IGNOU MHD-3 Study Material हिन्दी कहानी विविधा | Hindi Kahani Vividha
नयी कहानी (Nayee kahaanee)
आजादी मिलने के साथ भारत में वह शिक्षित वर्ग स्थापित विकसित हुआ, जो नयी कहानी का जन्मदाता माना जाता है। शुरु के तीन-चार वर्षों की संक्रमणकालीन स्थिति समाप्त होते ही एक नये वातावरण की सृष्टि होती है, जिसमें कहानी को फलने-फूलने का अनुकूल वातावरण मिला। “कहानी” पत्रिका के माध्यम से नए कहानीकारों को आगे आने का मौका मिला।
आजादी के बाद कहानीकारों की एक ऐसी पीढ़ी सामने आयी जिसने रूचियों और सामाजिक संस्कार की भिन्नता के बावजूद पाठकों में अपनी पहचान बनायी। पुराने लेखक नए संदर्भ से ठीक-ठीक जुड़ नहीं पाए। वे नए भाव बोध को न तो अच्छी तरह पहचान पाये और न ही उसे ग्रहण कर सके।
श्रीपतराव 1956 में कहते है “यह स्वीकार करने में मुझे आपत्ति नहीं कि कहानी का स्वरूप बदल रहा है और मैं शायद अपने पुराने संस्कारों के कारण कहानी से वह माँग कर रहा हूँ जो आज उसका लक्ष्य ही नहीं है”
इसी संदर्भ में अंग्रेजी के प्रतिष्ठित कथाकार ई. एम. फॉस्टर का कथन उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा “मैं सोचता हूँ कि जिन कारणों से मैंने उपन्यास लिखना बंद कर दिया, उनमें से एक कारण यह है कि संसार का सामाजिक रूप इतना बदल चुका है और में पुराने ढंग की परिवारों वाली दुनिया के बारे में लिखने का आदी था, जो अपेक्षाकृत शांत थी वह सब चला गया और यद्यपि में नयी दुनिया के बारे में सोच सकता हूँ फिर भी उसे कथाकृति में नहीं रख सकता।
(नयी कहानी संदर्भ और प्रकृति पृ. 232 )
नयी पीढ़ी पुरानी कथा रूढ़ियों से सर्वथा मुक्त होकर वास्तविक जीवन से जुड़ने के लिए आकुल थी। नव लेखन के इस व्यापक परिवेश को देखते हुए, नयी कविता की तर्ज पर नयी कहानी का प्रश्न उठना स्वाभाविक था, क्योंकि किसी भी साहित्य के लिए यह स्पृहणीय स्थिति नहीं हो सकती कि कविता तो किसी एक भावबोध पर चले और कहानी- उपन्यास आदि गद्य-कृतियाँ किसी दूसरे भावबोध के रास्ते पर चलें।
यदि पूर्ण नव लेखन एक ही ऐतिहासिक संदर्भ से जुड़ा हुआ है, तो जीवन-दृष्टियों के भेद और वैयक्तिक विशिष्टताओं के बावजूद समूचे नवलेखन के मूल में एक- सी बुनियादी संवेदनाओं का होना ऐतिहासिक आवश्यकता है।
परिणाम स्वरूप 1956-57 का समय इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है, हिंदी कहानी समूचे नवलेखन के केंद्र में आ गई। यह समय इसलिए भी ज्यादा महत्व रखता है क्योंकि ‘कहानी’ नववर्षाक, 1956 में पहली बार ‘नयी कहानी की बात उठाई गई थी। ‘नयी कहानी की आवाज वस्तुतः एक रचनात्मक संभावना को देखकर उठी थी जो आज भी नयी पीढ़ी के कहानीकारों की पहली कृतियों में साफ झलकती है। ये कृतियों आज भी ताजा मालूम होती हैं, क्योंकि इसके मूल में सृजनात्मक प्रयास है। एक लम्बे अवकाश के बाद हिंदी कहानी में जीते जानते आदमी दिखायी पड़े। आजादी ने एक बारगी अनेक रूढ विचारधाराओं को निस्सार साबित कर दिया। उस समय निजी अनुभव ही लेखक को एकमात्र सहारा मालूम हुआ और उसे लगा कि किसी भी कीमत पर अपनी अनुभूति क्षमता को सतत् जागृत रखना अपने जीवन और अपने सृजन के लिए अनिवार्य है।
राजनीतिक आजादी से नयी पीढ़ी ने सचमुच अपने को स्वतंत्र महसूस किया। उसे लगा कि वह स्वयं अपनी आँखों से हर चीज को देख सकता है और उसने देखा कि आजादी के साथ एक जीता जागता भारत बाहर निकल आया। उल्लेखनीय है कि बाबा, दादी दादा आदि को लेकर इस नयी पीढ़ी ने अनेक कहानियाँ लिखी। कुछ लोगों को यह आश्चर्य हुआ कि यह कैसी नयी पीढ़ी है, जो खुद पर न लिखकर पुरानी पीढ़ी के लोगों के बारे में लिखना पसंद करती है। कुछ ने इसे वर्तमान से पलायन कहा तो कुछ ने रोमांटिसिज्म परंतु नवी पीढ़ी का यह आत्मान्वेषण था।
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साठोत्तरी कहानी का भावबोध (Sense of the Sixties Story)
साठ के बाद की कहानियों में स्थिति और संबंध की धारणा में परिवर्तन हुआ, इसीलिए संबंधों के यथार्थ का चित्रण सातवें दशक की कहानी में ‘नयी कहानी से थोडा भिन्न है। नयी कहानी में जहाँ संबंधों के प्रति द्वंद्वात्मक रवैया अपनाया गया है वहाँ इस दशक की कहानियों में दृष्टिगोचर होने वाला मानवीय स्थिति से मानवीय संबंध की ओर विकास सामाजिक चेतना का विस्तार है, अधिक रागात्मक और अधिक प्रामाणिक संबंधों में झलक रही सामाजिक-आर्थिक चेतना के विविध रूपों और व्यवहारों को इन कहानियों में देखा जा सकता है।
नयी कहानी में मूल्य के स्तर पर संपूर्ण मोहभंग नहीं हो सकता था कि आस्थाएँ और विश्वास जरूर कुछ ढीले हुए, होने के साथ नयी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ उभर आई। जिनके कारण पुराना ढाँचा बिलकुल चरमरा गया। इससे कहानी संरचना का पूर्ववर्ती ऊँचा भी टूट गया।
इन कहानीकारों से संबंधों में प्रतिफलित हो रहे परिवर्तनों को गहराई से देखना शुरू किया। इससे संबंधों के प्रचलित रूप बदलने लगे और बंधे-बंधाएँ ढांचों में दरारें पड गयीं। संबंधों के स्थायित्व का ‘मिथ’ टूटा और कहानीकारों ने नये जीवन-पथार्थ के परिप्रेक्ष्य में बदली हुई जीवन स्थितियों और संबंधों में व्याप्त तनाव विघटन और जटिलता को देखा, पहचाना और उन्हें कभी आत्मगत वस्तुगत स्तरों या कमी दोनों को दंड के रूप में अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया।
ज्ञानरंजन की कहानी शेष होते हुए भी उनकी कहानी में संबंधों के बदलाव और तनाव को विघटित स्थितियों के संदर्भ में इस ढंग से व्यक्त किया गया है कि मनुष्य की वर्तमान स्थिति के भरपूर संकेत मिलने लगते हैं। बदली हुई स्थितियों पारिवारिक संस्था को कायम रखने वाले जातीय अवशेषों और संस्कारों को चुनौती देती प्रतीत होती है।
दो दशकों (1947-70) में हुए परिवर्तन तथा विद्रुपताओं के सूक्ष्म अंकन युगीन लेखकों ने ही किया। 1960 के बाद की कहानियों में जीवन के नए आयाम दिखाई दिए और कहानी की परख में नवीन दृष्टि का परिचय मिला इस युग की कहानी में नयी दृष्टि नवा मुहावरा युगीन कहानीकारों की कहानियाँ उपलब्ध है।
इस युग में बौद्धिक चेतना पाश्चात्य प्रभाव सेक्स भावना और इनसे विकसित नए संबंध, नैतिकता के प्रति नए प्रतिमान आदि प्रवृत्तियों विकसित हुई। इस युग के कहानीकारों ने न तो परम्परा के मूल्यों को स्वीकार किया और न उनके महत्व का प्रतिपादन किया। उन्होंने अपने भोगे हुए यथार्थ के बीच से व्यक्ति के संघर्षपूर्ण जीवन का चित्रण किया है।
आज का व्यक्ति हीनभावना से ग्रस्त है, संवेदनशुन्य है, अवसरवादी है तो कहीं असंतोष और अंत में भटक रहा है। कहीं फैशनपरस्त दुनिया और आधुनिकता से आकात है, तो कहीं उससे दूर भागने की व्यक्ति के संघर्ष, अकेलेपन, घुटन तनावं, पति-पत्नी के संबंधों में उलझे रिश्तों को कहानीकारों ने प्रथमिकता दी।
साठत्तोत्तर कहानीकारों में ज्ञानरंजन की महत्वपूर्ण भूमिका है। इनकी अधिकतर कहानियों में संबंधों के बदलाव और विघटन का बोध होता है। यह महज संबंधों की कहानियाँ नही हैं, बल्कि इनमें आज के व्यक्ति की मानसिकता और चिंता भी संलग्न है।
डॉ. नरेन्द्र मोहन का कहना है कि ज्ञानरंजन की कहानियों में संबंधों के फलक पर मनोवैज्ञानिक तथ्यों का समावेश है और न संबंधों का संपूर्ण निषेध करने वाला आवेश।
सन् 1960 के बाद कहानी के क्षेत्र में एक नया आंदोलन हुआ, जिसे ‘कहानी’ आंदोलन के नाम से जाना जाता है। ज्ञानरंजन में मानवीय संबंधों की जो तलाश परिलक्षित होती है, वह उनके समकालीन अन्य कहानीकारों में परिलक्षित नहीं होती।
ममता कालिया की कहानियों में रिश्ते तड़क रहे हैं, संबंध टूट रहे हैं लेकिन इनकी खोज या तलाश नहीं है। रमेश बक्शी में परम्परा का विरोध है और विसंगति का बोध भी रवीन्द्र कालिया की कहानी में आधुनिकता का बोध नगर-बोध से अधिक गहरे जुड़ा हुआ है।
बड़े शहर के आदमी में बाथरूम में नहाने के लिए मजबूर है या पसंद करता है जबकि ‘पिता’ कहानी में पिता बाथरूम की बजाय बाहर लगे नल पर नहाना पसंद करते हैं। ‘कहानी’ कथा की विरोधी है।
समकालीन जीवन के यौन संदर्भों तथा यौनेतर संदर्भों की संबंधहीनता, व्यर्थता, भयावहता, विसंगतिबोध, मूल्यहीनता आदि को अभिव्यक्ति देने वाली कुछ प्रमुख कहानियाँ हैं ‘पिता दर पिता’, (रमेश बक्शी), ‘नौ साल छोटी पत्नी’, ‘एक डरी हुई औरत’ (रवीन्द्र कालिया), ‘शेष होते हुए, ‘छलाँग’ (ज्ञानरंजन) आदि।
ज्ञानरंजन की पिता कहानी मूल्यों के प्रति विद्रोह का भाव होते हुए उनका पूरी तरह निषेध नहीं दिखायी देता। अर्थात् पूर्ववर्ती कहानी से यह सर्वथा विच्छिन्न नहीं है। कहानी में परम्परागत पारिवारिक बिंब के खंडित होते जाने की प्रक्रिया मौजूद है। घर पहुँचने पर मंझले की मनोदशा, माँ, पिता, भाई, बहन, भाभी का निहायत सामान्य, उबाऊ और ठंडा रुख, प्रेम, वात्सल्य और सौहार्द जैसे पारिवारिक संस्कारों के चुकते जाने की ओर संकेत करता है।
ज्ञान की यह विशेषता है कि वह निजी धरातल पर भोगी हुई स्थितियों को सामाजिक धरातल से संलग्न कर देते हैं। दो पीढ़ियों के अंतर और अजनबीपन को इस कहानी में बिना भावुक हुए अभिव्यक्त कर दिया गया है। ‘पिता’ में दो पीढ़ियों के वैचारिक टकराव को उजागर किया गया है। ज्ञानरंजन को जैसी सफलता पारिवारिक और मानवीय संकट को उजागर करने में मिली है, वैसी प्रेम संबंधों का निरुपण करने वाली कहानियों में नहीं।