Study Material : भारत दुर्दशा नाटक का संक्षिप्त सारांश, कथन व महत्वपूर्ण तथ्य | Brief summary, statements and important facts of the play Bharat Durdasha NTA NET JRF
भारत दुर्दशा नाटक का संक्षिप्त सारांश (Brief Summary Of The Play Bharat Durdasha)
भारत दुर्दशा 1880 में प्रकाशित हुआ था। रामस्वरूप चतुर्वेदी की पुस्तक में 1876 भी प्रकाशन वर्ष मिलता है। इस नाटक में भारत की दुर्दशा के कारण और समाधान पर बात की गई है। यह नाटक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखा गया है।
इस नाटक के सभी पात्र प्रतीकात्मक हैं। अर्थात नाटक में उन चीज़ो को किरदार बनाकर प्रस्तुत किया है, जो मनुष्य रूप में दिखाई नहीं दे सकते हैं। हर एक किरदार किसी न किसी का प्रतीक है, जैसे— भारत, भारत भाग्य, भारतदुर्देव, मदिरा, सत्यानाश, मदिरा, रोग, अंधकार इत्यादि।
इस नाटक में भारतेन्दु की राजभाक्ति और देशभक्ति दोनों दिखाई देती है। भारतभाग्य कहता है— “देखो विद्या का सूर्य पश्चिम से उदय हुआ चला आता है। अब सोने का समय नहीं है। अँगरेज का राज्य पाकर भी न जगे तो कब जागोगे” इससे भारतेन्दु की राजभक्ति का पता चलता है, अर्थात वे अँग्रेजी शासन के शिक्षा प्रणाली को भारत के विकास के रूप में देखते थे।
पूरे नाटक में वह भारत कि स्थिति से चिंतित हैं, इस स्थिति का क्या कारण है, वह इसका ज़िक्र कहते हैं— रोग, आलस्य, मंदिरा, अंधकार, सत्यानाश को भारत की इस दुर्दशा का कारण मानते हैं।
भारत को जगाने का प्रयास करते हैं, इसके लिए वह भारत भाग्य से भारत के अतीत रूप गर्व के कारणों का ज़िक्र करवाते हैं। भारत भाग्य द्वारा पूरा प्रयास करते हैं, कि भारत जाग जाए, वर्तमान और भविष्य को सुधार ले, लेकिन जब भारत भाग्य देखता है कि भारत नहीं जाग रहा, तो वह आत्महत्या कर लेता है।
भारतदुर्देव अंग्रेजी राज्य का प्रतीक है, जो भारत को हराने के लिए सत्यानाश, मंदिरा, रोग, अंधकार इत्यादि को भारत भेजता है।
परिणाम स्वरूप यह कहा जा सकता है, कि भारतेन्दु जी अपने इस नाटक के माध्यम से अंग्रेजी शासन के द्वारा दुर्दशा किए जा रहे कारणों को बता रहे थे, और उन्हीं की शिक्षा नीति को पर चलकर इन सबसे बचने का उपाय भी बता रहे थे। इसलिए कहा जाता है, इस नाटक में उनकी राजभक्ति और देशभक्ति दोनों देखने को मिलती है।
नाटक के महत्वपूर्ण कथन व तथ्य (Important statements and facts of the play
नाट्यरासक वा लास्य रूपक, संवत 1933
नाटक की शुरूआत मंगलाचरण से हुई है।
जय सतजुग-थापन-करन, नासन मलेच्छ-आचार।
कठिन धार तरवार कर, कृष्ण कल्कि अवतार।।
इस नाट मे 6 अंक हैं।
पहला अंक – बीथी
एक योगी गाता है।
(लावनी)
रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत आई।
हा हा। भारतदुर्दशा न देखी जाई।। धुरव।।
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो।
सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो।।
सबके पहिले जो रूप रंग रस भीनो।
….
अँगरेराज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।।
….
हा हा, भारतदुर्दशा न देखी जाई।।
दूसर अंक – स्थान- श्मशान, टूटे-फूटे मंदिर
दूसरे अंक में भारत का प्रवेश होता है।
भारत ने भागवान श्रीकृष्णचंद्र, वीरोत्तम दुर्योधन, जयचंद्र का जिक्र किया है। माता राजराजेश्वरि से बिजियिनि से खुद को बचाने की गुहार लगाता है।
गीत गाता है-
कोऊ नहिं पकरत मेरो हाथ।
बीस कोटि सुत होत फिरत मैं हा हा होय अनाथ।
जाकी सरन गहत सोई मारत सुनत न कोउ दुखगाथ।
दीन बन्यौ इस सों उन डोलत टकरावत निज माथ।।
दिन दिन बिपति बढ़त सुख छीजत देत कोऊं नहिं साथ।
सब विधि दुख सागर मैं डूबत धाई उबारौ नाथ।।
भारत कहता है- “हाय। परमेश्वर बैकुंठ में और राजराजेश्वरी सात समुद्र पार, अब मेरी कौन दशा होगी? हाय अब मेरे प्राण कौन बचावेगा? अब कोई उपया नहीं। अब मरा, अब मरा।” कहते हुए बेहोश हो जाता है।
निर्लज्जता का प्रवेश होता है। वह भारत को प्रोत्साहित कहती है, कहती है— प्राण देना तो कायरों का काम है। क्या हुआ जो धनमान सब गया। एक जिंदगी हजार नेआमत हैं।
भारत बेहोश हो चुका होता है, परिणाम स्वरूप निलज्जता की सहायता के लिए आशा आती है।
आशा का कथन – मेरे आछत किसी ने भी प्राण दिया है? ले चलो, अभी जिलाती हूँ।
तीसरा अंक (स्थान – मैदान)
फौज के डेरे दिखाई पड़ते हैं। भारतदुर्देव आता है।
भारतदुर्देव भारत को खोजता है, उसे कहता है- देखो तो अभी क्या-क्या दुर्दशा होती है।
भारतदुर्देव नाचता और गाता है-
अरे!
उपजा ईश्वर कोप से औ आया भारत बीच।
छार खार सब हिंद करूँ मैं, तो उत्तम नहिं नीच।
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
कौड़ी कौड़ी को करूँ मैं सबको मुहताज।
भूखे प्रान निकालूँ इनका, तो मैं सच्चा राज। मुझे…
काल भी लाऊँ महँगी लाऊँ, और बुलाऊँ रोग।
पानी उलटाकर बरसाऊँ, छाऊँ जग में सोग। मुझे…
फूट बैर औ कलह बुलाऊँ, ल्याऊँ सुस्ती जोर।
घर घर में आलस फैलाऊँ, छाऊँ दुख घनघोर। मुझे…
काफर काला नीच पुकारूँ, तोडूं पैर औ हाथ।
दूँ इनको संतोष खुशामद, कायरता भी साथ। मुझे…
मरी बुलाऊँ देस उजाडू महँगा करके अन्न।
सबके ऊपर टिकस लगाऊ, धन है भुझको धन्न।
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
(नाचता है)
अब भारत कहाँ जाता है, ले लिया है। एक हिस्सा बाकी है,
अबकी हाथ में वह भी साफ है। भला हमारे बिना और ऐसा कौन कर सकता है कि अँगरेजी अमलदारी में भी हिंदू न सुधरें! लिया भी तो अँगरेजों से औगुना हा हाहा! कुछ पढ़े लिखे मिलकर देश सुधारा चाहते हैं? हहा हहा! एक चने से भाड़ फोड़ेंगे। ऐसे लोगों को दमन करने को मैं जिले के हाकिमों को न हुक्म दूँगा कि इनको डिसलायल्टी में पकड़ो और ऐसे लोगों को हर तरह से खारिज करके जितना जो बड़ा मेरा मित्र हो उसको उतना बड़ा मेडल और खिताब दो। हैं! हमारी पालिसी के विरुद्ध उद्योग करते हैं मूर्ख! यह क्यों? मैं अपनी फौज ही भेज के न सब चौपट करता हैं। (नेपथ्य की ओर देखकर) अरे कोई है? सत्यानाश फौजदार को तो भेजो। (नेपथ्य में से ‘जो आज्ञा’ का शब्द सुनाई पड़ता है) देखो मैं क्या करता हूँ। किधर किधर भागेंगे।
(सत्यानाश फौजदार नाचता हुआ आता हैं)
सत्यानाश फौजदार का गीत—
धरके हम लाखों ही भेस।
बहुत हमने फैलाए धर्म।
होके जयचंद हमने इक बार।
हलाकू अंगेजो तैमूर।
दुरानी अहमद नादिरसाह।
हैं हममें तीनों कल बल छल।
पिलावैंगे हम खूब शराब।
सत्यानाश फौजदार का कथन – महाराज इंद्रजीत सन जो कछु भाखा, सो सब जनु पहिलहिं करि राखा। जिनको आज्ञा हो चुकी है वे तो अपना काम कर ही चुके और जिसको जो हुक्म हो, कर दिया जाय।
सत्यानाश कहता है- महाराज धर्म ने सबके पहिले सेवा की।
महाराज, वेदांत ने बड़ा ही उपकार किया। सब हिंदू ब्रहम हो गए। किसी को इतिकत्र्तर्वयता बाकी ही न रही। ज्ञानी बनकर ईश्वर से विमुख हुए, रुक्ष हुए, अभिमानी हुए और इसी से स्नेहशून्य हो गए। जब स्नेह ही नहीं तब देशोद्धार का प्रयत्न कहां।
भारतदुर्देव ने पूछा बाकी लोगों ने क्या काम किया है-
सत्यानाश बताता है- भारत में संतोष ने भी बड़ा काम किया राजा प्रजा सबको चेला बना लिया। अब हिंदुओं को खाने मात्रा से काम, देश से कुछ काम नहीं। राज न रहा, पेनसन ही सही। रोजगार न रहा, सूद ही सही। कुछ नहीं तो घर ही सही, “संतोष परमं सुखं” रोटी को ही सराह सराह के खाते हैं।
निरुद्यमता ने भी संतोष को बड़ी सहायता दी। इन दोनों को बहादुरी का मेडल जरूर मिले। व्यापार को इन्हीं ने मार गिराया।
भारतदुर्देव के और पूछने पर सत्यानाश कहता है- जो धन की सेना बची थी उसको जीतने के लिए मैंने अपव्यय, अदालत, फैशन और सिफारिश इन चारों को भेजा जिसने दुश्मन की फौज तितिर बितिर कर दी।
तुहफे, घूस और चंदे के ऐसे बम के गोले चलाए कि बम बोल गई “बाबा की चारों दिसा धूम” निकल पड़ी।
भारतदुर्देव पूछता है- कुछ लोग छिपाकर भी दुश्मनों की ओर भेजे थे?
तब सत्यानाश उत्तर देता है- हाँ, सुनिए। फूट, डाह, लोभ, भेय, उपेक्षा, स्वार्थपरता, पक्षपात, हठ, शोक, अश्रुमार्जन और निर्बलता को भेजा है।
भारतदुर्देव कहता है- तुम होशियार रहना और रोग, महर्घ, कर, मद्य, आलस और अंधकार को जरा क्रम से मेरे पास भेज दो।
सत्यानाश के जाने के बाद भारतदुर्देव भारत के लिए कहता है- धन, बल और विद्या तीनों गई। अब किसके बल कूदेगा?
भारत दुर्देव के फौजदार का नाम सत्यानाश है।
भारत के फौजदार का नाम शस्य है।
चौथा अंक
कमरा अँगरेजी सजा हुआ, मेज कुरसी लगी हुई। कुरसी पर भारत दुर्देव बैठा है।
चौथे अंक में रोग का प्रवेश सबसे पहले होता है। रोग कहता है— मैं कुपथ्य का मित्र और पथ्य का शत्रु मैं ही हूँ। त्रौलोक्य में ऐसा कौन है जिस पर मेरा प्रभुत्व नहीं। नज़र, श्राप, प्रेत, टोना, टनमन, देवी देवता सब मेरे ही नामांतर हैं। मेरी बदौलत ओझा, दरसनिए, सयाने पंडित सिद्ध लोगों को ठगते हैं। चुंगी की कमेटी सफाई करके मेरा निवारण करना चाहती है,यह नहीं जानती कि जितनी सड़क चौड़ी होगी उतने ही हम भी ‘जस जस सुरसा वदन बढ़ावा, तासु दुगुन कपि रूप दिखावा’।
दुर्देव से मिलने के लिए दूसरे नम्बर पर आलस्य का प्रवेश होता है। आलस्य भारत के नगरिकों की आलसी होने की बातें बताता है, उसके बाद गाता है—
(गजल)
दुनिया में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा।
मर जाना पै उठके कहीं जाना नहीं अच्छा।।
बिस्तर प मिस्ले लोथ पड़े रहना हमेशा।
बंदर की तरह धूम मचाना नहीं अच्छा।।
“रहने दो जमीं पर मुझे आराम यहीं है।”
छेड़ो न नक्शेपा है मिटाना नहीं अच्छा।।
उठा करके घर से कौन चले यार के घर तक।
“मौत अच्छी है पर दिल का लगाना नहीं अच्छा।।
धोती भी पहिने जब कि कोई गैर पिन्हा दे।
उमरा को हाथ पैर चलाना नहीं अच्छा।।
सिर भारी चीज है इस तकलीफ हो तो हो।
पर जीभ विचारी को सताना नहीं अच्छा।।
फाकों से मरिए पर न कोई काम कीजिए।
दुनिया नहीं अच्छी है जमाना नहीं अच्छा।।
सिजदे से गर बिहिश्त मिले दूर कीजिए।
दोजष्ख ही सही सिर का झुकाना नहीं अच्छा।।
मिल जाय हिंद खाक में हम काहिलों को क्या।
ऐ मीरे फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा।।
तीसरे नम्बर पर मदिरा का प्रवेश होता है। मदिरा कहती मैं सोम की कन्या हूँ। प्रथम वेदों ने मधु नाम से मुझे आदर दिया। फिर सुरा कहलाई गई, प्रचार के हेतु श्रोत्रामणि यज्ञ की सृष्टि हुई। वह अपने नाम बताती है— सोमपान, बीराचमन, शराबूनतहूरा और टैजिग वाइन।
मदिरा गाती है (राग काफी, धनाश्री का मेल, ताल धमार)
मदवा पीले पागल जीवन बीत्यौ जात।
बिनु मद जगत सार कछु नाही मान हमारी बात।।
पी प्याला छक छक आनंद से नितहि साँझ और प्रात।
झूमत चल डगमगी चालसे मारि लाज को लात।।
हाथी मच्छड़, सूरज जुगुनू जाके पिए लखात।
ऐसी सिद्धि छोड़ि मन मूरख काहे ठोकर खात।।
भारतदुर्देव मदिरा से कहता है— हमने हिदुस्तान कई वीर भेजे हैं, लेकिन मुझको जितनी आशा तुमसे है उतनी किसी से नहीं है।
मदिरा के बाद अंधकार का प्रवेश होता है। अंधकार गाता हुआ नृत्य करता हुआ प्रवेश कहता है। ऐसा लगता है, जैसे आँधी आ रही है। राग काफी मे अंधकार गाता है।
जै जै कलियुग राज की, जै महामोह महराज की।
अटल छत्र सिर फिरत थाप जग मानत जाके काज की।।
कलह अविद्यामोह मूढ़ता सवै नास के साज की।।
अंधकार कहता है— भला जब तक वहाँ दुष्टा विद्या का प्राबल्य है, मैं वहाँ जाही के क्या करूँगा? त्रैता, द्वापर का ज़िक्र है।
अंत में दुर्देव अंधकार को हिन्दुस्तान जाने के लिए कहता है। नेपथ्य में बैतालिक गान सुनाई देता है, और इसी के साथ यह अंक समाप्त हो जाता है।
पाँचवाँ अंक (स्थान- किताबखाना)
इस अंक में सात सभ्यों की एक छोटी सी कमेटी, सभापति चक्करदार टोपी पहने है।
सभापति का कथन— अपने देश की रक्षा करना ही हम लोगों का मुख्य धर्म है।
महाराष्ट— तो सार्वजनिक सभा का स्थापन करना। कपड़ा बीनने की कल मंगानी। हिजुस्तानी कपड़ा पहिनना। यह भी सब उपाय हैं। अर्थात यह स्वदेशी अपनाने पर बल देता है।
कवि का कथन— फैशन छोड़कर कोट पतलून इत्यादि पहिरें जिसमें सब दुर्देव की फौज आवे तो हम लोगों को योरोपियन जानकर छोड़ दें।
बंगाली का कथन— हमारा देश में भारत उद्धार नामक एक नाटक बना है।
प. देशी— यह कोई नहीं कहता कि सब लोग मिलकर एक चित हो विद्या ही उन्नति करो, कला सीखो जिससे वास्तविक कुछ उन्नति हो। क्रमश: सब कुछ हो जाएगा।
जब इन सबकी मीटिंग चल रही थी, तभी डिसलायलटी का प्रवेश होता है।
डिसलॉयलटी का कथन— हम क्या करें, गवर्नमेंट की पालिसी यही है। कवि वचन सुधा नामक पत्रा में गवर्नमेंट के विरुद्ध कौन बात थी? हम लाचार हैं, पकड़ने को भेजे गए।
सभापति का कथन— तो पकड़ने का आपको किस कानून से अधिकार है?
डिसलॉयलटी का कथन— इँगलिश पालिसी नामक ऐक्ट के हाकिमेच्छा नामक दफा से।
छठा अंक (स्थान-गंभीर वन का मध्यभाग)
भारत एक वृक्ष के नीचे अचेत पड़ा है। भारतभाग्य का प्रवेश होता है। गाता है—
राग चैती गौरी जागो जागो रे भाई।
सोअत निसि बैस गँवाई। जागों जागो रे भाई।।
भारत भाग्य भारत को जगाता है, भारत फिर भी नहीं जागता, अंत में हारकर उदास हो जाता है। भारतभाग्य कहता है— हाय यह वही भारत है जो किसी समय सारी पृथ्वी का शिरोमणि गिना जाता था?
भारतभाग्य भारतवर्ष के व्यास, वाल्मीकी, कालिदास, पाणिनि, शाक्यसिंह, बाणभट्ट, प्रभृति कवियों का ज़िक्र करते हुए राजा चंद्रगुप्त, अशोक, राम, युधिष्ठर, नल, हरिश्चंद्र, रंतिदेव, शिवि इत्यादि की चर्चा करते हुए कहता है, जिस भारत में यह सब हुए हैं, उसकी यह दशा हाय, भारत से कहता है— भारत भैया, उठो। देखो विद्या का सूर्य पश्चिम से उदय हुआ चला आता है। अब सोने का समय नहीं है। अँगरेज का राज्य पाकर भी न जगे तो कब जागोगे?
भारतभाग्य ने भारत को जगाने के अनेक पतन किए लेकिन फिर भी भारत नहीं जागा, परिणाम स्वरूप थक-हारकर वह आत्महत्या कर लेता है। जिसे लेखक ने इस प्रकार व्यक्त किया है—
कटार का छाती में आघात और साथ ही जवनिका पतन…
इसके बाद नाटक समाप्त हो जाता है।
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