Study Material : आकाशदीप कहानी का सारांश | Summary of the story Akashdeep

Study Material : Net JRF Hindi Unit 7 आकाशदीप कहानी का सारांश | Akashdeep Story Summary

कहानी का परिचय (Introduction to the Story)

अकाशदीप कहानी जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखी गयी है। यह कहानी संग्रह आकाशदीप 1928 में संकलित है। इस संग्रह में कुल 19 कहानियाँ संकलित हैं। प्रसाद की कहानी में प्रेम के साथ कर्तव्य मुख्य विषय है। नारी पात्र प्रेम के स्थान पर कर्तव्य को चुनती हैं। यह कहानी भी कर्तव्य का पालन करने वाली चम्पा पर केन्द्रित है। यह कहानी जल की कहानी है। समुन्द्र में रात का समय है, दो बन्धक उस नाम में उपस्थित हैं। एक बन्धी दूसरे बन्धी से बोलता है, हम लोग अज़ाद हो सकते हैं। एक बन्धी दूसरे बन्धी का हाथ खोलकर अज़ाद हो जाता है।

नायक नामक पात्र दोनों बन्धियों को देख लेता है, और उनका पीछा करने लगता है। नायक बुद्धगुप्त के हाथों परास्थ हो जाता है, परिणाम स्वरूप वह बुद्धगुप्त का सेवक हो जाता है। यह कहानी विदेशी पृष्ठभूमि को अधार बनाकर लिखी गई है। बालीद्वीप (इंडोशिया) जाना चाहता है।

बुद्धगुप्त चंपा के प्रति आकर्षण भाव रखता है। बीच में एक द्वीप में रूकता है, जिसे वह चम्पाद्वीप नाम रखा चाहता है। चम्पा श्रत्रराणी है, उसे लगता है उसके पिता की हत्या बुद्धगुप्त ने की है। पाँच वर्षों के बाद बुद्धगुप्त शासक बन जाता है। वह चम्पा से विवाह के लिए निवेदन करता है, लेकिन चम्पा यह प्रस्ताव ठुकरा देती है, क्योंकि वह अपने पिता के हत्यारे के साथ विवाह नहीं करना चाहती है। बुद्धगुप्त का कहना है, उसने उसके पिता की हत्या नहीं की है। बुद्धगुप्त कई बार कहता है, उसने उसके पिता की हत्या नहीं की, लेकिन चम्पा वहीं चम्पा द्वीप में ही रह जाती है। वहाँ के लोगो की सेवा करती है। इस कहानी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। इस कहानी में समाज सुधार के संकेत मिलते हैं। स्त्री आत्मगौरव का रूप देखने को मिलेगा। जल दस्युओं (डाकुओं) के बारे में ज़िक्र किया गया है। कहानी भारत भूमि से दूर महासागर के बीच की कहानी है, जो इण्डोनेशिया, चम्पा द्वीप के आस-पास निहित है।

परीक्षा उपयोगी तथ्य व कथन (Exam Useful Facts and Statements)

प्रकाशन वर्ष 1928

विषय – प्रेम और कर्तव्य के बीच कर्तव्य को चुनना है।

पात्र – बुद्धगुप्त, चम्पा, जया – आदिवासी लड़की है, नायक मणिभद्र का सैनिक है

रात के समय सागर में कई नाव खड़ी हैं, एक नाव में दो बन्धी बैठे हैं। एक नाम चम्पा है, दूसरे का नाम बुद्धगुप्त है। दोनों किसी तरह अपना हाथ खोलकर छोटी नाव पर बैठ जाते हैं। इनका प्रहरी नायक नाम का व्यक्ति है, जो बुद्धगुप्त से झगड़ा करता है, और बुद्धगुप्त से हार जाता है।

बंदी

क्या है? सोने दो।

मुक्त होना चाहते हो?

अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।

फिर अवसर न मिलेगा।

बड़ा शीत है, कहीं से एक कंबल डालकर कोई शीत से मुक्त करता।

आँधी की सम्भावना है। यही एक अवसर है, आज मेरे बन्धन शिथइल हैं।

तो क्या तुम भी बन्दी हो?

हाँ, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी हैं।

शस्त्र मिलेगा?

मिल जाएगा। पोट से सम्बन्ध रज्जो काट सकोगे?

(यह दोनों बन्धी एक दूसरे को नहीं जानते हैं)

मुक्त होने के बाद पता चलता है, इन दो में से एक स्त्री है।

दोनों ही अन्धकार में मुक्त हो गए। दूसरे बन्दी ने हर्षातिरेक से उसको गले ले लगा लिया। सहसा उस बन्दी ने कहा – यह क्या? तुम स्त्री हो?

क्यो स्त्री होना कोई पाप है? अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा।

– तुम्हारा नाम?

चम्पा।

तारक-खचित नील अम्बर और समुद्र के अवकाश में पवन ऊधम मचा रहा था। अन्धकार से मिलकर पवन दुष्ट हो रहा था। समुद्र में आन्दोलन था।

अनन्त जलनिधि में उषा का मधुर आलोक फूट उठा। सुनहली किरणों और लहरों की कोमल सृष्टि मुस्कुराने लगी। सागर शान्त था। नाविकों ने देखा, पोत का पता नहीं। बन्दी मुक्त हैं।

नायक ने कहा – बुधगुप्त। तुमको मुक्त किसने किया?

कृपाण दिखाकर बुधगुप्त ने कहा – इसने।

नायक ने कहा – तो तुम्हें फिर बन्दी बनाऊँगा।

किससे लिए? पोताध्यक्ष मणिभद्र अतल जल में होगा- नायक। अब इस नौका का स्वामी मैं हूँ।

(बुद्धगुप्त खुद एक समुद्री डाकू है, इसने मणिभद्र के नाव पर हमला किया था। अब वह कहता है, मणिभद्र मर गया होगा। अब इस नाव का मालिक मैं हूँ।)

तुम? जलदस्यु बुधगुप्त? कदापि नहीं। चौंककर नायक ने कहा और वह अपना कृपाण टटोलने लगा। चम्पा ने इसके पहले उस पर अधिकार कर लिया था। वह क्रोध से उछल पड़ा।

बुधगुप्त ने लाघव से नायक का कृपाणवाला हाथ पकड़ लिया और विकट हुंकार से दूसरा हाथ कटि में डाल, उसे गिरा दिया। दूसरे ही क्षण प्रभात की किरणों में बुधगुप्त का विजयी कृपाण उसके हाथों में चमक उठा। नायक की कातर आँखें प्राण-भिक्षा माँगने लगीं।

नायक शरण में आ जाता है

विश्राम लेकर बुधगुप्त ने पूछा, हम लोग कहाँ होंगे?

बाली द्वीप से बहुत दूर, सम्भवत: एक नवीन द्वीप के पास, जिसमें अभी हम लोगों का बहुत कम आना-जाना होता है। सिंहल (श्रीलंका) के वणिकों का वहाँ प्राधान्य है।

तुम्हें इन लोगों ने बन्दी क्यों बनाया? (चम्पा से)

वणिक् मणिभद्र की पाप-वासना ने।

तुम्हारा घर कहाँ हैं?

जाहनवी के तट पर। चम्पा-नगरी की एक क्षत्रिय बालिका हूँ। पिता इसी 44 मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे। माता का देहावसान हो जाने पर मैं भी पिता के साथ नाव पर ही रहने लगी। आठ बरस से समुद्र ही मेरा घर है।

तुम्हारे आक्रमण के समय मेरे पिता ने ही सात दस्युओं को मारकर जल-समाधि ली। एक मास हुआ, मैं इस नील नभ के नीचे, कनील जलनिधि के ऊपर, एक भयानक अनन्तता में निस्सहाय हूँ-अनाथ हूँ। मणिभद्र ने मुझसे एक दिन घृणित प्रस्ताव किया। मैंने उसे गालियाँ सुनाईं। उसी दिन से बन्दी बना दी गई। चम्पा रोष से जल रही थी।

“मैं भी ताम्रलिप्ति का एक क्षत्रिय हूँ, चम्पा। परन्तु दुर्भाग्य से जलदस्यु बनकर जीवन बिताता हूँ। अब तुम क्या करोगी?”

उसी समय नायक ने कहा – “हम लोग द्वीप के पास पहुँच गए”। बेला से नाव टकराई। चम्पा निर्भीकता से कूद पड़ी। माँझी भी उतरे। बुधगुप्त ने कहा – “जब इसका कोई नाम नहीं है, तो हम लोग इसे चम्पा द्वीप कहेंगे”। चम्पा हँस पड़ी।

पाँच बरस बाद-

शरद के धवल नक्षत्र नील गगन में झलमला रहे थे। चन्द्र की उज्जवल विजय पर अन्तरिक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीर्वाद के फूलों और खीलों को बिखेर दिया। चम्पा के एक उच्चसौध पर बैठी हुई तरुणी दीपक जला रही थी। बड़े यत्न से अभ्रक की मंजूषा में दीप धरकर उसने अपनी सुकुमार उँगलियों से डोरी खींची। वह दीपाधार ऊपर चढ़ने लगा।

एक श्यामा युवती सामने आकर खड़ी हुई। वह जंगली थी, नील नभोमंडल-से मुख में शुद्ध नक्षत्रों की पंक्ति के समान उसके दाँत हँसते ही रहते। वह चम्पा को रानी कहती, बुधगुप्त की आज्ञा थी।

महानाविक कब तक आएँगे, बाहर पूछो तो। चम्पा ने कहा।

“इतना जल। इतनी शीतलता। हृदय की प्यास न बुझी। पी सकूँगी? नहीं। तो जैसे बेला में चोट खाकर सिन्धु चिल्ला उठता है, उसी के समान रोदन करूँ? या जलते हुए स्वर्ण-गोलक सदृश अनन्त जल में डूबकर बुझ जाऊँ? “चम्पा के देखते-देखते पीड़ा और ज्वलन से आरक्त बिम्ब धीरे-धीरे सिन्धु में चौथाई- आधा, फिर सम्पूर्ण विलीन हो गया। एक दीर्घ नि:श्वास लेकर चम्पा ने मुँह फेर लिया।

बुधगुप्त ने झुककर हाथ बढ़ाया। चम्पा उसके सहारे बजरे पर चढ़ गई। दोनों पास-पास बैठ गए।

“इतनी छोटी नाव पर इधर घूमना ठीक नहीं। पास ही वह जलमग्न शैलखंड है। कहीं नाव टकरा जाती या ऊपर चढ़ जाती, चम्पा तो?

अच्छा होता, बुधगुप्त। जल में बन्दी होना कठोर प्राचीरों से तो अच्छा है”। आह चम्पा, तुम कितनी निर्दय हो। बुधगुप्त को आज्ञा देकर देखो तो, वह क्या नहीं कर सकता। जो तुम्हारे नए द्वीप की सृष्टि कर सकता है, नई प्रजा खोज सकता है, नए राज्य बना सकता है, उसकी परीक्षा लेकर देखो तो…।

“विश्वास? कदापि नहीं, बुधगुप्त। जब मैं अपने हृदय पर विश्वास नहीं कर सकी, उसे ने धोखा दिया, तब मैं कैसे कहूँ? मैं तुम्हें घृणा करती हूँ, फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूँ। अंधेर है जलदस्यु। तुम्हें प्यार करती हूँ”। चम्पा रो पड़ी।

वह स्वप्नों की रंगीन संध्या, तम से अपनी आँखें बन्द करने लगी थी। दीर्घ नि:श्वास लेकर महानाविकं ने कहा – “इस जीवन की पुण्यतम घड़ी की स्मृति में एक प्रकाश-गृह बनाऊँगा, चम्पा। यहीं उस पहाड़ी पर। सम्भव है कि मेरे जीवन की धुँधली संध्या उससे आलोकपूर्ण हो जाए।

शैल के एक ऊँचे शिखर पर चम्पा के नाविकों को सावधान करने के लिए सृदृढ द्वीप-स्तम्भ बनवाया था। आज उसी का महोत्सव है। पंक्तियों में कुसुम भूषण से सजी वन-बालाएँ फूल उछालती हुई नाचने लगीं।

दीप-स्तम्ब की ऊपरी खिड़की से यह देखती हुई चम्पा ने जया से पूछा – “यह क्या है जया? इतनी बालाएँ कहाँ से बटोर लाई?”

“आज राजकुमारी का ब्याह है न?” कहकर जया ने हँस दिया। बुधगुप्त विस्तृत जलनिधि की ओर देख रहा था। उसे झकझोरकर चम्पा ने पूछा – “क्या यह सच है?”

“यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो यह सच भी हो सकता है, चम्पा। कितने वर्षों से मैं ज्वालामुखी को अपनी छाती में दबाए हूँ”।

“चुप रहो, महानाविक। क्या मुझे निस्सहाय और कंगाल जानकर तुमने आज सब प्रतिशोध लेना चाहा?”

“मैं तुम्हारे पिता का घातक नहीं हूँ, चम्पा। वह एक दूसरे दस्यु के शस्त्र से मरे”।

बुधगुप्त ने चम्पा के पैर पकड़ लिए। उच्छवसित शब्दों में वह कहने लगा – “चम्पा, हल लोग जन्मभूमि-भारतवर्ष से कितनी दूर इन निरीह प्राणियों में इन्द्र और शची के समान पूजित हैं। स्मरण होता है वह दार्शनिकों का देश। वह महिमा की प्रतिमा। मुझे वह स्मृति नित्य आकर्षित करती है, परन्तु मैं क्यों नहीं जाता? जानती हो, इतना महत्व प्राप्त करने पर भी मैं कंगाल हूँ। मेरा पत्थर-सा हृदय एक दिन सहसा तुम्हारे स्पर्श से चन्द्रकान्तमणि की तरह द्रवित हुआ।

“चम्पा। मैं ईश्वर को नहीं मानता, मैं पाप को नहीं मानता, मैं दया को नहीं समझ सकता, मैं उस लोक में विश्वास नहीं करता। पर मुझे अपने हृदय के एक दुर्बल अंश पर श्रद्धा हो चली है। तुम न जाने कैसे एक बहकी हुई तारिका के समान मेरे शून्य में उदित हो गई हो। आलोक की एक कोमल रेखा इस निविइतम में मुस्कुराने लगी। पशु-बल और धन के उपासक के मन में किसी शान्त और एकान्त कामना की हँसी खिलखिलाने लगी, पर मैं न हँस सका”।

चम्पा ने कहा – बुधगुप्त मेरे लिए सब मिट्टी है, सब जल तरल है। सब पवन शीतल है। कोई विशेष आकांक्षा हृदय में अग्नि के समाज प्रज्वलित नहीं। सब मिलाकर मेरे लिए एक शून्य है। प्रिय नाविक। तुम स्वदेश लौट जाओ, विभवों का सुख भोगने के लिए, और मुझे छोड़ दो इन निरीह भोले-भाले प्राणियों के दुख की सहानुभूति और सेवा के लिए।

फिर उसने पूछा – तुम अकेली यहाँ क्या करोगी?

“पहले विचार था कि कभी इस दीप-स्तम्भ पर से आलोक जलाकर अपने पिता की समाधि का इस जल से अन्वेषण करूँगी। किन्तु देखती हूँ, मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाशदीप।

एक दिन स्वर्ण-रहस्य के प्रभात में चम्पा ने अपने दीप-स्तम्भ पर से देखा-सामुद्रिक नावों की एक श्रेणी चम्पा का उपकूल छोड़कर पश्चिम-उत्तर की ओर महाजल व्याल के समान सन्तरण कर रही है। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।

यह कितनी ही शताब्दियों पहले की कथा है। चम्पा आजीवन उस दीप-स्तम्ब में आलोक जलाती रही। किन्तु उसके बाद भी बहुत दिन, द्वीपनिवासी, उस माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी की समाधि-सदृश पूजा करते थे।

एक दिन काल के कठोर हाथों ने उसे भी अपनी चंचलता से गिरा दिया।


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