study material :  अपना मालवा-खाऊ उजाडू सभ्यता सारांश व समीक्षा | Summary and Review Apana Maalava

study material :  अपना मालवा-खाऊ उजाडू सभ्यता – कक्षा 12 (हिंदी अंतराल भाग 2) Summary and Review Apana Maalava

अपना मालवा-खाऊ उजाडू सभ्यता कहानी का परिचय

हमारा जीवन सीमित है, एक समय के बाद हमारी आयु खतम हो जाएगी और हमारा जीवन समाप्त हो जाएगा लेकिन हमारे बाद भी यह दुनिया ऐसी ही रहेगी और एक के बाद एक नई पीढ़ी आती जाएगी।

समयनुसार व्यक्ति अपने जीवन यापन के लिए धन-दौलत कमा ही लेगा, लेकिन जो चीज़ वह कमा नहीं सकता जो हमें आने हमारे लिए और हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए बचाकर रखना है, यह प्रकृति और प्रकृति में मौजूद प्रकृतिक संसाधन। यह मनुष्य एक दिन यह अपनी पूरी ज़िन्दगी में भी बना नहीं सकता बल्कि मौजूद प्रकृति का संरक्षण कर सकता है, और बचा-बचाकर इस्तेमाल कर सकता है।

हमें आने वाली पीढ़ियों को विरासत में प्रकृतिक संसाधन उसी रूप में देना होगा जिस रूप में हमारे पूर्वज ने हमें दिया लेकिन क्या हम इसके लिए सकारात्मक काम कर रहे हैं या नहीं।

आज हम इसी विषय पर आधारित कहानी के सारांश पर बात करेंगे।

कक्षा 12 हिंदी अंतराल भाग 2 के अध्याय “अपना मालवा-खाऊ उजाड़ू सभ्यता में” लेखक प्रभाष जोशी द्वारा मालवा क्षेत्र की जलवायु, जनजीवन, और सांस्कृतिक परिवर्तनों का विवरण किया गया है।

प्रभाष जोशी का अपना मालवा-खाऊ उजाडू सभ्यता में पाठ जनसत्ता, 1 अक्टूबर 2006 के ‘कागद कारे’ स्तंभ से लिया गया है। इस पाठ में लेखक ने मालवा प्रदेश की मिट्टी, वर्षा, नदियों की स्थिति, उद्गम एवं विस्तार तथा वहाँ के जनजीवन एवं संस्कृति को चित्रित किया है।

पहले के मालवा ‘मालव धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी पग-पग नीर’ की अब के मालवा ‘नदी नाले सूख गए, पग-पग नीर वाला मालवा सूखा हो गया’ से तुलना की है। जो मालवा अपनी सुख-समृद्धि एवं संपन्नता के लिए विख्यात था वही अब खाऊ-उजाडू सभ्यता में फँसकर उलझ गया है।

यह खाऊ-उजाडू सभ्यता यूरोप और अमेरिका की देन है, जिसके कारण विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बन गई है। इससे पूरी दुनिया प्रभावित हुई है, पर्यावरण बिगड़ा है।

लेखक की पर्यावरण संबंधी चिंता सिर्फ मालवा तक सीमित न होकर सार्वभौमिक हो गई है। अमेरिका की खाऊ उजाड़ जीवन पद्धति ने दुनिया को इतना प्रभावित किया है कि हम अपनी जीवन पद्धति, संस्कृति, सभ्यता तथा अपनी धरती को उजाड़ने में लगे हुए हैं।

इस बहाने लेखक ने खाऊ-उजाड़ जीवन पद्धति के द्वारा पर्यावरणीय विनाश की पूरी तसवीर खींची है जिससे मालवा भी नहीं बच सका है। आधुनिक औद्योगिक विकास ने हमें अपनी जड़ जमीन से अलग कर दिया है। सही मायनों में हम उजड़ रहे हैं। इस पाठ के माध्यम से लेखक ने पर्यावरणीय सरोकारों को आम जनता से जोड़ दिया है, तथा पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत किया है।

अपना मालवा-खाऊ उजाडू सभ्यता कहानी का संक्षिप्त सारांश

मालवा का क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न था, जहाँ हर जगह पानी की प्रचुरता और उपजाऊ मिट्टी थी। पुराने समय में यहाँ “पग-पग नीर, डग-डग रोटी” की कहावत चली, जिसका अर्थ है कि हर कदम पर पानी और हर कदम पर भोजन की उपलब्धता।

लेखक बताते हैं कि मालवा की नदियाँ जैसे नर्मदा, शिप्रा, चंबल, और क्षिप्रा आदि पहले स्वच्छ जल से बहती थीं, और इन नदियों के किनारे संपन्न जीवन व्यतीत होता था। पुराने राजाओं ने जल संरक्षण के लिए तालाब, कुएँ, और बावड़ी बनाई थीं, जिससे वर्षा का पानी संग्रहित होता और जल स्तर बना रहता था। लेकिन औद्योगिकीकरण और बढ़ते प्रदूषण ने इस प्राकृतिक व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है। नदी-नाले गंदे नालों में तब्दील हो गए हैं, ज़हरीले रसायनों से इनके जल स्रोत दूषित हो गए हैं।

बारिश की मात्रा और पैटर्न में बदलाव के कारण भी खेती प्रभावित हो रही है। यहाँ की प्रमुख फसल सोयाबीन को अधिक बारिश नुकसान पहुँचाती है, जबकि गेहूँ और चना की फसल बारिश में अच्छी होती है। अत्यधिक वर्षा या बाढ़ से जनजीवन प्रभावित होता है, जिससे यातायात बाधित हो जाता है और घरों में पानी घुस जाता है।

मालवा क्षेत्र में पर्यावरणीय असंतुलन की गंभीर समस्या है, जो वनों की कटाई, भूमि क्षरण, और जल स्रोतों के प्रदूषण से गहरा रही है। यह क्षेत्र पहले पर्यावरणीय और सांस्कृतिक समृद्धि के लिए जाना जाता था, लेकिन अब औद्योगिक प्रगति के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है, जिससे माटी बंजर हो रही है और लोक जीवन संकट में है।

लेखक यह भी कहते हैं कि पश्चिमी देशों से आया जीवनशैली का प्रभाव और औद्योगिकीकरण हमारे पारंपरिक जीवन और संस्कृति को प्रभावित कर रहा है। पर्यावरणीय विनाश के कारण न केवल प्रकृति, बल्कि हमारी सभ्यता भी उजड़ती जा रही है। परिणाम स्वरूप, लेखक इस पाठ के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण और परंपरागत जीवन शैली के प्रति जागरूकता और सुधार की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं, ताकि मालवा की प्राकृतिक और सांस्कृतिक समृद्धि बचाई जा सके।

इस प्रकार यह कहानी हमें जागरूक करती है कि आधुनिकता और विकास के साथ पर्यावरण संरक्षण को भी समान महत्व देना आवश्यक है, अन्यथा प्रकृति का दुर्भाग्य मानव समाज को भी बर्बाद कर देगा।

अपना मालवा-खाऊ उजाडू सभ्यता कहानी की समीक्षा

“अपना मालवा-खाऊ उजाड़ू सभ्यता में” की कहानी की एक प्रभावशाली और गंभीर समीक्षा प्रस्तुत करता है। लेखक प्रभाष जोशी ने मालवा क्षेत्र की ऐतिहासिक समृद्धि और पर्यावरणीय स्थिति की तुलना वर्तमान दौर की औद्योगिकीकरण से जोड़कर की है, जो पाठकों और दर्शकों को कई महत्वपूर्ण सोचने वाले बिंदुओं पर विचार करने को प्रेरित करती है।

सबसे प्रमुख बात यह है कि लेखक ने पुरानी और नई सभ्यता के बीच के अंतर को बड़े ही कुशलतापूर्वक दर्शाया है। जहाँ पुराना मालवा प्राकृतिक संसाधनों, जल संरक्षण, और सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक था, वहीं वर्तमान “खाऊ उजाड़ू” यानी खाओ और उजाड़ो की सभ्यता बताई गई है, जो अपनी सांस्कृतिक और पर्यावरणीय धरोहर का संरक्षण करने में असफल साबित हो रही है। इस समीक्षा में यह साफ़ झलकता है कि औद्योगिक प्रगति ने न केवल प्रकृति का नुकसान किया है, बल्कि समाज की सोच और जीवन शैली को भी बदल डाला है।

पर्यावरणीय प्रभावों का विस्तार से उल्लेख है—नदियाँ प्रदूषित हो गई हैं, वर्षा में अनियमितता आई है, फसलों और जनजीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। ये बातें पारंपरिक जल संरक्षण के तरीकों की अहमियत को रेखांकित करती हैं, जिन्हें समय के साथ नज़रअंदाज किया गया। इसके साथ ही बारिश, जल स्रोत, और उनके संरक्षण पर अच्छे विचार देने वाले पुराने राजा विक्रमादित्य और भोज के जल प्रबंधन के उपायों का उल्लेख सकारात्मक पक्ष प्रस्तुत करता है।

समीक्षा में यह भी स्पष्ट हो जाता है, कि लेखक पश्चिमी देशों की जीवन शैली की आलोचना करते हुए दर्शाते हैं कि हमने उनकी नकल करते हुए अपनी सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत का नुकसान किया है। यह बात आज के पाठकों के लिए जागरूकता का माध्यम है, कि पर्यावरण संरक्षण और सांस्कृतिक संरक्षण के बिना कोई भी विकास अस्थायी और खतरनाक हो सकता है।

लेखक की चिंता ग्लोबल वार्मिंग, प्रदूषण, और पर्यावरणीय विनाश के प्रति गहरी है, जिससे मालवा जैसी जगहों की समृद्धि खतरे में है। वीडियो ने एक मजबूत संदेश दिया है कि प्रगति के साथ पर्यावरण और संस्कृति की रक्षा भी आवश्यक है, वरना हम अपनी जड़ों को खो देंगे।

कुल मिलाकर, यह समीक्षा गहन, संवेदनशील और जागरूकता बढ़ाने वाली है। यह वीडियो विद्यार्थियों और सामान्य दर्शकों के लिए अत्यंत उपयोगी है क्योंकि यह न केवल एक क्षेत्र विशेष की कहानी कहती है, बल्कि वैश्विक पर्यावरणीय और सांस्कृतिक मुद्दों पर भी प्रकाश डालती है। यह संदेश देती है कि हमें अपने पर्यावरण और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिए तुरंत कदम उठाने होंगे ताकि समृद्ध और संतुलित जीवन सुनिश्चित किया जा सके।

परिणाम स्वरूप कहानी के नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलुओं को संतुलित रूप से प्रस्तुत करती है, और पर्यावरण के प्रति चिंता दिखाती है।


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