Net JRF Hindi : हिन्दी कविता यूनिट 5 (इकाई 5) | जयशंकर प्रसाद की रचना कामायनी
कामायनी के परीक्षा उपयोगी तथ्य (Kamayani Exam Useful Facts)
कामायनी का प्रकाशन 1935 ईसवी में हुआ है। कामायनी का अर्थ – कामदेव की पुत्री अर्थात श्रद्धा। कामायनी के रचनाकार कवि जयशंकर प्रसाद हैं। वह पौराणिक कथावस्तु में लिखते हैं, लेकिन उनकी रचना के मूल में समकालनी समस्या होती हैं। नारी मुक्ति व स्वतंत्रता की बात कामायनी में की गई है। यह रचना मनुष्य और प्रकृति के अंतसंबन्ध को दिखाती है अर्थात प्रकृति और मानव के संतुलन पर आधारित है।
पेपर – 2 Drishti IAS UGC Hindi Sahitya [NTA/NET/JRF] – 4TH EDITION खरीदने के लिए क्लिक करें
कामायनी की शुरूआत मानव देवतागण भोग विलास में व्यस्त हैं। किसी भी स्थिति में पलायन मत कीजिए यह संदेश दिया गया है। कामायनी पलायनवाद के खिलाफ लिखी कविता है। कामायनी का पहला सर्ग चिंता सर्ग है। मनु चिंता से ग्रसित होते हैं, तभी श्रद्धा दिखाई देती है। अंत में आनन्द की प्राप्ति होती है। इसमें प्रमुख छंद – तांटक छंद है (मात्रिक छंद है) और प्रमुख रस – शांत रस है। कामायनी का पूर्वराग या प्रस्तावना कामना नाटक को कहा गया है।
कामायनी का विषय – मनु की कथा के माध्यम से समकालीन समस्या का चित्रण।
दर्शन – शैव दर्शन के प्रत्यभिज्ञा दर्शन जिसके मूल में आनन्द है। इच्छा, कर्म, ज्ञान के सामंजस्य से आंनन्द की प्राप्ति होगी।
कामायनी के पात्र के प्रतीक –
1 मनु – मन का प्रतीक
2 श्रद्धा – हृदय का प्रतीक
3 इड़ा – बुद्धि का प्रतीक
4 कुमार – मानव का प्रतीक
कुल सर्ग – कामायनी में 15 सर्ग हैं।
कामायनी के 15 सर्ग हैं-
1 चिन्ता 2 आशा 3 श्रद्धा 4 काम 5 वासना 6 लज्जा 7 कर्म 8 इर्ष्या 9 इड़ा 10 स्वपन 11 संघर्ष 12 निर्वेद 13 दर्शन 14 रहस्य 15 आनन्द
पहला चिन्ता अंतिम आनन्द है। 3) श्रद्धा, 6) लज्जा 9) इड़ा एनटीए नेट के सिलेब्स में है।
दर्शन का प्रभाव
शैव दर्शन के अंतर्गत प्रत्यभिज्ञा (जानना या पहचानना) दर्शन का प्रभाव है। कामायनी प्रत्यभिज्ञा दर्शन से प्रभावति है। कामायनी में नियतिवाद का चित्रण है। इसके कुछ नियम हैं-
क) नियतिवाद –
शैव दर्शन के 36 तत्वों में 11 वां तत्व नियति है। यह एक ऐसी अदृष्ट शक्ति है जो कर्मानुसार मानव जीवन का संचालन करते हुए उसके कल्याण का विधान करती है। यह संसार के दम्भी, अहंकारी और अत्याचारी व्यक्तियों को अपनी प्राकृतिक शक्तियों द्वारा उचित दण्ड देकर उनका नियमन करती है।
ख) समरसतावाद –
प्रत्यभिज्ञा दर्शन में समरसतावाद को शिवत्व की स्थिति मानी गयी है। जहाँ समस्त द्वंद एवं विषमता का अंत होकर सत्य प्रथम हो जाये अर्थात आनन्द अंतिम सत्य हो जाये। “दुख की पिछली रजनी बीच विकसता सुख का नवल प्रभात”…
प्रसाद जी ने कामायनी में यह भी निरूपित किया है, कि मानव को अपने जीवन में इच्छा, ज्ञान और क्रिया का समन्वय करना चाहिए। विडम्बना यह है कि इन तीनों में समन्वय नहीं हो पाता और जीवन दुखी रहता है-
1 ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है।
2 इच्छा क्यों पूरी हो मन की।
3 एक दूसरे से न मिल सके यह विडम्बना है जीवन की।
ग) आनन्दवाद-
व्यक्ति को सर्वप्रथम कर्मशील बनना चाहिए क्योंकि अनन्त: व्यक्ति अपने कर्मों का ही भोग करता है-
“कर्म का भोग, भोग का कर्म
यही जड़ का चेतन आनन्द”।
वे यह भी मानते हैं कि आनन्दवाद के लिए शुद्ध सात्विक प्रेम आवश्यक है, वासनात्मक प्रेम नहीं। कामायनी में मनु जब तक श्रद्धा के शरीर पर मुग्ध रहे तब तक आनन्द से वंचित रहे। कोरा बुद्धिवाद या कोरी भावुकता आनन्द पथ में बाधक है। हृदय और बुद्धि का सन्तुलित समन्वय ही आनन्द का मूल है।
घ) चिति (इच्छा)
प्रसाद ने कामायनी में संसार को ‘चिति (इच्छा/मौज) का स्वरूप बताया। चिति सत्य है, यह जगत भी सत्य है। ‘महाचिति’ ‘बिना’ ‘उपादान’ के बिना ‘उपकरण’ के केवल ‘संकल्प’ मात्र में संसार का उन्मीलन कर देती है। वह इस संसार में निरन्तर पांच प्रकार की लीलाएं करती है। उसकी लीलाओं के नाम हैं- सृष्टि, स्थिति, संहार, विलय और अनुग्रह। कामायनी के श्रद्धा सर्ग में प्रसाद जी ने यह सम्पूर्ण दार्शनिक विवेचन किया है। श्रद्धा मनु को समझाती हुई कहती है-
“कर रही लीलामय आनन्द
महाचिति सजग हुई सी व्यकत। विश्व का उन्मीलन अभिराम”
घ) अभेदवाद या सर्वात्मवाद – प्रसाद जी की मान्यता है कि संसार के प्रत्येक पदार्थ में ‘शिव’ की ही सत्ता विद्यमान है। विश्व में जो नाना रूपात्मक पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं, वे सभी प्रकाश रूप शिव ही हैं, उनसे अलग कोई सत्ता नहीं है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन की इसी अभेदवादी विचारधारा को प्रसाद जी ने कामायनी में अभिव्यक्त किया है। वे कहते हैं-
एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन। जड़ चेतन सभी पदार्थों में उस एक तत्व (परमात्मा) की व्याप्ति है। यह जगत उसी का स्वरूप है और निरन्तर अपना रूप बदलता रहता है।
रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं –
इस युग की प्रतिनिधि रचना जयशंकर प्रसाद की कामायनी में देव और असुर संस्कृतियों से भिन्न और उनकी तुलना में अधिक सर्जनात्मक मानवीय संस्कृति के विकास का आख्यान है, उसके वर्तमान संकट की समझ है और इस संकट के बचाव की संभाव्य दिशा संकेतित है। थके और पराजित मन के प्रति अपने उद्बोधन का समापन श्रद्धा इन शब्दों में करती है। “शक्ति के विद्यत्कण, जो व्यस्त विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय, समन्वय उसका करे समस्त विजयिनी मानवता हो जाय”।
आचार्य शुक्ल जी कहते हैं –
प्रसाद जी ने ध्यान दिया, जिसका परिणाम है कामायनी। इसमें उन्होंने अपने प्रिय आनंद की प्रतिष्ठा दार्शनिकता के ऊपरी आभास के साथ कल्पना की मधुमती (साधना अवस्था) भूमिका बनाकर दी है। यह आनंदवाद बल्लभाचार्य के काय या आनंद के ढंग का न होकर, तांत्रिकों और योगियों की अंतर्भूमि पद्धति पर है। प्राचीन जलप्लावन के उपरांत मनु द्वारा मानवी सृष्टि के पुन: विधान का आख्यान लेकर इस प्रबंध काव्य की रचना हुई है”।
निष्कर्ष
जलप्लावन के बाद देवताओं के विनाश का कामायनी में चित्रण किया गया है।
प्रसाद ने जगत को सत्य मान है। अर्थात जगत से पलायन मत कीजिए यह कहना चाहते हैं। मनु के पास श्रद्धा आती है, और जगत के प्रति आशावादी बनाती है। श्रद्धा मनु को समझाती है, हमारा काम है, परमात्मा की इच्छा में कर्म करे और सृष्टि के विकास में योगदान दें।
- study material : बिस्कोहर की माटी का सारांश व समीक्षा | Summary and Review of Biskohar Ki Mati
- Study Material : जूझ आत्मकथा का सारांश व समीक्षा | Summary and Review of Jujh Autobiography
- Study Material : सिल्वर वैडिंग कहानी का सारांश व समीक्षा | Summary and Review of the Story Silver Wedding
- Study Material : कुटज निबन्ध का सारांश व समीक्षा | Kutaj (Hazari Prasad Dwivedi) Summary and Review
- Study Material : भारत दुर्दशा नाटक का संक्षिप्त सारांश, कथन व महत्वपूर्ण तथ्य | Brief summary, statements and important facts of the play Bharat Durdasha