Net JRF Hindi Unit 9 : बालमुकुंद गुप्त जी का निबन्ध शिवशंभु के चिट्ठे
निबन्ध का परिचय (Introduction to Essay)
11 अप्रैल 1904 ईसवी से 9 मार्च 1907 ईसवी के मध्य “भारत मित्र” पत्रिका में यह (निबन्ध) चिट्ठे प्रकाशित हुए। इस दौरान भारत मित्र पत्रिका के संपादक स्वंय बालमुकुन्द गुप्त थे। यह लार्ड कर्जन के लिए आठ चिट्ठों में विभाजित है।
व्यंग्य विनोद की सजीव शैली में, लार्ड कर्जन के शासनकाल में भारतीय जनता की दुर्दशा को प्रकट करने के लिए बालमुकुंद द्वारा आठ चिट्ठे लिखे गए। कलकत्ता की शासन व्यवस्था को व्यंग्य के माध्यम से दर्शाया गया है।
शिवशंभु के चिट्ठे नामक निबंध में बालमुकुंद गुप्त ने अंग्रेजी शासन की आलोचना की है। यह निबन्ध प्रतीकात्मक शैली में लिखा गया है। इस निबंध की शुरूआत स्वप्न के ज़रिए होती है।
चिट्ठे शिवशंभु शर्मा के नाम से लिए गए हैं, शिवशंभु परतंत्र देश का नागरिक है। मन बदलाव के लिए वह भांग का सेवन करता है।
शिवशंभु के चिट्ठे का सारांश (Summary of Shivshambhu’s Letters)
पहला चिट्ठा : बनाम लार्ड कर्जन
यह चिट्ठा 11 अप्रैल 1903 को आया था। लार्ड कर्जन के पाँच साल का कार्यकाल पुरा हुआ जिसमें दो ही काम गिनाने लायक हैं। विक्टोरिया मेमोरियल हाल का निर्माण करवाया। और दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया।
बुलबुलों के बारे में एक सपने से शुरू होता है। बुलबुलें आजादी का प्रतीक होती हैं। बालक का बुलबुलों के साथ उड़ना उसके लिए आनंद की परमानुभूति है, लेकिन जल्दी ही वह सपना टूट गया। इस तरह वे याद दिलाते हैं, कि लार्ड कर्जन ने अपने पाँच वर्षों के शासन काल में दो ही गिनाने लायक काम किए। एक विक्टोरिया मिमोरियलहाल और दूसरा दिल्ली-दरबार। मेमेरियल हाल पर बालमुकुंद गुप्त की टिप्पणी है कि – “विक्टोरिया मिमोरियलहाल चन्द पेट भरे अमीरों के एक दो बार देख आने की चीज होगा”। शासन करने वाले इस तरह का नुमाइशी काम बेहद मन लगाकर करते हैं – शायद अपनी कीर्ति अमर बनाए रखने की इच्छा से। ऐसी इच्छा रखने के लिए वे कर्जन को बुरा नहीं कहते लेकिन इसके लिए अपनाए गए तरीके आपत्ति व्यक्त करते हैं।
दूसरा चिट्ठा : श्रीमान का स्वागत
यह चिट्ठा 29 नवम्बर 1904 को आया था। लार्ड कर्जन के अपने कार्यकाल के पूरा करने के बाद दोबारा दो साल के लिए वायसराय नियुक्त किया गया। पुराने कामों पर लेखक द्वारा व्यंग्य किया गया है। परिणाम स्वरूप दूसरा चिट्ठा कर्जन के ही दोबारा वायसराय बनकर आने के अवसर पर लिखा गया है। औपनिवेशिक शिक्षा नीति के उस चरित्र की पहचान करते हैं, जो बहुत कुछ अब भी जारी है।
तीसरा चिट्ठा : वायसराय कर्तव्य
यह चिट्ठा 17 दिसम्बर 1904 में आया। 1858 के महारानी के घोषणापत्र को भारतवर्ष के लिए फौलादी दीवार की संज्ञा दी जिसे भारतवासी अपना रक्षक समझते हैं।
वायसराय कर्तव्य मे वे जनता के प्रतिनिधित्व का दावा पेश करते हैं, और इसी क्रम में देश की साधारण जनता का जीवंत चित्र खींच देते हैं। जहाँ वायसराय के आने पर बाजे बजते रहे, फौजें सलामी देती रहीं। ध्यान देने की बात है कि यह वही घोषणापत्र है। जिसके आधार पर भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का खत्मा किया गया था।
चौथा चिट्ठा : पीछे मत फेंकिये
यह चिट्ठा 21 जनवरी 1905 में आया था। लार्ड कार्नवालिस से लार्ड कर्जन की तुलना गी गई। इसमें रावण का स्मरण किया और अंग्रजों और कर्जन के प्रभुत्व का वर्णन किया।
गुप्त जी लार्ड कर्जन को लिखते हैं कि “आपके शासन में अंग्रेज आगे बढ़ रहे हैं…और भारतीय आपके अधीन होकर अपनी हैसियत खोते जा रहे हैं। हमें तुच्छ समझ कर हमें पीछे मत फेंकिए”।
पांचवां चिट्ठा : आशा का
यह चिट्ठा 25 फरवरी 1905 को आया। कर्जन के दूसरी बार वायसराय बनने पर भारत की उम्मीदें बम्बई के पहले भाषण से ही समाप्त हो गई।
इसी क्रम में वे शासक के रूप में कर्जन को याद दिलाते हैं, कभी इस देश में आकर आपने गरीबों की ओर ध्यान न दिया। कभी यहाँ की दीन भूखी प्रजा की दशा का विचार न किया। शासितों के प्रति शासक से ऐसी अपेक्षा लोकतांत्रिक आचरण की माँग है।
छठा चिट्ठा : एक दुराशा
यह चिट्ठा 18 मार्च 1905 को आया था। इसमें शासन तंत्र की जनता से दूरी का रेखांकन किया गया है।
एक दुराशा में आहे बढ़ाते हुए शासन की जनता से दूरी रेखांकित करते हुए लिखते हैं “राजा हैं, राजप्रतिनिधि है, पर प्रजा की उन तक रसाई नहीं। माई लार्ड के घर तक प्रजा की बात नहीं पहुँच सकती, बात की हवा नहीं पहुँच सकती। प्रजा की बोली वह नहीं समझता, उसकी बोली प्रजा नहीं समझती। प्रजा के मन का भाव न समझता है, न समझना चाहता है।
सतवा चिट्ठा : विदाई संभाषण
यह चिट्ठा 2 सितम्बर 1905 को आया है। कर्जन के शासन का अंत होता है।
“इसमें ईश्वर और महाराज एडवर्ड के बाद इस देश में आप ही का दर्जा था। सत्ता पर आसीन व्यक्ति के भीतर अहंकार का यह चरम था”। प्रकारांतर से बालमुकुंद गुप्त शासक को सावधान कर रहे हैं कि सर्व शक्तिमान होने के बावजूद सत्ता के साथ शासक का संबंध अस्थायी ही होता है। अहंकार में इस सत्य को भूलने वाले शासक को अपमानिक होना पड़ता है।
आठवां चिट्ठा बंग विच्छेद
यह चिट्ठा 21 अक्टूबर 1905 को आया है। इसमें 16 अक्टूबर 1905 के विभाजन का ज़िक्र किया गया है।
बंग विच्छेद शासन की तमाम जन विरोधी कोशिशों की असफलता का जयघोष करता है। इसमें गुप्त जी लखते हैं “यह बंगविच्छेद बंग का विच्छेद नहीं है। बंगनिवासी इसमे विच्छिन्न नहीं हुए, वरंच और युक्त हो गए। बंगाल के टुकड़े नहीं हुए, वरंच भारत के अन्यान्य टुकड़े भी बंगदेश से आकर चिमटे जाते हैं। यह एक अटल सत्य का बहादुरी से किया गया उद्घोष है और वह यह कि कोई भी शासक जबरदस्ती से कभी इच्छित परिणाम नहीं हासिल कर सकता”।
ऊपर के सभी चिट्ठों में बाल मुकुंद गुप्त कम से कम महारानी विक्टोरिया के 1858 के घोषणापत्र के प्रति सम्मान का नजरिया रखते हैं, लेकिन यहाँ तक आते आते इस पर भी उनका भरोसा उठने लगता है। क्षोभ के साथ लिखते हैं “इस समय के महाप्रभु ने दिखा दिया कि वह पवित्र घोषणापत्र समय पड़े की चाल मात्र था। अंग्रेज अपने खयाल के सामने किसी की नहीं सुनते। विशेषकर दुर्बल भारतवासियों की चिल्लाहट का उनके जीमें कुछ भी वजन नहीं है”।
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