कहानी का परिचय (Introduction to the story)
समय के साथ इंसान को बदलना पड़ता है, साथ ही अपने विचार और रिती-रिवाज़ भी बदलना पड़ता है। कभी-कभी बदलाव समय की माँग होती है, कभी-कभी मजबूरी होती है। ऐसे में यदि व्यक्ति न बदले हो उसे समान्य तौर पर नुकसान उठाना पड़ता है।
हम बात कर रहे हैं, ऐसी ही एक कहानी की, कहानी का नाम है – स्वर्ग की देवी। इस कहानी में घर की बहू लीला को पुरानी परम्पराएँ निभानी पड़ती है, जिसका परिणाम यह होता है कि वह मनोवैज्ञानिक और शारीरिक रूप से अस्वास्थ्य रहने लगती है।
यह कहानी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई है, इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद जी ने रूढ़िवादी परम्पराओं पर चोट की है।
स्वर्ग की देवी कहानी का सारांश (Svarg Kee Devee Story Summary)
कहानी की शुरूआत में बाबू भारतदास, अपनी बेटी लीला के लिए सुयोग्य वर की तलाश करते हैं। लाला सन्तसरन के यहाँ संपत्ति और शिक्षा दोनों होती है, परिणाम स्वरूप लाल सन्तसरन के बेटे सीतासरन से अपनी बेटी लीला का विवाह कर देते हैं।
जैसी भारतदास ने अपनी बेटी के लिए एक अच्छे घर और वर की इच्छा रखी थी, वैसी इच्छा पूरी नहीं हुई। सामाजिक प्रथाओं के लीला का ससुराल समर्थक था, ऐसे में वह ऐसी परम्पराओं का भी समर्थक था। जो रूढ़िवादी और नुकसान दायक परम्पराएँ थीं। लीला को हमेशा अपनी अंधेरी कोठरी में रहना पड़ता था, वह कोठरी के द्वार पर भी खड़ी नहीं हो सकती है। सीतासरन माता के सामने माँ के समर्थन में बात करता, और लीला के सामने लीला के समर्थन में बात करता था, झूठी सहानुभूति दिखाता। लीला चूल्हे के सामने घंटो रोती रहती थी, इस तरह पाँच साल बीत गए। लीला को दो संताने हुई बेटा – जानकीसरन और बेटी कामिनी।
लीला की सास ने उसको बच्चो पर भी एकाधिकार रखा हुआ था, न तो वह अपने बच्चों को डाँट सकती थी न ही उन पर अपनी ममता लुटा सकती थी।
प्रसव काल में लीला पर अत्यधिक अत्याचार हुए, अज्ञान, मूर्खता और अंधविश्वास के कारण लीला की सेवा नहीं हुई। परिणाम स्वरूप बंद कोठरी में रहने से बीमार होने में जो रही-सही कसर थी, वह प्रसव काल में पूर्ण हो गई। लीला अत्यधिक सूख गई, उसे भौतिक रूप से देखकर ही ऐसा लगता था, जैसे वह कितनी बीमार है।
गर्मी के मौसम में खरबूजे औऱ आम की खेती हुई। संतसरन और उनकी पत्नी ने आम और खरबूजे अत्यधिक खाना शुरू कर दिया, उन्हें लगता घर का अनाज तो बाद में भी खाया जा सकता है, लेकिन मौसम निकल जाने के बाद यह फल नहीं खाए जा सकते। इसी दौरान संतसरन को हैजा हो गया, और उसकी मृत्यू हो गई। इस प्रभाव से उसकी पत्नी भी नहीं बच पाई और उसकी भी मृत्यू हो गई।
लीला घर के काम-काज रिती-रिवाज़ में व्यस्त हो गई, उसने ध्यान ही नहीं दिया की कटा हुआ आम और खरबूजा फैंक दे या वहाँ से हटा दे। उसके दोनों बच्चो ने वह फल खा लिए परिणाम स्वरूप एक ही दिन में उनकी भी मृत्यू हो गई।
लीला बच्चो को भूल नहीं पाई, वह हमेशा खोई रहती थी। सीतासरन कुछ ही दिनों में मित्रों से मिलकर बच्चो और मात-पिता का दुख भूल गया, लेकिन लीला अपने दुख को भूला नहीं पा रही थी।
होली के दिन सीतासरन ने लीला को समझाया वह मातम नहीं मना सकता है, उसे पत्नी की आवश्यकता है। लीला सीतासरन की बातों और व्यवहार से समझ गई कि अब उसका पति भी हाथ से निकला जा रहा है। उसने बाहर आकर देखा तो एक रमणी मसनद पर लेटी हुई है, जिसे देखकर उसे बहुत क्रोध आया। उसी पल उसे वहाँ से निकाल देना चाहती थी, लेकिन उसने अपने क्रोध को शांत किया। उसने से एक पत्नी की तरह शृंगार किया, शाम हुई तो सीतासरन का खुमार उतर गया। लीला ने तय कर लिया कि वह सीतासरन को नहीं जाने देगी। उसे अपने प्रेम से बांधकर रखेगी।
शाम को जब सीतासरन लीला के पास गया तो उसने उसकी भूल का प्रेम से एहसास कराया। इतनी ही देर में सीतासरन का कोई मित्र उसे बुलाने आ गया। सीतासरन ने जाकर उसे बताया की उसकी पत्नी वहाँ से उसे जाने नहीं देती है। वह लीला का इशारा पाकर सब भूल गया है, उसे अब अपनी पत्नी स्वर्ग की देवी लग रही है। इस प्रकार सीतासरन और लीला दोनों अपने जीवन की नई शुरूआत करते हैं। यहीं पर कहानी समाप्त हो जाती है।
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