Study Material Net JRF Hindi Unit 8 : Notes अंधेर नगरी नाटक का सारांश | Summary of Andher Nagri Drama
अंधेर नगरी नाटक का परिचय (Introduction to Andher Nagri Drama)
बच्चन सिंह अंधेर नगरी को पहला आधुनिक नाटक है। इम नाटक में राज भक्ति व देशभक्ति दोनों मौजूद हैं।
नाटक अंधेर नगरी का प्रकाशन 1881 में हुआ। इसके लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र जी हैं। इस नाटक में अंगी रस – हास्य है। नाट्य रूप – प्रहसन (हास्य के माध्यम से व्यंग्य) है। इस नाटक में 6 अंक हैं।
विषय – इस नाटक में विवेकहीन और निरंकुश शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हुए उसे अपने ही कर्मों द्वारा नष्ट होते दिखाया गया है।
नाटक की विशेषता (Characteristic of Drama)
1 भारतेंदु ने इसकी रचना बनारस के हिन्दू नेशनल थियेटर के लिए एक ही दिन में की थी।
2 राजा अंग्रेजों का प्रतीक है।
3 अंग्रेजी शासन की निरंकुशता, धुर्तता, विवेकहीनता को व्यक्त किया गया है। इसके साथ भारतीयों को आलस्य, अशिक्षा से मुक्त करने का उद्देश्य निहित है।
4 रूपए की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है।
5 कल्लू बनिए की दीवार से दबकर फरियादी की बकरी मर जाती है।
6 अंत में राजा फाँसी के फंदे पर झूल जाता है।
7 सन् 1975 के आपातकाल में अंधेर-नगरी के मंचन पर रोक लगा दी गई थी। क्योंकि मूल विषय शासन प्रणाली पर व्यंग्य करना इस नाटक का विषय है।
नाटक के पात्र-
1 महन्त या गुरू – यह नारायणदास व गोबरधनदास के गुरू हैं।
2 नारायणदास – शिष्य हैं
3 गोबरधनदास – शिष्य हैं
4 कबाबवाला 5 घासीराम 6 नारंगीवाली 7 हलवाई 8 कुँजड़िन 9 मुगल 10 पाचकवाला 11 मछलीवाली 12 जातवाला (ब्राहम्ण)
13 बनिया 14 राजा 15 मन्त्री 16 चूनेवाला 17 कारीगर 18 कल्लू 19 भिश्ती 20 कसाई 21 गड़ेरिया 22 सिपाही
छ अंक के दृश्य
पहला अंक – बाह्य प्रान्त
दूसरा अंक – बाजार
तीसरा अंक – जंगल
चौथा अंक – राज्यसभा
पंचम अंक – आरण्य (जंगल के पास का स्थान)
षष्ट अंक – श्मशान
नाटक का संक्षिप्त सारांश (Short Summary of the play)
तीन व्यक्ति होतें हैं, एक गुरू दो शिष्य होते हैं। उन्हें भूख लगती है, तो वह नगर की ओर जाते हैं, और अपने शिष्य को भिक्षा लाने को कहते हैं। पूर्व की तरफ नारायण दास जाता है, पश्चिम की तरफ गोबरधन दास जाता है। थोड़ी देर में दोनों वापस आ जाते हैं। प्रत्येक वस्तु टके सैर मिल रही है, अपने गुरू से गोबरधनदास ने बताया। वह लोभी प्रवृत्ति का था, परिणाम स्वरूप वह अपने गुरू को इसी नगर में रहने के लिए कहता है। गुरू यह समझ जाता है कि इस नगर में ज़्यादा देर नहीं ठहरना चाहिए। यहाँ खतरा बना रहेगा, परिणाम स्वरूप वह इस नगर में रहने को मना कर देते हैं।
लेकिन गोबरधनदास इसी नगर में रह जाता है, वह बहुत खाता है, और बहुत मोटा हो जाता है। गुरू जाते-जाते कह गए थे, विपत्ति में याद करना मैं तुम्हें अकेला नहीं छोडूँगा। कल्लू बनिए की दीवार से दब कर फरियादी की बकरी मर जाती है, परिणाम स्वरूप फरियादी राजा के पास न्याय के लिए आता है। राजा अरोपी को बुलाता है, लेकिन हर व्यक्ति अपने अपराध को अन्य पर डालकर खुद को बेकसूर साबित कर देते हैं। अंत में अपराधी कोतवाल को माना जाता है, उसे फाँसी की सजा हो जाती है। कोतवाल साहब बहुत पतले थे, फाँसी का फंदा बहुत बड़ा हो गया, सिपाहियों ने जब राजा से कहा तो राजा ने कहा – राज्य से मोटी गर्दन वाले को पकड़ कर लाओ उसी को फाँसी दे दो।
नगर में सिर्फ गोबरधनदास ही इतना मोटा होता है, जो उस फाँसी के फंदे में फिट हो सकता था। परिणाम स्वरूप सिपाही फाँसी के लिए उसी को पकड़कर ले जाते हैं। सिपाही गोबरधनदास को फाँसी होने का कारण मोटा होना बताते हैं। विपत्ति के समय उसने अपने गुरू को याद करने लगा, गुरू वहाँ प्रकट हो जाते हैं, और अपने गुरू को उपदेश देना चाहते हैं। वह गोबरधनदास के कान में कुछ कहते हैं, उसके बाद दोनों आपस में फाँसी के लिए लड़ने लगते हैं, कहते हैं मैं फाँसी चढूंगा, गुरू कहते हैं मैं फाँसी चढूँगा।
पूछने पर गुरू ने कहा इस मोहरत में जो फाँसी के फंदे पर झूलेगा वह सीधे स्वर्ग जाएगा। सिपाही आपस में फाँसी पर चढ़ने के लिए लड़ने लगते हैं, अंत में राजा कहता है, मैं राजा हूँ, इसलिए मैं फाँसी पर चढूँगा। राजा फाँसी पर चढ़ जाता है, यहीं पर नाटक समाप्त हो जाता है।
अंधेर नगरी के महत्वपूर्ण संवाद (important dialogues of Andher Nagri Drama))
पहला अंक्
स्थान – बाह्य प्रांत (महन्तजी दो चेलों के साथ गाते हुए आते हैं)
सब – राम भजो राम भजो राम भजो भाई।
महन्त – बच्चा नारायणदास। यह नगर तो दूर से बड़ा सुन्दर दिखलाई पड़ता है। देख, कुछ भिच्छा-उच्छा मिले तो ठाकुरजी को भोग लगै।
महन्त – बच्चा गोबरधनदास तू पच्छिम की ओर से जा और नारायणदास पूरब की ओर जायगा।
गोबरधनदास – गुरूजी। मैं बहुत-सी भिच्छा लाता हूँ। यहाँ के लोग तो बड़े मालवर दिखलाई पड़ते हैं। आप कुछ चिन्ता मत कीजिए।
महन्त – बच्चा बहुत लोभ मत करना देखना, हाँ
लोभ पाप का मूल है, लोभ मिटावत मान।
लोभ कभी नहिं कीजिए या मैं नरक निदान।।
(गाते हुए सब जाते हैं)
दूसरा अंक
स्थान – बाजार
घासीराम – चने जोर गरम, चने बनावें घासीराम। निज की झोली में दूकान। चना हाकिम सब जो खाते। सब पर चने जोर गरम टके सेर।
हलवाई – ऐसी जात हलवाई जिसके छत्तीस कौम हैं भाई। जैसे कलकत्ते के विसलन मन्दिर के भितरिए, वैसे अँधेर नगरी के हम। सब सामाज ताजा। खाजा ले खाजा। टके सेर खाजा।
चुरनवाला – चूरन (रिश्वत) जब से हिन्द में आया। इसका धन बल सभी घटाया। पूरन साहेब लोग जो खाता। सारा हिन्द हजम कर जाता। चूरन पुलिस वाले खाते। सब कानून हजम कर जाते। ले चूरन का ढेर, बेचा टके सेर
जातवाला – टके के वास्ते ब्राह्मण से धोबी हो जाएँ और धोबी को ब्राहमण कर दें। टके के वास्ते जैसी कहो वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते झूठ को सच करें।
कुंजड़िन – ले फालसा खिरनी आम अमरूद निबुआ मटर होरहा। जैसे काजी वैसे पाजी। रैयत राजी टके सेर भाजी। ले हिन्दुस्तान का मेवा फूट और बैर
मुगल – आमारा ऐसा मुल्क जिसमें अंगरेज का भी दाँत कट्टा ओगया। नाहक को रूपया खराब किया बेवकूफ बना हिन्दोस्तान का आदमी लक लक (दुबला पतला) हमारे यहाँ का आदमी बुंबक-चुंबक लो सब मेवा टके सेर।
तीसरा अंक (स्थान – जंगल)
महन्त – बच्चा गोबरधनदास। कह, क्या भिच्छा लाया? गठरी तो भारी मालूम पड़ती है।
गोबरधनदास – बाबाजी महाराज। बड़े माल लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई है।
गोबरधनदास – अँधेर नगरी चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा
महन्त – तो बच्चा। ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है जहाँ टके सेर भाजी और टके हो टके सेर खाजा हो। दोहा सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास। ऐसे देस कुदेस में, कबहुँ न कीजै बास।
गोबरधनदास – वाह, वाह। बड़ा आनन्द है। क्यों बच्चा, मुझसे मसखरी तो नहीं करता? सचमुच सब टके सेर?
हलवाई हाँ बाबाजी, सचमुच सब टके सेर। इस नगरी की चालही यही है। यहाँ सब चीजें टके सेर बिकती हैं।
गोबरधनदास – वाह, वाह, अँधेर नगरी चौपट्ट राजा टका सेर भाजी टका सेर खाजा।
गोबरधनदास – प्रमाण गुरूजी, मैं आपका नित्य ही स्मरण करूँगा। मैं तो फिर भी कहता हूँ कि आप भी यहीं रहिए।
महन्तजी नारायण के साथ जाते हैं- गोबरधनदास बैठकर मिठाईखाता है।
अंक – चार (राज्यसभा)
फरियादी – दोहाई है महाराज दोहाई है। हमारा न्याव होय।
राजा – चुप रहो। तुम्हारा न्याव यहाँ ऐसा होगा कि जैसा जम के यहाँ भी न होगा। बोलो क्या हुआ?
फरियादी – महाराज! कल्लू बनिया की दीवार गिर पड़ी सो मेरी बकरी उसके नीचे दब गयो। दोहाई है, महाराज न्याव हो।
राजा – (नौकर से) कल्लू बनिए की दीवार को अभी पकड़ लाओ।
मन्त्री – महाराज, दीवार नहीं लाई जा सकती
राजा – अच्छा, उसका भाई, लड़का, दोस्त आशनारे जो हो, उसको पकड़ लाओ।
मन्त्री – महाराज। दीवार ईंट–चूने की होती है, उसको भाई-बेटा नहीं होता।
राजा – अच्छा, कल्लू बनिए को पकड़ लाओ। (नौकर लोग दौड़कर बाहर से बनिए को पकड़ लाए)
राजा – हाँ हाँ, बकरी क्यों मर गई- बोल, नहीं अभी फाँसी देता हूँ।
कालू – महाराज। मेरा कुछ दोष नहीं। कारीगर ने ऐसी दीवार बनाई कि गिर पड़ी।
राजा – अच्छा, इस कल्लू को छोड़ दो, कारीगर को पकड़ लाओ। (कल्लू जाता है, लोग कारीगर को पकड़कर लाते हैं) क्यों बे कारीगर। इसकी बकरी किस तरह मर गयो?
कारीगर – महाराज, मेरा कुछ कसूर नहीं, चुनेवाले ने ऐसा बोदा चूना बनाया कि दीवार गिर पड़ी।
राजा – अच्छा, इस कारीगर को बुलाओ, नहीं-नहीं निकालो, उस चूनेवाले को बुलाओ। (कारीगर निकाला जाता है, चूनेवाला पकड़कर लाया जाता है)
चुनेवाला – कहता है कि भिश्ती ने चूने में पानी ढेर दे दिया, इसी से चूना कमजोर हो गया होगा।
भिश्ती – महाराज! गड़ेरिया ने टके पर ऐसी बड़ी भेड़ मेरे हाथ बेची कि उसकी मशक (पानी का थैला) बड़ी बन गई।
राजा – अच्छा, कस्साई को निकालो, गड़ेरिये को लाओ। (कस्साई निकाला जाता है, गड़ेरिया आता है)
गड़ेरिया – महाराज। उधर से कोतवाल साहब की सवारी आ गई, सो उसके देखने में मैंने छोटी बड़ी भेड़ का ख्याल नहीं किया, मेरा कुछ कसूर नहीं।
राजा – हाँ-हाँ, यह नहीं, तुमने ऐसे धूम से सवारी क्यों निकाला कि उसकी बकरी दबी?
कोतवाल – महाराज, महाराज…
राजा – कुछ नहीं, महाराज-महाराज, ले जाओ, कोतवाल को अभी फाँसी दो। दरबार बरखास्त। (लोग एक तरफ से कोतवाल को पकड़कर ले जाते हैं)
अंक पाँच (आरण्य)
(गोबरधनदास गाता है –
अंधेर नगरी अनबूझ राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा
अन्धाधुन्ध मच्यौ सब देसा, मानहुँ राजा रहत विदेशा।)
गोबरधनदास – गुरूजी हमको नाहक यहाँ रहने को मना किया था। माना कि देश बहुत बुरा है, पर अपना क्या? अपने किसी राजकाज में थोड़े हैं कि कुछ डर है, रोज मिठाई चामना, मजे में आनन्द से रामभजन करना।
(मिठाई खाता है। चार प्यादे चारों ओर से आकर उसको पकड़ लेते हैं)
पहला प्यादा – चल बे चल, बहुत मिठाई खाकर मुटाया है। आज पूरी हो गई।
दूसरा प्यादा – आप बड़े मोटे हैं, इस वास्ते फाँसी होती है।
गोबरधनदास – मोटे होने से फाँसी? यह कहाँ का न्याय है।
पहला प्यादा – बात यह है कि कल कोतवाल को फाँसी का हुकुम हुआ था। जब फाँसी देने को उसको ले गए, तो फाँसी का फन्दा बड़ा हुआ। क्योंकि कोतवाल साहब दुबले हैं। हम लोगों ने महाराज से अर्ज किया, इस पर हुकुम हुआ कि एक मोटा आदमी पकड़ कर फाँसी दे दो।
अंक 6 श्मशान
राजा – यह क्या गोलमाल है?
गुरू – राजा। इस समय ऐसी साइत है कि जो मरेगा, सीधा बैकुण्ठ जावेगा।
मन्त्री – तब तो हमी फाँसी चढ़ेंगे
राजा – चुप रहो, सब लोग। राजा के आछत और कौन बैकुण्ठ जा सकता है। हमको फाँसी चढ़ाओ जल्दी, जल्दी।
गुरू – जहाँ न धर्म, न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज। ते ऐसेहिं आपुहि 2 नसैं, जैसे चौपट राज। (राजा को लोग टिकठी पर खड़ा, करते हैं)
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