भाषाविज्ञान और काव्यशास्त्र जैसे ठस और ठोस विषयों में डुबकी लगाना काफ़ी कठिन लग रहा था। 1952 में उन्होंने एम.ए. पास कर लिया।

एम.ए. करते ही बालीगंज शिक्षा सदनवालों ने आग्रह करके स्कूल में हिन्दी पढाने के लिए शिक्षिका के रूप में नियुक्ति कर ली।

पुष्पमयी बोस बालीगंज शिक्षा सदन की प्रिंसिपल थीं। विचारों से वे मार्क्सवादी थीं। वे रिटायर होने के बाद भी एक अलग कुर्सी डलवाकर ऑफिस के कमरें में ही बैठती थीं।

पुष्पमयी बोस अपने स्कूल के लॉन में कभी किसी सामाजिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम की अनुमति नहीं देती थीं…छुट्टी के दिनों में भरपूर पैसे मिलने पर भी नहीं लेकिन लेखिका की शादी का आयोजन गोविन्दजी कनोडिया की कोठी के लॉन में सम्पन्न हुआ तो बाद शिकायत की- मन्नू, तुम्हें बताना चाहिए था…हम स्कूल में तुम्हारी शादी करते…इतना अधिकार तो है तुम्हारा इस स्कूल पर या कि स्कूल का तुम पर।

कुछ वर्षों बाद शीला अग्रवाल अचानक विनोबाजी के आश्रम में चली गईं।

बालीगंज शिक्षा सदन में लेखिका ने नौ वर्ष पढ़ाया था। यहीं उन्होंने अपनी पहली कहानी लिखी। राजेन्द्र यादव से परिचय भी यहीं हुआ था, विवाह हुआ और लेखिका ने गृहस्थी में प्रवेश किया। बिटिया का जन्म भी यहीं हुआ, वे कहती हैं ज़िन्दगी के सभी महत्वपूर्ण मोड़ यहीं आए।

‘अनामिका’ एक नाट्य संस्था है, कुछ दिनों के लिए लेखिका उससे भी जुड़ी थीं। सेतु और अंगर, जो शायद साल से ऊपर ही चले थे। श्यामानन्द जालान और प्रतिभा अग्रवाल के प्रयास से छुट-पुट नाटक होते रहते थे। इन्होंने ही कुछ लोगों को जोड़कर अनामिका नामक नाट्य संस्था की स्थापना की। पहली मीटिंग सुशीला के घर पर हुई थी, सुशीला भी मंच से जुड़ी हुई थी, छोटे-छोटे रोल किया करती थी। मन्नू भण्डारी भी मंच से जुड़ी लेकिन वे कहती हैं न तो मंच उनका क्षेत्र था न बन पाया।

भंवरमलजी सिंधी के नेतृत्व में मारवाड़ियों के बीच समाज-सुधार के क्रान्तिकारी आन्दोलन में सुशीला भाग ले चुकी थी।

बिना किसी प्रेरणा और प्रोत्साहन के लेखिका ने अपनी पहली कहानी “मैं हार गई गई” 1957 में लिखी।

मोहनसिंह सेंगर ‘नया समाज’ पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे।

‘यही सच है’ कहानी पर रजनीगंधा फिल्म बनी है, जिसे बांसु चटर्जी ने निर्देशित किया है।

भैरवजी ने लेखिका की कहानी छापी थी, लेखिका ने जब अपनी तीसरी कहानी अभिनेता छपने को भेजी थी, तो उनका जबाव आया था कोशिश करनी चाहिए कहानी का ग्राफ हमेशा ऊपर की ओर चढ़ता रहे।

भैरवजी ने कहा था- “मन्नू भंडारी मेरी खोज है और राजेन्द्र यादव की प्राप्ति”।

मन्नू जी की कहानी कहानी पत्रिका में छपी थी, जिसमें उनका फोटो न होने के कारण प्रशंसकों के खत ‘प्रिय भाई’ सम्बोधन से आए थे।

मन्नू जी की पहली तीन कहानियाँ – 1) मैं हार गई 2) श्मशान 3) अभिनेता है।

सात-आठ कहानियाँ लिख लेने केबाद राजेन्द्र यादव से लेखिका का परिचय हुआ।

लेखिका और राजेन्द्र जी के मुलाक़ातों के बाद ही परिचय मित्रता में बदल गया, जिसका आधार वे लेखन बताती हैं।

सन् 1957 में अमृतरायजी ने इलाहाबाद में प्रगतिशील लेखकों का एक सम्मेलन आयोजित किया था। वहाँ मोहन राकेश, कमलेश्वर, रेणु, अमरकान्त और नामवरजी से लेखिका की मुलाक़ात हुई थी।

प्रगतिशील और परिमलियों के भेद यहाँ लेखिका को समझ आए थे।

राकेशजी, कमलेश्वरजी से पत्र-व्यवहार शुरू हो गया था। कमलेश्वरजी ने अपने नए-नए श्रमजीवी प्रकाशन के लिए पुस्तक माँगी तो तुरन्त उन्हें अपने दूसरे संकलन तीन निगाहों की एक तस्वीर की पांडुलिपि सौंप दी।

लेखिका की आरम्भिक कहानियों के सारे पात्र, सारी घटनाएँ अजमेर से जुड़ी हुई हैं। बच्चे विद्रोही तेवरवाली नायिका, सब ब्रहमपुरी के ही जीते-जागते लोग हैं।

“कानपुर में पंखे से लटककर तीन बहिनों ने आत्महत्या कर ली”… इस बात पर किसी ने भर्त्सना की थी, कि लेखिका होने के बाद भी एक कहानी नहीं फुटी इस पर।

वे कहती हैं- मैं नहीं सोचती कि लोकप्रियता कभी भी रचना का मानक बन सकती है। असली मानक तो होता है रचनाकार का दायित्व-बोध, उसके सरोकार, उसकी जीवन-दृष्टि और उसकी कलात्मक निपुणता।

राजेन्द्र ने सुशीला के सामने लेखिका का हाथ पकड़कर कहा- सुशीलाजी, आप तो जानती ही हैं कि रस्म-रिवाज में न तो मेरा कोई खास विश्वास है, न दिलचस्पी…बट वी आर मेरिड!

शादी के लिए राजेन्द्र का कोई आर्थिक आधार तैयार नहीं हुआ, लेकिन जब वे कलकत्ता गए तो ठाकुर साहब ने उन्हें शादी की दिशा में ठेल ही दिया। लेखिका उस समय इन्दौर गई हुई थी… उन्हें तुरन्त बुलाया गया। 22 नवम्बर की तारीख शादी के लिए तय कर दी, यह देखकर कि इतवार है। ठाकुर साहब-भाभीजी राजेन्द्र की ओर से जुड़े थे क्योंकि राजेन्द्र ने अपने घर वालों को आने से मना कर दिया था।

प्रतिभा बहिनजी, नारायण साहब, प्रतिभा अग्रवाल, मदन बाबू, जसपाल, कैलाश आनन्द-सबमें ऐसा उत्साह था मानो यह सबका साझा कार्यक्रम हो।

लेखिका कहती हैं- मिसेज आनन्द से तो मैंने इस अवसर पर एक मंगलसूत्र ही झटक लिया।

शादी को रोकने का आदेश देते आखिरी दिन तक लेखिका के पिताजी के तार आते रहे जिसकी भनक उनके जीजाजी ने उस समय उन्हें नहीं लगने दी थी।

गोविन्दजी कनोजिया के लॉन में विवाह के रजिस्टर पर दस्तखत किए थे।

स्कूल के प्रेसिडेंट श्री भगवतीप्रसाद खेतान ने लेखिका के पिता की भूमिका अदा की थी। उसी लॉन में लेखिका की ओर से रिसेप्शन हुआ जिस मेन्यू मदन बाबू, प्रतिभा अग्रवाल ने बनाया था। रात का खाना गोविन्दजी की ओर से हुआ था।

लेखिका अपनी शादी को शुद्ध पंचायती शादी कहती हैं।

दिल्ली आने पर राकेशजी ने लेखिका और राजेन्द्र जी का स्वागत किया। सत्येन्द्र शरत और उषा भाभी ने दावत खिलाई थी।

राजेन्द्र अपने लिए कोई आर्थिक आधार नहीं तैयार कर सकें इसलिए उन्हें ही लेखिका के पास कलकत्ता रहने के लिए जाना पड़ा क्योंकि लेखिका के पास वहाँ नौकरी थी।

राजेन्द्र यादव लेखक हैं, इसलिए किराये का घर मिलने में समस्या हो रही थी। लेखिका कहती हैं- “संगीत कलाऔर साहित्य का गढ़ समझे जानेवाले कलकत्ते में लेखक की ऐसी बेक़द्री। लेखकों, कलाकारों का सम्मान क्या केवल मंच तक ही सीमित है… रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में उहें क्या ऐसी ही अपमानजनक स्थितियों से गुज़रना पड़ता है?”

लेखिका कहती हैं- बहुत सपने देखे थे इस ज़िन्दगी को लेकर, बहुत उमंग भी थी, लेकिन जल्दी ही राजेन्द्र की ‘लेखकीय अनिवार्यताओं और इस जीवन से मेरी अपेक्षाओं का टकराव शुरू हो गया जो फिर कभी सम पर आया ही नहीं। लेखकीय अनिवार्यता के नाम पर राजेन्द्र ने ‘समानान्तर ज़िन्दगी’ का आधुनिकतम पैर्टन थमाते हुए जब कहा कि ‘देखो, छत ज़रूर हमारी एक होगी लेकिन ज़िन्दगियाँ अपनी-अपनी होंगी-बिना एक-दसरे की ज़िन्दगी में हस्तक्षेप किए बिलकुल स्वतन्त्र, मुक्त और अलग’।

वे कहती हैं- सिर पर छत का आश्वासन देकर जैसे पैर के नीचे की ज़मीन ही खींच ली हो। अपनी-अपनी ज़िन्दगी का जो बँटवारा हुआ उसमें घर की सारी ज़िन्मेदारियों और समस्याएँ-आर्थिक से लेकर दूसरी तरह की मेरे ज़िम्मे थीं। इनके अधिकार क्षेत्र में थे इनके ‘निजी सम्बन्ध’ और सरोकार, जब तब, जहाँ-तहाँ घूमने-फिरने की और जब मन हुआ, कलकत्ता से भाग निकलने की छूट।

निजी सम्बन्ध में राजेन्द्र जी का पूर्व सम्बन्ध था, जिसका ज़िक्र लेखिका ने पूरक प्रसंग में किया है।

एक बार लेखिका की तालू पर छाला हो गया, वे बीमार हो गईं तब भी राजेन्द्र जी ने उनका कोई सहयोग नहीं किया। प्रतिभा बहिन और नारायण जी लेखिका को डॉक्टर के पास लेकर गए।

जब लेखिका प्रसव पीड़ा में थी, तब भी राजेन्द्र यादव का कोई सहयोग नहीं मिला, टिंकू के जन्म के बाद लेखिका बताती हैं कि भीड़ के साथ आते थे और भीड़ के साथ ही चले जाते थे। वे कहती हैं सारी स्थिति केवल अकल्पनीय ही नहीं, बेहद बेहद तकलीफदेह भी थी।

लेखिका कहती हैं- पिताजी की इच्छा के विरुद्ध अपनी इच्छा से की हुई इस शादी को मैं किसी भी कीमत पर असफल नहीं होने देना चाहती थी-चुनौती ही थी यह मेरे लिए एक तरह से, वरना मेरा उदाहरण दे-देकर शुरू की गई एक सही स्वस्थ परम्परा को गलत सिद्ध करने की कोशिश की जाती।

यह आत्मकथ्य लेखिका ने 1992 में लिखना शुरू किया था।

ज्ञानोदय (कलकत्ता) में धारावाहिक रूप से एक प्रयोगात्मक उपन्यास छपा था – ग्यारह सपनों का देश। नौ लेखकों द्वारा लिखा गया था, जिसका आरम्भ और समापन एक ही लेखक ने किया था।

असफल प्रयोग से श्री लक्ष्मीचन्द जी काफ़ी खिन्न थे।

उन्होंने राजेन्द्र और मन्नू जी को मिलकर एक उपन्यास लिखने के लिए कहा, जिसके लिए राजेन्द्र तुरन्त तैयार हो गए क्योंकि मन्नू जी का एक अधूरा उपन्यास पहले से रखा था, जिसे वे मिलकर छपवाने को तैयार हो गए। परिणाम स्वरूप 1 जनवरी, 1961 दोनों का सहयोगी उपन्यास “एक इंच मुस्कान” छपना शुरू हुआ, जो मूल रूप से मन्नू जी का था। इसमें दूसरा अध्याय लेखिका का छपा। कुछ दिनों बाद ज्ञानोदय के सम्पादक शरद देवड़ा लेखिका के प्रशंसा भरे पत्र लेकर आए।

छह महीने में ही बारह अध्याय लिखकर रख देंगे ऐसा लेखिका ने सोचा था, लेकिन गर्भवती होने के कारण और अन्य ज़िम्मेदारियों के कारण यह सम्भव नहीं हुआ। परिणाम स्वरूप ज्ञनोदय में छपा – एक नई रचना के जनम के कारण इस बार मन्नूजी की रचना नहीं जा रही है। बच्ची का नाम भी रचना ही रखा गया।

रचना के जन्म के बाद रानी बिड़ला कॉलेज नया-नया खुला था आग्रह करके लेखिका को हिन्दी पढ़ाने के लिए बुलाया गया।

मिस बोस और बालीगंज शिक्षा सदन को छोड़ना लेखिका के लिए बहुत मुश्किल हुआ था। रानी बिड़ला कॉलेज का तीन साल का अनुभव ही मिरांडा हाउस की नियुक्ति में बहुत बड़ा आधार सिद्ध हुआ।

रचना के छोटी होने के कारण उसकी परवरिश में समस्या हो रही थी, क्योंकि लेखिका नौकरी करती थीं, आया जब-तब नागा कर देती थी परिणाम स्वरूप लेखिका को अपनी बेटी रचना की देखभल के लिए उसे सुशीला के पास भेजना पड़ा। तीस साल तक लगातार बच्ची की शंटिंग होती रही।

सुमित्रानन्दन पंत ने राजेन्द्र के पास प्रस्ताव भिजवाया था कि रेडियों में कुछ नियुक्तियाँ होनी है, राजेन्द्र इस नौकरी के लिए स्वीकृति दे दें, लेकिन राजेन्द्र ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया।

भैरवप्रसाद गुप्त राजकमल से निकलनेवाली पत्रिका नई कहानियों के सम्पाद थे, उनके सम्पादकी छोड़ने के बाद लेखिका के पहले तीन अंक के सम्पादन का प्रस्ताव आया।

लेखिका के हिसाब से राजेन्द्र की टूटना कहानी उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी है।

1962 के चीनी आक्रमण की चर्चा भी लेखिका ने की हैं। इस संकट से निकलने के लिए औरतों की एक मीटिंग में बड़ी बहिन सुशीला ने अपनी चारों सोने की चूड़ियों को उतारकर दे दिया था। लेखिका के जीजा जी ने कहा चारों देने की क्या ज़रूरत थी? सुशीला ने कहा- “कसम हे जो आज के बाद कभी सोने को हाथ बी लगाउँ” उसके बाद कभी सोने को उन्होंने नहीं छुआ।

राजेन्द्र ने विवादी स्वर मे कहा- चीन का क्लेम बिलकुल सही है। चीन की पक्षधरता पर लेखिका बहुत नराज़ होती हैं।

लेखिका कहती हैं- लाख वैचारिक मतभेद हों नेहरूजी से…बहुतों के थे लेकिन उनकी मृत्यु के दुख से अछूता रह सका था कोई?

नेहरू की मृत्यु पर राजेन्द्र ने एक कहानी लिखी थी- “मरनेवाले के नाम”।

राजेन्द्र और राकेशजी की मित्रता तनाव से गुज़रते हुए कुछ ही सालों में ऐसी कटुता में बदल गई कि आखिर एक दिन उन्होंने घर आकर अपना यह फैसला सुनाया कि अब उनके लिए राजेन्द्र से दुआ-सलाम का सम्बन्ध रखना भी सम्भव नहीं है।

राजपाल एंड सन्स ने राजेन्द्र से नए कहानीकारों की श्रेष्ठ कहानियों की एक सीरीज़ सम्पादित करने को कहा।

कमलेश्वरजी 1966 में ही सारिका की सम्पादकी सँभालकर बम्बई चले गए।

राजेन्द्र ने जवाहरजी के साथ मिलकर अक्षर प्रकाशन की योजना बनाना शुरू कर दिया और साल बीतते न बीतते उसकी स्थापना भी हो गई।

राजेन्द्र और जवाहरजी के बीत मतभेद हो गए।

अब राजेन्द्र पूरी तरह अक्षर ले लें या फिर इसे पूरी तरह जवाहरजी को सौंप दें। राजेन्द्र ने अक्षर को पूरी तरह से अपने पास रखने का फैसला किया।

“बिना किसी सहयोग, समझ, अनुभव, और रुचि के एक व्यावसायिक संस्थान चलाना…रात-दिन पढ़ने-लिखने की दुनिया में रहनेवाले व्यक्ति के लिए उससे कटकर रहना भीकम तकलीफदेह तो नहीं था”। लेखिका यह बात राजेन्द्र यादव के लिए कहती हैं।

लेखिका की सारी किताबें अक्षर में ही छपने लगीं जहाँ से रॉयल्टी मिलने का कोई सवाल ही नहीं था।

कहानी को साहित्यकी केन्द्रीय विधा बनानेवाली नई कहानी स्वयं हाशिये में जा पड़ी थी। यों सचेतन कहानी, अकहानी जैसे छिटपुट आन्दोलन भी चले लेकिन उनका न तो कोई वैचारिक आधार था, न ही उनके झंडे के नीचे ऐसी सर्जनात्मक प्रतिभाएँ थीं जो अपनी और अपने आन्दोलन की विशिष्ट पहचान बना सकतीं।

नईं संवेदना, नई भाषा-शैली, एन तेवर और जीवन जगत को देखने-समझने के नए नज़रिए के कारण कहानी के क्षेत्र में छा गए। इनमें प्रमुख थे ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, विजयमोहन सिंह, दूधनाथ सिंह आदि।

राजेन्द्र ने धर्मुयुग में प्रकाशित एक परिचर्चा में “पत्नी को एक नर्स की भाँति होना चाहिए” शीर्षक से नि:संकोच भाव से व्यक्त भी किया था। लेखिका कहती हैं- विमर्श का झंडा उठानेवाले गला फाड़-फाड़कर उन्हें बराबरी का दर्जा देने की पैरवी करनेवाले पुरुषों का असील रूप यह?

आत्मकथा में उषा प्रियंवदा का भी उल्लेख है।

लेखिका कहती हैं- मेरी नियुक्ति के दो वर्ष बाद डॉ. शैल कुमारी और अर्चना वर्मा की नियुक्ति हुई। शुरू के दिनों में अर्चना टिंकू की तरह राजेन्द्र को पप्पू ही कहा करती थी और मुझे भी बिटिया जैसी ही लगती थी और आज मेरे दिमाग में लिखने की कोई बात आते ही… या कि मैं कुछ लिखू तो उसे बता या सुनाकर ही अपने लिए आत्मविश्वास अर्जित करती हूँ।

धर्मयुग के जिस विषेषांक में मेरी त्रिशंकु कहानी छपी थी उसी में राजी सेठ की ‘गलत होता पंचतन्त्र’ भी छपी थी।

वे कहती हैं, – मैं अपनी बेटी रचना को दुनिया भर की कहानियाँ सुनाती, कविता सिखाती। लेकिन कॉलेज के दूसरे साल तक आते-आते घर चाहे यही रहा पर उसकी अपनी एक अलग ही दुनिया होने लगी, अपने मित्र होने लगे, जो अब केवल उसके अपने होते थे।

मायरा रचना की बेटी का नाम है, अब लेखिका उसे अपना समय देती हैं।

सबसे बाद में परिचय हुआ मैत्रेयी पुष्पा से। चित्रा मुद्गल उसे अपने साथ लेकर आई थी।

1990 में नीरा (सुशीला की बेटी) और आनन्द अपनी दोनों बेटियों के साथ ब्रसल्स से दिल्ली लौट आए। आनन्द सेन्ट स्टीफेन्स कॉलेज में पढ़ता था।

दिल्ली से बाहर रहनेवालों में गिरिराज किशोर-मीरा भाभी और सुधा अरोड़ा-जितेन्द्र भाटिया। जिनसे लेखिका का सम्पर्क था।

लेखिका कहती हैं- अगर तरह-तरह के संकट आए तो सँभालने के लिए हमेशा दस-दस हाथ भी तो प्रस्तुत रहे।

इसे ईश्वर की अनुकम्पा के सिवाय और क्या कहूँ!

सन् 1970 तक लेखिका के चार कहानी-संग्रह आ चुके थे औरबिना दीवारों के घर नाम से एक नाट भी, उसके बाद अब वे उपन्यास लिखना चाहती थीं।

तीन परिवारों में पल रहे बंटी के मानसिक स्थितियों का उल्लेख लेखिका ने आपका बंटी में किया है।

वे कहती हैं- तीन बंटियों में से एक राकेशजी का ही बेटा था और उपन्यास का प्रस्थान-बिन्दु भी मुझे वहीं से मिला था। मैंने राकेशजी के बेटे या उनकी पहली पत्नी शीलाजी को कभी नहीं देखा था।

आपका बंटी उपन्यास के छपने से भारतजी के मन में राकेशजी के आहत होने की आशंका थी।

जब लेखिका ने मोहन राकेश से बात की तो राकेश जी ने कहा- “एक लेखक अपनी रचना के लिए सबसे अनुमति लेता फिरेगा… सफाई पेश करता रहेगा? हम अपनी रचना के लिए ज़िन्दगी से ही तो थीम उठाते हैं…अपनी ज़िन्दगी से, परिवारवालों और परिचितों की ज़िन्दगी से… मित्रों की ज़िन्दगी से उसमें गलत या अनुचित क्या है?

उसके बाद धर्मयुग में आपका बंटी उपन्यास धारावाहिक रूप से छपने लगा।

सन् 1970 में ही बासु चटर्जी ने राजेन्द्र के सारा आकाश उपन्यास पर फिल्म बनाकर कलात्मक फिल्मों की दुनिया में मणि कौल और कुमार शाहनी से हटकर अपनी एक अलग पहचान बनाई।

वासुदा ने लेखिका को शरचचन्द्र की कहानी ‘स्वामी’ का पुनर्लेखन करने को कहा। हेमामालिनी की माँ के आग्रह पर उन्हें इस पर फिल्म बनानी थी। ‘स्वामी’ की थीम लेखिका को अच्छी लगी थी।

मन्नू भण्डारी के लेखन के अनुसार कहानी का अंत नहीं हुआ, जिस पर नराज़ होने पर वासुदा ने कहा- अरे स्त्री को पति के चरणों में ही लेटना चाहिए…वहीं अच्छी लगती है वह, जब इस बात लेखिका ओर नराज़ हुई तो लन्होंने अपना तर्क रखा, – यह मत भूलिये यह शरत की कहानी है और उस समय बंगाल में स्त्री की स्थिति थी ही क्या? बात-बात पर पति के चरणों मेंही तो लोटती रहती थी। सारा शरत साहित्य ऐसे ही दृश्यों से भरा मिलेगा आपको।

भारतीय भाषाओं पर आधारित दर्पण सीरियल की दस कहानियों की स्क्रिप्ट भी लेखिका ने लिखी।

प्रेमचन्द के निर्मला उपन्यास की स्क्रिप्ट लिखने का काम भी मन्नू जी ने किया।

‘त्रिशंकु’, ‘तीसरा हिस्सा’, और ‘स्त्री सुबोधिनी’ कहानियों को पाटकों की सराहना तो मिली ही, लेखिका भी पुरी तरह सन्तुष्ट थी।

इस आत्मकथा में आपतकाल का भी ज़िक्र है, लेखिका लिखती हैं— संजय के सुझाव पर इन्दिरा गांधी ने 25 और 26 जून के बीच की रात को जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चन्द्रशेखर, अटलबिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेताओं के साथ-साथ विरोधी दल के न जाने कितने नेताओं और सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया और 26 जून को सवेरे ही आपातकाल की घोषणा कर दी। प्रेस की बिजली काट दी गई थी।

भारी संख्या में उस दिन की गिरफ्तारियों की सूचना ने पता नहीं क्यों 9 अगस्त, 1942 (भारत छोडो आंदोलन) की याद ताजा कर दी थी।

विनोबा भावे ने इसे अनुशासन पर्व की संत्रा दे डाली थी।

लेखिका लिखती हैं— जिन बातों से थक्का सा लगा था- पायेदार कवि-लेखक रघुवीर सहाय का सम्पादक की हैसियत से सरकार के सामने सबसे पहले घुटने टेकना आपात्काल के लगते ही तुरन्त दिनमान के सम्पादकीय में आपात्काल का समर्थन ही कर डाला।

भारती जी की बेहद लोकप्रिय और प्रसिद्ध कविता मुनादी आपात्काल लागू तो नहीं हुआ था पर देश में स्थितियाँ बिलकुल आपातकाल जैसी ही हो चली थीं। जे.पी. का सम्पूर्ण क्रान्ति का आन्दोलन इन्दिरा सरकारको और भी निरंकुशता की ओर धकेलता जा रहा था। बिहार में छात्र पढ़ाई-लिखाई छोड़कर और युवा अपनी नौकरियाँ छोड़कर इस आन्दोलन में कूद पड़े थे।

1977 जनता सरकार के राज में घटी थी बेलछी की दिल दहला देनेवाली घटना।

लेखिका लिखती हैं- संयोग ऐसा हुआ कि तभी डॉ. बच्चन सिंह ने, जो उस समय शिमला में हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष थे, हम दोनों को आमन्त्रित किया। कार्यक्रम के बाद मैंने उनसे वैसे ही कहा कि यदि मुझे युनिवर्सिटी गेस्ट हाउस में कुछ दिन ठहरने के लिए मिल जाएँ तो मैं एक उपन्यास लिखना चाहती हूँ।

ठहरने की जगह मिलने के बाद शिमला में लेखिका ने महाभोज उपन्यास की रचना की। दा साहब (राजस्थान की राजनीति)  और महेश (मिरांडा हाउस रिसर्च स्कॉलर) का किरदार असल जीवन पर आधारित किरदारों को पन्नों पर उतारा।

लेखिका कहती हैं- पच्चीस दिन में मैंने उपन्यास पूरा ही नहीं किया बल्कि उसका दूसरा ड्राफ्ट भी क़रीब-क़रीब तैयार कर लिया था।

महाभोज प्रकाशित होने के डेढ़-दो साल बाद अरविन्द कुमार ने लेखिका को सूचना दी कि अमाल अलाना मंच पर प्रस्तुत करना चाहती हैं।

कॉलेज (मिरांडा हाउस) में प्रतिवर्ष एक नाटक का मंचन होता है- एक वर्ष अंग्रेज़ी का नाटक, एक वर्ष हिन्दी का। सन् 1978 में हिन्दी का नाटक होना था और निर्देशन के लिए नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के रामगोपाल बजाज (बज्जू भाई) आए थे। उन्होंने मन्नू जी के नाटक ‘दीवारों के घर’ का मंचन करने की घोषणा कर दी।

लेखिका कहती हैं- 1992 में अपना आत्मकथ्य लिखने का जो अनुबन्ध किया था वह आज 2006 तक घिसटता रहा। कभी दो पन्ने लिख दिए तो कभी चार…

इंन्दिरा गाँदी पर गोलियाँ चलाई जाने और उनकी मृत्यू का भी ज़िक्र किया है।

11 सितम्बर को अमेरिका में होने वाली त्रासदी का भी ज़िक्र लेखिका करती हैं।

1984 नवम्बर में लेखिका को कोलौन (जर्मनी) से एक निमन्त्रण मिला, साउथ ईस्ट एशिया की लेखिकाओं के सम्मेलन में शिरकत करने के लिए। वियेना, पेरिस और लन्दन का ज़िक्र भी है।

अक्षर प्रकाशन से राजेन्द्र के सम्पादन में हंस का पहला अंक प्रकाशित हुआ अगस्त सन् 1986 में। राजेन्द्र की चिर-प्रतीक्षित आकांक्षा।

मन्नू जी कहती हैं- राजेन्द्र ने बड़े आग्रह के साथ कहा था कि हंस के पहले अंक में तुम्हारी कहानी जानी ही चाहिए…समझ लो कि अनिवार्य है यह और बस, कुछ तो ‘हंस’ के निकलने की खुशी के कारण और कुछ राजेन्द्र की कारण परिणाम “नायक, खलनायक, वदूषक कहानी की रचना की।

इस कहानी का शीर्षक राजेन्द्र जी ने ही दिया था।

1989 में लेखिका को अचानक न्यूरोलजिया का पहला अटैक हुआ। लम्बे समय से जैसी तनावपूर्ण स्थिति झेल रही थीं उसका परिणाम था, ऐसा लेखिका मानती हैं।

1991 में लेखिका सेवा-निवृत्त हुई और कुछ महीनों बाद ही उनके पास श्री विष्णुकान्त शास्त्री का प्रस्ताव आया – ‘प्रेमचन्द सृजनपीठ’ निर्देशक पद के लिए।

उज्जैन में श्री शिवमंगल सिंह सुमन ने लेखिका के बड़े भाई की भूमिका सँभाल ली। वे दस साल तक विक्रम विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे थे।

‘राम की शक्तिपूजा’ उन्हें पूरी कंठस्थ थी और वे विभोर होकर सुनाते।

लेखिका कहती हैं- लेखक भी आखिर है तो मनुष्य ही और यदि उसकी ज़िन्दगी का श्वेत पक्ष औरों की अपेक्षा अधिक प्रबल है तो उसका श्याम पक्ष भी तो उतना ही प्रबल हो सकता है-होता है।

उज्जैन से सम्बन्धित हैं- लेखिका का टाइपिस्ट शैलेन्द्र, दूसरी बाई, तीसरी सुमन।

धर्मयुग की एक परिचर्चा में जैनेन्द्रजी ने लेख लिखा था, जिसका शीर्शक – ‘लेखक के लिए प्रेयसी अनिवार्य है’

अर्चना के आग्रह पर लेखिक ने नई पुस्तक कथा-पटकथा लिखी।

पूरक प्रसंग – देखा तो इसे भी देखते

पूरक प्रसंग लेखिका ने राजेन्द्र जी के आत्मकथ्य के प्रत्युत्तर में यह लेख तद्भव में प्रकाशित किया था।

इसमें राजेन्द्र और उनकी प्रेमिका मीता के सम्बन्धों के बारें में लेखिका ने प्रकाश डाला है।

मन्नू जी लिखती हैं- शुरू से इनका प्रेम मीता से रहा तो फिरमैं बीच में कहाँ से आ गई और क्यों आ गई?

जो मीता कलकत्ता में राजेन्द्र के विवाह के प्रस्ताव को केवल ठुकरा ही नहीं चुकी थी बल्कि आगरा लौटकर पत्र में भी साफ़ लिख दिया था कि तुम्हारी परिणीता बनकर रहना मेरा स्वप्न नहीं है, और इससे आहत होकर माँगने पर राजेन्द्र के सारे पत्र लौटाकर अपनी अस्वीकृति पर मोहर भी लगा चुकी थी। यह खबर सुनकर अपने निर्णय से केवल डगमगायी ही नहीं बल्कि दिल्ली जाकर राजेन्द्र से मिलने का सिलसिला शुरू कर दिया।

परिणाम यह हुआ कि पुराना अध्याय फिर से खुला। सितम्बर में राजेन्द्र ने उसका हाथ पकड़कर भी कह दिया- “वी आर मैरिड”!  अपने को मीता की जगह रखकर मैंने ‘एक बार और’ और ‘स्त्री सुबोधिनी’ नाम से दो कहानियाँ भी लिखी थीं।

मैं 92 में उज्जैन चली गई बिलकुल अपने बलबूते पर और दो साल बाद लौटकर इनसे अलग हो गई सो मैंने न तो इनके यश का कोई लाभ उठाया और न ही इनकी सम्पन्नता से अपने लिए कभी कुछ चाहा या लिया।

मेरी कहानियाँ लेने के लिए मुझसे पूछना तो दूर मुझे बताया तक नहीं… ‘गर्दिश के दिन’ स्तम्भ के लिए लिखी अपनी कहानी ‘यहाँ तक पहुँचने की दौड़’ (जिसकी बहुत प्रशंसा भी हुई थी) का केन्द्रीय भाव, कसौली जाकर लिखे गए मेरे अधूरे उपन्यास से ज्यों का त्यों ले लिया।

वैवाहिक सम्बन्ध की गरिमा का निर्वाह न कर पानेवाले व्यक्ति के लिए विवाह संस्था के विरूद्ध झंडा उठाए फिरना वाजिब ही नहीं, अनिवार्य भी है। लेकिन फिर विवाह किया ही क्यों? यदि मीता ने विवाह से इंकार करके परिणीता बनकर रहना स्वीकार नहीं किया तो इतना आहत होने की ज़रूरत?

सम्बन्ध तो चल ही रहे थे- बस, जिस विवाह में विश्वास नहीं, केवल वही तो नहीं किया था?

यह शायद भूल ही गए कि खुरचे हुए घावों से तो केवल मवाद ही बनेगा।

मन्नु भण्डारी


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