Study Material : NET JRF Hindi ‘अरे यायावर रहेगा याद’ सच्चितानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ घटना संवाद व सारांश | Are Yayavar Rahega Yaad’ ghatna samvaad va saaransh.
परिचय (Introduction)
यह एक यात्रा वृतांत है, जिसमें लेखक अलग-अलग भूमिका में अलग अलग स्थानों में जाता है। पशुराम से तूरख़म में वह कनवाई के रूप में यात्रा करता है, किरणों की खोज में वह वैज्ञानिक रिसर्च के लिए जाता है। इसके बाद कुछ यात्राएँ उसने बिना औपचारिक उद्देश्य के भी पूरी की हैं।
अरे यायावर रहेगा याद यात्रा-संस्मरण है, लेखक ने कहा।
पंक्तियों से यह यात्रा वृतांत शुरू होता है—
याद
कसक बन जाती है
उत्साह से रीत जाते हैं
पर कुछ साथ चलने वाले
साथ रहते हैं चाहे
उनका नाम नहीं लिया जाता।
(इसी प्रकार कदाचित्
कलाकार
अपनी कला में तुम्हारी अभिव्यक्ति सकेञ
पाँचवें संस्करण की भूमिका के महत्वपूर्ण वाक्य
भ्रमण या देशाटन केवल दृश्य-परिवर्तन या मनोरंजन न हो कर सांस्कृतिक दृष्टि के विकास में भी योग दे, यही उसकी वास्तविक सफलता होती है।
दूसरे संस्करण की भूमिका महत्वपूर्ण कथन
स्थानों का ब्यौरा है।
देश के विभाजन से पुस्तक के पहले ही लेख (परशुराम से तुरख़म) में वर्णित यात्रा-पथ का एक बड़ा भाग देश से कट गया है। और देशकी मर्यादा-रेखा ख़ैबर-पार से सिकुड़ कर अमृतसर-लाहौर के बीच आ गई थी। एक बड़े भूकम्प के कारण वह पहाड़ भी धँस गया था जो ब्रह्मपुत्र का आवर्त बना कर परशुराम कुंड को आकार देता था।
पूर्वी अंचल में प्रशासनिक पुनर्संगठन से कई नए प्रदेश बन गए हैं— अरुणाचल, मेघालय, नागादेश (नागालैंड) मिज़ोरम हिमालय में नई सकड़कों का जाल बिछ गया है औऱ किसी ज़माने की ‘मौत की घाटी’ अब पक्की सड़क के कारण साधारण सैरगाह बन गई है।
यात्रा-संस्मरण ‘टूरिस्ट गाइड’ का स्थान लेने के लिए नहीं लिखे और पढ़े जाते। ऐसी पुस्तकों में प्रस्तुत ब्यौरा एक व्यक्ति की यात्रा का ब्यौरा होता है, और वह यात्रा जितनी बाहरी होती है उतनी ही भीतरी भी।
पहले संस्करण में चित्र कहीं अधिक थे। इस संस्करण में चित्र और स्केच संख्या में कम हैं।
अन्त में एक नया लेख भी जोड़ा गया है—“सागर-सेवित, मेघ-मेखलित’।
आकांश थी पूरे देश को पूर्व से पश्चिम तक, दक्षिण से उत्तर तक देखूँ।
फौजी कनबाई के सहारे परशुराम से तूऱखम की यात्रा हुई थी।
उत्तर-दक्खिन के छोर मिलाने की आकांक्षा को स्वेच्छा से निर्धारित पथ और गति से पूरा किया।
तीर्थयात्री की धर्म-भावना का स्थान मिथक के अन्वेषी की विस्मय-भावना ले लेती है।
यात्राएँ भूगोल के आयाम ही नहीं, इतिहास के आयाम में भी अग्रसरण करती हैं—देश को ही नहीं नापतीं, काल को भी नापती चलती हैं।
लेखक
इसके बाद कविता लिखी गई हैं—
पर्श्व गिरिका नम्र, चीड़ों में
डगर चढ़ती उमंगों-सी।
बिछी पैरों में नदी, ज्यों दर्द की रेखा।
विहग-शिशु मौन नीड़ों में।
मैंने आँख-भर देखा।
दिया मन को दिलासा पुन: आऊँगा
भले ही बरस दिन-अनगिन युगों के बाद
क्षितिज ने पलक-सी खोली
तमक कर दामिनी बोली
अरे, यायावर। रहेगा याद?
8 अध्याय हैं—
1 परशुराम से तूरख़म (एक टायर की राम-कहानी)
2 किरणों की खोज में
3 देवताओं के अंचल में
4 मौत की घाटी में
5 एलुरा
6 माझुली
7 बहता पानी निर्मला
8 सागर-सोवित, मेघ-मेखलित (कन्याकुमारी से नन्दादेवी)
परशुराम से तूरख़म (Parshuram to Toorkham)
परिचय
1 परशुराम से तूरख़म (एक टायर की राम-कहानी) के अंतर्गत लेखक भारत के पूर्व में स्थित असम से लेकर पश्चिम में स्थित तूरख़म तक की यात्रा करेंगे। यात्रा के दौरान आए स्थानों के बारें में वर्तमान स्थिति तो बताएँगे ही, साथ ही साथ उस स्थान की ऐतिहासिकता पर भी बात करेंगे।
भारतीय संस्कृति में उस स्थान का क्या महत्व है, इस अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे।
यहाँ पर टायर (प्रतीक) यायावर (लेखक) की यात्रा का वृतांत बता रहा है। अर्थात अज्ञेय ने अपनी इस यात्रा वृतांत का ब्योरा टायर की दृष्टि से लिखा है।
अध्याय एक – घटना व संवाद (Chapter One – Events and Dialogue)
परशुराम भारत के पूर्वी इलाके का क्षेत्र है, जिसमें नदी कुण्ड (ब्रह्मपुत्र नदी पर) की चर्चा है। असम यात्रा का वर्णन है, परशुराम की तपस्या का उल्लेख है।
टायर अपने विषय में कहता है—
स्वयं सुन्दर न हो कर भी मैं संसार के अखिल सौन्दर्य की नींव हूँ, क्योंकि मैं संस्कृति की नींव हूँ।
यह मैं कह रहा हूँ, व्यक्ति रूप में मैं एक अकिंचन यायावर हूँ, जैसे यायावर “श्री इन पंक्तियों के लेखक जी’ का सहारा-क्योंकि मैं उनकी गाड़ी का एक टायर हूँ…
जो राम-कहानी कहूँगा, मेरी भी राम-कहानी इसलिए है कि वह मेरे चालक की कहानी है।
मिस्टर पीटर रोलिंग स्टोन
हैव यू एनी मॉस
नो सर, नो सर, आइ’म
रनिंग एट ए लॉस
अपने प्रतीक-पुरुष को मिस्टर रोलिंग स्टोन नहीं कहूँगा, यायावर कहूँगा, पर बात वही – चल-चल देता है लाद-लाद कर बार-बार बनजारा सब ठाठ धरा रह जाता धन बस दूर क्षितिज का तारा।
जहाँ देवता जम कर पर्वत-शृंग बन गए, जहाँ मानवों ने ऐहिक कांक्षाओं-वासनाओं से मुक्ति पाई—किन्तु यायावर ने समझा है कि देवता भी जहाँ मन्दिर में रुके कि शिला हो गए, और प्राण-संसार के लिए पहली शर्त है गती, गति, गति।
क) पूर्व असम
यायावर को इस बार जो ट्रक मिला उसकी हालत बहुत अच्छी न थी। बैटरी बदलने लायक थी, डायनेमो बीच-बीच में चार्ज करना छोड़ देता थआ, ब्रेक कमज़ोर थे। तिस पर यायावर को रात में गाड़ी चलाने का व्यसन है।
तिनसुकिया, सदिया उत्तर-पूर्वीय अन्तिम स्टेशन, डुमडुमा की अमेरिकी छावनी, सैखुआ घाट का बँगला आदि स्थानों की चर्चा की गई है।
असम के सीमा प्रदेशों का-सा क्षेत्र और न मिलेगा। यायावर प्राय: कहा करता कि देश की पराधीनता सबसे अधिक अखरती है तो एक अपने हिमालय के अंग, संसार के सबसे ऊँचे शिखर का नाम ‘एवरेस्ट’ सुन कर, और एक सीमा-प्रदेशों में जाने के परमिट के लिए फिरंगी पोलिटिकल एजेंट के दफ़्तर में जा कर।
देश की प्रत्येक सीमा तीर्थ होती है, नहीं तो देश पूण्यभूमि कैसे होता है?
जंगली ही सही, केले के इतने बड़े जंगल कि दो घंटे मोटर दौड़ा कर भी पार न हों…और उनकी चिकनी, गहरी, हरी छाँरों में कहीं हाथियों के झुंड, और कहीं बड़ी शालीनता से घूमते मिठून…मिठून अरना भैंसा ही होता है, किन्तु अरने भैंसे से कहीं अधिक गठे शऱीर वाला औऱ फुर्तीला वन्य जातियाँ सभी मिठून को पूज्य मानती हैं।
चट्टानों के बीच की गली से हो कर यायावर एक कुछ खुली जगह पहुँचकर ठिठक गया है। सामने परशुराम का कुंड है। कुंड वास्तव में ब्रह्मपुत्र की धारा का ही एक आवर्त है।
स्नान से पाप धुल जाते हैं, पापतो दीखते नहीं, अत: उनके दृश्य प्रतीक के रूप में जिन वस्त्रों से स्नान किया जाता उन्हें कुंड पर ही छोड़ देने की प्रथा है।
सुटिया राजा तांत्रिक थे।
बाँग्ला में स, श, ष सबका जैशे ‘श’ उच्चारण होता है, वैसे असमीया में सब ‘ह’ हो जाते हैं। इसलिए ‘शिवसागर’ भी ‘हिवहागर’ उच्चारित होता है।
ज़ोरहाट-नवगाँव-गौहाटी। गौहाटी वास्तव में ‘गुवा हाटी’ है—असमीया सुपारी (गुवाफल) की प्रसिद्ध प्राचीन हाट। यह असमीया कामरूप राज्य की राजधानी और प्रमुख व्यापार केन्द्र तो रही ही इस के अतिरिक्त नीलाचल पर स्थित कामाख्या देवी के मन्दिर के कारण इस की कीर्ति और भी फैली।
मध्य-असम से पंजाब
पाँच गाड़ियों का ‘कानवाई’ ले कर असम से पंजाब जाए—
जोगीगुफा का घाट है, जहाँ नाव पर लाद कर गाड़ियाँ ब्रह्मपुत्र के पार उतारी जाएगी और कूचबिहार का रास्ता पकड़ेंगी। जोगीगुफा नाम का इतिहास है। आस-पास का वन-प्रदेश तांत्रिकों की साधना का क्षेत्र था।
‘कानवाई’ अच्छी सड़कों पर ही चलते हैं जब तक कि लाचारी न हो।
सवेरे कुचबिहार से गुजरे। नाम वास्तव में कोचविहार होना चाहिए, क्योंकि कोच जाति की राजधानी है।
नरनारायण (ई. सोलहवीं शती) सर्व-प्रसिद्ध है। नरनारायण और उसके भाई शुक्लध्वज ने असम पर आक्रमण करके बहुत-सा प्रदेश जीत लिया था। शुक्लध्वज के दूर-दूर जा कर झपट्टा मारने के करतबों के कारण उसका नाम ‘चील राय’ पड़ गया था।
नरनारायण और उसके भाइयों ने काशी में शिक्षा पाई थी।
कूचबिहार से सिलिगुड़ी का मार्ग जब ‘द्वार प्रदेश’ से गुजरता है, तब उसकी शोभा अनूठी हो जाती है। इस अंचल में हिमालय के बाहर द्वार हैं। इन्हीं द्वारों से भोटिए, नेपाली, तिब्बती और पर्वतीय नाना जातियों के लोग भारत में आते-जाते थे।
द्वार प्रदेश का एक केन्द्र है अलीपुर द्वार।
कलकत्ते की चर्चा है।
बैरकपुर की चर्चा है।
आसनसोल की चर्चा है।
अलीनगर की चर्चा है।
बनारस-इलाहाबाद, मूरतगंज की चर्चा है।
कानपुर स्टेशन पर भोजन किया। बिल्हौर के छोटे-से बँगले में जा रुके?
भारतीय सैन्य-संगठन का मध्यवर्ती कैम्प आगरा है।
ताजमहल के सदर फाटक से घुस कर एक बार बाहरी फाटक से ही ताज को झाँक कर ताजगंज की तरफ़ की हरियाली में बैठकर जलपान किया। ज़रा बढ़कर मियाँ नज़ीर की उपेक्षित कब्र देखी और नज़्म के कुछ बन्द याद किए—
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन
वो मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन।
जाहिर में गो वो नन्द यशोदा के आए थे
वर्ना वो आपि माइ थे व आपि बाप थे।
जीवन की धारा के बीचोबीच रहना कलाकार का धर्म है।
नई दिल्ली सब की वह भाभी, जो कि ग़रीब की जोरू नहीं है। जिस की मुसकान की अपेक्षा सबको है, लेकिन जिससे ठठोली करने की हिम्मत किसी को नहीं होती।
सोनीपत की चर्चा
दूसरे दिन कानवाई पानीपत-कुरूक्षेत्र अम्बाला होता हुआ जालन्धर पहुँच गया।
यहाँ शहर से चार मील दूर सुनसान के बीच एक बगिया में यायावर ने डेरा डाला। पहले दिन उसका नाम रखा ‘चौमीला बाग’ फिर नाम बदल कर दिया गया ‘द लिमिट’—सीमान्त। फिल उसका नाम बदल कर ‘अमलतासी’ रखा और यही नाम मधुर लगा।
पश्चिम-ख़ैबर
युद्ध समाप्त हुए कुछ महीने हो चुके। (दूसरे विश्व युद्ध का ज़िक्र है)
पश्चिमोत्तर सीमान्त भी सही, पौष-माघ ही सही : विश्वमय हे परिवर्तन
तुम्हारी ही विधि पर विश्वास
हमारा चिर-आश्वास
अमृतसर उत्तर भार की सबसे बड़ी व्यापारी मंडी, जहाँ अब पहले के मिठबोले ताँगे वाले नहीं रहे।
जलियाँवाला, दरबार साहब—ये नाम हैं जिनका इतिहास भी है औऱ गहरे संस्कार भी—लेकिन ये संस्कार घड़ी भी कमानी जैसे नहीं जो हर वक़्त चलाती रहे, एलार्म की कमानी जैसे है जो ख़ास-ख़ास मौक़ों पर ही शोर मचा दे।
जालन्धर-अमृतसर के अधबीच व्यास, लाहौर में रावी, गुजरात के निकट चनाब जो इन तीनों में—बल्कि शायद पाँचों नदियों में सबसे सुन्दर है।
यायावर पुराविद् नहीं होते, न पुरातत्व उनके लिए स्वयं एक साध्य होता है—वह केवल दूसरों के संचित अनुभव के फल के रूप में महत्व रखता है।
तक्षशिला के कँडहरों को अच्छी तरह देखने के लिए चार-पाँच दिन का अवकाश तो चाहिए ही।
हसन अब्दाल के पास ही पहाड़ पर ‘वाह’ नाम का स्थान है,जिसका वर्तमान गौरव उसके सीमेन्ट के कारखाने से है, किन्तु जिसका नामकरण अकबर ने अंजाने ही कर दिया था।– अकबर ने कहा— वाह! वाह
एबटाबाद की सबसे स्पष्ट स्मृति है वहाँ के जंगली नरगिस।
उर्दू-फ़ारसी शायरी में नरगिस प्रेमी की आँख का उपमान है—‘नरगिस की आँख का उपमान है—‘नरगिस की आँख से तुझे देखा करे कोई’।
सारा पहाड़ नरगिसों से छाया हुआ था।
एबटाबाद से ही एक रास्ता मानसेहरा को जाता है, जो मुज़फ़्फराबाद-दुमेल की सड़क पर पहला ठिकाना है। मानसेहरा में तब भी कुछ उपद्रव की खिचड़ी पक रही थी।
यायावर ने तभी अपनी डायरी में लिखा भीथा कि ‘मेरी कल्पना देखथी है, इन नरगिसों को हज़ारों पैर रौंद रहे हैं, बेदर्द औऱ बेहरम पैर—और फूलों की डाँठों के टूटने की आवाज़ वातावरण में नारों के बीच में डूब जाती है… सिनेमा का प्रतीक चित्र-सा सामने आता है—बर्फ़ में झूमते नरगिस, रौंदते हुए पैर, केवल पैर…
नौशेरा…यहाँ पर सिख रेजिमेंट का मेस दर्शनीय था।
गान्धार मूर्तियों, अर्धचित्रों, मसाले की बुद्ध बोधिसत्तव-मूर्तियों के भग्नावशेषों
नौशेरा की दूसरी उल्लेखनीय वस्तु है वहाँ का विशिष्ट कबाब जो चपली कबाब कहलाता है।
नौशेरा से एक रूसी कलाकार उसके साथ हो लिए थे। सज्जन जन्मना पैलोंड-वासी व्हाइट रशइयन रहे, रूसी क्रांति के समय इनके पिता चीन चले गए थे और उत्तीर चीन में बस गए थे। लड़के का नाम एन्तोन है, चीन से हांकांग फिर शांहाई भाग गया था। फ्रांससी नागरिकता प्राप्त कर ली थी। वहीं संगीत में रुचि के कारण वह पुलिस बैंड का निर्देशक बना था, औरपीछए नौकरी छोड़ कर रंग-मंच का संगीत-निर्देशक और अभिनेता भी हो गया था। थोड़ी बहुत चित्रकारी भी जानता था, पर्दे रँगने का काम भी कर लेता था। दूसरे महायुद्ध के समय भारत आ कर वह भारतीय नृत्य-कला औऱ लोक-नाट्य का अध्ययन कर रहा था।
नवाब साहब को यायावर ने पुर्तगाली ब्रांडी की बोतल और उसकी देखा-देखी एन्तोन ने छ: साल से छिपाई हुई रूसी वोद्का की बोतल उन्हें भेंट कर दी।
प्राचीन नगरी का स्थान भी—चारसाद ही सिकन्दर-कालीन राजधानी पुष्कलावती है।
जोधपुर की भी चर्चा है।
एन्तोन अंग्रेज़ी के अतिरिक्त ताजिकी भाषा जानता था। नूर मुहम्मद की वह मातृभाषा थी, उज़बकी भी जानता था।
नूर मुहम्मद जूतों का व्यापार करता था—वह और उसका परिवार स्वयं जूते सीते थे।
पेशावर का शहर अन्य उत्तरी शहरों की भाँति प्राचीर से घिरा हुआ है, जिसमें बीस फाटक हैं।
लेकिन वैसे यायावर परम्परा के साधक, जो चित्रों की सामग्री की खोज और घूमने की लत के कारण तीन-चार बार तिब्बत और दो-तीन बार कैलास हो आए हैं।
जॉर्ज कनिंगहम की चर्चा है।
ख़ैबर की सड़क का निर्माण पहले-पहले लेफ्टिनेंट मैकिसन ने प्रथम अफ़गान युद्ध के बाद सन् 1840 में किया था।
लंडीखाने की उतराई यों भी करी है, तिस पर उस कंकरीट की सड़क पर ‘अजगर दाँत’ पड़े हुए थे। जंगी टैंकों की बाढ़ को रोकने के लिए सड़क पर बनाए गए लोहे औऱ कंकरीट के अटकाव को कहते हैं। लोहे की कीलियों पर कंकरीट के टोपे जाम कर सड़क को आर-पार पाट देते हैं।
तूरख़म के गर्वीले श्यामल उभार पर केन्द्रित हो आईं। यह हमारे देश का मर्यादा-पर्वत है…आई-इस दृश्य में ‘घर’ नहीं है, लेकिन उसे आँख-भर देख कर हृदय में बसा लो, क्योंकि उसके कारण ही घरजहाँ हैं वहाँ घर हो सके हैं—वह मर्यादा जो है…
प्रिय: पियायार्हसि देव….
भारत की संस्कृति एक जड़ धातु-पिंड नहीं है, फिर चाहे वह धातु स्वर्ण ही क्यों न हो, वह निधि है जिस की मजूषाओं में नाना रत्न संगृहीत हुए हैं और होते रहेंगे।
मर्यादा पर्वत का नाम तूरख़म है? गान्धार-युगीन दुर्ग है वह आज क़ाफ़िर-कोट नाम से प्रसिद्ध है।
मैं वह हूँ जिस ने आरम्भ किया, मुझ में युग प्रसूत होता है, मुझ से
ही पुरूष और परमेश्वर, मैं एकमेव और सम्पूर्ण हूँ परमेश्वर
बदलता है, और पुरुष, और उनके रूपाकार बदलते हैं, मैं प्राण-तत्व हूँ।
पूरे सामार्थ्य के साथ मानव होना: प्राणों के सम्पूर्ण बल के
साथ सीधा विकसित होना, प्रकाश की तरह जीना।
मैं हूँ कर्म और कर्ता, बीज और कृषक, मैं वह पुनीत धूल जो ईश्वर है।
ऐसे ही मेरे प्राण निर्भय हों—यह प्रार्थना भी है और आशीर्वाद भी है।
अध्याय दो – किरणों की खोज में (Adhyay do – Kiranon ki khoj mein.)
‘किरणों की खोज में’ का सारांश
इस अध्याय में लेखक अपने गुरू के साथ कश्मीर में वैज्ञानिक रिसर्च के लिए जाता है, जिसमें उसे रास्ते में बड़े जोशी जी और छोटे जोशी जी मिलते हैं। एक व्यक्ति वह खाना बनाने वाले को ले जाते हैं। पूर्व अनुभव के अनुसार उन्हें खाना बनाने वाले को चुनने में बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, क्योंकि उन्हें स्वस्थ्य खाना बनाने वाला चाहिए था।
बड़े जोशी जी वहाँ ओषधियों की रिसर्च में गए थे।
लेखक को नदी के अन्दर से किरणों में कुछ खोजना था, परिणाम स्वरूप जो यंत्र उन्होंने नदीं में डाला वह नदी के अन्दर ही छूट गया। जब रस्सी बाहर निकाली तो रिस्सी में सिर्फ कूड़ा करकट ही लगा हुआ बाहर निकला। यंत्र नदी में ही गिर गया था।
जब वह वापस आने लगें तो याद के लिए लेखक ने तस्वीर खींची क्योंकि तस्वीर लेखक ने ही खींची थी, इसलिए वह तस्वीर में हीं आ सका था।
वापसी के समय श्रीनगर मे बाढ़ आ गई थी। लेखक अपने साथियों के साथ रहने का ठीकाना खोजता है, एक जगह रात मे सो जाते हैं। सुबह उठकर जब वे समान की सुध लेते हैं, तो पता चलता है, सारा समान भीग गया है। साथ में वह सब नैगटिव भी भीग गई जिसमें तस्वीरें थीं। एक ही नैगटिव सूखी बची जिसे तुरन्त धोया गया। जिसमें से सिर्फ दो तस्वीरें निकली, जिसमें लेखक कहता है- अब इन तस्वीरों का ऐतिहासिक महत्व और बढ़ गया हैं क्योंकि यह सिर्फ दो ही हैं।
वहाँ के स्थानीय व्यक्ति को लेखक ने जादूगर कहा था। गूजरों का मंत्री, पूजारी, वैद्य, जर्राह, साहूकार पुरोहित, मास्टर सब-कुछ वह था। जूस गूजर की गायें सूखी होतीं उसे वह ज़रूरत के अनुसार रुपया देता, और सौदा पटा लेता।
कोंसरनाग नदी के किनारे-किनारे हलकी चढ़ाई चढ़ते हुए लोग कोंसरनाग झील की ओर बढने लगे। कोंसरनाग झील में ही लेखक प्रयोग करता है, जिसमें यंत्र डूब जाता है।
कोंसरनाग पीर पंजाल का ही एक बड़ा सरोवर है।
घटना व संवाद
बाल्यवास्था में अंग्रेज़ी लेखक राइडर हैगर्ड का एक रोमांचक उपन्यास पढ़ते हए जब नायक के विषय में की गई किसी की भविष्यवाणी पढ़ी थी कि ‘डेथ विल कम टू हिम स्विटली ओवर द वाटर्स’ अर्थात जल-विस्तार के पार से उसका काल दूत वेग से आएगा, तब एक सनसनी शरीर मे दोड़ गई थी।
विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक अन्वेषी दल की सदस्यता सहर्ष स्वीकार की थी, तब विद्युददर्शक-अन्वीक्षक-प्रकाशचित्र-ग्राहक यंत्रों के मरुस्थल में पानी की कुल्या की झाँई तक न दीखी थी।
रावलपिंडी-कोहमरी-दुमेल होता हुआ कश्मीर पहुँचा था सैलानी के रूप में ही।
नया-नया विज्ञान का ग्रेजुएट था।
शादीपुर की सड़क पर परिहासपुरा के बौद्ध अवशेषों कि द करते हुए, अपराह्न् श्रीनगर पहुँच गए।
तेरा अगर कोई साथी नहीं है तो, ऐ मेरे दिल। चिन्ता न कर। बन्दी गृह में दीवारों से अच्छा नातेदार और कौन होगा। प्रेम की व्यथा का आनन्द उन से पूछ जो बेदर्द हैं। जो बीमार नहीं वह स्वास्थ्य का मूल्य क्या जानेगा?
उसके बाद श्रीनगर छोड़ कर सीधे गुलमर्ग की राह पकड़ी। वास्तविक अभियान यहीं से आरम्भ ह ता है।
गुरु पत्नी ने हँस कर कहा— इनके नेतृत्व में अन्वेषण करने जा रहे हो। मैंने तो इन्तें तुम्हें सौंपा, और तुम से वसूल कर लूँगी।
प्रोफ़ेसर ब—मेरे भौतिक विज्ञान के अध्यापक रहे।
राधाकृष्णन् के “हिन्दु जीवन दर्शन” का विशद और सटीक अध्यन हम लोगों ने उनकी बाइबल क्लास में ही किया
अपने धर्म का विवेकपूर्ण अनुसरण ही सच्ची ईसायत है, यह वह प्राय: कहाकरते थे।
पानी की गहराइयों में माप लेने का काम मेरे गुरुजी के सुपुर्द था। वर्ष-भर वह यंत्रादि करते रहे थे, अब पंजाब विश्वविद्यालय ने साहाय्य रूप में वैज्ञानिक सामान की ढुलाई का ख़र्च उठाने का वचन दिया था। यंत्र बनाने आदि के लिए शिकागो विश्वविद्यालय ने सहायता दी थी।
गुरु-शिष्य के अतिरिक्त दो व्यक्ति इसमें और थे—एक रसायन-शास्त्र के प्रोफ़ेसर, दूसरे उनके भतीजे उद्भिज-विज्ञान के अध्येता, जिन्होंने हाल में अपने विषय में एम.एस.सी की परीक्षा सम्मानपूर्वक पास की थी, और जिन्हें बड़े जोशी जी, और छोटे जोशी जी कहा जाएगा।
बड़े जोशी जी कुछ औषधियों की खोज के लिए आए थे। गिलगित मार्ग में अनुसन्धान पूरा कर हमलोगों के साथ मिल गए।
दल का पाँचवाँ सवार था ख़ानसामां रहमत, जिसके चुनाव में विशेष परिश्रम करना पड़ा था।
दाहिने झेलम (वितस्था, जिसे कश्मीरी वियत्थ कहते हैं) और बाएँ शालिखेत—यों बढ़ते हुए हम लोग पामपुर पहुँचेष यहाँ के नानबाई अद्वितीय हैं।
कोंसरनाग पीर पंजाल का ही एक बड़ा सरोवर है।
शुपियाँ की बस्ती रेम्बियारा नदी के पार थी।
निशा के बाद उषा है, किन्तु
देख बुझता रवि का आलोक
आ करण हो कर सहसा मौन
ज्योति को देते विदा सशोक….
भीतर घुस कर उसे निकाला। हलके नीले रंग का एक पोस्त का फूल। सुन रखा था कि पहाड़ों में हिम-रेखा के आस-पास यह नीला पोस्त पाया जाता है और इसे पाना शुभ होता है।
फूल ने सिर झुका कर, आह भरते हुए कहा—“ठीक है, जो मुझे पाता है उसका भाग्योदय होता है किन्तु मैं जब पाया जाता हूँ तो मेरी मृत्यु हो जाती है।”
रूप की सीढी पर एक तल ऐसा आता है जहाँ रंगों का महत्व नहीं रहता। उसतल तक हम सुन्दर की बात करते हैं, किन्तु वहाँ जा कर यह शब्द ओछा पड़ जाता है और विराट् का आविर्भाव होता है।
अभियान लम्बा होने लगा। इस बीच एक दुर्घटना घटी।
बड़े विद्युददर्शक को 250 फुट गहरा डाला गया। झील की गहराई कितनी थी इस की थाह न पा सके। 350 फुट तक गहराई हमने नापी थी और हमारी रस्सी चुक गई थी।
हलकी होती हुई ऊपर उठी और काँपते हाथों से गुरुजी ने जब उसका अन्तिम अंश निकाला तो देखा, उसके नीचे कुंडा छूंछा लटक रहा था, विद्युददर्शक नहीं था।
जो लोग कम बोलते हैं, वे यों ही मुझए अच्छे लगते हैं। किन्तु जो लोग काम के वक़्त एक शब्द भी नष्ट नहीं करते, उनके सामने मैं श्रद्धा-विनत हूँ।
तीन दिन और नाम उकेरने में लगा कर मैंने शिलालेख तैयार कर दिया ‘कॉस्मिक रे एक्सपेडिशन, अगस्त, 1939,’ इस के बाद चारों के नाम और कॉलेज का नाम। इस शिला के आस-पास बैठ कर फोटो भी लिया गया। मैने फ़ोटो लिया, अत: मेरे स्थान पर एक टोपी रख दी गई।
सृष्टि का सिरताज मानव शक्ति के घोड़े पर चढ़ कर पतन के कितने गहरे गर्त में जा सकता है, इस की कोई सीमा नहीं है।
हमारे पीछे श्रीनगर में बाढ़ आ गई थी।
रात में वृष्टि हुई थी। सामान बुरी तरह भीग गया था। चित्रों के मूल नेगेटिव-गुरुजी के, जोशी जी के, और मेरे—सब भीग कर नष्ट हो गए थे। एक सूखा निकला, उसे तत्काल धोया, तो उसमें निकले मेरे खोदे हुए, हमारे ‘समाधि-लेख’ के दो चित्र।
“अब इस चित्र का ऐतिहासिक महत्व और भी बढ़ गया। पूरे अभियान का यही चित्र बचा है”।
गुरुजी ने कहा—“हाँ, और उसे चरम गौरव देने के ले हम सबको बाढ़ में डूब जाना चाहिए था। पर मुझे तो इतिहास की अपेक्षा अपने प्राण प्यारै हैं”।
अगले पाँच-छ: दिनों से दुर्घटनाओं की ऐसी झड़ी लगी कि हमें चिंतित होने का भी समयन मिला।
राइडर हैगर्ड के उपन्यास की भविष्यवाणी ‘डेथ विल कम टू हिम स्विटली ओवर द वाटर्स’ सच न हुई, मृत्यु न आई, केवल उसकी सम्भावना की वह उत्तेजना आई जो निरे अस्तित्व में स्फूर्ति उत्पन्न् करके उसे जीवन बनाती है। जीवन के भोज्य के फटरसों में जो रामरस है।
अध्याय – 3 देवताओं के अंचल में (Devtaon ke anchal mein)
देवताओं के अंचल का परिचय
देवताओं के अंचल में लेखक ने कुल्लू मनाली की बात की है। और कई सारे मन्दिर होने के कारण कुल्लू को देवताओं का अंचल कहा है। यह यात्रा लेखक ने 1935 से 1940 के बीच में की थी।
इसमें लेखक ने बताया है, वह अपने स्वास्थ्य लाभ के लिए और मुख्य रूप से एक उपन्यास के लिए उसने यह यात्रा की थी।
घटना व संवाद
शिमला में कुल्लू को देवताओं का अंचल कहा गया है।
जुलाई 1935 सिविल सेक्रेटेरियट कें बड़े फाटक से बाहर निकलते ही मैंने लम्बी साँस ली।
कवि गा गए हैं—
आइ एम मास्टर ऑफ़ माइ फेट
आइ एम द कैप्टन आफ़ माइ सोल
रात ग्यारह बजे लाहौर से रेल में बैठा, तड़के चार बजे पठानकोट में गाडी बदल कर पालमपुर, कांगड़ा, बैजनाथ इत्यादि को लाँघता हुआ तीसरे पहर जोगेन्द्रनगर पहुँच गया।
मंडी जाने वाली मोटर में बैठ कर मैं ‘देवताओं के अंचल’ कुल्लू की ओर बढ़ चला।
चार घंटे की यात्रा के बाद हम लोग दिन छिपते मंडी पहुँच गए।
मंडी के राजा सूर्यवंशी हैं, अत: जब वह मंडी में होते हैं, तब सांय-प्रात: सूर्य की विदाई और स्वागत के लिए बैंड बजता है।
मोटर को देवताओं की सृष्टि मानव के पीछे-पीछे चलना पड़ा। मंडी से कुलू प्रदेश में जाते हुए व्यास नदी का एक रस्सी का झूलना पुर पार करना पड़ता है। जिस पर सैलानी का जाना ख़तरनाक है।
सैकड़ों देवी-देवताओं और उनके मन्दिरों के कारण और इस विराट देव-सम्मेलन के कारण ही, कुलू प्रदेश का नाम ‘देवताओं का अंचल’ (वैली ऑफ़ द गॉड्स) पड़ा है।
यहाँ पर दशहरे के दिन विजयी राम का जो उत्सव होता है।
प्रथम विजयी जाति के आक्रमण के बाद शायद और आक्रमण इधर नहीं हुए, क्योंकि यहाँ पर हिन्दू धर्म का जो रूप मिलता है, वह अन्यत्र नहीं। विजेताओं की राम-पूजा और विजितों की देव-पूजा में एक समन्वय हो गया, वही अब तक क़ायम है। कुलू प्रान्त में व्यास कुंड, व्यास मुनि, वसिष्ठ आदि ऋषि-मुनियों के स्थान हैं, पांडवों में मन्दिर है, भीम-पत्नी हिडम्बा ‘देवी’ भी पूजा पाती हैं, और सबसे बढ़ कर महत्वपूर्ण बात यह है कि वहाँ पर ‘मुनि-रिखि’ या मनु भगवान का भी एक मन्दिर हैष शायद भारत में यह एकमात्र स्थान है, जहाँ मानवता का यह स्वयंभू आदिम प्रवर्तक मन्दिर में प्रतिष्ठित हो और पूजा पाता हो।
मनाली देवताओं के अंचल का ऊपरी छोर—कुलू से 23 मील है। अध-बीच में कटाईं की बस्ती है जहाँ एक मिडिल स्कूल है।
व्यास नदी के बहाव के कारण जो भूमि कट कर समतल हो गई है, उसमें कट्राईं सबसे सुन्दर स्थान है।
महादेव का एक प्राचीन मन्दिर अपने सौन्दर्य के लिए ख़ासतौर से दर्शनीय है। रूपसी कलाकार रोयरिच द्वारा स्थापित हिमालयन रिसर्च इंस्टिट्यूट भी यहीं है। यह संस्था रोयरिच के भाई डॉक्टर जॉर्ज रोयरिच की देख-रेख में हिमालय की भाषाओं, जातियों, लोक-साहित्य और वनस्पतियों के सम्बन्ध में अनुसन्धान करती है।
कलाथ में गर्म पानी का एक कुंड है, जिसमें गन्धक और अन्य रसायन काफ़ी मात्रा में होते हैं।
मनाली या मुनाली ने यह नाम मुनाल नामक पक्षी से पाया, जो यहाँ बहुतायत से होता है।
मनाली को वहाँ के सेबों के कारण ही जानते हैं। सेब और नाशपाती के लिए मनाली शायद संसार में सबसे बढ़िया स्थान है।
मनाली की दो बस्तियाँ हैं। एक तो बाहर से आ कर बसे हुए लोगों द्वारा बनाए हुए बँगलों और बाज़ार वाली बस्ती, जो दाना कहलाती है; और दूसरी उससे क़रीब मील-भर ऊपर चल कर ख़ास मनाली गाँव की।
रोहतंग की जोत पर ही व्यास-कुंड है।
चीड़ के जंगल में हिडिम्बा देवी का मन्दिर है। पंच-मंज़िला मन्दिर दर्शनीय है।
हमारी मोटर दाना पहुँची, तो परिचित बैनन बन्धु मुझे लेने आए थे, उन भाइयों के पिता कर्नल बैनन उस प्रदेश में आ कर बसने वाले सबसे पहले विदेशी सज्जन थे।
मैं अकेला था, बैनन बन्धुओं ने मेरे लिए मनाली गाँव के सिरे पर ही एक छोटा मकान ठीक कर दिया था।
मैं वहाँ आया तो था स्वास्थ्य-लाभ करने, लेकिन सबसे बड़ी आकांक्षा यह भी कि एकान्त में रह कर एक बड़ा-सा उपन्यास लिख डालूँगा।
पहले ही दिन मैंने पाया कि ‘प्रिज़न डेज़ एंड अदर पोएम्स’ नाम के एक आगमिष्यत् कविता-संग्रह का सूत्रपात हो गया है। जब मैं महीने-भर बाद लौटा, तब वह पूर्ण-सा हो चुका था।
अध्याय – 4 मौत की घाटी में (Maut ki ghati mein.)
मौत की घाटी का परिचय
कुल्लू में लेखक को घूमने लायक कोई स्थान समझ नहीं जिस कारण वह कुल्लू से थोड़ी दूरी पर मनाली की ओर गया है।
यहाँ उसे जो घर मिला रहने को उस घर पर वहाँ के लोगों ने पत्थरों की वर्षा की।
लेखक इस अध्याय में बताता है कि मैदानी इलाके के लोगों ने जाकर ही पहाड़ी इलकों में गंदगी फैलाई है। परिणाम स्वरूप समतल इलाको से ही पहाड़ी इलाकों में बीमारियाँ भी गई हैं।
क्योंकि यह बीमारियाँ वहाँ पहले नहीं थी, इसलिए वहाँ के लोगों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित नहीं हुई है।
उनका जीवन बहुत सरल होता है, वहाँ विवाह और तलाक होना भी समतल इलाकों के मुकाबले असान होता है।
रोहतंग की प्रसिद्ध हवा को लेखक ने घातक बताया है, और इसी को ‘मौत की घाटी’ का मुख्य श्रेय दिया है।
घटना व संवाद
क्षुद्र मानव को कभी-कभी देवताओं का समकक्षी हो सकने का सौभाग्य प्राप्त है, लेकिन वह सौभाग्य अधिक देर तक बना नहीं रह सकता। सृजन के क्षण चिरस्थायी नहीं होते, वे आ कर उड़ जाते हैं।
‘सिक्स मेमोरेबल डेज़ एंड नाइट्स—छ: स्मरणीय् दिन और रातें…
छ: दिन बिताए। क्योंकि दिन क्या हैं? उसका अस्तित्व तो उनमें भोगी हुई चीज़ों या अनुभूतियों के कारण ही है…
उस समय हलके सफ़ेद बादलों से घिरी हुई मनाली ऐसी सोहती थी मानो किसी आकाशवासी जौहरी ने धुनी हुई रूई में लपेट कर बढ़िया पन्ना रख दिया हो।
ख़ैर, मैं मनाली गाँव लाँघ कर मनु-रिखि के मन्दिर के पास से होता हुआ ऊपर चढ़ता गया।
रात में मेरे घर पर पत्थर बरसाए गए। पहले मैंने समझा कि ओले पड़ रहे हैं, लेकिन बाहर आ कर देखा कि आकाश स्वच्छ है, और तभी एक और बौछार हुई।
एक हलकी-सी जिज्ञासा मन में उठी, क्या यह घर भुतहा है? भूत मैंने कभी देखे नहीं, देकने की उत्कंठा ही लिए रह गया हूँ।
मैं सो गया। दूसरे दिन मैंने श्रीयुत बैनन से सारी बातें कहीं। उन्होंने बताया कि पिछले साल जो लोग उस घर में आ कर ठहरे थे उन्होंने गाँव की स्त्रियों से कुछ छेड़-छाड़ की थी। मनाली के लोग बड़े अभिमानी हैं, ऐसी बात नहीं सह सकते।
अब वे शायद उस घर में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर सन्देह करने लगे हैं…
मैं वह मकान छोड़ कर मनाली से उतर नई बस्ती दाना में आ गया—बैनन साहब ने अपने बँगले का आधा हिस्सा मुझे दे दिया। यहाँ पर उनके सेबों के बाग़ में उनकी शिशु कन्या शकुन्तला की गम्भीर नीली आँखें और तीव्र हँसी देख कर मैं उस दर्द को भुलाने लगा जो मनाली वाले घर में मेरे भीतर जाग उठा था।
‘देवताओं का अंचल’ सचमुच आज मौत की घाटी हुआ जा रहा है। मौत वहाँ के कोने-कोने में घुसी जा रही है।
इसका उत्तरदायित्व देवताओं पर नहीं, मानवों पर है, और उन मानवों पर जो अपनी सभ्यता के मद में चूर रहते हैं।
अपनी भद्दी छाप से ही हमने पहाड़ो का सौन्दर्य विकृत कर दिया है, आज भारत केपहाड़ी इलाक़ों में शायद ही कोई ऐसा स्थल बचा है जो दूषित नहीं हो गया है। जिसे दर्पोद्धत, बैवकूफ़ सभ्य मानव ने यह कह कर कि ‘तुम सुन्दर हो? तो लो, मैं अपने कलंक से तुम्हें भी काला कर सकता हूँ।
तो वे वही स्थल हैं जहाँ पुराने सौन्दर्य का कोई चिन्ह ही नहीं बचा, जिसे हमने अपने जैसा ही बना लिया है—सभ्य और सड़ा हुआ।
अंग्रेज़ी के एक कवि ने कहा है—“जब मैं झील के स्वच्छ पानी में झाँक कर वहाँ के छोटे-छोटे भागते हुए जानवर और रंग-बिरंगी घास-फूस नहीं देखता, तब मैं एक मूर्ख के चेहरे का प्रतिबिंब देखता हूँ।
तोल्स्तोय ने एक कहानी में बताया है कि एक साधु जब किसी शहर से लौट कर वहाँ होने वाले पतन का रोमांचकारी चित्र खींच कर अपने साथियों को साधना का महत्व बताने लगा, तब सारी साधुमंडली अपना-अपना डोरिया-डंडा सँभाल कर शहर की ओर ही दौड़ पड़ी?
समतल भूमि के लोग श्रेष्ठता के घमंड से भर कर कहते हैं कि पहाड़ो में क्षयी और मैथुनज रोगों के होने का कारण पहाड़ी लोगों का गन्दा जीवन और नीति-भ्रष्ट आचार है। यह अपने पाप को छिपाने का प्रपंच है। वास्तव में, ये रोग-समतल भूमि से वहाँ गए हैं। पहाड़ो में इन रोगों का नाम-निशान न होने के कारण ही वहाँ के लोग इ के प्रति निरापद (इम्यून) नहीं थे।
इस दृष्टि से पहाड़ियों का आचार (रहन-सहन) उनके जीवन के सर्वथा अनुकूल है—यानी अनीतिमय नहीं है। कुलू के अंचल से और आगे हिमाचल के हृदय के निकट बसने वाले लाहुली लोगों का आचरण इसका उदाहरण है। उन लोगों में शादी की रस्म बहुत सरल है और तलाक़ की रस्म उससे भी सरल। उनका जीवन हमारे जीवन की अपेक्षा कहीं अधिक स्वच्छ और नियमित है।
उनके पाँच-: तलाक़ों में ‘मजिस्ट्रेट’ का काम करने के बाद मुझे यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं है कि अपने आचार-शास्त्र के भीतर लाहुली लोग जितने नीतिवान् हैं, हम लोग उसका दशमांश भी अपने नियमों के सम्बन्ध में नहीं हैं।
मनाली से रोहतंग तेरह-चौदह मील है। पहला पड़ाव कोठी पर (जहाँ डाक-बँगला है और खाद्य-सामग्री भी मिलती है) या राहला पर होता है। राहला से ही रोहतंग की चढ़ाई आरम्भ होती है, अत: हमने वहीं पड़ाव करने का निश्चय किया। राहला मनाली से आठ मील है।
चलते समय तीन साथी हमारे साथ और मिल गए थे, जिनमें से एक की खादन-शक्ति का अनुमान हमें नहीं था।
रोहतंग जोत की चोटी पर, राह से कुछ ही दूर पर हट कर व्यास कुंड है, जहाँ एक छोटे सोते को दीवार से घेर कर मन्दिर-सा बना लिया गया ह। मैंने वहाँ पानी पिया, फिर धूप सेंकने के लिए लेट गया—तब रोहतंग की प्रसिद्ध हवा चलने लगी थी। नित्य ठीक दोपहर को यह चलती है, और इतनी घातक है कि ‘मौत की घाटी’ नाम का मुख्य श्रेय उसी को है।
डर, प्रेम और भूख भी जब छूट जाते हैं, तब भी मानव की अपने-आपको क़ायम रखने की लालसा बनी रहती है। अपनी जाति को बनाए रखना, अपने को बनाए रखने का दूसरा नाम है, इस प्रकार यह स्थायित्व चेष्टा वास्तव में सृजन की चेष्टा है।
अध्याय 5 – एलुरा (Elura)
एलुरा परिचय
महाराष्ट्र में मौजूद एलुरा की गुफ़ाओं में लेखक गया था। उसी के विषय में बात करता है, बात करते हुए औरंगाबाद और दौलताबाद का भी ज़िक्र करता है, जिसका सम्बन्ध औरंगज़ेब से होता है।
ऐसे में लेखक विचार करता है कि क्यों औरंगज़ेब ने अपनी मृत्यु के लिए यह स्थान चुना? प्रकृति के कारण या कुछ ओर, लेकिन प्रकृति तो वहाँ भी थी, जहाँ उसके पूर्वजों ने अपनी ज़िन्दगी पूरी की थी।
इसी विचार के साथ इस अध्याय को लेखक समाप्त करता है।
घटना व संवाद
औरंगाबाद—जैसा कि नाम से ही प्रकट है—औरंगज़ेब ने बसाया था। खुल्दाबाद भी उसी की कृति है। खुल्दाबाद के अर्थ है—‘स्वर्ग की बस्ती’।
औरंगाबाद से उत्तर-पूर्व, चौदह-पन्द्रह मील दूर, दौलताबाद के दुर्ग के नीचे से हो कर जाती हुई सड़क से खुल्दाबाद की छोटी-सी बस्ती पड़ती है।
औरंगज़ेब और उसके सारे परिवार को वहीं मदफ़न मिला—औरंगज़ेब के जराजीर्ण और दूसरों के हिंसा-प्रतिहिंसा-जर्जर शरीरों को वहीं मिट्टी मिली—अपने ही रचे हुए स्वर्ग में सब मिट्टी हो गए।
खुल्दाबाद उस उच्च समतल भूमि की छत पर बसा है, जिस की पश्चिमी ढाल पर एलुरा की गुफाएँ हैं।
कोई सवा मील के प्रासाद में छोटी-बड़ी पैंती कन्दराएँ हैं—बौद्ध, ब्राह्मण और जैन, बीचोबीच में कैलास है।
जीवात्मा की परमात्मा में लीन हो जाने की उत्कंठा ही मुमुक्षा है, मन्दिर और देवालय उसके मूर्त प्रतीक हैं।
गुफाओं के सामने कुछ दूर पर अहल्याबाई का मन्दिर है, और उसके पास एक ताल जो साँझ के प्रकाश से चमक उठता है।
एलुरा की गुफाएँ तीन श्रेणियों में सहज ही बँट जाती हैं।
क्या सोचकर तुम ने अपने मरण-स्वर्ग के लिए वह स्थल चुना था, औरंगज़ेब। प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण? सौन्दर्य वहाँ है, नि:सन्देह, लेकिन तुम्हारे बुजुर्ग कश्मीर गए थे, कश्मीर जा कर भी उन्होंने अपनी विलासिता के ही साधन रचे, पर प्राकृतिक सौन्दर्य तो वहाँ था। क्या ज़ेबुन्निसा की अचूक कवि-दृष्टि जो सौन्दर्य देख सकी थी उसके प्रति तुम बिलकुल ही अन्धे थे? या कि विलासिता का विरोधकरने के लिए ही तुम बुज़ुर्गों की लीक छोड़ कर दक्षिण गए?
पर क्या तुम नहीं जानते थे कि साधना का एक अहंकार भी होता है जो साधना को ले डूबता है क्योंकि जहाँ अहंकार का विसर्जन नहीं है वहाँ विनय नहीं है, और जहाँ विनय नहीं है वहाँ साधना कैसे हो सकती है?
अध्याय – 6 माझुली (Majuli)
माझुली अध्याय का परिचय
माझुली द्वीप असम में ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में बसा एक द्वीप है। यहाँ जब लेखक गया था, तो उस यात्रा का चित्रण इस अध्याय में किया है। वह बाढ़ के दिनों में दूसरी बार गया था
माझुली द्वीप भारत के पूर्वी क्षेत्र में स्थित है। इसमें स्थानीय लोगों के अर्थिक और स्वास्थ्य समस्याओं का शाब्दिक चित्रण लेखक ने किया है।
घटना व संवाद
नागकेसर के फूल तब पूर्ण विकसित हो चुके थे, पँखुड़ियाँ झरने लगी थीं।
मैंने मधुमक्खियों से बचते हुए अशोक के उन दीप्तवर्ण फूलों का एक गुच्छा तोड़ लिया। तब नहीं जानता था कि क्यों, लेकिन थोड़ी देर बाद अपने पैरों की गति देख कर जाना कि मैं शुभ्रा के घर की ओर जा रहा हूँ।
असम के बाँसों से घिरे पथ में वही ध्वनि पवन की सरसराहट के साथ मिल कर एक अद्भुत संगीत का रूप लेती।
तड़ते तीन बजे चला था, सात बजे ब्रह्मपुत्र के तट पर पहुँच गया।
असमिया लोग ख़ूब हँसते हैं। बाधाओं पर और भी अधिक हँसते हैं। इसलिए कि वे बाधा को बाधा मानते ही नहीं, वह तो केवल काम न करने की एक युक्ति है, और काम न करना पड़े तो क्यों न हँसा जाए।
जिस तरह कश्मीरियों की प्रिय उक्ति है, ‘कुछ फिकिर नई’ उसी तरह असमियों की जीवनालोचना का निचोड़ जिस एक वाक्य में आ जाता है वह है ‘बड़ दिकदारी’। मैंने हवा की ओर मुँह उठा कर कहा—‘बड़ डिकडारी’। असमिया लोग ‘द’ को प्राय: ‘ड’ ही उच्चारण करते हैं।
नानी कहा करती थी, “यह लड़का न जाने कैसी घड़ी में जन्मा है। उलटी गंगा बहाएगा’ गंगा तो पुण्यसलिला है, पर ब्रह्मपुत्र ज़रूर उलटा बहाया जा सकता है, आप मान लें।
मेरे साथ मेरा अनुचर मनदोज भी था।
तो ब्रह्मपुत्र के समतल मार्ग के बीच में माझुली नाम का एक द्वीप है। नदियों में छोटे-छोटे टापू होना मामूल बात है। लेकिन माझुली अपने ढंग का अनूठा टापू है—संसार की किसी और नदी में 70 मील लम्बा और 10 मील चौड़ा, लगभग 25 हज़ार की जनसंख्या वाला द्वीप मैंने तो नहीं सुना।
माझुली का यही एक महत्व हो सो नहीं। असमिया सांस्कृतिक जीवन में उसका एक गौरवपूर्ण स्थान है। वैष्णव सन्त शंकर देव और उनके शिष्य माधव देव के सम्प्रदाय ने यहीं पर सत्र स्थापित किए।
दूसरी बार माझुली आ कर मैंने देखा कि द्वीप के हिंस्र पशुओं के साथ भी मानो मानव द्वीपवासियों का अलिखित समझौता है…
दूसरी बार जब गया तब बाढ़ के दिन थे।
आउनियाटी सत्र के सत्राधिकारी ने हाथी भेजा। हाथी छोटा था—इतना छोटा कि उसकी पीठ पर घोड़े की तरह काठी मार कर बैटा जा सके। किन्तु अत्यन्त फुर्तीला।
प्रस्ताव भी निकला कि मैं शिष्य-मंडली को तत्कालीन विश्व-परिस्थिति पर प्रवचन भी दूँ।
“कमिश्नर तो फिरंगी है न, मैं तो अपने देश का आदमी हूँ, और फिर वह अधिकार से आता है, मैं तो मिलने आया था—”
महावत ने सिर हिला कर कहा—“ना आपोनि बिड्डान मानुह”। नहीं, आप विद्वान मानुष हैं।
बाँग्ला लिपि मैं जानता था, इसलिए असमिया पढ़ ही सकता था, और शंकरदेव-माधवदेव के जो कुछ भक्ति के गीत मैंने पढ़ कर देखे वे ब्रजभाषा के काफ़ी निकट मालूम हुए—“बड़-गीत” (महादेव और शंकर देव के गीत) नागरी में छपे हों तो हम सब समझ लें।
गड़ामूर के सत्राधिकार और उनके पुत्र दोनों नज़रबन्द हैं, यह मैं जानता था।
सन् 1942 में यह सरकार का और स्थानीय अधिकारियों का विशेष रूप से कोप-भाजन बना। पंडित जवाहरलाल नेहरू जब असम गए तो माझुली में गड़ामूर के ही अतिथि हुए थे, और वहाँ के गोसाईं अपनी सज्जनता, उदारता औऱ विद्वत्ता के कारण जनप्रिय थे।
सन् 1942 के अगस्त आन्दोलन के बाद ही गोसाईं को और फिर उनके युवा पुत्र को नज़रबन्द करलिया गया था। तब से अधिकारी गड़ामूर के नाम से ही भड़कते थे।
और एक दिन मैं गड़ामूर गया था। मलेरिया और जूड़ी, पेचिश और मियादी बुख़ार से बहुत से लोग पड़े थे, कोई घर ऐसा न था जिसमें एक रोगी न हो।
माझुली द्वीप की 22-24 हजार की आबादी के लिए केवल एक सरकारी दवाख़ाना है, जिसे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड से दो सौ रूपए वार्षिक सहायता मिलती थी।
मलेरिया से बचने या मुक्त होने के लिए व्यक्ति कुनैन की एक खुराक का एक-चौथाई अंश साल में एक बार पा सकता है।
अध्याय 7 बहता पानी निर्मला (Bahata paani Nirmala.)
बहता पानी निर्मला घटना व संवाद
यात्रा करने के कई तरीक़े हैं। एक तो यह कि आप सोच-विचार कर निश्चय कर लें कि कहाँ जाना है, कब जाना है, कहाँ-कहाँ घूमना है, किनता ख़र्च होगा।
दूसरा तरीक़ा यह है कि आप इरादा तो कीजिए कहीं जाने का, छुट्टी भी लीजिए, इरादा और पूरी योजना भी चाहे घोषित कर दीजिए, पर ऐन मैक़े पर चल दीजिए कहीं और को।
सोनारी एक छोटा-सा गाँव है—अहोम राजाओं की पुरानी राजधानी शिवसागर से कोई अठारह मील दूर।
असम भी ‘सोनार असम’ सोने का असम कहलाता है। बरसात के दिन थे, रास्ता ख़राब, एक दिन सवेरे घूमने निकला तो देखा कि नदी बढ़ कर सड़क के बराबर आ गई है। मैं शिवसागर से तीन-चार मील पर था।
वास्तव में जितनी यात्राएँ स्थूल पैरों से करता हूँ, उससे ज़्यादा कल्पना के चरणों से करता हूँ।
नहीं तो मेरी आपको सलाह है. “जनाब, अपना बोरिया-बिस्तर समेटिए और ज़रा चलते-फिरते नज़र आइए।” यह आपका अपमान नहीं है, एक जीवन दर्शन का निचोड़ है। ‘रमता राम’ इसी लिए कहते हैं कि जो रमता नहीं, वह राम नहीं। टिकना तो मौत है।
अध्याय आठ- सागर-सोवित, मेघ-मेखलित (Sagar-Sovit, Megh-Mekhala)
(कन्याकुमारी से नन्दादेवी)
कालीदास ने जब कुमार सम्भव की परिकल्पना आरम्भ करते ही पूर्व और अपर समुद्रों को हिमालय के साथ जोड़ दिया….
जन्म से ही मेरा सम्बन्ध प्राचीन स्थलों और पुरावशेषों से रहा। यह संयोग की बात थी कि जिस स्थल पर जन्म हुआ वह बुद्ध का परिनिर्वाण-स्थल था। पर जब होश सँभाला तब से ऐसे अनेक स्थलों का सान्निध्य प्राप्त हुआ जिनके साथ शिव और पार्वती के पौराणिक सन्दर्भ जुड़े हुए थे।
यात्रा का स्वप्न बचपन से ही साथ रहा। लोग छोर मिलाते समय प्राय: अनुप्रास का सहारा ले कर ‘कश्मीर से कन्याकुमारी’ तो कह देते हैं, पर पूर्व-पश्चिम के छोर मिलाने के इतने प्रचलित जोड़े शायद नहीं हैं।
यात्रा भी वही सफल गिननी चाहिए जो किसी अर्थवत्ता का आभास दे सके।
यात्रा भी उसी यायावरी ढंग से करने की आकांक्षा फिर दीप्त हो उठी।
पथ-निर्धारण का आधार यही था। इस प्रकार यात्रा के छोर लगभग एक ही देशान्तर देखा पर रहे—यानी वास्तव दक्षिण-उत्तर यात्रा रही।
मद्रास से उज्जैन तक की यात्रा भी एकाधिक बार अलग-अलग रास्तों से पूरी करली। उज्जैन से दिल्ली तक तो शिवपुरी-ग्वालियर हो कर भी आया हूँ।
कुट्टैमुरम में- ताल के दो तने बाँध कर बनाई हुई नाव में जिसके ऊपर से लहरें निकल जाती थीं।
मन्दिर भी नहीं, पर सबसे अधिक गहरा प्रभाव पड़ता है उस भावना का जिस ने इन मन्दिरों को सम्भव बनाया—उस आस्था का, उस विश्व-दर्श का, उस परम्परा का, उस संस्कृति का, जिसके ये अवशेष हैं।
और इस प्रकार हिमाचल के अंचल में—यों तो किसी भी अंचल में, पर मेरा प्रिय कूर्मांचल है और यहाँ।
हाँ, यहाँ मैं यात्रान्त पर खड़ा हो कर निहारता हूँ कि यात्रा कहाँ से आरम्भ होती है, और गुरल कांकड़ की ही तरह पैर साधता हुआ फिर चल पड़ता हूँ—क्योंकि डगर जहाँ चुकती है, यात्रा वहाँ आरम्भ होती है, चला चल डगर पर।
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