ल्हासा की ओर (Laasa kee or) Study Material : कक्षा – 9 (Class – 9)
राहुल सांकृत्यायन का संक्षिप्त परिचय (Brief introduction of Rahul Sankrityayan
राहुल सांकृत्यायन का जन्म सन् 1893 में उनके ननिहाल गाँव पंदहा, शिला आशमगढ़ ;उत्तर प्रदेशद्ध में हुआ था। उनका पैतृक गाँव कनैला था। उनका मूल नाम केदार पांडेय था। उनकी शिक्षा काशी, आगरा और लाहौर में हुई। सन् 1930 में उन्होंने श्रीलंका जाकर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। तबसे उनका नाम राहुल सांकृत्यायन हो गया।
राहुल जी पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, तिब्बती, चीनी, जापानी, रूसी सहित अनेक भाषाओं के जानकार थे। उन्हें महापंडित कहा जाता था। सन् 1963 में उनका देहांत हो गया। राहुल सांकृत्यायन ने उपन्यास, कहानी, आत्मकथा, यात्रावृत्त, जीवनी, आलोचना, शोध आदि अनेक विधाओं में साहित्य-सृजन किया।
‘हिंदी यात्रा साहित्य को राहुल सांकृत्यायन की देन’ इस पुस्तक में राहुल जी के यात्रा के विषय में प्रकाश डाला गया है, इस पुस्तक को डॉ. सेतेंग कोनगाड़ी द्वारा लिखा गया है। पुस्तक खरीदने के लिए क्लिक करें।
ल्हासा की ओर पाठ का परिचय (Introduction)
ल्हासा की ओर पाठ राहुल जी की प्रथम तिब्बत यात्रा (यात्रा वृतांत) से लिया गया है जो उन्होंने सन् 1929-30 में नेपाल के रास्ते की थी। उस समय भारतीयों को तिब्बत यात्रा की अनुमति नहीं थी, परिणाम स्वरूप उन्होंने यह यात्रा एक भिखमंगे के छद्म वेश में की थी। तिब्बत की राजधानी ल्हासा की ओर जाने वाले दुर्गम रास्तों का वर्णन राहुल जी ने बहुत ही रोचक शैली में किया है। इस यात्रा-वृत्तांत से हमें उस दौर के तिब्बती समाज की झलक नज़र आती है।
ल्हासा की ओर पाठ का सारांश (summary of the story lhaasa kee or
जब लेखक ने ल्हासा जाने के लिए अपनी यह यात्रा की थी, तब कलिड़्पोड़् का रास्ता नहीं खुला था। नेपाल के जिस रास्ते से लेखक ने यात्रा की उस रास्ते से नेपाल के साथ-साथ भारत के लोग भी यात्रा किया करते थे। यह व्यापारिक व सैनिक रास्ता भी था, परिणाम स्वरूप इस रास्ते पर जगह-जगह फ़ौजी चौकियाँ व किले बने हुए थे। इस यात्रा में लेखक ने पाया की तिब्बत में जाति-पाति, छुआछूत जैसी स्थितियाँ नहीं थीं। चोरी की संभावना होने के कारण कोई भीखारियों को घर में नहीं घुसने देता था, लेकिन भीखारियों के अतरिक्त कोई अपरिचीत भी घर के अन्दर जा सकता था। आवश्यकता होने पर वह अपने पास से चाय घर की महिलाओं को दे सकते थे, और बाद में महिलाएँ वह चाय पका के दे देती थीं।
राहुल जी के साथ राहुल जी के मित्र (मंगोल भिक्षु) सुमति भी साथ थे। सुमति लेखक को यात्रा के दौरान मिले थे, उनका नाम लोब्ज़टोख था। सुविधा के लिए लेखक ने उन्हें सुमति नाम से पुकारा। सुमति की जानपहचान होने के कारण उन्हें रहने की अच्छी जगह मिल गई थी। पांच साल बाद जब वे इसी रास्ते से वापस लौटे तो उन्हें रहने के लिए बेहतर स्थान नहीं मिला, क्योंकि वे भद्र यात्री के वेश में थे।
राहुल व सुमति को थोड़्ला पार करना था। डाँडे तिब्बत में सबसे अधिक खतरे का स्थान है। समुद्र तल से सोलह-सत्रह हजार की ऊचाँई होने के परिणाम स्वरूप दोनो ओर गाँव नहीं था। यह स्थान डाकुओं के छुपने का स्थान है परिणाम स्वरूप यहाँ अकसर खूब हो जाते हैं। लेखक व उनका मित्र भिखारी के वेश में थे परिणाम स्वरूप उन्हें हत्या का डर नहीं था। डाँडे की चढ़ाई घोड़े से की, उतरते समय लेखक का घोड़ा पीछे रह गया। उसके बाद उनका घोड़ा रास्ता भी भटक गया, गलत रास्ते पर बहुत दूर जाने के बाद उन्हें किसी से पता चला उन्हें दाहिने की तरफ जाना था, परिणाम स्वरूप लेखक को पहुँचने में बहुत देर हो गई थी। सुमति लेखक पर पहले बहुत नराज़ हुए, फिर लेखक की बात सुनने के बाद उनका गुस्सा ठंडा भी हो गया। लड़्कोर में वह एक अच्छी जगह पर ठहरे थे। अच्छे यजमान मिले, पहिले चाय-सत्तू खाया गया, रात को गरमागरम थुक्पा मिला।
अगले दिन वे तिड़री के विशाल मैदान में थे, जो पहाड़ों से घिरा टापू-सा मालूम होता था, जिसमें दूर एक छोटी-सी पहाड़ी मैदान वेफ भीतर दिखाई पड़ती है। उसी पहाड़ी का नाम है – तिड़री-समाधि-गिरि। आसपास के गाँव में सुमति के जान-पहचान के लोग थे, जिनसे सुमति मिलना चाहते थे। परन्तु लेखक ने उन्हें ल्हासा पहुँचकर पैसे देने का लालच देते हुए उनसे मिलने जाने को मना कर दिया। सुमति मान गए और लेखक के साथ आगे बढ़ने लगे।
तिब्बत की ज़मीन जागीरदारों में बटी हुई थी। इन जागीरदारों का अधिकतर हिस्सा मठों के हाथ में था। जागीरदार कुछ खेती खुद भी करता है, जिसके लिए उसे मजदूर उन्हें बेगार में मिल जाते हैं। वहाँ एक मंदिर था, जिसमें बुद्ध वचन की हस्तलिखित 103 पोथियाँ रखी थीं। जिसे लेखक पढ़ने बैठ गए, इसी दौरान सुमति अपने परिचितों से मिलने जाना चाहते थे, इस बार लेखक ने उन्हें नहीं रोका। लेखक को लगा सुमति बहुत समय बाद लौटेंगे, लेकिन सुमति दोपहर तक ही लौट आए। तिट्टी वहाँ से ज्यादा दूर नहीं था, इसलिए उन्होने अपना समान पीठ पर उठाया और वहाँ से विदा ले लिया।