UGC Net JRF Hindi :  अपना अपना भाग्य कहानी की घटना संवाद और सारांश | Story Of Apna Apna Bhagya Incident Dialogue And Summary

UGC Net JRF Hindi : study material अपना अपना भाग्य कहानी की घटना संवाद और सारांश | Story Of Apna Apna Bhagya Incident Dialogue And Summary

अपना अपना भाग्य कहानी का परिचय (Introduction To The Story Of Apna Apna Bhagya)

कहानी का मुख्य विषय नैतिन जिम्मेदारी से बचने का बहना है।

कहानी की संवाद शैली आत्मकथात्मक है, अर्थात कहानी मैं शैली में लिखी गई है।

यह कहानी यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ देश की विडम्बना को रेखांकित करती है।

भारतीय माता-पिता और विदेशी माता-पिता के बीच अन्तर दर्शाया है।

सामाजिक विषमता का चित्रण है।

जैनेन्द्र की कहानी संग्रह-

फाँसी – 1929 में प्रकाशित।

वातायन 1930 में प्रकाशित।

नीलम देश की राजकन्या 1933 में प्रकाशित।

एक रात 1934 में प्रकाशित।

दो चिड़ियाँ 1935 में प्रकाशित।

पाजेब 1942 में प्रकाशित।

ध्रुव यात्रा 1944 में प्रकाशित।

जयसंधि 1949 में प्रकाशित।

पहली कहानी खेल 1928 में विशाल भारत पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।

लक्ष्मी नारायण लाल ने जैनेन्द्र को मानव जीवन दर्शन का सबसे बड़ा कहानीकार माना है।

अपना अपना भाग्य कहानी के लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। यह कहानी वातायन कहानी संग्रह में 1930 में प्रकाशित हुई थी।

कहानी के पात्र – कथावाचक, उसका मित्र, वकील, दस वर्षीय बालक जो बेघर है।

स्थान – नैनीताल

कहानी की विषय वस्तु – गरीब बच्चा सर्दी से मर जाता है क्योंकि अमीर लोगों ने उसके प्रति संवेदना नहीं दिखाई।

अपना अपना भाग्य कहानी का संक्षिप्त सारांश (Brief Summary Of The Story Apna Apna Bhagya)

इस कहानी में बहुत कम पात्र हैं, जिसे कहानी कथावाचक सुनाता है। इस कहानी में एक लगभग दस वर्ष का बालक है, जो अपना घर छोड़कर नैनीताल कमाने के लिए अपने एक दोस्त के साथ के साथ आता है। वह अपने साथी दोस्त के साथ ही एक होटल में काम करता है, होटल के मालिक ने उसे इतना पीटा की उसकी मृत्यु हो गई। बचा यह छोटा सा दस साल का लड़का इसे नौकरी से निकाल दिया।

कथावाचक और उसके दोस्त को यह लड़का आधी रात को सड़क पर चलते हुए मिलता है, रात को ठंड इतनी थी कि कथावाचक और उसके दोस्त को इतनी डंग लग रही थी कि कथावाचक कहता है, सर्द हवा कोट को पार करके उन्हें लग रही है। ऐसे में उस दस साल के बच्चे के पास कोई सर्दी का कपड़ा नहीं था, खाने को खाना नहीं था। सोने को जगह नहीं थी।

कथावाचक और उसका दोस्त उसे एक वकील दोस्त के यहाँ ले गए कि वह उसे नौकर रख लेगा, लेकिन उसने बालक को अच्छा लड़का नहीं है, बताते हुए उसे नौकरी पर नहीं रखा। कथावाचक और उसके दोस्त ने उसे अगले दिन सुबह 10 बजे कहीं मिलने के लिए बुलाया, वहाँ उसके लिए कोई काम दिलवाने की बात की। बालक निराश होकर चला गया।

अगले दिन खबर मिली कि उस बालक की ठंड से मृत्यु हो गई है। उसके ऊपर चादर की तरह बर्फ जमी हुई थी। लोग इसे अपना-अपना भाग्य कहकर संतोष कर लेते हैं, और समाज की नैतिक ज़िम्मेदारी से खुद को किनारे कर लेते हैं। यहीं पर कहानी समाप्त हो जाती है।

अपना अपना भाग्य कहानी की घटना व संवाद (Incidents And Dialogues Of The Story Apna Apna Bhagya)

हम (कथावाचक) सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गए।

हल्के प्रकाश और अँधियारी से रंगकर कभी वे नीले दीखते, कभी सफ़ेद और फिर देर में अरुण पड़ जाते। वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे।

पीछे हमारे पोलो वाला मैदान फैला था।

पीछे पोलो-लॉन में बच्चे किलकारियाँ मारते हुए हॉकी खेल रहे थे, शोर, मार-पीट, गाली-गलौच भी जैसे खेल का ही अंश था।

मानों मनुष्यता के नमूनों का बाज़ार सजकर सामने से इठलाता निकला चला जा रहा हो।

अधिकार-गर्व में तने अँग्रेज उसमें थे और चिथड़ों से सजे घोड़ों की बाग थामे वे पहाड़ी उसमें थे, जिन्होंने अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को कुचलकर शून्य बना लिया है और जो बड़ी तत्परता से दुम हिलाना सीख गए हैं।

अँग्रेज पिता थे, अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे, हँसरहे थे और खेल रहे थे।

भारतीय पितृदेव जो बुज़ुर्गी को अपने चारों तरफ़ लपेटे धन-संपन्नता के लक्षणों का प्रदर्शन करते हुए चल रहे थे।

अँग्रेज़ रमणियाँ थीं, जो धीरे-धीरे नहीं चलती थीं, तेज़ चलती थीं। उन्हें न चलने में थकावट आती थी, न हँसने में लाज आती थी। वे किसी हिन्दुस्तानी पर कोड़े भी फटकार सकती थीं।

अँग्रेज़ी दाँ पुरुषोत्तम भी थे, जो नेटिवों को देखकर मुँह फेर लेते थे और अँग्रेज़ को देखकर आँखे बिछा देते थे और दुम हिलाने लगते थे।

भाग – 2

सब सन्नाटा था। तल्लीलाल की बिजलीकी रोशनियाँ दीप-मालिका सी जगमगा रही थीं।

एक शुभ्र महासागर ने फैलकर संस्कृति के सारे अस्तित्व को डुबो दिया।

बृहदाकार शुभ्र शून्य में कहीं से, ग्यारह बार टन-टन हो उठा। जैसे कहीं दूर क़ब्र में से आवाज़ आ रही हो।

भाग – 3

रास्ते में दो मित्रों का होटल मिला। दोनों वकील मित्र छुट्टी लेकर चले गए। हमारा होटल आगे था।

हम उस चूते कुहरे में रात के ठीक एक बजे तालाब के किनारे उस भीगी बर्फ़ीली, ठंडी हो रही लोहे की बेंच पर बैठ गए।

हम उस चूते कुहरे में रात के ठीक एक बजे तालाब के किनारे उस भीगी बर्फ़ली, ठंडी हो रही लोहे की बेंच पर बैठ गए।

एक लड़का… चला आ रहा है। नंगे पैर है, नंगे सिर। उसके क़दमों में जैसे कोई न अगला है, न पिछला है, न दायाँ है, न बायाँ है।

पास ही चंगी की लालटेन के छोटे-से प्रकाश-वृत में देखा कोई दस बरस का होगा। गोरे रंग का है।

वह धरती, कुहरा, तालाब, न बाक़ी दुनिया कुछ नहीं देख रहा था। वह बस, अपने विकट वर्तमान को देख रहा था।

बीते कल लड़का दुकान पर सोया था।

लड़के को नौकरी से हटा दिया।

दुकान पर वह सब काम करता था, बदले में उसे एक रुपया और जूठा खाना मिलता था।

जब बालक से पूछा इन्हीं कपड़ों में सोयेगा – तो वह उसका उत्तर आँखों से देता है- आँखें मानो बोलती थीं— यह भी कैसा मूर्ख प्रश्न।

लड़के का परिवार पंद्रह कोस दूर गाँव में है।

वह घर से भाग आया जिसका कारण वह बताता है- मेरे कई छोटे भाई-बहिन हैं, सो भाग आया। वहाँ काम नहीं, रोटी नहीं। बाप भूखा रहता था और मारता था, माँ भूखी रहती थी और रोती थी। सो भाग आया। एक साथी और था। उसी गाँव का था, मुझसे बड़ा। दोनों साथ यहाँ आए। वह अब नहीं हैं। मर गया, साहब ने मारा, मर गया।

जानता हूँ, यह बेईमान नहीं हो सकता।

वकील का कथन – अजी ये पहाड़ी बड़े शैतान होते हैं। बच्चे-बच्चे में गुन छिपे रहते हैं। आप भी क्या अजीब हैं- उठा लाए कहीं से- लो जी, यह नौकर लो। मानिए तो, यह लड़का अच्छा निकलेगा। आप भी जी, बस ख़ूब हैं। ऐरे गैरे को नौकर बना लिया जाए, अगले दिन वह न जाने क्या-क्या लेकर चंपत हो जाए।

वकील ने लड़के को नौकर रखने के लिए मना करते हुए- चार रुपए रोज़ के किराए वाले कमरे में सजी मसहरी पर सोने झटपट चले गए।

भाग – 4

इसे खाने के लिए कुछ देना चाहता था, अँग्रेज़ी में मित्र ने कहा— मगर दस-दस के नोट हैं। इसलिए नहीं दिया।

मित्र का कथन – अरे यार, बजट बिगड़ जाएगा। हृदय में जितनी दया है, पास में उतने पैसे तो नहीं हैं।

कथावाचक का कथन – तो जाने दो, यह दया ही इस ज़माने में बुहत है।

अब आज तो कुछ नहीं हो सकता। कल मिलना। वह होटल— डी पव जानता है? वहीं कल 10 बजे मिलेगा?

लड़का निराश होकर इतनी ठंडी में चला गया, कहीं बेंच इत्यादि पर सोने के लिए।

हवा इतनी ठंडी थी कि कथावाचक कहता है- हमारे कोटों को पार कर बदन में तीर-सी लगती थी।

मित्र थोड़ा दयालु स्वभाव का था।

कथावाचक का कथन – यह संसार है यार। मैंने स्वार्थ की फिलासफ़ी सुनाई- चलो, पहले बिस्तर में गर्म हो लो, फिर किसी और की चिंता करना।

उदास होकर मित्र ने कहा- स्वार्थ- जो कहो, लाचारी कहो, निठुराई कहो- या बेहयाई।

दूसरे दिन पता चला कि पिछली रात एक पहाड़ी बालक सड़क के किनारे, पेड़ के नीचे, ठिठुरकर मर गया।

मरने के लिए उसे वही जगह, वही दस बरस की उम्र और वही काले चिथड़ों की क़मीज़ मिली। आदमियों की दुनिया ने बस यही उपहार उसके पास छोड़ा था।

मानो दुनिया की बेहयाई ढकने के लिए प्रकृति ने शव के लिए सफ़ेद और ठंडे कफ़न (बर्फ) का प्रबंध कर दिया था।

सब सुना और सोचा – अपना अपना भाग्य।


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