Ignou Study Material : नमक का दरोगा कहानी का सारांश : MHD 10 प्रेमचन्द कहानी विविधा | MHD 10 Premchand Story Miscellaneous
कहानी का परिचय (Introduction to the Story)
भ्रष्टाचार के विरोध में लगभग सभी बोलते हैं, समाज के सभी लोगों का मनना है कि देश की प्रगति में भ्रष्टाचार बहुत बड़ी बाधा है, लेकिन क्या भ्रष्टाचार के विरोध में बोलने वाले सब ही लोग उस पर अमल कर पाते हैं? विचार कीजिए।
जहाँ भ्रष्टाचार का पूरा महौल और परिस्थितियाँ हैं, वहाँ यदि सौ में से कोई एक व्यक्ति ईमानदारी से अपना काम करना चाहे तो क्या वह कर सकता है? क्या ईमानदार व्यक्ति को ईमानदारी से काम करने के लिए अनेक कठिनाइयों का समान नहीं करना पड़ता है? विचार कीजिए।
आज हम ऐसी ही कहानी की बात कर रहे हैं, कहानी का नाम है – नमक का दरोगा। यह कहानी प्रेमचन्द जी द्वारा लिखी गई है। ज़मीदार अलोपीदीन और ईमानदार पुलिस वंशीधर इस कहानी के केन्द्र में हैं।
नमक का दरोगा कहानी का सारांश | Namak ka Daroga Story Summary
यह कहानी लगभग सौ वर्ष पूर्व लिखी गई है, उस समय नमक बनाने और बेचने पर बहुत ज़्यादा टैक्स लगता था, इसलिए नमक की कीमत बहुत ज़्यादा होती थी। परिणाम स्वरूप नमक गैर कानूनी रूप से बेंचा जाता था। नमक विभाग में नौकरी पाने वाले बहुत सुखी होते थे, भ्रष्टाचार के परिणाम स्वरूप उनकी ऊपरी आमदनी बहुत होती थी। अधिकतर लोगों की इच्छा होती थी, कि उनकी नौकरी इस विभाग में लग जाए।
मुंशी वंशीधर के पिता को जीवन का बहुत अनुभव था। वह एक गरीब परिवार के मुखिया थे, उन्हें अपने परिवार की अधिक चिन्ता होती थी। वह अपने बेटे वंशीधर से कहते हैं, नौकरी ऐसी तलाश करना जिसमें ऊपरी आय हो सके। उनका कहना था, मासिक वेतन पूर्णमासी का चाँद होता है, जो घटते-घटते एक दिन लुप्त हो जाता है। ऊपरी आमदनी ईश्वर की कृपा होती है, वंशीधर अपने पिता की बात बहुत ही ध्यान से सुनते क्योंकि वह अपने पिता का आदर करते थे, लेकिन वह किसी भी नौकरी में भ्रष्टाचार का विचार नहीं करते थे। जब वंशीधर के पिता को पता चला कि वंशीधर नमक विभाग में दरोगा (पुलिस) हो गए हैं, वह बहुत खुश हुए।
विभाग में भर्ती हुए वंशीधर को छ महीने ही हुए थे, जहाँ वंशीधर का ऑफिस था, वहाँ से जमुना एक मील की दूरी पर बहती थी। नमक के चौकीदार नशें में रात में सो रहे थे। तभी वंशीधर ने कुछ आहट कुछ अवाज़े सुनी, जो इतनी रात को समान्य नहीं थी। परिणाम स्वरूप वह नदी खुद ही बाहर आए और उन्होंने कुछ लोगो को देखा। उनसे पूछा वह क्या कर रहे हैं, उन्होंने बताया वह कुछ समान नाव से कानपुर ले जाएँगे। वंशीधर ने समान की जाँच की तो नमक की डली निकली। उन्होंने तुरन्त गिरफ्तार करने का फैसला किया, बताया है, यह दातागंज के जमीदार पंडित आलोपीदीन का काम है। वंशीधर को हैरानी हुई।
इतनी देर में आलोपीदीन को सूचना मिल गई कि दरोगा ने उनका समान रोक लिया है। आलोपीदीन को रूपये पर बहुत भरोसा था, परिणाम स्वरूप वह समान्य होकर बोले मैं आता हूँ। वंशीधर के पास पहुँचे तो, उन्होंने बदलूसिंह को आदेश दिया- वह आलोपीदीन को गिरफ्तार कर लें।
आलोपीदीन ने एक हजार से शुरू करके चालीस हजार तक रिश्वत देने का प्रस्ताव रखा, लेकिन वंशीधर ने कहा चालीस हजार तो क्या चालीस लाख में भी वह उसकी बात नहीं मानेंगे। अर्थात उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
वंशीधर ने रिश्वत नहीं ली, क्योंकि वह ईमानदार दरोगा थे, लेकिन पुलिस स्टेशन से लेकर अदालत तक सभी वकील समेत लगभग सभी ने उनके रूपए के आगे सर झुका दिया। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने सारे साबूत निर्मूल और भ्रमात्मक बताते हुए, आलोपीदीन को सम्मान पूर्वक रिहा कर दिया।
आलोपीदीन ने बाहर आकर अपने रूपए के बल पर, वंशीधर को नौकरी से निकलवा दिया। यह जानकर वंशीधर के पिता बहुत दुखी हुए, माँ भी वंशीधर से नराज़ हो गई। उनकी पत्नी ने तो उनसे ठीक से बात करना ही छोड़ दिया। लगभग एक हफ्ते बाद, पंडित आलोपीदीन रथ में सवार होकर वंशीधर के घर पहुँचे। वंशीधर के पिता ने गुस्सा होते हुए उनसे कहा, ऐसी संतान से तो अच्छा था, संतान ही न रहे।
पंडित आलोपीदीन बहुत प्रसन्न होकर वंशीधर के घर आए थे। वह अपने साथ स्टाम्प लगा पत्र लेकर आए थे, उसमें लिखा था, वह अपने जायदाद का स्थायी मैनेजर वंशीधर को बना रहे हैं। पंडित आलोपीदीन ने कहा उस दिन तुमने मेरी विनती नहीं मानी थी, अर्थात रिश्वत नहीं ली थी। आज यह विनती माननी पड़ेगी।
छ: हजार वार्षिक वेतन, रोजाना खर्च अलग से दिया जाएगा। सवारी के लिए घोड़ा दिया जाएगा। रहने के लिए बँगला और नौकर चाकर मुफ्त में दिए जाएँगे। अर्थात वंशीधर की ईमानदारी के कारण उसकी दरोगा की नौकरी तो चली गई, लेकिन उससे अधिक सुविधा और भुगतान वाली नौकरी का प्रस्ताव आलोपीदीन द्वारा दिया गया। वंशीधर ने आलोपीदीन की विनती मानते हुए हस्ताक्षर कर दिए, परिणाम स्वरूप खुश होकर आलोपीदीन ने उसे अपने गले लगा लिया।
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