Net JRF Hindi Unit 10 : भोलाराम का जीव कहानी के महत्वपूर्ण तथ्य
रचना – भोलाराम का जीव (Composition – Bholaram’s Jeev)
लेखक – इस कहानी के लेखक हरिशंकर परसाई जी हैं। जिनका जन्म 22 अगस्त 1924 को हुआ, और मृत्यू 10 अगस्त 1995 में जबलपुर मध्य प्रदेश में हुआ।
प्रकाशन – भोलाराम का जीव कहानी 1967 में परसाई रचनावली में संकलित हुई।
पात्र- धर्मराज, चित्रगुप्त, भोलाराम के जीव, (पेंशन के हकदार) यमदूत, नारद, भोलाराम की पत्नी, बाबू, साहब…
विषय – लेखक द्वारा सरकारी दफ्तरों के भ्रष्टाचार पर व्यंग किया गया है।
भोलाराम का जीव कहानी का संक्षिप्त सारांश (Brief Summary of Bholaram’s Life Story)
भोलाराम सरकारी नौकर था। पाँच दिन हो गए उसकी मृत्यू को। यमदूत भोलाराम के जीव (आत्मा) के बिना खाली हाथ यमलोक जाता है। धरती का नाम भोलाराम है, मरने के बाद कहानी में भोलाराम का जीव नाम से संबोधित होता है। चित्रगुप्त भोलाराम के जीव को तलाश नहीं पा रहा है। अंत में नारद मुनि धरती पर जाते हैं, जबलपुर में पधारते हैं। साधु का रूप लेकर भोलाराम के घर जाते हैं, उनकी पत्नी से बात करते हैं, परिणाम स्वरूप पता चलता है कि पेंशन न मिलने की समस्या से भोलाराम और उनका परिवार पाँच साल से जूझ रहा था।
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भोलाराम की पेंशन उनकी पत्नी को दिलाने के लिए नारदमुनि पेंशन ऑफिस जाते हैं, पहले सब उन्हें इधर-उधर दौड़ाते हैं फिर बड़े साहब के पास भेजते हैं, साहब काम करवाने के लिए रिश्वत के तौर पर नारद-मुनि से उनकी वीणा माँग लेता है। नारद मुनि अपनी वीणा देने को तैयार हो जाते हैं, परिणाम स्वरूप भोलाराम की फाइल लाई जाती है। नारद मुनि को भोलाराम का जीव, भोलाराम की फाइल में ही मिल जाता है।
भोलाराम को पेंशन के लिए इतना दोड़ाया जाता है, कि मृत्यु के बाद भी उसका जीव उसी फाइल में ही अटक जाता है। यह हरिशंकर परसाई की व्यंग्य शैली में लिखी गई कहानी है। लेखक ने सरकारी भ्रष्टाचार पर व्यंग्य करते हुए सच्चाई से अवतगत कराने का प्रयास किया है।
कहानी का प्रमुख कथन (Main Statement of the Story)
ऐसा कभी नहीं हुआ था… धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफारिश के आधार पर स्वर्ग या नर्क में निवास-स्थान अलार्ट करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था…
चित्रगुप्त – महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पांच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना हुआ, पर अभी तक यहाँ नहीं पहुँचा।
धर्मराज क्रोध से यमदूत से बोले – मूर्ख, जीवों को लाते-लाते बूढ़ा हो गया, फिर एक मामूली आदमी ने चकमा दे दिया?
….चित्रगुप्त ने कहा, महाराज, आजकल पृथ्वी पर इसका व्यापार बहुत चला हैष लोग दोस्तों को फल भेजते हैं, और वे रास्ते में ही रेलवे वाले उडा देते हैं। होज़री के पार्सलों के मोज़े रेलवे ऑफिसर पहनते हैं। मालगाडी के डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उडा कर कहीं बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी किसी विरोधी ने, मरने के बाद, खराबी करने के लिए नहीं उडा दिया? (यह कथन भारत की सरकारी व्यवस्था पर व्यंग्य है।)
चित्रगुप्त नारद को बताते हैं… रजिस्टर देखकर बतलाया – भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर के घमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ कमरे के टूटे-फूटे मकान पर वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थी, दो लड़के और एक लड़की। उम्र लगभग 60 वर्ष, सरकारी नौकर था।
नारद मुनि के धरती पर आने के बाद –
भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा – माता भोलाराम को क्या बिमारी थी?
क्या बताऊँ? गरीबी की बिमारी थी। पाँच साल हो गए पेंशन पर बैठे थे, पर पेन्शन अभी तक नहीं मिली। हर दस-पन्द्रह दिन में दरख्वास्त देते थे, पर वहाँ से जवाब नहीं आता था और आता तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पांच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गए। फिर बर्तन बिके। अब कुछ नहीं बचा। फाके होने लगे थे। चिन्ता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड दिया।
उम्र तो बहुत थी। पचास-साठ रूपया महीना पेन्शन मिलती तो कुछ और काम कहीं करके गुज़ारा हो जाता। पर क्या करें? पांच साल नौकरी से बैठे हो गए और अभी तक एक कौडी नहीं मिली।
…नारद साधु वेश बनाकर दफ्तर गए… बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, भोलाराम ने दरखास्तें तो भेजी थीं, पर उनपर वज़न (रिश्वत) नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड गई होंगी।
नारद उस बाबू के पास गए। उसने तीसरे के पास भेजा, चौथे ने पांचवें के पास। जब नारद 25-30 बाबुओं और अफसरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा – महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड गए। आप यहाँ साल-भर भी चक्कर लगाते रहें, तो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधा बडे साहब से मिलिए। उन्हें खुश कर लिया, तो अभी काम हो जाएगा।
नारद ने भोलाराम का पेन्शन केस बतलाया।
साहब बोले, आप हैं बैरागी। दफ्तरों के रीत-रिवाज नहीं जानते। असल में भोलाराम ने गलती की। भई, यह भी मन्दिर है। यहाँ भी दान-पुन्य करना पडता है, भेंट चढानी पडती है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड रही हैं, उन पर वज़न रखिए।
साहब बोले, भई, सरकारी पैसे का मामला है। पेंशन का केस बीसों दफ्तरों में जाता है। देर लग जाती है। हज़ारों बार एक ही बात को हज़ारों बार लिखना पडता है, तब पक्की होती है। हां, जल्दी भी हो सकती है, मगर साहब रूके।
नारद अपनी वीणा छिनते देख ज़रा घबराए। पर फिर संभलकर उन्होंने वीणा टेबिल पर रखकर कहा – लीजिए। अब ज़रा जल्दी उसकी पेंशन का आर्डर निकाल दीजिए।
नारद ने कहा, मैं नारद हूँ। मैं तुम्हें लेने आया हूँ। स्वर्ग में तुम्हारा इन्तजार हो रहा है।
आवाज़ आई, मुझे नहीं जाना। मैं तो पेन्शन की दरखास्तों में अटका हूँ। वहीं मेरा मन लगा है। मैं दरखास्तों को छोडकर नहीं आ सकता।
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