Study Material : संस्कृति के चार अध्याय का सारांश | Summary of Sanskrti Ke Chaar Adhyaay

Study Material : Net JRF Hindi संस्कृति के चार अध्याय का सारांश | Summary of Sanskrti Ke Chaar Adhyaay

Table of Contents

परिचय (Introduction)

संस्कृति के चार अध्याय के लेखक रामधारी सिंह दिनकर हैं। इसका प्रकाशन 1956 में हुआ था। इस रचना को 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला है।

विषय – भारतीय संस्कृति के साथ-साथ इसको प्रभावित करने वाले कारकों पर बात किया गया है। लेखक इसे साहित्य ग्रंथ मानता है।

प्रमुख तथ्य (Key Facts)

इस पुस्तक की प्रस्तावना जवाहर लाल नेहरू ने लिखा था।

दिनकर ने जो बात इस पुस्तक के संस्करण के लिए लिखा है उसे लेखक का निवेदन में संकलित किया गया है।

इस पुस्तक को दिनकर इतिहास ग्रन्थ नहीं, साहित्य का ग्रन्थ मानते हैं।

पूरे भारतीय संस्कृति को 4 क्रांतियों में बांटते हैं-

1 आर्यो का भारतवर्ष में आगमन या आर्येतर जातियों से संपर्क।

2 महावीर एवं बुद्ध द्वारा स्थापित संस्कृति के विरूद्ध विद्रोह।

3 इस्लाम का आगमन और विजय।

4 भारत में यूरोप का आगमन अर्थातअंग्रेजो का आगमन।

लेखक का निवेदन – दिनकर (Author’s Request – Dinkar)

लगभग दो वर्षों के अध्ययन के पश्चात् मेरे सामने यह सत्य उद्भासित हो उठा कि भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रान्तियाँ हुई हैं और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रान्तियों का इतिहास है।

पहली क्रान्ति तब हुई, जब आर्य भारतवर्ष में आए अथवा जब भारतवर्ष में उनका आर्येतर जातियों से सम्पर्क हुआ। आर्यों ने आर्येतर जातियों से मिलकर जिस समाज की रचना की, वही आर्यों अथवा हिन्दुओं का बुनियादी समाज हुआ और आर्य तथा आर्येतर संस्कृतियों के मिलन से जो संस्कृति उत्पन्न हुई, वही भारत की बुनियादी संस्कृति बनी।

दूसरी क्रान्ति तब हुई, जब महावीर और गौतम बुद्ध ने इस स्थापित धर्म या संस्कृति के विरूद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिन्ताधारा को खींचकर वे अपनी मनोवांछित दिशा की ओर ले गए। इस क्रान्ति ने भारतीय संस्कृति की अपूर्व सेवा की, किन्तु अन्त में, इसी क्रान्ति के सरोवर में शैवाल भी उतपन्न हुए और भारतीय धर्म तथा संस्कृति में जो गँदलापन आया, वह काफी दूर तक, इन्हीं शैवालों का परिणाम था।

तीसरी क्रान्ति उस समय हुई, जब इस्लाम, विजेताओं के धर्म के रूप में, भारत पहुँचा और इस देश में हिन्दुत्व के साथ उसका सम्पर्क हुआ।

चौथी क्रान्ति हमारे अपने समय में हुई, जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ तथा उसके संम्पर्क में आकर हिन्दुत्व एवं इस्लाम, दोनों ने नव-जीवन का अनुभव किया।

इस पुस्तक में इन्हीं चार क्रान्तियों का संक्षिप्त इतिहास है। पुस्तक का उचित नाम कदाचित् भारतीय संसकृति के चार सोपान होना चाहिए था, किन्तु वह नाम मन में आकर फिर लौट गया और मुझे यही अच्छा लगा कि इस पुस्तक को मैं संस्कृति के चार अध्याय कहूँ

इस पुस्तक की अधिकांश सामग्री अंग्रेजी की पुस्तकों से ली गई है, किन्तु, दुर्भाग्यवश, अंग्रेजी में भी कोई पुस्तक ऐसी नहीं है, जिसमें भारतीय संस्कृति के सम्पूर्ण इतिहास की झाँकी एक ही जिल्द में उतार दी गई हो और अंग्रेजी में कोई ऐसी पुस्तक होती भी तो उससे उन पाठकों का तो काम नहीं ही चलता, जिनके लिए मैंने यह ग्रन्थ लिखा है। इस पुस्तक को मैं इतिहास नहीं, साहित्य का ग्रन्थ कहता हूं।

दिन्कर 1956

प्रस्तावना जवाहर लाल नेहरू 1955 (Introduction Jawahar Lal Nehru 1955)

मेरे मित्र और साथी दिनकर ने अपनी पुस्तक के लिए जो विषय चुना है, वह बहुत ही मोहक और दिलचस्प है। यह ऐसा विषय है, जिससे, अकसर, मेरा अपना मन भी ओत-प्रोत रहा है और मैंने जो कुछ लिखा है, उस पर इस विषय की छाप, आप से-आप पड़ गई है। अकसर मैं अपने आपसे सवाल करता हूँ, भारत है क्या? उसका तत्व या सार क्या है? वे शक्तियाँ कौन-सी हैं, जिनसे भारत का निर्माण हुआ है तथा अतीत और वर्तमान विश्व को प्रभावित करनेवाली प्रमुख प्रवृत्तियों के साथ उनका क्या सम्बन्ध है?

मेरा ख्याल है कि किसी भी व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह इस सम्पूर्ण विषय के साथ अकेला ही न्याय कर सके। फिर भी, इसके कुछ खास पहलुओं को लेकर उन्हें समझने की कोशिश की जा सकती है। कम-से-कम, यह तो सम्भव है ही कि हम अपने भारत को समझने का प्रयास करें, यद्यपि, सारे संसार को अपने सामने न रखने पर भारत-विषयक जो ज्ञान हम प्राप्त करेंगे, वह अधूरा होगा

भारत की ओर देखने पर मुझे लगता है, जैसा कि दिनकर ने भी जोर देकर दिखलाया है, कि भारतीय जनता की संस्कृति का रूप सामासिक है और उसका विकास धीरे-धीरे हुआ है। एक ओर तो इस संस्कृति का मूल आर्यों से पूर्व, मोहनजोदड़ो आदि की सभ्यता तथा द्रविड़ों की महान् सभ्यता तक पहुँचता है। दूसरी ओर, इस संस्कृति पर आर्यों की बहुत ही गहरी छाप है, जो भारत में मध्य एशिया से आए थे। पीछे चलकर, यह संस्कृति उत्तर-पश्चिम से आनेवाले तथा फिर समुद्र की राह से पश्चिम से आनेवाले लोगों से बार-बार प्रभावित हुई।

बहुत से मनीषी मार्क्सवाद और उसकी शाखाओं की ओर आकृष्ट हुए और इसमें कोई सन्देह नहीं कि मार्क्सवाद ने ऐतिहासिक विकास का विश्लेषण उपस्थित करके समस्याओं पर सोचने और समझने के काम में हमारी सहायता की। लेकिन, आखिर को, वह भी संकीर्ण मतवाद बन गया और जीवन की आर्थिक पद्धति के रूप में उसका चाहे जो भी महत्व हो, हमारी बुनियादी शंकाओं का समाधान निकालने में वह भी नाकामयाब हैं।

यह मानना तो ठीक है कि आर्थिक उन्नति जीवन और प्रगति का बुनियादी आधार है, लेकिन जिन्दगी वहीं तक खत्म नहीं होती। वह आर्थिक विकास से कहीं ऊँची चीज है। इतिहास के अन्दर हम दो सिद्धान्तों को काम करते देखते हैं। एक ओर तो सातत्य का सिद्धान्त है और दूसरा परिवर्तन का।

हमारे आचरण की तुलना में हमारे विचार और उद्गार इतने ऊँचे हैं कि उन्हें देखकर आश्चर्य होता है। बातें तो हम शान्ति और अहिंसा की करते हैं, मगर, काम हमारे कुछ और होते हैं

सिद्धान्त तो हम सहिष्णुता का बघारते हैं, लेकिन भाव हमारा यह होता है कि सब लोग वैसे ही सोचें, जैसे हम सोचते हैं और जब भी कोई हमसे भिन्न प्रकार से सोचता है, तब हम उसे बर्दाश्त नहीं कर सकते।

घोषणा तो हमारी यह है कि स्थितप्रज्ञ बनना अर्थात् कर्मों के प्रति अनासक्त रहना हमारा आदर्श है, लेकिन काम हमारे बहुत नीचे के धरातल पर चलते हैं और बढ़ती हुई अनुशासनहीनता हमें वैयक्तिक और सामाजिक, दोनों ही क्षेत्रों में नीचे ले जाती है।

पाश्चात्य विचारों से भारत का जो विश्वास जगा था, अब तो वह भी हिल रहा है। नतीजा यह है कि हमारे पास न तो पुराने आदर्श हैं, न नवीन, और हम बिना यह जाने हुए बहते जा रहे हैं कि हम किधर को या कहाँ जा रहे हैं। नई पीढ़ी के पास न तो कोई मानदंड है, न कोई दूसरी ऐसी चीज, जिससे वह अपने चिन्तन या कर्म को नियन्त्रित कर सके।

भारत आज जो कुछ है, उसकी रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ पाते तो हम भारत को भी समझने में असमर्थ रहेंगे। और यदि भारत को हम नहीं समझ सके तो हमारे भाव, विचार और काम, सब के सब अधूरे रह जाएँगे और हम देश की ऐसी कोई सेवा नहीं कर सकेंगे, जो ठोस और प्रभावपूर्ण हो।

जवाहर लाल नेहरू 1955

अध्याय विभाजन (Chapter Division)

“संस्कृति के चार आध्याय” को 4 अध्याय में विभाजित किया गया है।

पहला अध्याय – भारतीय जनता की रचना और हिन्दु संस्कृति का आविर्भाव। इसमें कुल 3 प्रकरण हैं। 1 भारतीय जनता 2 आर्य द्रविड 3 आयेत्तर संस्कृतियों

दूसरा अध्याय – प्राचीन हिन्दुत्व से विद्रोह। इसमें कुल 7 प्रकरण हैं।

तीसरा अध्याय – हिन्दू संस्कृति और इस्लाम। इसमें कुल 12 प्रकरण हैं।

चौथा अध्याय – भारतीय संस्कृति और यूरोप। इसमें कुल 17 प्रकरण है।

अध्याय के कीवर्ड – संस्कृति, आर्य, अनार्य, क्रांति, बोद्ध, जैन, इस्लाम, अंग्रेज। वेद, उपनिषद, कर्मकाण्ड, देवता इत्यादि।

प्रथम अध्याय – भारतीय जनता की रचना और हिन्दू संस्कृति का आविर्भाव

1 प्रथम प्रकरण – भारतीय जनता की रचना

2 द्वितीय प्रकरण आर्य – द्रविड़ समस्याएँ

3 तृतीय प्रकरण – आर्य और आर्येतर संस्कृतियों का मिलन

1 प्रथम प्रकरण – भारतीय जनता की रचना

सबसे युक्तिसंगत अनुमान यह है कि आदमी यदि पहले-पहल भारत में उत्पन्न हुआ हो तो वह उत्तर नहीं, दक्षिण भारत में जनमा होगा।

जनविज्ञान ने संसार की सभी जातियों को, मुख्यत: तीन नस्लों में बाँट रखा है।

पहली नस्ल गोरे लोगों की है, जिन्हें हम काकेशियन कहते हैं। दूसरी नस्ल के वे लोग हैं, जिनका रंग पीला होता है और जो मंगोल जाति के हैं, तथा तीसरी नस्ल उन लोगों की है, जिनका रंग काला है और जो इथोपियन परिवार के हैं।

जनविज्ञान की कसौटी और भारतीय जनता- एक दूसरी दृष्टि से विचार करने पर भारतवर्ष में चार प्रकार के लोग मिलते हैं।

असल में भारतीय जनता की रचना आर्यों के आगमन के बाद ही पूरी हो गई और जिसे हम आर्य या हिन्दू सभ्यता कहते हैं। आर्यों ने भारत में जातियों और संस्कृतियों का जो समन्वय किया, उसी से हमारे हिन्दु समाज और हिन्दु-संस्कृति का निर्माण हुआ।

अब सभी इतिहासकार मानने लगे हैं कि द्रविड़ जाति प्राचीन विश्व की अत्यन्त सुसभ्य जाति थी और भारत में भी सभ्यता का वास्तविक आरम्भ इसी जाति ने किया था। द्रविड़ों ने इस देश में कृषि का विकास किया, समुद्र-यात्रा की परम्परा आरम्भ की, सिंचाई के लिए नदियों को बांधने का कार्य किया।

प्रकरण दो – आर्य-द्रविड़ समस्याएँ

आर्य शब्द की व्युत्पत्ति ऋ धातु से बताई जाती है, जिसका अर्थ गति होता है। आर्य, कदाचित् गत्वर (घुमक्कड़) लोग थे। एशिया के रेगिस्तानी इलाकों से निकलकर जब वे भारत पहुँचे।

ऋग्वेद के अनुसार आर्यों का देश सप्त सैन्धव था।

भारत में एक और जाति के लोग हैं, जो बम्बई और गुजरात में बसे हुए हैं। एक नाम फारसी हैं।

तृतीय प्रकरण – आर्य और आर्येतर संस्कृतियों का मिलन

कर्म, ज्ञान और भक्ति में से कर्म (कर्मकांड) तो सोलह आने आर्यों की देन है, किन्तु ज्ञान और भक्ति का विकास प्राग्वैदिक संस्कृति के प्रभाव से हुआ। अचरज की बात है कि कर्म तो समाप्तप्राय है, सारे देश के धर्म-साधकों में अब ज्ञान और भक्ति विशेषत: भक्ति का ही अधिक प्रचार है।

ऋग्वेद में तीन ही वर्ण हैं, शूद्र को चैथे वर्ण के रूप में वहाँ गिना नहीं गया है। शतपथ-ब्राहमण और तैत्तिरीय-ब्राह्मण भी तीन ही वर्णों स्थिति बतलाते हैं।

आज हिन्दू समाज का सबसे बड़ा अभिशाप यह जाति की प्रथा है और बड़े से बड़े लोग जाति-प्रथा की, वाणी से, निन्दा करने पर भी, कर्म में उसकी अवहेलना नहीं कर सकते।

देश के अर्थ में हिन्दू शब्द का चलन इस्लाम के जन्म से लगभग हजार-डेढ़ हजार वर्ष पहले ही शुरू हो गया था। ईरानी लोग का उच्चारण करते थे, एतएव सिन्धु को उन्होंने हिन्दु कहा। इसी विकृति से आगे चलकर हिन्दू और हिन्दुस्तान दोनों शब्द निकलेयूनानियों के मुख से के बदले निकलता था। इसलिए हिन्दू को उन्होंने इन्दो (Indo) कहना शुरू किया। इसी दूसरी विकृति से इंडिया नाम निकला है।

द्वितीय अध्याय – प्राचीन हिन्दुत्व से विद्रोह

प्रकरण 1 – बुद्ध से पहले का हिन्दुत्व

वैदिक वाड्मय काव्य मीमांसा के लेखक राजशेखर ने माना है कि वेद तीन ही हैं, ऋक्, यजुष, और साम। अथर्व चौथा वेद है, किन्तु, उसमें अधिक अंश इन्हीं तीन वेदों के हैं सामवेद में ऋग्वेद के ही गेय मन्त्रों का प्राधान्य है यजुष गद्य है। यज्ञों में मन्त्र और गीत गाए जाते थे तथा यजुषों का पाठ होता था। वेदों का पूरा सम्बन्द यज्ञों से था।

वेदांग – अशुद्धियों को दूर करने तथा पठन और गायन में होनेवाली विविधताओं में व्यवस्था लाने के लिए निम्नलिखित शास्त्र उत्पन्न हुए जो वेदांग कहे जाते हैं। ये वेदों के अंग इसलिए माने गए क्योंकि उनका सम्बन्ध वेदों के उच्चारण, उनके गान तथा अर्थबोध से है। इनकी संख्या 6 है-

1) शिक्षा – यह आजकल का फोनेटिक्स या उच्चारण-शास्त्र था। सामवेद की शिक्षा का नाम नारद-शिक्षा है और यजुर्वेद की शिक्षा का नाम याज्ञवल्कय शिक्षा। इसी प्रकार पाणिनीय शिक्षा भी है।

2 छन्द – छन्द शास्त्र वेद के गायन के नियमित करने के लिए बना था। अब इसका एक ही ग्रन्थ पिंगल मिलता है, जिसमें वैदिक और लौकिक, दोनों प्रकार के छन्दों का वर्णन है।

3 निरूक्त – वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति करने के लिए यह शास्त्र निकला था। निघंटु नामक एक ग्रन्थ में कठिन शब्दों की तालिका था। उसी पर यास्क मुने ने (समय ई.पू. 700) भाष्य बनाया, जो निरुक्त के नाम से प्रसिद्ध है।

4 व्याकरण – पाणिनि की अष्टाध्यायी ईसा से 700 वर्ष पूर्व बनी पाणिनि से पूर्व के वैदिक व्याकरण को पातिशाख्य कहते थे। शिक्षा, छन्द, निरुक्त और व्याकरण, असल में, ये ही चार वेदांग हैं, जिनका सम्बन्ध वेद के भाषा-विषयक विज्ञान से है। किन्तु, दो और विद्याओं को मिलाकर वेदांग छह कहे जाते हैं।

5) ज्योतिष – यह आर्यों का एकमात्र भौतिकशास्त्र था। जयचन्द्रजी का कहना है कि अब वैदिक ज्योतिष का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।

6 कल्पसूत्र – जिस प्रकार, वेदों के कर्मकांड, पक्ष के नियमन के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों का निर्माण हुआ, उसी प्रकार, कल्पसूत्र बने।

उपनिषद – वैदिक साहित्य में, वेदांगों के बाद, उपनिषदों का स्थान आता है। मुक्तिक उपनिषद् के अनुसार, सभी उपनिषदों की संख्या 108 है, किन्तु पंडित इनमें से सबको समान महत्व नहीं देते।

उपनिषद् शब्द का अर्थ कोई-कोई पंडित पास बैठना लगाते हैं (उप-निकट, नषद-बैठना) जिससे यह अनुमान लगाया गया है कि शिष्य गुरु के पास बैठकर वेद का तत्व समझा करते थे

प्रकरण – 2 जैन धर्म

विद्रोह, बगावत या क्रान्ति कोई ऐसी चीज नहीं होती जिसका विस्फोट अचानक होता हो। घाव फूटने से पहले बहुत काल तक पकता रहता है। विचार भी, चुनौती लेकर खड़े होने के पहले, वर्षों तक अर्ध-जाग्रत अवस्था में फैलते रहते हैं

महावीर और बुद्ध में दो और विशेषताएँ थीं। एक तो यह कि वे ब्राहमण को ऊँचा पद देने को तैयार नहीं थे। दूसरी यह कि वे मनुष्यमात्र को समान समझते थे। जहाँ तक पिछली बात का सम्बन्ध है, वह ब्रह्मवाद के ही सिद्धान्त का नतीजा है, क्योंकि जब एक ही आत्मा सर्वत्र व्याप्त है, तब फिर मनुष्य-मनुष्य में भेद करने की बात नहीं चल सकती।

एक से नौ तक के अंक, शून्य का गणित- सम्बन्धी महत्व और दशमलव की पद्धति इन सारी बातों का आविष्कार भारत में ही हुआ था और यहीं से ये चीजें अरब होकर पहले यूरोप और पीछे सारे संसार में फैलीं। दशमलव – पद्धति का ज्ञान आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त के समय इस देश में काफी प्रचलित था। बौद्ध धर्म प्रचारकों के जरिए यह ज्ञान चीन पहुँचा और बगदाद में इसका प्रचार सन् 850 ईसवी के लगभग हुआ।

गुप्त काल हमारे साहित्य का स्वर्णकाल था।

तृतीय अध्याय – हिन्दू-संस्कृति और इस्लाम

इनशाउल्लाह खाँ का विचार था कि “बुद्धिमानों से यह बात छिपी नहीं है कि हिन्दुओं ने बोल-चाल, चाल-ढाल, खाना और पहनना, इस सब बातों का सलीका मुसलमानों से सीखा है। किसी बात में भी इनका फेल एतबार के काबिल नहीं”।

प्रजातन्त्र में ऐसा कोई भी तरीका नहीं है, जिससे अल्पसंख्यक लोग बहुसंख्यक बना दिए जाएँ। लेकिन, ऐसे तरीके तो प्रत्येक शासन-पद्धति में पाए जा सकते हैं, जिससे अल्पसंख्यकों की हर जायज शिकायत दूर की जा सके। किन्तु, यह तभी सम्भव है जब अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदाय परस्पर एक-दूसरे का विश्वास करें

इस्लाम का उदय अरब में हुआ।

धर्म की विजय उसके नेताओं के चरित्र के कारण होती है।

जिस इस्लाम का प्रवर्तन हजरत मुहम्मद ने किया था और जिसका रूप अबूबक्र, उमर, उस्मान, और अली जैसे खलीफों ने सँवारा था, वह धर्म, सचमुच स्वच्छ धर्म था और उसके अनुयायी सच्चरित्र, दयालु, उदार और ईमानदार थे। उन्होंने मानवता को एक नया सन्देश दिया, गिरते हुए लोगों को ऊँचा उठाया और, पहले-पहलू, दुनिया में यह दृष्टान्त उपस्थित किया कि धर्म के अन्दर रहनेवाले सभी लोग आपस में समान हैं।

प्रकरण 2

इस्लाम धर्म इस्लाम अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ शान्ति में प्रवेश करना होता है, – अत: मुस्लिम वह व्यक्ति है, जो परमात्मा और मनुष्य के साथ पूर्ण शान्ति का सम्बन्ध रखता हो। अतएव, इस्लाम शब्द का लाक्षणिक अर्थ होगा- वह धर्म जिसके द्वारा मनुष्य भगवान की शरण लेता है तथा मनुष्यों के प्रति अहिंसा एवं प्रेम का बर्ताव करता है। इस धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब थे, जिनका जन्म अरब देश के मक्का शहर में सन् 570 ईसवी में हुआ था। जब हजरत मुहम्मद अरब में इस्लाम का प्रचार कर रहे थे, उन दिनों भारतवर्ष में हर्षवर्धन और पलकेशी का राज्य था

इकबाल लिखते हैं-

खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तक़दीर के पहले

ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे, बता, तेरी रज़ा क्या है।

आदमी कमजोर पहले होता है, पराजय उसकी बाद को होती है। देश की एकता पहले टूटती है, दासता उस पर बाद को आती है।

प्रकरण – 4 हिन्दु-मुस्लिम सम्बन्ध

गोरी सोवत सेज पर, मुख पर डाले केस,

चल खुसरो घर आपनो, रैन भई सब देस। (निजामुद्दीन औलिया की मृत्यू पर लिखा था)

अमीर खुसरो का देहान्त सन् 1325 ईसवी में हुआ। खुसरो कई दृष्टियों से, भारत के महापुरूषों में गिने जाने के योग्य हैं। दिल्ली के आस-पास प्रचलित खड़ीबोली में साहित्य-सृजन का काम, सबसे पहले, खुसरो ने ही आरम्भ किया था। खुसरो के समय मुसलमान अपनी कविताएँ फारसी भाषा में लिखते थे और हिन्दु अपना साहित्य डिंगल अथवा अपभ्रंश भाषाओं में लिखते थे।

हिन्दू और मुसलमान दोनों ही यह जानते थे कि जनता की भाषा न तो अपभ्रंश थी, न फारसी, किन्तु, दोनों ही जातियों के कवि उन्हीं भाषाओं पर आसक्त थे जिन्हें जनता नहीं समझती थी। अमीर खुसरो ने प्रचलित जनभाषा में रचना करके हिन्दी और उर्दू के भविष्य की राह खोल दी। अतएव, वे खड़ीबोली हिन्दी और उर्दू, दोनों ही भाषाओं के पिता हुए हैं। संगीत और वाद्य-यन्त्रों में भी उन्होंने नूतन आविष्कार किए थे

तस्व्वुफ (सूफी दर्शन) का भारतीयकरण

सूफियों की प्रेम पीड़ा फारसी रही थी।

पद्मावत की रचना जायसी ने शेरशाह के समय में की थी। कहते हैं, इस काव्य का बँगला अनुवाद आराकान के वजीर मगन ठाकुर ने 1650 ईसवी में करवाया था। जायसी से पूर्व कुतबन ने मृगावती की रचना की थी। कुतवन से मृगावती काव्य रचवाने का श्रेय हुसेन शाह को दिया जाता है, जो बंगाल के शासक थे।

महाभारत का बँगला अनुवाद, सबसे पहले, नसीरशाह (1282-1325 ईसवी) ने करवाया था। नसीरशाह भारतीय भाषाओं को काफी पोत्साहन देता था। विद्यापति ने भी नसीरशाह की प्रशंसा लिखी है।

लेकिन, संस्कृत से फारसी में अनुवाद के काम, धड़ल्ले के साथ, मुगल काल में आरम्भ किए गए। अकबर के दरबारी पंडित फैजी ने योगवाशिष्ट, लीलावती, नलदमयन्ती और सिंहासन बत्तीसी का अनुवाद फारसी में किया। अथर्ववेद का फारसी अनुवाद हाजी इब्राहीम ने किया।

गोधन नहीं करवाना और किसी सम्प्रदाय के पूजा के स्थान को नष्ट नहीं करना। साहित्य और कला की सेवा में मुगलों ने साम्प्रदायिकता नहीं आने दी। मनोहर मिश्र, जगतराम, बीरबल, होलराय, टोडरमल, भगवान्दास, मानसिंह, नरहरि और गंग को अकबर ने काफी सम्मान दिया था। जैसे पठान युग में खुसरो, कबीर, जायसी आदि मुस्लिम कवियों ने हिन्दी साहित्य की रचना की थी, वैसे ही, मुग़ल-काल में रसखान, आलम, जमाल, रसलीन, कादिर, मुबारक, रहीम और ताज ने हिन्दी की बहुत अच्छी की।

कवि सुन्दरदास को शाहजहाँ ने महाकविराजकी उपाधि दी थी।

जौनपुर के मुसलमानों ने वर्णन करते हुए, उन्होंने उनके उच्छंखल व्यवहारों का उल्लेख दु:ख के साथ अवश्य किया है।

कीर्तिलता-

धरि आनय बाभनक बरुआ, मथा चढ़ावय गायक चरुआ।

हिन्दू बोलहि दूरहि निकार, छोटओ तुरुका भभकी मार

अर्थात-

ब्रह्मण कुमार को पकड़ लाता है, उसके माथे पर गोमांस की हाँड़ी चढ़ा देता है। हिन्दू नाम सुनते ही दुरदुराकर बाहर कर देता है, तुर्क छोटा ही क्यों न हो, आतंक वह खूब दिखाता है।

तुलसीदास का सम्मान दोनों ही धर्मों के लोग करते थे। खानखाना रहीम से तुलसीदास की दोस्ती थी, यह बात साहित्य के इतिहास में अनेक बार कही गई है। जब तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखा, रहीम ने कुछ दोहे रचकर उस काव्य की प्रशंसा की थी और यह स्वीकार किया था कि यह काव्य हिन्दुओं के लिए वेद और मुसलमानों के लिए कुरान है

अपने धर्म और आध्यात्मिक विश्वास पर सृदृढ रहते हुए भी मुसलमान कितना अधिक भारतीय हो सकता है, रहीम इसके जाज्वल्यमान प्रमाण है।

रहीम ने खेट-कोतक-जातकम् नाम से एक ज्योतिष ग्रन्थ की भी रचना की थी, जिसकी भाषा संस्कृत, फारसी और हिन्दी, तीनों के संगम के समान थी।

प्रकरण – 5  इस्लाम का हिन्दुत्व पर प्रभाव

शंकराचार्य का जन्म आठवीं सदी में हुआ।

शंकराचार्य प्रच्छन्न बोद्ध थे। भारतवर्ष में उपनिषदों के युग से होती आ रही थी और उसका ज्ञान यूनान को भी प्राप्त हो चुका था। सच बात तो यह है कि शंकर के विचारों पर दार्शनिक वसुबन्धु की पूरी छाप है। इसी कारण वे प्रच्छन्न बौद्ध कहलाते हैं। और चूँकि उन्होंने अपने दर्शन में बौद्ध धर्म की मुख्य बातें अपना लीं।

इन्होंने देश की चार दिशाओं में उन्होंने चार पीठ भी बसाए, और बदरिकाश्रम दवारका जगन्नाथपुरी और शुंगेरी ।

आलवार

प्रमुख आलवारों का समय सातवीं से नवीं शताब्दी तक है यद्यपि, उनकी परम्परा तीसरी सदी तक जाती है।

आलवारों में विभिन्न श्रेणियों के लोग थे। उनमें से एक स्त्री (आन्दोल या आण्डाल) आलवार सन्त हुए

प्रकरण – 6 भक्ति-आन्दोलन और इस्लाम

भागवत की रचना आठवीं या नवीं सदी में हुई थी, ऐसा विद्वान मानते हैं।

धर्म पहले व्यक्ति के हृदय में उदित होता है। भक्ति भी पहले व्यक्ति के ही भीतर जन्म लेती है। मनुष्य का हृदय किसी पर न्योछावर होना चाहता है। आदमी किसी के पाँव पकड़कर निश्चिन्त हो जाना चाहता है। यही भावना जब ईश्वरोन्मुख हो जाती है तब वह भक्ति बन जाती है।

हिन्दू-धर्म, बहुत प्राचीन काल से, दो प्रकार के ग्रन्थों पर आधारित रहा है। इनमें से एक को निगम और दूसरे को आगम कहने का रिवाज है। निगम वेद हैं जिन्हें हिन्दू अपौरुषेय मानते हैं। आगमों की उत्पत्ति शिव, शक्ति या विष्णु से मानी जाती है, जो ईश्वर-कोटि में होने पर भी, पुरूष-कोटि में आते हैं। निगम आर्य-भावों तक सीमित हैं। आगमों की विशेषता यह है कि वे आर्य, आर्येतर और प्राग्वैदिक, तीनों ही प्रकार की परम्पराओं का आख्यान करते हैं।

आलवारों में कुलशेखर प्वाय गई आलवार, थे। इनकी कुल संख्या 12 थी।

आलवार कवियों के तमिल पदों का सम्पादन पहले-पहल नाथमुनि ने किया जो नवीं सदी के उत्तरार्द्ध में त्रिचिनापल्ली के श्रीरंगम् में रहते थे। नाथमुनि ने उपलब्ध पदों के चार संग्रह तैयार किए और प्रत्येक में, प्राय: एक-एक हजार पद रखे। इन्हीं संग्रहों के नाम प्रबन्धम् हैं। प्रबन्धम् में आलवारों के पद, मूल रूप में, रखे गए।

रामानुज के मुख्य ग्रन्थ तीन हैं – 1) वेदार्थ-संग्रह, 2 गीता की टीका 3 वेदान्त-सूत्र का श्रीभाष्य

प्रस्थानत्रयी – वेदांत सूत्र, उपनिषद, गीता

स्वामी रामानन्द – रामानन्द स्वामी का जन्म सन् 1299 ईसवी में प्रयाग में हुआ था और श्री सम्प्रदाय की दीक्षा उन्होंने काशी में स्वामी राघवानन्द से ली थी जो रामानुज – परम्परा की चौथी पीढ़ी में पड़ते हैं।

गोसाईं विट्ठलनाथ ने रसखान को दीक्षा दी

असम में श्री शंकरदेव ने जो महापुरूषीय सम्प्रदाय चलाया।

शैवाचार्य नाम्बिआन्दर – नम्बी ने शैव गानों और पदों का संकलन ग्यारह जिल्दों में किया, जिनका सम्मलिति नाम तिरुमरइ या पावन पुस्तक है।

यामुनाचार्य, रामानुज, निम्बार्क (1114 से 1162 ईसवी) मध्वाचार्य अथवा आनन्दतीर्थ (जन्म सन् 1197 ईसवी) विष्णुस्वामी (सम्भवत: दसवीं शताब्दी) तथा वल्लभाचार्य (1479-1530 ईसवी) और चैतन्य 1486

प्रकरण – 7 अमृत और हलाहल का संघर्ष

अकबर इस्लाम के तौहीद (एकेश्वरवाद) को कसकर पकड़े हुए था। इसलिए, अपने ईश्वर-धर्म (दीने-इलाही) का नाम उसने तौहीदे-इलाही रखा था। सन् 1593 ईसवीं में, उसने धार्मिक स्वतन्त्रता के लिए कई आज्ञाएँ निकालीं, जिनमें से प्रमुख ये थीं-

1 कोई जबर्दस्ती मुसलमान बनाया गया हिन्दु अगर फिर हिन्दू बनना चाहे तो उसे कोई न रोके।

2 किसी भी आदमी को जबर्दस्ती एक धर्म से दूसरे धर्म में न लाया जाए।

3 प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म मन्दिर बनाने की पूरी स्वतन्त्रता रहे

4 जबर्दस्ती किसी विधवा को सती न बनाया जाए। जज़िया और तीर्थयात्रा कर उसने 1533 ईसवी में ही हटा दिए थे।

फैजी के द्वारा अकबर ने रामायण, महाभारत, योगवाशिष्ठ और कुछ वेदान्त का भी फारसी में अनुवाद करवाया था एवं हिन्दुओं के बीच इस्लाम के प्रति श्रद्धा जगाने को उसने एक छोटा-सा उपनिषद् भी लिखवाया था, जिसका नाम, अल्लोपनिषद है।

दाराशिकोह ने मजमउल बहरैन (दो नदियों का संगम) नामक अपनी विद्वत्तापूर्ण पुस्तक में उसने हिन्दुत्व और सूफी मत के बीच पूर्ण समन्वय दिखलाया है।

प्रकरण 8 सिक्ख धर्म

सिक्ख धर्म में गुरू नानक से लेकर गुरू गोविन्द सिंह तक दस गुरू हुए, जिनके नाम, क्रमश: नानक, अंगद, अमरदास, रामदास, अर्जुनदेव, हरगोविन्द, हरराय, हरकृष्णराय, तेगबहादुर और गोविन्द सिंह हैं। प्रत्येक गुरू, अन्त समय में, अपने उत्तराधिकारी को अपना पद सौंपकर उसे पन्थ का गुरू घोषित कर दिया करते थे। गुरू गोविन्द सिंह जब स्वर्गवासी होने लगे, तब उन्होंने ग्रन्थ को ही पन्थ का गुरू घोषित किया और यह आज्ञा दे दी कि अब से कोई व्यक्ति गुरू नहीं होगा।

गुरू नानकदेव के वचनों को, पहले-पहल, गुरू अंगद ने गुरूमुखी लिपि में लिखा। तभी से यह लिपि चालू हुई है। सिक्खों के मुख्य धर्म-ग्रन्थ, ग्रन्थ साहिब का संकलन और सम्पादन सन् 1964 ईसवी में पाँचवें गुरू अर्जुनदेव ने किया।

गुरू गोविंद सिंह-पाँच वीरों को बाहर निकाला और कहा ये पाँच प्यारे धर्म के खालिस अर्थात् शुद्ध सेवक हैं और उन्हें लेकर में आज से खालसा धर्म की नींव डालता हूँ

ये पंच ककार हैं-

1 कंघी (बाल सुलझाने के लिए)

2 कच्छा (फुर्ती के लिए)

3 कड़ा (यम, नियम और संयम का प्रतीक)

4 कृपाण (आत्मरक्षा के लिए)

5 केश (जिसे प्राय: सभी गुरू धारण करते आए थे)

सिक्ख- समाज में मदिरा और तम्बाकू का वर्जन भी गुरू गोविन्द सिंह ने ही आरम्भ किया।

प्रकरण 9 – कला और शिल्पपर इस्लाम का प्रभाव

अकबर के समय पंचतन्त्र का फारसी अनुवाद अयारे-दानिश के नाम से अबुल फजल ने तैयार किया था। अबुल फजल ने आईने-अकबरी की रचना की।

प्रकरण 10 – साहित्य और भाषा पर प्रभाव

राजा हाल की गाथा-सप्तशती है जिसकी रचना, कदाचित, ईसा के जन्म के आस-पास हुई थी।

अमरूकशतक (अमरूककृत) और गोवर्धनाचार्य की आर्यासप्तशथी इसके प्रमाण है। ये संस्कृत में है। गाथा – सप्तशती प्राकृत में।

श्री राहुल सांकृत्यान की हिन्दी – काव्यधारा के अनुसार हिन्दी के सबसे पहले मुसलमान कवि अमीर खुसरो नहीं, बल्कि अब्दुर्रहमान हुए हैं। अब्दुर्रहमान मुलतान के निवासी और जाति के जुलाहे थे। राहुलजी ने इसका समय 1010 ईसवी माना है। इनकी कविताएँ, वस्तुत: अपभ्रंश में है।

हिन्दी में, संस्कृत के अनुकरण पर, नायिका-भेद की पहली पुस्तक रहीम ने जो लिखी उसकी विशेषता की बात यह है कि रहीम ने बरवा-नायिका में नायिका-भेद का जो क्रम रखा, बाद के हिन्दी आचार्यों ने भी, अधिकांश में, उसी क्रम को स्वीकार किया।

फारसी और अरबी भाषाओं का, बहुत जोर का प्रभाव, सिन्ध, कश्मीर और पंजाब में पड़ा।

भाषा – विज्ञान की दृष्टि से उर्दू भी हिन्दी ही है, किन्तु, हिन्दी से भिन्न वह इसलिए समझी जाती है कि उसकी लिपि फारसी है और अपने गठन में उसने अरबी-फारसी व्याकरणों के भी कुछ नियम कबूल कर लिए हैं।

अकबर के समय में आकर जब फारसी भारत की राजभाषा हो गई, तब फारसी उन सभी हिन्दुओं को सीखनी पड़ी, जो राज-काज में सम्मिलित होना अथवा मुसलमानी दरबारों में इज्जत पाना चाहते थे।

हिन्दी में फारसी शब्द हिन्दी से अरबी का तो कोई पारिवारिक सम्बन्ध नहीं है, किन्तु, फारसी हिन्दी की मौसेरी बहन लगती है। जेन्दावेस्ता की भाषा और वैदिक संस्कृत कभी एक ही भाषा थीं। जेन्दावेस्ता की भाषा से आगे चलकर फारसी उत्पन्न हुई और वैदिक संस्कृत की परम्परा से हिन्दी का विकास हुआ है। आज भी फारसी और संस्कृत के शब्दों में आश्चर्यजनक समानता देखी जा सकती है।

प्रकरण 11 – उर्दू का जन्म

प्रमुख तथ्य

अवधी के प्रथम संत कबीर 15 वीं सदी में हुए।

उर्दू का जन्म दिल्ली और आगरे में नहीं, दक्खिनी भारत में हुआ। खड़ी बोली का ईरानीकरण आरम्भ किया जिससे उर्दू का जन्म हुआ।

उर्दू का जन्म खड़ीबोली में से संस्कृत और हिन्दी के शब्दों को निकालकर हुआ। संस्कृत और हिन्दी पर फारसी और अरबी का पूरा प्रभुत्व हो गया, तब से वह उर्दू कहलाने लगी।

वली वगैरह की भाषा के विषय में लिखते हुए सुनीति बाबू ने कहा कि – तब की भाषा पश्चात्कालीन उर्दू की तह फारसी से बिलकुल लदी हुई नहीं थी। फारसी के शब्द अपेक्षाकृत कम संख्या में मिलाए जाते थे। एक पंक्ति में कहीं-कहीं छितरे हुए (रख्ता) रहते थे। इसलिए, आधुनिक उर्दू-हिन्दुस्तानी पद्य की भाषा रूप रेख्ता कहलता है

मुस्लिम – काल में हिन्दी स्वतन्त्र भाषा के रूप में जीवित थी, इसका एक प्रमाण यह भी है कि मुस्लिम बादशाह अपने कार्यालयों में फारसी-नवीस के साथ हिन्दी-नवीस भी रखते थे। प्रत्युत, राज्य से जन-सम्पर्क की भाषा हिन्दी ही थी और हिसाब-किताब भी हिन्दी में ही रखे जाते थे। फारसी की राज्य-भाषा के रूप में, घोषणा अकबर ने की और वह भी राजा टोडरमल के आग्रह के कारण। प. दौलतराम ने पदम् पुराण नामक ग्रंथ लिखा है।

नाभादासजी का अष्टयाम – (1600 ईसवी के बाद का) वैकुंठमणि शुक्ल का अगहन-माहात्म्य और बैसाख माहात्म्य (1623) सन् 1710 ईसवी में सूरति मिश्र ने वैताल पच्चीसी लिखी तथा सन् 1800 ईसवी के लगभग लाला हीरालाल ने आईने अकबरी का भाषा वचनिका नाम से अनुवाद किया। फोर्ट विलियम में अंग्रेंजों के अधीन हिन्दी गद्य का काम सँभालनेवाले लल्लूलालजी ब्रजभाषा गद्य की इसी धारा के लेखक हुए हैं और उन्होंने राजनीति (1809 ईसवी) तथा माधोविलास (1817 ईसवी) नाम से जो दो ग्रन्थ लिखे, वे हिन्दी में ब्रजभाषावाली गद्य-धारा के अन्तिम उदाहरण हैं।

सारे देश ने तो उन्हें धिक्कारा ही, इंग्लैंड से पिनकाट नामक एक अंग्रेज हिन्दी-भक्त ने भारतेन्दुजी को पत्र लिखा कि राजा शिवप्रसाद बड़ा चतुर है। बीस बरस हुए, उसने सोचा कि अँगरेज साहबों को कैसी-कैसी बातें अच्छी लगती हैं, उन बातों को प्रचलित करना चतुर लोगों का परम धर्म है। इसलिए बड़े चाव से उस काव्य को और अपनी भाषा को बिना लाज छोड़कर उर्दू के प्रचलित करने में बड़ा उद्योग किया।

भारतीय एवं ईरानी संगीत के मिलन से नई-नई चीजें निकल पड़ीं। खयाल का आविष्कार जौनपुर के नवाब सुलतान हुसेन शर्की ने किया था एवं कौवाली, कदाचित्, अमीर खुसरो की ईजाद है। अमीर खुसरो के बारे में कहा जाता है कि वीणा को देखकर सितार का आविष्कार उन्हीं ने किया था तथा मृदंग पर से तबले भी उन्हीं ने निकाले थे।

चतुर्थ अध्याय – भारत में यूरोप का आगमन (17 प्रकरण)

सन् 1492 ईसवी, में कोलम्बस नामक स्पेन का व्यापारी भारत का पता लगाने को समुद्र की राह से निकला, पर, भटकता-भटकता अमेरिका पहुँच गया। कुछ साल तक यूरोप अमेरिका को ही भारत मानता रहा।

सन् 1498 ईसवी, में पुर्तगाल का एक नाविक, वास्को-डि-गामा अपनी नावों का बेड़ा लिए, सचमुच ही भारत आ पहुँचा और कालीकट में समुद्र के किनारे पहुँचा।

कालीकट में वास्को-डि-गामा से जमोरिन (राजा) ने जब यह पूछा कि कहाँ आए हो? तब उसने कहा – ईसाइयों और मसालों की खोज में। सत्यी ही, यूरोपवाले भारत की ओर दो कारणों से प्रवृत्त हो रहे थे। एक तो ईसाइयत का प्रचार करने को, दूसरे व्यापार द्वारा धन बटोरने को।

अकबर को भी अपनी नाव लाल सागर की ओर भेजने के पूर्व पुर्तगालियों से परवाना लेना पड़ता था।

कमरा, नीलाम, पादरी, मारतौल, मेज, कुंजी, कमीज, अलमारी, गिरजा, पाऊँ (रोटी), फालतू, ये पुर्तगाली शब्द है।

पुर्तगाल की दूसरी देन हुक्का और तम्बाकू है इसके अलावा आलू, गोभी, अल्फांसो आम, पहला छापाखाना दो गोवा में खोला।

मैसूर के सुलतान टीपू ने क्रांतिकारी फ्रांस से सन्धि की और सिरंगापट्टम में उसने स्वतन्त्रता के वृक्ष का रोपण किया। पहला अंग्रेज जो भारत में आया स्टीफेंस था।

गुजरात के सूबेदार बहादूरशाह से हुमायूँ की जो लड़ाई हुई थी, उसमें पुर्तगालियों ने बहादुरशाह का साथ दिया था, जिसके पुरस्कारस्वरूप शाह ने पुर्तगालियों को मुम्बई और बसई के द्वीप दिए थे। सन् 1661 ईसवी में यही मुम्बई द्वीप इंग्लैंड के राजा को दहेज में प्राप्त हुआ

सिरामपुर (बंगाल) के मिशन में हिन्दी, बँगला उर्दू के लिए किया जाने लगा। सिरामपुर में मिशनरियों ने छापेखाने खोले अखबार और पुस्तकें निकालीं एवं गद्य में उन्होंने ढेर-का-ढेर साहित्य तैयार किया। वस्तुत: उत्तरी भारत में धर्म-प्रचार की राजधानी ईसाइयों ने सिरामपुर में ही स्थापित की।

मुंबई को पुर्तगालियों ने इंगलैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय को दहेज में दिए।

भारत में सबसे पहले आने वालों का क्रम- 1 पुर्तगाली 2 हॉलैंड 3 डच 4 फ्रांसीसी 5 अंग्रेज है।

मुगलों के समय में शासन की भाषा फारसी थी। वह धीरे-धीरे कम्पनी की भी राजभाषा बन गईं।

1813 चार्टर के तहत कम्पनी ने शिक्षा पर 1 लाख ख़र्च किया।

सन् 1803 ईसवी, में मुर्शिदाबाद से उन्होंने (राजाराम मोहन राय) तुहफतुल-मुबहू हिदीन नामक एक पुस्तक फारसी में निकाली, जिसकी भूमिका अरबी भाषा में थी। इस पुस्तक में उन्होंने मूर्ति-पूजा का खंडन किया था, एकेश्वरवाद की प्रशंसा की थी

भारत में प्रचलित सती प्रथा के अन्मूलन का प्रयास सबसे प्रथम अकबर ने किया था, किन्तु तब भी यह प्रथा चलती आ रही थी।

राजाराम मोहन राय-वेदांत कालेज कलकत्ता में खोला था।

देवेंद्रनाथ – तत्व बोधिनी सभा-आदि ब्रम्ह समाज की स्थापना।

राजा राम मोहन राय – ब्रम्ह समाज की स्थापना।

केशवचन्द्र सेन – प्रार्थना समाज की स्थापना।

पंडित रमा बाई – शारदा-सदन की स्थापना।

गांधी जी से पहले बालगंगाधर तिलक ने स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार की घोषणा की।

थियोसोफिकल सोसाइटी – रूस की महिला हेलेना पेत्रोवना ब्लेवास्की तथा न्यूयार्क के कर्नल आलकाट साहब। भारत में ऐनी बेसेंट इसकी प्रचारक।

स्वामी वेवेकानन्द का बचपन का नाम नरेंद्रदत्त था। विवेकानन्द का देहांत 39 वर्ष में हो गया।

1893 – शिकागो धर्म सम्मेलन में विवेकानंद हिस्सा लिया ‘द न्यूयॉर्क हेराल्डने (समाचार पत्र) लिखा था कि धर्मों की पार्लमेंट में सबसे महान् व्यक्ति विवेकानन्द हैं। उनका भाषण सुन लेने पर अनायास यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म – प्रचारक भेजने की बात कितनी बेवकूफी की बात है। विवेकानंद की शिष्या सिस्टर निवेदिता थी। अरविंद अतिमानव (सुपरमैन) की बात किया।

भारत में वहावी आंदोलन – सैयद अहमद थे।

प्रकरण 16 सर मुहम्मद इकबाल

नवोत्थान के कवि-

रवीन्द्र और इक़बाल, दोनों भारतीय नवोत्थान के कवि हैं एक हिन्दू-नवोत्थान के और दूसरे मुस्लिम-नवोत्थान के (कविता कवि के हृदय की अनुभूति होती है और इस अनुभूति की सामग्री सीधे समाज के भीतर से आती है)

इकबाल का तरानए-हिन्दी (सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा) और नया शिवालय (सच कह दूँ अय बिरहमन, गर तू बुरा न माने)।

वतन की फिक्र कर नादां, मुसीबत आनेवाली है,

तेरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में।

-तस्वीरे-दर्द (बाँगे-दरा)

ख़ुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तक़दीर के पहले,

खुदा बन्दे से पूछे, बता तेरी रजा क्या है

इक़बाल की ख़ुदी आत्मा नहीं, मनुष्य के व्यक्तित्व का प्रर्याय है।

दिनकर –

“अंग्रेजी यदि भारत की शिक्षा और शासन का माध्यम बनी रही, तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारत, भारत नहीं होकर इंग्लैंड और अमेरिका का सांस्कृतिक उपनिवेश बना रहेगा। भारत भारत बने, इसकी पहली शर्त यह है कि वह स्कूलों, कॉलेजों और शासन के दफ्तरों से अंग्रेजी को एकबारगी विदा कर दे। यदि यह काम देश के लिए कठिन है, तो फिर यह भी कठिन होगा कि भारत अपनी उन अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर सके, जिन्हें उसने पिछले छह हजार वर्षों में अर्जित किया है अथवा संसार के समक्ष वह अपने उन गुर्णों का प्रकाश करे, जो उसके व्यक्तित्व की विशेशताएँ हैं”।


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