Study Material : माटी की मूरतें रेखाचित्र रामवृक्ष बेनीपुरी सुभान खाँ | Maati Ki Muratein Rekhachitra Subhan Khan
महत्वपूर्ण कथन या तथ्य (Important statements or facts)
माटी की मूरतें का प्रकाशन 1946 में हुआ था। दूसरा संस्करण 1953 में हुआ था। इसमें 12 रेखाचित्र हैं, नवीन संस्करण में ‘रजिया’ नाम का रेखाचित्र जोड़ा गया था
1. रजिया, 2. बलदेव सिंह, 3. सरजू भैया, 4. मंगर, 5. रूपा की आजी, 6. देव, 7. बालगोविन भगत, 8. भौजी, 9. परमेसर, 10. बैजू मामा, 11. सुभान खां, 12. बुधिया।
आदि से अंत तक सचित्र भी कर दिया गया है।
यह रेखाचित्र मामा द्वारिका सिंह जी को समर्पित किया गया है।
सुभान खाँ रेखाचित्र का परिचय (Introduction to Subhan Khan sketch)
मामूली बातों पर झगड़ा करना बहुत आसान है, लेकिन बातों को सुलझा कर रिश्तों और व्यवहारों को सहज बनाएँ रखना बहुत मुश्किल है।
ईश्वर ने इंसान बनाएँ थे, इंसान ने अलग-अलग धर्म की संज्ञा देकर इंसानों में भेद कर दिया। लेकिन समाज में बहुत लोग ऐसे भी हैं, जो इन भेदों को मिटाकर इंसानियत ज़िन्दा रखते हैं।
आज हम बात कर रहे हैं, ऐसे ही व्यक्तित्व की जिसका नाम है, सुभान खाँ, यह लेखक के ननिहाल के पात्र हैं।
लेखक के मामा और सुभान खाँ आपस में मित्र थे, लेखक भी बचपन में इनके सम्पर्क में रहा है।
जब अपवाहों को हवा मिली और कुछ लोग गाय की कुरबानी करने की बात करने लगे तो सुभान खाँ ने सबको ऐसा करने से रोका। लेखक के मामा ने अपने धर्म के कहे जाने वाले लोगों को और सुभान खाँ ने अपने धर्म के कहे जाने वाले लोगों को रोका।
क्योंकि यह दोनों ही जानते थे, ईश्वर ने इंसान बनाएँ हैं, इंसानों में भेद मानव निर्मित है।
ऐसा करके सुभान खाँ ने अपने सकारात्मक किरदार का परिचय दिया। अंतत: लेखक कहता है— मेरा सिर सिज्दे में झुका है—कर्बला के शहीद के सामने। मैं सप्रेम नमस्कार करता हूँ—अपने प्यारे सुभान दादा को।
सुभान खाँ रेखाचित्र घटना व संवाद (Incidents and dialogues of Subhan Khan sketch)
(ननिहाल)
क्या आपका अल्लाह पच्छिम में रहता है? वह पूरब क्यों नहीं रहता? ‘सुभान दादा की लंबी, सफेद, चमकती, रोब बरसाती दाढी में अपनी नन्हीं उँगलियों को घुमाते हुए मैंने पूछा।
“पश्चिम ओर के मुल्क में अल्लाह के रसूल आए थे। जहाँ रसूल आए थे, वहाँ हमारे तीरथ हैं। उन्हीं तीरथों की ओर मुँह करके अल्लाह को याद करते हैं”।
“आप उन तीरथों में गए हैं, सुभान दादा?”
देखा, सुभान दादा की बड़ी-बड़ी आँखों में आँसू डबडबा आए। उनका चेहरा लाल हो उठा। भाव-विभोर हो गद्गद कंठ से बोले— “वहाँ जाने में बहुत खर्च पड़ता हैं, बबुआ। मैं गरीब आदमी ठहरा न। इस बुढ़ापे में भी इतनी मेहनत-मशक्कत कर रहा हूँ कि कहीं कुछ पैसे बचा पाऊँ और उस पाक जगह की जियारत कर आऊँ”।
मैंने उनसे कहा—“मेरे मामाजी से कुछ कर्ज क्यों नहीं ले लेते, दादा?”
“कर्ज के पैसे से तीरथ करने में सबाब नहीं मिलता, बबुआ! अल्लाह ने चाहा तो एक-दो साल में इतने जमा हो जाएँगे कि किसी तरह वहा जा सकूँ”।
“वहाँ से मेरे लिए भी कुछ सौगात लाइएगा न? क्या लाइएगा?”
“वहाँ से लोग खजूर और छुहारे लाते हैं”।
“हाँ, हाँ, मेरे ले छुहारे ही लाइएगा; लेकिन एक दर्जन से कम नहीं लूँगा, हूँ”।
सुभान खाँ एक अच्छे राज समझे जाते थे। जब-जब घर की दीवारों पर कुछ मरम्मत की जरूरत होती है, उन्हें बुला लिया जाता है। आते हैं, पाँच-सात रोज़ यहीं रहते हैं, काम खत्म कर चले जाते हैं।
लंबा-चौड़ा, तगड़ा है बदन इनका। पेशानी चौड़ी, भावें बड़ी सघन और उभरी। आँखों के कोनों में कुछ लाली और पुतलियों में कुछ नीलेपन की झलक।
किंतु, बचपन में मुझे सबसे अधिक भाती उनकी वह सफ़ेद चमकती हुई दाढ़ी।
एक दिन बचपन के आवेश में मैंने उनसे पूछ भी लिया, “सुभान दादा, आपने कभी अल्लाह को देखा है?”
“मुझे धोखा मत दीजिए, दादा! मैं सब देखता हूँ। आप रोज़ आधी आँखों से उन्हें देखते हैं, उनसे बुदबुदाकर बातें करते हैं।
मुझे मालूम होता था, काम और अल्लाह—ये ही दो चीजें संसार में उनके लिए सबसे प्यारी हैं। काम करते हुए अल्लाह को नहीं भूलते थे….
नाना ने कहा—“सवेरे नहा, खा लो; आज तुम्हें हुसैन साहब के पैक में जाना होगा। सुभान खाँ आते ही होंगे”
जिन कितने देवताओं की मनौती के बाद माँ ने मुझे प्राप्त किया था, उनमें एक हुसैन साहब भी थे। नौ साल की उम्र तक, जब तक जनेऊ नहीं हो गई थी, मुहर्रम के दिन मुसलमान बच्चों की तरह मुझे भी ताजिए के चारों ओर रंगीन छड़ी लेकर कूदना पड़ा है और गले में गंडे पहनने पड़े हैं।
उनका घर क्या था, बच्चों का अखाड़ा बना हुआ था। पोते-पोतियों, नाती-नातियों की भरमार थी उनके घर में।
हज से लौटने के बाद सुभान दादा का ज्यादा वक्त नमाज-बंदगी में ही बीतता। दिल भर उनके हाथों में तसबीह के दाने घूमते और उनकी जबान अल्लाह की रट लगाए रहती। अपने जवाह भर में उनकी बुजुर्गी की धाक थी। बड़े-बड़े झगड़ों की पंचायतों में दूर-दूर के हिंदू-मुसलमान उन्हें पंच मुकर्रर करते। उनकी ईमानदारी और दयानतदारी की कुछ ऐसी ही धूम थी।
सुभान दादा का एक अरमान था—मसजिद बनाने का। मेरे मामा का मंदिर उन्होंने ही बनाया था। कहा करते—“अल्लाह ने चाहा तो मैं एक मसजिद जरूर बनवाऊँगा”।
मेरे मामाजी के बगीचे में शीशम, सखुए, कटहल आदि इमारतों में काम आनेवाले पेड़ों की भरमार थी। मसजिद की सारी लकड़ी हमारे ही बगीचे से गई थी।
ज़माना बदला। मैं अब शहरों में ही ज्यादातर रहा। और, शहर आए दिन हिंदू-मुसलिम दंगो के अखाडे बन जाते थे।
हल्ला, भगदड़, मारपीट, खूनखराबा, आगजनी, विरोध और नृशंस हत्या का उल्लंग नृत्य।
शहरों की यह बीमारी धीरे-धीरे हेहात में घुसने लगी। गाय और बाजे के नाम पर तकरारें होने लगीं। जो जिंदगी भर कसाईखानों के लिए अपनी गायें बेचते रहें, वे ही एक दिन किसी एक गाय के कटने का नाम सुनकर ही कितने इनसानों के गले काटने को तैयार होने लगे।
ऐं, सुभान खाँ की मसजित में ही कुरबानी होगी। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।
“अगर हुई, तो क्या होगा? हमारी नाक कट जाएगी। लोग क्या कहेंगे, इतने हिंदू के रहते गो-माता के गले पर छुरी चली।
छुरी से गो-माता को बचाना है तो गौरागौरी के कसाईखाने पर हम धावा करें? मुजफ्फरपुर अँगरेजी फौज की छावनी पर ही धावा बोलें। कसाईखाने में तो बूढ़ी गायें कटती हैं, छावनी में मोटी-ताजी बछियाँ ही काटी जाती हैं।
यहाँ मुसलमान एक मुट्ठी हैं, इसलिए आप टूटने को उतावले हैं। छावनी में आप नहीं जाते हैं, इसलिए कि वहाँ सीधे तोप के मुँह में पड़ना होगा। मामाजी की बातें बुरी लगीं, यह साफ़ बात है कि मामा की बिना रजामंदी के किसी बड़ी घटना के लिए किसी की पैर उठाने की हिम्मत नहीं हो सकती थी।
उधर सुभान दादा के दरवाज़े पर भी मुसलमानों की भीड़ है। वह कड़ककर कह रहे हैं—
“गाय की कुरबानी नहीं होगी। ये फालतू बातें सुनने को मैं तैयार नहीं हूँ। तुम लोग हमारी आँखों के सामने से हट जाओ”
कुरान मैंने पढ़ी है। गायकी कुरबानी लाज़िमी नहीं है। अरब में लोग दुम्मे और ऊँट की कुरबानी अमूमन करते हैं।
“उनकी बात उनसे पूछो—मैं मुसलमान हूँ, कभी अल्लाह को नहीं भूला हूँ। मैं मुसलमान की हैसियत से कहता हूँ- मैं गाय की कुरबानी न होने दूँगा, न होने दूँगा।
मैं मसजिद में चल रहा हूँ। पहले मेरी कुरबानी हो लेगी, तब गाय की कुरबानी हो सकेगी।
मसजिद के नज़दीक लोग इकट्ठे होने लगे। पहले मुसलमान फिर हिंदू भी। गाय की कुरबानी का सवाल दादा की आँसुओं की धारा में बहकर न जाने कहाँ चला गया था- वह साक्षात देवदूत-से दीख पड़ते थे। देवदूत, जिसके रोम-रोम से प्रेम और भाईचारे का संदेश निकलकर वायुमंडल को व्याप्त कर रहा था।
मेरी रानी मेरे दो वर्ष हो जाने के बाद इतने लंबे अरसे तक राह देखती-देखती आखिर मुझसे मिलने ‘गया’ सेंट्रल जेल में आई थी।
उसने पहली चीज मेरे हाथों पर रखी, – रेशम और कुछ सूत के अजीबोगरीब ढंग से लिपटे-लिपटाएँ डोरे, बद्धियाँ गंडे आदि।
यह सब मेरी माँ की मन्न्तों के अवशेष चिह्न हैं। माँ चली गई। लेकिन तो भी ये मन्नतें अब भी निभाई जा रही हैं, रानी जानती है, मैं नास्तिक हूँ।
दूसरी तसवीर सुभान दादा की- जिनके कंधे पर चढ़कर मैं मुहर्रम देखने जाया करता था।
मेरा सिर सिज्दे में झुका है—कर्बला के शहीद के सामने। मैं सप्रेम नमस्कार करता हूँ—अपने प्यारे सुभान दादा को।
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