Study Material : माटी की मूरतें रेखाचित्र मंगर | Maati Ki Muratein Rekhachitra Mangar

Study Material : माटी की मूरतें रामवृक्ष बेनीपुरी रेखाचित्र मंगर | Maati Ki Muratein Rekhachitra Mangar

महत्वपूर्ण कथन या तथ्य (Important statements or facts)

माटी की मूरतें का प्रकाशन 1946 में हुआ था। दूसरा संस्करण 1953 में हुआ था। इसमें 12 रेखाचित्र हैं, नवीन संस्करण में ‘रजिया’ नाम का रेखाचित्र जोड़ा गया था

1. रजिया, 2. बलदेव सिंह, 3. सरजू भैया, 4. मंगर, 5. रूपा की आजी, 6. देव, 7. बालगोविन भगत, 8. भौजी, 9. परमेसर, 10. बैजू मामा, 11. सुभान खां, 12. बुधिया।

आदि से अंत तक सचित्र भी कर दिया गया है।

यह रेखाचित्र मामा द्वारिका सिंह जी को समर्पित किया गया है।

मंगर रेखाचित्र का परिचय

नौकरी करने वालों को रिटार्यमेंट के बाद पेंशन मिलती हैं, लेकिन किसानी और मजदूरी करने वालों को बुढापे मे क्या मिलता है?

उन्हें न पेंशन मिलती है, न समाज की दया। जिसके यहाँ उन्होंने सारी ज़िन्दगी मेहनत की होती है, उनके दिलों में भी दया या करूणा समाप्त हो जाती है।

मंगर लेखक के यहाँ हरवाहा था, जो अपना काम बहुत मेहनत और ईमानदारी से करता था। उसने लेखक के अलावा किसी और के यहाँ हरवाही नहीं की। बुढापे में जब वह किसी काम के लायक नहीं रहा, उसके हाथ-पैर जबाव दे गए तो उसे अनेक शारीरिक और आर्थिक समस्याएँ उठानी पड़ी। अंत में वह एक आँख से अंधा हो जाता है, और उसका आधा अंग भी काम करना बन्द कर देता है।

मंगर रेखाचित्र का घटना व संवाद (Mangar sketch’s incidents and dialogues)

हट्टा-कट्टा शरीर, कमर में भगवा, कंधे पर हल, हाथ में पैना, आगे-आगे बैल का जोड़ा।

बच्चों से उसकी वितृष्णा क्यों हुई? शायद इसलिए तो नहीं कि उसे एक ही बच्चा नसीब हुआ, वह कमाऊ पूत बनने के पहले ही उसे दगा देकर चल बसा! और जो उसकी एक बच्ची थी, सो लूली; और जिसकी शादी में उसने इतनी दरियादिली दिखलाई, लेकिन एक बार मुसीबत काटने उसके दरवाजे वह पहुँचा तो दामाद ने ऐसी बेरुखी दिखलाई कि मंगर का स्वाभिमान उसे वहाँ से जबरदस्ती भगा लाया।

मंगर का स्वाभिमान—गरीबों में भी स्वाभिमान? लेकिन मंगर की खूबी यह भी रही है। मंगर ने किसी की बात कभी बरदाश्त नहीं की और शायद अपने से बड़ा किसी को मन से माना भी नहीं। मंगर मेरे बाबा का अदब करता था, शायद उनके बुढ़ापे के कारण!

किंतु मेरे चाचाओं को तो उसने हमेशा अपनी बराबरी का ही समझा, और मुझे तो वह कलतक ‘तू’ ही कहकर पुकारता रहा है। किसकी मजाल, जो मंगर को बदज़ुबान कहे— हलवाहों को मिलनेवाले नित दिन की गालियाँ तो दूर की बात!

आज का काम कल के लिए छोड़ते, यह आदत मंगर में थी ही नहीं। यों ही रखवाली चाहे हरी फसल की हो यासूखी पसही की, खलिहान में चाहे बोझों की सील हो या अनाज की रास—मंगर पर सब छोड़कर निश्चिंत सोया जा सकता था।

मेरे बाबा कहते थे—मंगर हलवाहा नहीं है, सवाँग है। वह अपने सवाँग की तरह ही कभी-कभी रूठ जाता था और जब-तब लोगों को झिड़क भी देता था।

एक दिन काफी कहा-सुनी हो गई। दूसरी सुबह मंगर हल लेने नहीं आया। इधर से बुलाहट भी नहीं गई। रुपए हैं, तब हलवाहे न होंगे! कोई नया हलवाहा लेकर जोता गया। उधर कोई दूसरा किसान आकर मंगर से बोला—मंगरू, देख, उन्होंने दूसरा हलवाह कर लिया है। उन्हें रूपए हैं, हजार हलवाहे मिलेंगे, तो तेरे भी शरीर है, हजार गृहस्थ मिलेंगे। सिर दर्द का बहाना करके मंगरू ने मना कर दिया किसी और का हल जोतने के लिए।

यह सिर दर्द तब तक बना रहा, जब तक झख मारकर मेरे चाचाजी फइर से उसे बुलाने नहीं गए। क्योंकि चार दिनों में ही मालूम हो गया, मंगर क्या है! बैलों के कंधे छिल गए, उनके पैर में फार लग गए। खेत में हल तो चला, लेकिन न ढेला हुआ, न मिट्टी मिली। मंगर के बिना काम चल नहीं सकता।

चाचाजी उसके दरवाजे पर खड़े हैं। मंगर की अदर्धांगिनी भकोलिया ने कहा- मालिक खड़े हैं, जाओं, मान जाओ।– “कद दे, मेरा सर दर्दा हो रहा है”। भकोलिया हँसती हुई बोली- “मालिक ज़रा इनके सिर पर मालकिन से तेल दिला दीजिएगा”।

“मंगर, चलो, आपस में कभी कुछ हो ही जाता है, माफ करो”। चाचाजी के स्वर में आरजू-मिन्नत थी।

“जाइए, उसी से जुतवाइए, जिससे चार दिन जुतवाया है। मुझे ले जाकर क्या होगा! आधी रोटी की बत भी तो होगी होगी”

मान-मनौवल! फिर मंगर अपना हलवाही का पैना हाथ में लिए आगे-आगे और चाचाजी पीछे-पीछे।

जहाँ गाँव भर में हलवाहे को एक रोटी मिलती, मंगर केलिए डेढ़ रोटी जाती। आधी रोटी के दो टुकड़े कर दोनों बैलों को खिला देता। यों, यह आधी रोटी फिर मेरे ही घर आती, लेकिन इसमें कोई काट-कपट हो नहीं सकती थी। महादेव मुँह ताकें और मैं खाऊँ, यह कैसे होगा? मंगर के लिए ये बैल नहीं, साक्षात महादेव थे।

मंगर का वह काला-कलूटा शरीर, एक संपूर्ण सुविकसित मानव-पुतले का उत्कृष्ट नमूना। जाँघें, छाती, भुजाएँ—सब में जहाँ जितनी, जैसी गढ़न और उभार चाहिए, बस उतनी ही। न कहीं मांस का लोंदा, न कहीं सूखी काठ! एक सुडौल शरीर पर स्वाभाविक ढंक से रखा एक साधारण सिर। मंगर के शरीर का खयाल आते ही मुझे प्राकृतिक व्यायाम के हिमायती मिस्टर मूलर की आकृति का स्मरण हो जाता है। सैंडो के शैदाई उससे कुछ निराश हों तो आश्चर्य नहीं।

लेकिन उम्र के प्रहारों से वह अपने को बचा नहीं सका। उसकी एक-एक चोट उसे धीरे-धीरे जर्जर बनाती रही और आज उस पर यह कहावत लागू है—‘सूखी हाड़ ठाठ भई भारी, अब का लदबद हे व्यापारी’।

उसके शरीर का मांस और मांसपेशियाँ ही नहीं गल गईं हैं, उसकी हड्डियाँ तक सूख गई हैं। बुढ़ापे के प्रहारों के लिए जो ढाल का काम करती, उस चीज का संग्रह मंगर ने कभी किया ही नहीं। ‘आज खाय औ कल को झक्खे, ताको गोरख संग न रक्खे’।

मंगर बुढ़ापे के कारण हल चलाने के योग्य नहीं रह गया तो कुछ दिनों तक उससे कुछ फुटकर काम लिए गए; लेकिन यह भी ज्यादा दिनों तक नहीं चल सका। अब एक ही उपाय रह गया, उसे पेंशन मिले। लेकिन हलवाहों—यथार्थ अनदाताओं—के लिए पंशन की हमारे अभागे देश में कहाँ व्यवस्था है? और व्यक्तिगत दया का दायरा तो हमेशा ही तंग रहा है; फिर मंगर में जली हुई रस्सी की वह ऐंठन और शायर गरमी भी है, जिससे दयाका बादल हमेशा ही उससे दूर-दूर भागता रहा है।

उसकी अद्धांगिनी—भगोलिया, मंगर की आदर्श जोड़ी। मंगर जर्जर-झर्झर हो गया, लेकिन भकोलिया अभी चलती-फिरती है, कुछ हाथ-पाँव चलाकर संगर कर लेती और दोनों प्राणियों का गुजर चला पाती है।

मर्दों की अपेक्षा औरतें अपने को परिस्थिति के साँचे में ज्यादा और  जल्द ढाल सकती हैं, इसका उदाहरण यह भकोलिया है।

परसाल उसकी और दुर्गति कर दी। उसे जोरों से अधकपारी उठी। भकोलिया उसकी चिल्लाहट से पसीज… लेप उसके ललाट पर कर दीया। बाईं पुटपुटी और आँख पर भी लगा दिया। जहाँ-जहाँ लेप था, वहाँ अजीब जलन शुरू हुई। जलन ज़ख्म में बदली और जख्म ने उसकी एक आँख ले ली। जब मैं घर गया—‘बबुआजी, मेरी एक आँख चली गई। कहकर मंगर रोने लगा।

मंगर को अदर्धांग मार गया है। “मंगर, पड़े क्यों नहीं रहते? यह कैसी चोट लग रही होगी?

उफ्, नसें ढीली पड़ गईं, खून का सोता सूख गया। लेकिन, मानो अब भी उसमें तरंगें उठतीं और किसी सूखे सागर की तरह बालू के तट पर सिर धुन, पछाड़ खा गिर-गिर पड़ती हैं। कैसा करूण दृश्य!


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