Net JRF Hindi Unit 9 : हजारीप्रसाद द्विवेदी का निबन्ध नाखून क्यों बढ़ते हैं?
नाखून क्यों बढ़ते हैं?
इस निबन्ध के लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं।
विषय – यह विचार प्रधान निबन्ध है। नाखून का बढ़ना पशुता का प्रतीक है, नाखून का काटना मनुष्यता का प्रतीक है। पहले मानव नाखून से आत्मरक्षा करता था। धीरे-धीरे मनुष्य ने औज़ार का प्रयोग शुरू कर दिया। यह एक ललित निबंध है।
यह निबन्ध कल्पलता संग्रह में संकलित है। यह निबन्ध संग्रह 1951 ईसवी में प्रकाशित हुआ था। इस निबन्ध संग्रह मे कुल 20 निबन्ध हैं-
1 नाखून क्यों बढ़ते हैं।
2 आम फिर बौरा गए
3 शिरीष के फूल
4 भगवान महाकाल का कुण्ठनृत्य
5 महात्मा के महाप्रयाण के बाद
6 ठाकुरजी की बटोर
7 संस्कृतियों का संगम
8 समालोचक की डाक
9 महिलाओं की लिखी कहानियाँ
10 केतुदर्शन
11 ब्रह्माण्ड का विस्तार
12 वह चला गया
13 साहित्यिक संस्थाएँ क्या कर सकती हैं
14 हम क्या करें?
15 धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्
16 मनुष्य की सर्वोत्तम कृति साहित्य
17 आंतरिक शुचिता भी आवश्यक है
18 समस्याओं का सबसे बड़ा हल
19 साहित्य का नया कदम
20 आदिकाल के अंतरप्रांतीय साहित्य का ऐतिहासिक महत्व
निबन्ध की विशेषता (Characteristics of the Essay)
मानवतावादी स्वर प्रमुख है। प्राचीनता और नवीनता का समन्वय दिखाया गया है।
मनुष्य की पशुता की ओर हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने पाठको का ध्यान आकर्षित किया है। मनुष्य की पशुता समय समय पर अलग-अलग दिखती रही है। मनुष्य के अन्दर गुण है कि वह अपने अन्दर की पशुता नष्ट कर सकता है। लेखक की बेटी ने अपने पिता से पूछा था कि नाखून क्यों बढ़ते हैं। परिणाम स्वरूप लेखक ने इस निबन्ध की रचना कर दी। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने ललित निबन्ध को सशक्त विधा के रूप में शुरूआत की है।
निबन्ध से परीक्षा उपयोगी तथ्य (Exam Useful Facts From Essay)
बच्चे कभी-कभी चक्कर में डाल देनेवाले प्रश्न कर बैठते हैं। अल्पज्ञ पिता बड़ा दयनीय जीव होता है। मेरी छोटी लड़की ने जब उस दिन पूछ दिया कि आदमी के नाखून क्यों बढ़ते हैं, तो मैं कुछ सोच ही नहीं सका। हर तीसरे दिन नाखून बढ़ जाते हैं, बच्चे कुछ दिन तक आगर उन्हें बढ़ने दें, तो माँ-बाप अक्सर उन्हें डांटा करते हैं। पर कोई नहीं जानता कि ये अभागे नाखून क्यों इस प्रकार बढ़ा करते हैं।
आखिर ये इतने बेहया क्यों हैं? कुछ लाख ही वर्षों की बात है, जब मनुष्य जंगली था, वनमानुष जैसा। उसे नाखून की जरूरत थी। उसकी जीवन रक्षा के लिए नाखून बहुत जरूरी थे। असल में वही उसके अस्त्र थे। दाँत भी थे, पर नाखून के बाद ही उनका स्थान था। उस दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ना पड़ता था। नाखून उसके लिए आवश्यक अंग था। फिर धीरे-धीरे वह अपने अंग से बाहर की वस्तुओं का सहारा लेने लगे। मनुष्य और आगे बढ़ा। उसने धातु के हथियार बनाए। जिनके पास लोहे के शस्त्र और अस्त थे, वे विजयी हुए।
लोहे के अस्त्रों ने बाजी मार ली। इतिहास आगे बढ़ा। पलीते-वाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमवर्षक वायुषानों ने इतिहास को किस कीचड़-भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है। नख-धर मनुष्य अब एटम-बम पर भरोसा करके आगे की ओर चल पड़ा है। पर उसके नाखून अब भी बढ़ रहे हैं। अब भी प्रकृति मनुष्य को उसके भीतरवाले अस्त्र से वंचित नहीं कर रही है, अब भी वह याद दिला देती है कि कभी नाखून को भुलाया नहीं जा सकता।
मैं हैरान होकर सोचता हूँ कि मनुष्य आज अपने बच्चों को नाखून न काटने के लिए डाँटता है। किसी दिन कुछ थोड़े लाख वर्ष पूर्व वह अपने बच्चों को नाखून नष्ट करने पर डांटता रहा होगा। लेकिन प्रकृति है कि वह अब भी नाखून को जिलाए जा रही है और मनुष्य है कि वह अब भी उसे काटे जा रहा है। वे कंबख्त रोज बढ़ते हैं, क्योंकि वे अंधे हैं, नहीं जानते कि मनुष्य को इससे कोटि कोटि गुना शक्तिशाली अस्त्र मिल चुका है।
अगर आदमी अपने शरीर की, मन की और वाक् की अनायास घटनेवाली वृत्तियों के विषय में विचार करे, तो उसे अपनी वास्तविक प्रवृति पहचानने में बहुत सहायता मिले। पर कौन सोचता है? सोचना तो क्या, उसे इतना भी पता नहीं चलताकि उसके भीतर नख बढ़ा लेने की जो सहजात वृत्ति है, वह उसके पशुत्व का प्रमाण है। उन्हें काटने की जो प्रवृत्ति है, वह उसकी मनुष्यता की निशानी है और यद्यपि पशुत्व के चिहन उसके अन्दर रह गए हैं, पर वह पशुत्व को छोड़ चुका है। पशु बनकर वह नहीं बढ़ सकता। उसे कोई और रास्ता खोजना चाहिए।
मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्य अब नाखून को नहीं चाहता। उसके भीतर बर्बर युग का कोई अवशेष रह जाय, यह उसे आशा है, लेकिन यह कैसे कहूँ। नाखून काटने से क्या होता है? मनुष्य की बर्बरता घटी कहाँ है, वह तो बढ़ती जा रही है। मनुष्य के इतिहास में हिरोशिमा का हत्याकांड बार-बार थोड़े ही हुआ है? यह तो उसका नवीनतम रूप है। मैं मनुष्य के नाखून की ओर देखता हूँ तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ। ये उसकी भयंकर पाशुवी वृत्ति के जीवन प्रतीक है। मनुष्य की पशुता को जितनी बार भी मारो वह मरना नहीं जानती।
अस्त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति मनुष्यता की विरोधिनी है। मेरा मन पूछता है – किस ओर? मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है? पशुता की ओर या मनुष्यता की ओर? अस्त्र बढ़ाने की ओर या अस्त्र काटने की और? मेरी निर्बोध बालिका ने मानो मनुष्य जाति से ही प्रश्न किया है- जानते हो, नाखून क्यों बढ़ते हैं? यह हमारी पशुता के अवशेष है। जानते हो, ये अस्त्र-शस्त्र क्यों बढ़ गए? ये हमारी पशुता की निशानी गया।
भारतीय भाषाओं में प्राय: ही अंग्रेजी के इंडिपेंडेस शब्द का समानार्थक शब्द नहीं व्यवहत होता। 15 अगस्त को जब अंग्रेजी भाषा के पत्र इंडिपेंडेन्स की घोषणा कर रहे थे, देशी भाषा के पत्र स्वाधीनता दिवस की चर्चा कर रहे थे। इंडिपेंडेन्स का अर्थ है अनधीनता या किसी की अधीनता का अभाव, पर स्वाधीनता शब्द का अर्थ है अपने ही अधीन रहना।
जातियाँ इस देश में अनेक आई हैं। लड़ती-झगड़ती भी रही है, फिर प्रेम पूर्वक बस भी गई हैं। सभ्यता की नाना सीढ़ियों पर खड़ी और नाना और मुख करके चलनेवाली इन जातियों के लिए एक सामान्य धर्म खोज निकालना कोई सहज बात नहीं थी। भारतवर्ष के ऋषियों ने अनेक प्रकार से इस समस्या को सुलझाने की कोशिश की थी। पर एक बात उन्होंने लक्ष्य की थी। समस्त वर्णों और समस्त जातियों का एक सामान्य आदर्श भी है।
वह है अपने ही बंधनों से अपने को बाँधना। मनुष्य पशु स किस बात से भिन्न है। आहार-निद्रा आदि पशु सुलभ स्वभाव उसके ठीक वैसे ही है, जैसे अन्य प्राणियों के। लेकिन वह फिर भी पशु से भिन्न है। उसमें सयम है, दूसरे के सुख-दुख के प्रति समवेदना है, श्रद्धा है, तप है, त्याग है। इसलिए मनुष्य झगड़े को अपना आदर्श नहीं मानता, गुस्से में आकर चढ़ दौड़नेवाले अविवेकी को बुरा समझता है और वचन, मन और शरीर से किए गए असत्याचरण को गलत आचरण मानता है। यह किसी भी जाति या वर्ण या समुदाय का धर्म नहीं है। यह मनुष्यता का धर्म है।
लेकिन मुझे नाखून के बढ़ने पर आश्चर्य हुआ था। अज्ञान सर्वत्र आदमी को पछाड़ता है, और आदमी है कि सदा लोहा लेने को कमर कसे है। मनुष्य को सुख कैसे मिलेगा? बड़े-बड़े नेता कहते हैं – वस्तुओं की कमी है, और मशीन बैठाओ, और उत्पादन बढाओ, और धन की वृद्धि करो और बाहा उपकरणों की ताकत बढ़ाओ। एक बूढ़ा (बूढा महात्मा गाँधी को कहा गया है) कहता था – बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो, आराम की बात मत सोचो प्रेम की बात सोचो, आत्म पोषण की बात सोचो, काम करने की बात सोचो।
उसने कहा – प्रेम ही बड़ी चीज है, क्योंकि वह हमारे भीतर है। उच्चश्रृंखलता पशु की प्रवृत्ति है, स्व का बचन मनुष्य का स्वभाव है। बूढ़े की बात अच्छी लगी या नहीं, पता नहीं। उसे गोली मार दी गई, आदमी के नाखून बढ़ने की प्रवृत्ति ही हावी हुई। हैरान होकर सोचता हूँ – बूढ़े ने कितनी गहराई में पैठकर मनुष्य की वास्तविक चरितार्थता का पता लगाया था।
जान पड़ता है कि नाखून का बढ़ना मनुष्य के भीतर की पशुता की निशानी है, और उसे नहीं बढ़ने देना मनुष्य की अनपी इच्छा है, अपना आदर्श है। बृहत्तर जीवन में रोकना मनुष्यत्व का तकाजा है। मनुष्य में जो घृणा है, जो अनायास – बिना सिखाए- आ जाती है, वह पशुत्व का द्योतक है और अपने को संयत रखना, दूसरे के मनोभावों का आदर करना मनुष्य का स्वधर्म है। बच्चे यह जानें तो अच्छा हो कि अभ्यास और तप से प्राप्त वस्तुएँ मनुष्य की महिमा को सूचित करती हैं। सफलता और चरितार्थता में अंतर है।
मनुष्य मारणास्त्रों के संचयन से, बाहा उपकरणों के बाहुल्य से उस वस्तु को पा भी सकता है, जिसे उसने बड़े आडंबर के साथ सफलता का नाम दे रखा है। परंतु मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए निशेष भाव से दे देने में है। नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की उस अंध सहजात वृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता ले आना चाहती है, उसको काट देना उस स्व- निर्धारित, आत्म बंधन का फल है, जो उसे चारितार्थता की ओर ले जाती है। नाखून बढ़ते हैं तो बढ़ें, मनुष्य उन्हें बढ़ने नहीं देगा।
- UGC Net JRF Hindi : परिंदे कहानी की घटना संवाद और सारांश | Story Parinde Incident Dialogue And Summary
- UGC Net JRF Hindi : अपना अपना भाग्य कहानी की घटना संवाद और सारांश | Story Of Apna Apna Bhagya Incident Dialogue And Summary
- UGC Net JRF Hindi : एक टोकरी भर मिट्टी कहानी की घटना सारांश व संवाद | Summary And Dialogue Of The Story Ek Tokaree Bhar Mittee
- UGC Net JRF Hindi : उसने कहा था कहानी की घटना संवाद व सारांश | Usne Kaha Tha Incident Dialogue And Summary Of The Story
- UGC Net JRF Hindi : आकाशदीप कहानी की घटना संवाद और सारांश | Akashdeep Story Incident Dialogue And Summary