Study Material : (कर्मभूमि भाग – 1 अध्याय 8)
अध्याय आठ का संक्षिप्त परिचय (Brief Introduction to Chapter Eight)
इस अध्याय में अमरकान्त की उसके पिता समरकान्त से बहस हो जाती है। काले खाँ से कंगन नहीं खरीदने पर समरकान्त अमरकान्त पर बहुत क्रोधित होते हैं।
प्रेमचन्द कर्मभूमि भाग एक अध्याय आठ सारांश (Karmabhoomi Part One Chapter Eight Summary)
अमरकान्त को बुढिया के घर से आने में रात के नौ बज जाते हैं। अमरकान्त के आते ही समरकान्त ने पूछा दुकान बंद करके कहाँ चले गए थे। अमरकान्त ने बुढ़िया पठानिन के विषय में पूर्ण जानकारी देते हुए बताया की बुढ़िया को उसने पाँच रूपये दिए और रात हो जाने के कारण उसे उसके घर छोड़ने गया था।
अमरकान्त ने समरकान्त को कालो खाँ के बारे में बताया। काले खाँ दस तोले का कड़ा लाया था, जिसे वह दौ सौ रूपए से घटाकर तीस रूपए तक में भी बेचने को तैयार था और अमरकान्त ने वह कड़े नहीं खरीदे, यह जानकर समरकान्त अत्यधिक क्रोधित (गुस्सा) हो गया। समरकान्त ने कहा – “चुप रहो, शरमाते तो नहीं, ऊपर से बातें बनाते हो। डेढ़ सौ रूपए बैठे-बिठाए मिलते थे, वह तुमने धर्म के घमण्ड में खो दिए, उस पर से अकड़ते हो। जानते भी हो, धर्म है क्या चीज? साल में एक बार भी गंगा-स्नान करते हो? एक बार भी देवताओं को जल चढ़ाते हो? कभी राम का नाम लिया है ज़िन्दगी में? कभी एकादशी या कोई दूसरा व्रत रखा है? कभी कथा-पुराण पढ़ते या सुनते हो? तुम क्या जानो धर्म किसे कहते हैं। धर्म और चीज़ है, रोजगार और चीज़। छिः साफ़ डेढ़ सौ फेंक दिए”।
इस प्रकार समरकान्त और अमरकान्त के बीच धर्म और कर्म को लेकर तर्क-वितर्क हुए। समरकान्त ने अपने अपने काम को सही बताते रहे और अमरकान्त अनैतिक कार्य करके धन न कमाने पर ज़ोर देता रहा। अमरकान्त के अनुसार कर्म ही धर्म है। समरकान्त के अनुसार पूजा-पाठ आदि करना धर्म है।
समरकान्त ने यहाँ तक कहा – “अभी कमाना नहीं पडा है, दूसरों की कमाई से चैन उड़ा रहे हो, तभी ऐसी बातें सूझती हैं। जब अपने सिर पड़ेगी, तब आँखें खुलेंगी। इतना सुनने के बाद भी अमरकान्त ने कहा – “मैं कभी यह रोज़गार न करूँगा”। अमर ने कहा मैं भूखा मर जाऊँगा पर अपनी आत्मा का गला नहीं घोटूँगा।
समरकान्त ने कहा “ क्यों अपनी आत्मा का विकास नहीं करते? महात्मा ही हो जाओ। कुछ करके दिखाओ तो, जिस चीज़ की तुम कद्र नहीं कर सकते, वह तुम्हारे गले नहीं मढ़ना चाहता”। समरकान्त ने अनेक प्रयत्न किए, अमरकान्त को अपने व्यवसाय में सकारात्मकता दिखाने की लेकिन वे असफल हो गए, परिणाम स्वरूप अपनी बात-चीत पर विराम लगा कर ठाकुरद्वारे आरती में चले गए।
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समरकान्त के जाने के बाद नैना अमरकान्त के पास आती है, और अमरकान्त से उसकी परेशानी का कारण पूछती है। अमरकान्त ने नैना को स्पष्ट रूप से कुछ न बताते हुए बात को टाल दिया। नैना ने अमरकान्त के लिए पकौड़ियाँ पका रखी थी, अमरकान्त सुखदा को बुलाने उसके पास चला जाता है।
अमरकान्त सुखदा के पास पहुँचा तो उसने पाया सुखदा अमरकान्त से नराज़ है। उसने पहला प्रश्न किया – तुम आज दादाजी (पिता) से लड़ पड़े? अमरकान्त ने सफाई देते हुए कहा – उन्होंने ही मुझे अकारण डाँटना शुरू कर दिया?
जहाँ कुछ ही देर पहले धर्म और कर्म पर पिता से तर्क-वितर्क हो रहा था, वहीं अब अमरकान्त को सुखदा के सामने स्वयं को सही साबित करने के लिए प्रयत्न करना पड रहा था। सुखदा न ही समरकान्त का पक्ष लेते हुए उन्हें सही बता रही थी, न ही अमरकान्त को सही कह रही थी। सुखदा लगातार यही प्रयास कर रही थी कि अमरकान्त समरकान्त की बातों को माने और जो बात नहीं मान सकता उसे पिता के लिए ही छोड दे। सुखदा अमरकान्त से कहती है, अगर तुम कडे खुद नहीं खरीदना चाहते थे तो कह देते जब दादाजी आएँगे तब आ जाना।
सुखदा और अमरकान्त के बीच लगातार तर्क-वितर्क चलता रहा। अमरकान्त अपनी गर्भवती पत्नी पर चिंताओं का भार नहीं डालना चाहता है। सुखदा अपने पति और ससुर के बीच मतभेद नहीं देखना चाहती है। दोनों प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे का भला ही चाहते हैं, लेकिन एक दूसरे के दृष्टिकोण से सहमत नहीं होते हैं। अमरकान्त लगातार अपनी ईमानदारी को सर्वोपरि रखना चाहता है, और सुखदा चाहती है अमरकान्त अपने पिता का साथ दे, व समरकान्त का भार कम करें।
बातचीत के दौरान अमरकान्त कहता है, मैं बिना दादा के धन के गुज़ारा कर सकता हूँ, घर भी छोड़ सकता हूँ। सुखदा ने पूछा- और मैं? इस घर से मेरा नाता तुम्हारे कारण है, जब तुम घर में न रहोगे तो मेरा क्या रखा है? जहाँ तुम रहोगे मैं वहीं रहूँगी।
अमरकान्त ने कहा तुम अपनी माता के साथ रह सकती हो। सुखदा ने कहा – मैं विलासिता की दासी नहीं हूँ, और यह कहते हुए उसने कह दिया वह अपनी माता के साथ नहीं रहेगी। वह महल में रहती है, तो झोपड़ी में भी गुज़ारा कर सकती है। अमरकान्त परेशान हो गया, वह खुद तो घर छोड़ सकता है, लेकिन सुखदा को परेशानी में नहीं डालना चाहता है।
अंत में अमर कहता है – मुझे क्षमा करो सुखदा! मैं वादा करता हूँ कि दादाजी जैसा कहेंगे, वैसा ही कहूँगा”। इसके बाद ही नैना आकर सुखदा और अमर दोनों को पकौड़ियाँ खाने के लिए खींच ले गई।
बातचीत के परिणाम स्वरूप सुखदा बहुत खुश हो जाती है, वहीं अमरकान्त दुखी होता है, आज अमरकान्त के आदर्श व धर्म की परीक्षा हुई, और अमर यह जान चुका था कि वह कितना दुर्बल है।
निष्कर्ष (Conclusion)
पिता से अधिक पुत्र के लिए कोई भी चिंतित नहीं हो सकता है। पुत्र भी पिता का महत्व समझता है। पिता पुत्र का संबन्ध अधिकतर तब तक ही मधूर प्रतीत होता है, जब तक पुत्र किशोरवास्था को प्राप्त नहीं कर लेता। किशोरवस्था में पुत्र अनेक विचारों से ग्रस्त होता है, परिणाम स्वरूप युवावस्था में संतान अपने विचारों को प्रथमिकता देने लगती है। यह विचार सही भी हो सकते हैं और गलत भी, लेकिन जब संतान के विचार माता-पिता से भिन्न होते हैं, तो माता-पिता और संतान के विचार आपस में टकराने लगते हैं। विचारों के टकराने के परिणाम स्वरूप पिता-पुत्र में मतभेद होते हैं, और उनके संबन्ध में कटुता आ जाती है।
ऐसे ही मतभेद प्रेमचंद जी के लिखे उपन्यास कर्मभूमि में समरकान्त और उसके पुत्र अमरकान्त के बीच देखने को मिलता है। समरकान्त और अमरकान्त दोनों को लगता है, उनके विचार सही हैं। समरकान्त व्यवसाय गलत को भी सही समझते हैं। अमरकान्त ईमानदारी, को ही धर्म समझता है।