Study Material : ध्रुवस्वामिनी नाटक का सारांश व महत्वपूर्ण तथ्य | Summary And Important Facts Of The Play Dhruvaswamini
ध्रुवस्वामिनी नाटक का संक्षिप्त सारांश (Brief summary of the play Dhruvaswamini)
इस नाटक में जयशंकर प्रसाद जी ने स्त्री स्थिति का चित्रण किया है। जिसकी पृष्ठभूमी ऐतिहासिक है। लेकिन वर्तमान समय की मांग को देखते हुए स्त्री जीवन की दो समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया है।
अगर किसी गलत इंसान से विवाह हो जाता है, तो तलाक लेने का समर्थन किया है। वहीं पर दूसरा विवाह करने का समाधान भी दिया है।
नाटक में तीन अंक हैं, नाटक का नायक चन्द्रगुप्त है, नायिका ध्रुवस्वामिनी है।
ध्रुवस्वामिनी के पिता समुद्रगुप्त से संधि के परिणाम स्वरूप अपनी बेटी को उन्हें सौप दिया, जिसे लेने के लिए चन्द्रगुप्त जाता है।
चन्द्रगुप्त और ध्रुस्वामिनी को आपस में प्रेम हो जाता है, लेकिन ध्रुवस्वामिनी का विवाह रामगुप्त से करा दिया जाता है।
चन्द्रगुप्त और समुद्रगुप्त के पिता ने योग्यता देखते हुए चन्द्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद शिखरस्वामी रामगुप्त के बड़े बेटे होने की बात कहते हुए उसे राजा बना देता है।
शकराज जो जो युद्ध करना चाहता है, युद्ध से बचने के लिए वह संधि का विकल्प देता है, लेकिन संधि के लिए वह ध्रुस्वामिनी को अपने लिए और सामंतो के लिए राज्य की अन्य स्त्री को मांग लेता है।
रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी को शकराज के पास भेजने को तैयार हो जाता है, जिसका ध्रुवस्वामिनी विरोध करती है। जब वह आत्महत्या करने का विचार करती है, तभी चन्द्रगुप्त आ जाता है, उसे ऐसा न करने के लिए कहता है।
शकराज के पास ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त दोनों जाते हैं, चन्द्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी बनकर जाता है।
चन्द्रगुप्त और शकराज का युद्ध होता है, परिणाम स्वरूप शकराज की मृत्यु हो जाती है।
उसके बाद ध्रवस्वामिनी अपने अधिकार की बातें करती हुई, पुरोहित से प्रश्न करती है। पुरोहित रामगुप्त से संबन्ध विच्छेद की बात करते हुए ध्रुवस्वामिनी का दूसरा विवाह करने की बात करते हैं।
रामगुप्त चन्द्रगुप्त को मारने की कोशिश करता है, तभी एक सामन्त कुमार रामगुप्त की हत्या कर देता है।
चन्द्रगुप्त को राजा ध्रुस्वामिनी को रानी मान लेते हैं, यहीं पर नाटक खतम हो जाता है।
ध्रुवस्वामिनी नाटक के प्रमुख तथ्य व संवाद (Important facts and dialogues of the play Dhruvaswamini)
प्रथम अंक
(चन्द्रातप और पहाड़ी के बीच छोटा-सा कुंज, पहाड़ी पर से एक पतली जलधारा उस हरियाली में बहती है)
ध्रुवस्वामिनी का मनोभाव – सीधा तना हुआ, अपने प्रभुत्व की साकार कठोरता, अभ्रभेदी उन्मुक्त शिखर। और इन क्षुद्र कोमल निरीह लताओं और पोधों को इसके चरण में लोटना ही चाहिए न।
धुवस्वामिनी का कथन खड्गधारिणी से- इस राजकीय अन्त:पुर में सब जैसे एक रहस्य छिपाये हुए चलते हैं बोलते हैं और मौन हो जाते हैं।
खड्गधारिणी का कथन – प्रत्येक स्थान और समय बोलने के योग्य नहीं होते। कभी-कभी मौन रह जाना बुरी बात नहीं है।
खड़गधारिणी रामगुप्त की भेजी हुई गुप्तचर है, जो ध्रुवस्वामिनी से चन्द्रगुप्त के विषय में उसके मन की बात जानना चाहती है, ध्रुवस्वामिनी और खड़गधारिणी की बातें रामगुप्त छुपकर सुन रहा है।
ध्रुवस्वामिनी का कथन – राज-चक्र सबको पीसता है, पिसने दो, हम नि:सहायों को और दुर्बलों को पिसने दो।
खड्गधारिणी का कथन – प्राणों की क्षमता बढ़ा लेने पर वही काई जो बिछलन बनकर गिरा सकती थी, अब दूसरों के ऊपर चढ़ने का अवलम्बन बन गई है।
ध्रुवस्वामिनी का दासी से कथन – चलूँगी क्यों नहीं? किन्तु मेरा नीड़ कहाँ? यह तो स्वर्णपिंजर है।
शकों द्वारा दोनों ओर से घेरे जाने की सूचना प्रतिहारी लाता है।
रामगुप्त का कथन – आह! किन्तु ध्रुवदेवी। उसके मन में टीस है (कुछ सोचकर) जो स्त्री दूसरे के शासन में रहकर और प्रेम किसी अन्य पुरुष से करती है, उसमें एक गम्भीर और व्यापक रस उद्वेलित रहता होगा।
रामगुप्त शिखर स्वामी से कहता है- केवल एक तुम्हीं मेरे विश्वासपात्र हो। क्यों अमात्य जिसकी भुजाओं में बल न हो, उसके मस्तिष्क में तो कुछ होना चाहिए?
शिखरस्वामी रामगुप्त से – मेघ-संकुल आकाश की तरह जिसका भविष्य घिरा हो, उसकी बुद्धि को तो बिजली के समान चमकना ही चाहिए।
रामगुप्त के पिता समुद्रगुप्त ने मृत्यु से पूर्व राजा बनने के लिए अपने छोटे बेजे चंद्रगुप्त को चुना था, लेकिन शिखरस्वानी ने यह तर्क देते हुए कि राजा बड़ा बेटा बनता है, रामगुप्त को राजा बना दिया।
मन्दाकिनी का कथन – सच है, वीरात जब भागती है, तब उसके पैरों से राजनीतिक छलछन्द की धूल उड़ती है।
नाटक का प्रथम गीत मन्दाकिनी गाती है-
यह कसक अरे आँसू सह जा।
बनकर विनम्र अभिमान मुझे
मेरा अस्तित्व बता, रह जा।
बन प्रेम छलक कोने-कोने
अपनी नीरव गाथा कह जा
करुणा बन दुखिया वसुधा पर
शीतलता फैलाता बह जा।
नाटक के गौण पात्र – बौना, कुबड़ा, और हिजड़ा।
शिखरस्वामी का कथन – क्षमा हो महाराज! दूत तो अवध्य होता ही है; इसलिए उसका सन्देश सुनना ही पड़ा। वह कहता था कि शकराज से महादेवी ध्रुवस्वामिनी का… रुककर ध्रुवस्वामिनी की ओर देखने लगता है। ध्रुवस्वामिनी सिर हिलाकर कहने की आज्ञा देती है।) विवाह-सम्बन्ध स्थिर हो चुका था। बीच में ही आर्य समुद्रगुप्त की विजय-यात्रा में महादेवी के पिताजी ने उपहार में उन्हें गुप्तकुल में भेज दिया, इसलिए महादेवी को वह…|
आज ध्रुवस्वामिनी और रामगुप्त का प्रथम सम्भाषण है।
शिखरस्वामी का कथन – राजनीति के सिद्धान्त में राष्ट्र की रक्षा सब उपायों से करने का आदेश है। उसके लिए राजा, रानी, कुमार और अमात्य सबका विसर्जन किया जा सकता है, किन्तु राज विसर्जन अन्तिम उपाय है।
रामगुप्त का कथन – वाह। क्या कहा तुमने। तभी तो लोग तुम्हें नीतिशास्त्र का बृहस्पति समझते हैं।
ध्रुवस्वामिनी का कथन – कुछ नहीं, मैं केवल यही कहना चाहती हूँ कि पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु-सम्पत्ति समझकर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है। वह मेरे साथ नहीं चल सकता। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरव-नहीं बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते हो। हाँ, तुम लोगों को आपत्ति से बचाने के लिए मैं स्वयं यहाँ से चली जाऊँगी।
रामगुप्त का कथन – किन्तु सोने की कटार पर मुग्ध होकर उसे कोई अपने हृदय में डुबा नहीं सकता। तुम्हारी सुन्दरता- तुम्हारा नारीत्व – अमूल्य हो सकता है। फिर भी अपने लिए मैं स्वयं कितना आवश्यक हूँ, कदाचित तुम यह नहीं जानती हो।
ध्रुवस्वामिनी का कथन – निर्लज्ज मदयप क्लीव। मैं उपहार में देने की वस्तु, शीतलमणि नहीं हूँ। मुझमें रक्त की तरल लालिमा है। मेरा हृदय ऊष्ण है और उसमें आत्मसम्मान की ज्योति है।
चन्द्रगुप्त का कथन – देवि, जीवन विश्व की सम्पत्ति है। प्रमाद से, क्षणिक आवेश से, या दु:ख की कठिनाइयों से उसे नष्ट करना ठीक तो नहीं।
हिजड़ा का कथन – (प्रवेश करके) कुमार, स्त्री बनना सहज नहीं है! कुछ दिनों तक मुझसे सीखना होगा। (सबका मुँह देखता है और शिखरस्वामी के मुँह पर हाथ फेरता है) उहूँ, तुम नहीं बन सकते! तुम्हारे ऊपर बड़ा कठोर आवरण है। (कुमार के समीप जाकर) कुमार! मैं शपथ खाकर कह सकती हूँ कि यदि मैं अपने हाथों से सजा दूँ तो आपको देखकर महादेवी को भ्रम हो जाए।
स्त्री बनने का सुझाव चन्द्रगुप्त को हिजडे ने दिया है।
ध्रुवस्वामिनी का कथन – यह मृत्यु और निर्वासन का सुख तुम अकेले ही लोगे, ऐसा नही हो सकता।… मेरे सहचरी तुम्हारा वह ध्रुवस्वामिनी का वेश ध्रुवस्वामिनी ही न देखे तो किस काम का?
मंदाकिनी का गंभीर स्वर में गाते हुए प्रवेश होता है-
पैरों के नीचे जलधर हो, बिजली से उनका खेल चले। संकीर्ण कगारों के नीचे, शत-शत झरने बेमेल चलें॥
सन्नाटे में हो विकल पवन, पादप निज पद हों चूम रहे। तब भी गिरि पथ का अथक पथिक, ऊपर ऊँचे सब झेल चले॥
पृथ्वी की आँखों में बनकर, छाया का पुतला बढ़ता हो। सूने तम में हो ज्योति बना, अपनी प्रतिमा को गढ़ता हो॥
पीड़ा की धूल उडाता-सा, बाधाओं को ठुकराता-सा।
कष्टों पर कुछ मुसक्याता-सा, ऊपर ऊँचे सब झेल चले ॥
खिलते हों क्षत के फूल वहाँ, बन व्यथा तमिस्रा के तारे। पद-पद पर ताण्डव नर्तक हों, स्वर सप्तक होवै लय सारे ॥
भैरव रव से हो व्याप्त दिशा, हो काँप रही भय-चकित निशा।
हो स्वेद धार बहती कपिशा, ऊपर ऊंचे सब झेल चले॥
विचलित हो अचल न मौन रहे, निष्ठुर श्रृंगार उत्तरता हो।
क्रन्दन कम्पन न पुकार बने, निज साहस पर निर्भरता हो॥
अपनी ज्वाला को आप पिये, नव नील कण्ठ की छाप लिये।
विश्राम शांति को शाप दिए, ऊपर ऊँचे सब झेल चले॥
द्वितीय अंक
कोमा और शकराज का प्रवेश दूसरे अंक में होता है।
कश्मीरी खुदाई का सुंदर लकड़ी का सिंहासन है।
मोटे-मोटे चित्र बने हुए हैं, तिब्बती ढंग से रेशमी पर्दे पड़े हैं।
कोमा का कथन – इन्हें सींचना पड़ता है, नहीं तो इनकी रुखई और मलिनता सौंदर्य पर आवरण डाल देती हैं।
सब जैसे रक्त के प्यासे। प्राण लेने और देने में पागल। वसन्त का उदास और असल पवन आता है, चला जाता है। कोई उस स्पर्श से परिचित नहीं।
इस नाटक का तीसरा गीत कोमा गाती है-
यौवन! तेरी चंचल छाया।
इसमें बैठे घूँट भर पी लूँ जो रस तू है लाया।
मेरे प्याले में पद बनकर कब तू छली समाया।
जीवन-वंशी के छिद्रों में स्वर बनकर लहराया।
पल भर रुकने वाले! कह तू पथिक! कहाँ से आया
कोमा शकराज से कहती है- प्रश्न स्वयं किसी के सामने नहीं आते। मैं तो समझती हूँ, मनुष्य उन्हें जीवन के लिए उपयोगी समझता है। मकड़ी की तरह लटकने के लिए अपने आप ही जाला बुनता है।
शकराज का कथन – सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम हैं। मैं तो पुरुषार्थ को ही सबका नियामक समझता हूँ।
कोमा का कथन – पाषाणी। हाँ, राजा। पाषाणी के भीतर भी कितने मधुर स्रोत बहते रहते हैं। उनमें मदिरा नहीं, शीतल जल की धारा बहती है।
शकराज की सभा में नर्तकियाँ नाचती हैं, और गीत गाती हैं-
अस्ताचल अस्ताचल पर युवती सन्ध्या की खुली अलक घुँघराली है।
लो, मानिक मदिरा की धारा अब बहने लगी निराली है।
भरी ली पहाड़ियों ने अपनी झीलों की रत्नमयी प्याली।
झुक चली चूमने बल्लरियों से लिपटी तरु की डाली है।
यह लगा पिघलने मानिनियों का हृदय मृदु-प्रणय-रोष भरा।
वे हँसती हुई दुलार-भरी मधु लहर उठाने वाली है।
भरने निकले हैं प्यार भरे जोड़े कुंजों की झुरमुट से।
इस मधुर अँधेरी में अब तक क्या इनकी प्याली खाली है।
भर उठीं प्यालियाँ, सुमनों ने सौरभ मकरन्द मिलाया है।
कामिनियों ने अनुराग-भरे अधरों से उन्हें लगा ली है।
वसुधा मदमाती हुई उधर आकाश लगा देखो झुकने।
सब झूम रहे अपने सुख में तूने क्यों बाधा डाली है।
शकराज (ठठाकर हँसते हुए) – क्या कहा मर्यादा! भाग्य ने झुनने के लिए जिन्हें विवश कर दिया है, उन लोगों के मन में मर्यादा का ध्यान और भी अधिक रहता है। यह उनकी दयनीय दशा है।
कोमा का कथन – (दृढ़ता से) किन्तु राजनीति का प्रतिशोध क्या एक नारी को कुचले बिना नहीं हो सकता?
मिहिरदेव का कथन शकराज से – स्त्रियों का स्नेह-विश्वास भंग कर देना, कोमल तन्तु को तोड़ने से भी सहज है; परन्तु सावधान होकर उसके परिणाम को भी सोच लो।
मिहिरदेव का कथन शकराज से – राजनीति। राजनीति ही मनुष्यों के लिए सब कुछ नहीं है। राजनीति के पीछे नीति से भी हाथ न धो बैठो, जिसका विश्व मानव के साथ व्यापक सम्बन्ध है।
इस भीषण संसार में एक प्रेम करने वाले हृदय को खो देना, सबसे बड़ी हानि है शकराज। दो प्यार करने वाले हृदयों के बीच में स्वर्गीय ज्योति का निवास है।
मेहिरदेव का कथन कोमा से – बेटी। हृदय को सँभाल।…छल का बहिरंग सुन्दर होता है। विनीत और आकर्षक भी; पर दुखदायी और हृदय को बेधने के ले इस बन्धन को तोड़ डाल।
मिहिरदेव का कथन कोमा से – यहाँ तेरी भलाई होती, तो मैं चलने के लिए न कहता। हम लोग अखरोट की छाया में बैठेंगे-झरनों के किनारे, दाख के कुंजो में विश्राम करेंगे। जब नीले आकाश में मेघों के टुकड़े, मानसरोवर जाने वाले हंसों का अभिनय करेंगे, तब तू अपनी तकली पर ऊन कातती हुई कहानी कहेगी और मैं सुनूँगा।
कोमा का कथन शकराज से – प्रेम का नाम न लो। वह एक पीड़ा थी जो छूट गई। उसकी कसक भी धीरे-धीरे दूर हो जाएगी। राजा, मैं तुम्हें प्यार नहीं करती। मैं तो दर्प से दीप्त तुम्हारी महत्वमयी पुरुष-मूर्ति की पुजारिन थी, जिसमें पृथ्वी पर अपने पैरों से खड़े रहने की दृढ़ता थी। इस स्वार्थ-मलिन कलुष से भरी मूर्ति से मेरा परिचय नहीं।
स्त्री-वेश में चन्द्रगुप्त आगे और पीछे ध्रुवस्वामिनी स्वर्ण-खचित उत्तरीय में सब अंग छिपाए हुए आती है।
चन्द्रगुप्त कहता है- मैं हूँ चन्द्रगुप्त, तुम्हारा काल। मैं अकेला आया हूँ, तुम्हारी वीरता की परीक्षा लेने, सावधान। चन्द्रगुप्त और शकराज में युद्ध होता है, परिणाम स्वरूप शकराज की मृत्यु हो जाती है।
तृतीय अंक
मन्दाकिनी आकर गलती से ध्रुवस्वामिनी को भाभी कह देती है, क्षमा माँगते हुए दोबारा उसे महादेवी कहती है।
ध्रुवस्वामिनी पुहोहित से कहती है – पुरोहित! तुमने जो मेरा राक्षस-विवाह कराया है, उसका उत्सव भी कितना सुन्दर है। यह दन संहार देखो…. शकराज की लोथ पड़ी होगी।
मन्दाकिनी का कथन – आर्य, आप बोलते क्यों नहीं? आप धर्म के नियामक हैं। जिन स्त्रियों को धर्म-बन्धन में बाँधकर, उनकी सम्मति के बिना आप उनका सब अधिकार छीन लेते हैं, तब क्या धर्म के पास कोई प्रतिकार-कोई संरक्षण नहीं रख छोड़ते, जिससे वे स्त्रियाँ अपनी आपत्ति में अवलम्ब माँग सकें? क्या भविष्य के सहयोग की कोरी कल्पना से उन्हें आप सन्तुष्ट रहने की आज्ञा देकर विश्राम ले लेते हैं?
पुरोहित – नहीं, स्त्री और पुरूष का परस्पर विश्वासपूर्ण अधिकार रक्षा और सहयोग ही तो विवाह कहा जाता है। यदि ऐसा न हो तो धर्म और विवाह खेल है।
ध्रुव्स्वामिनी अपने पति को क्लीव पति कहती है।
मन्दाकिनी – स्त्रियों के इस बलिदान का भी कोई मूल्य नहीं। कितनी असहाय दशा है। अपने निर्बल और अवलम्बन खोजने वाले हाथों से यह पुरुषों के चरणों को पकड़ती हैं और वह सदैव ही इनको तिरस्कार, घृणा और दुर्दशा की भिक्षा से उपकृत करता है। तब भी यह बावली मानती है।
ध्रुवस्वामिनी का कथन – भूल है- भ्रम है। किन्तु उसका कारण भी है। पराधीनता की एक परम्परा-सी उनकी नस-नस में उनकी चेतना में न जाने किस युग से घुस गई है। (यह स्त्रियों के विषय में कहती है)
चन्द्रगुप्त का कथन – विधान की स्याही का एक बिन्दु गिरकर भाग्य-लिपि पर कालिमा चढ़ा देता है। मैं आज यह स्वीकार करने सें भी संकुचित हो रहा हूँ कि ध्रुवस्वामिनी मेरी है।
मैं पुरुष हूँ? नहीं, मैं अपनी आँखों से अपना वैभव और अधिकार दूसरों को अन्याय से छीनते देख रहा हूँ और मेरी वाग्दत्ता पत्नी मेरे ही अनुत्साह से आज मेरी नहीं रही। नहीं, यह शील का कपट, मोह और प्रवंचना है। मैं जो हूँ, वही तो नहीं स्पष्ट रूप से प्रकट कर सका।
मन्दाकिनी का कथन – शकराज का शव लेकर जाते हुए आचार्य और उसकी कन्या का राजाधिकार के साथी सैनिकों ने वध कर डाला।
सामन्त कुमार – स्वामिनी। आपकी आज्ञा के विरुद्ध राजाधिकार ने निरीह शकों का संहार करवा दिया है।
रामगुप्त के सैनिक आकर सामान्त-कुमारों को बन्दी बनाते हैं। रामगुप्त का संकेत पाकर सैनिक लोग चन्द्रगुप्त की ओर भी बढ़ते हैं और चन्द्रगुप्त शृंखला में बँध जाता है।
ध्रुवस्वामिनी – तुम्हारी जिह्वा पर कोई बन्धन नहीं। कहते क्यों नहीं कि मेरा यही अपराध है कि मैंने कोई अपराध नहीं किया?
चन्द्रगुप्त का कथन – अमात्य, तुम गौरव किसको कहते हो? वह है कहीं रोग-जर्जर शरीर अलंकारों की सजावट, मलिनता और कलुष की ढेरी पर बाहरी कुमकुम-केसर का लेप गौरव नहीं बढ़ाता।
मन्दाकिनी – राजा का भया मंदा का गला नहीं घोट सकता। तुम लोगों को यदि कुछ भी बुद्धि होती, तो इस अपनी कुल-मर्यादा, नारी को शत्रु के दुर्ग में यों न भेजते। भगवान ने स्त्रियों को उत्पन्न करके ही अधिकारों से वंचित नहीं किया है। किन्तु तुम लोगों की दस्युवृत्ति ने उन्हें लूटा है।
पुरोहित – तनिक भी नहीं। ब्राह्मण केवल धर्म से भयभीत होता है। अन्य किसी भी शक्ति को वह तुच्छ समझता है। तुम्हारे बधिक मुझे धार्मिक सत्य कहने से रोक नहीं सकते। उन्हें बुलाओ, मैं प्रस्तुत हूँ।
पुरोहित का कथन – जिसे अपनी स्त्री को दूसरे की अंगगामिनी बनने के लिए भेजने में कुछ संकोच नहीं वह क्लीव नहीं तो और क्या है? मैं स्पष्ट कहता हूँ कि धर्मशास्त्र रामगुप्त से ध्रुवस्वामिनी के मोक्ष (तलाक) की आज्ञा देता है।
रामगुप्त चन्द्रगुप्त के पीछे जाकर उसे मारना चाहता है, जब तक चन्द्रगुप्त घूमता है तब तक एक सामन्त-कुमार रामगुप्त पर वार करके चन्द्रगुप्त की रक्षा कर लेता है। रामगुप्त गिर पड़ता है।
लोग राजाधिराज चन्द्रगुप्त की जय, महादेवी ध्रुवस्वामिनी की जय का नारा लगाते हैं। यहीं पर नाटक समाप्त हो जाता है।
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