UGC Net JRF Hindi : दुलाईवाली कहानी घटना व संवाद | Dialogue and Incident Of Story Dulaiwali
कहानी का परिचय (Introduction To The Story)
बंग महिला दुलाईवाली कहानी की लेखिका हैं। जिनका मूल नाम राजेन्द्र बाला घोष है।
मिरजापुर में रामचंद्र शुक्ल के सम्पर्क में आने से हिन्दी में लिखने लगीं।
शुक्ल जी दुलाईवाली कहानी को तीसरे नम्बर पर रखते हैं।
यह कहानी 1907 ईसवी की सरस्वती (भाग-8, संख्या-50 में प्रकाशित हुई थी, यथार्थ चित्रण पात्रानुकूल भाषा और मनोरंजक प्रधान कहानी है।
रायकृष्ण दास ने पाश्चात्य कला की दृष्टि से दुलाई वाली को ही हिन्दी की सर्वप्रथम मौलिक कहानी माना है।
पात्र – बंशीधर, बंशीधर की पत्नी जानकी देई, जानकी देई की छोटी बहन सीता, बंशीधर का मित्र नवलकिशोर, नवलकिशोर की पत्नी।
इस कहानी में दुलाईवाली महिला नवलकिशोर है। नवलकिशोर स्वदेशी के समर्थक थे।
बंशीधर और नवलकिशोर दोनों दूर के भाई लगते हैं, लेकिन उनका गहरा रिश्ता दोस्ती का है। लेखिका ने इनके लिए कहा है यह दो शरीर एक जान हैं। नवलकिशोर को मज़ाक करने के बहुत ज्यादा आदत है, जो जानकीदेई बंशीधर की पत्नी को अच्छी नहीं लगती है। बनारस से बंशीधर को निकलना है, कोलकत्ता से नवलकिशोर अपनी पत्नी को लेकर आ रहे हैं। दोनों एक ही ट्रेन से इलाहाबाद जाने वाले हैं, लेकिन ट्रेन में मिलने के स्थान पर नवलकिशोर एक दुलाईवाली (घूंघट में छिपी महिला) बनकर ट्रेन में बैठा रहता है, और इलाहाबाद पहुँचकर बंशीधर को चौंका देता है। पुरी ट्रेन में नवलकिशोर की पत्नी उसके छूट जाने के कारण दुखी और परेशान रही है।
दुलाईवाली कहानी घटना व संवाद (Dialogue and Incident Of Story Dulaiwali)
कहानी की शुरूआत काशी जी के दशाश्वमेध घाट से हुई है।
गोदौलिया बज़ार की तरफ़ बंशीधर का आना। ग्यारह बजे का समय था।
नवीना स्त्री बंशीधर की पत्नी को लेखक ने कहा है।
सीता बंशीधर की साली है।
नवलकिशोर कलकत्ते से आ रहे हैं। आगरे से अपनी पत्नी को साथ ला रहे थे।
हम सब लोग मुगलसराय से साथ ही इलाहाबाद चलेंगे। बंशीधर ने अपनी पत्नी से कहा।
नवलकिशोर की हँसी (मज़ाक) से बंशीधर की पत्नी को अच्छा नहीं लगता।
जानकी देई की आँखें भर आयीं। और असाढ़-सावन (बहुत ज़्यादा रोना) की ऐसी झड़ी लग गई।
बंशीधर इलाहाबाद के रहने वाले हैं। बनारस में ससुराल है।
नवलकिशोर दूर के नाते में बंशीधर के ममेरे भाई हैं। दोनों इतने अच्छे दोस्त हैं, कि लेखक उनके लिए कहता है— दोनों एक जान दो कालिब हैं।
सीता के बाप के न रहने से काम बिगड़ गया है। पैसेवाले के यहाँ नौकर-चाकरों के सिवा और भी दो-चार खुशामदी घेरे रहते हैं। छूछे को कौन पूछे?
बंशीधर विचारने लगे इक्के की सवारी तो भले घर की स्त्रियाँ के बैठने लायक नहीं होती, क्योंकि एक तो इतने ऊँचे पर चढ़ना पड़ता है, दूसरे पराये पुरुष के संग एक साथ बैठना पड़ता है।
पालकी गाड़ी वाले ने डेढ़ रुपया किराया माँगा।
पर इस अस्थिर संसार में स्थिरता कहाँ! यहाँ कुछ भी स्थिर नहीं।
सिकरौल के स्टेशन का ज़िक्र है।
दोनों चुपचाप चले जा रहे थे कि, अचानक बंशीधर की नज़र अपनी धोती पर पड़ी, और अरे एक बात तो हम भूल ही गये। कहकर पछता से उठे। इक्के वाले के कान बचाकर जानकी जी ने पूछा- क्या हुआ? क्या कोई जरूरी चीज भूल आये?
बंशीधर ने कहा- एक देशी धोती पहिनकर आना था। नवल कट्टर स्वदेशी हुए हैं न।
नाहक बिलायती चीजें मोल लेकर क्यों रुपये की बरबादी की जाय। देशी लेने से भी दाम लगेगा सही, पर रहेगा तो देश ही में।
बंशीधर राजघाट पार करके मुगलसराय पहुँचे।
रेल देवी शब्द का प्रयोग ट्रेन के लिए किया गया।
जानकी को जनानी गाड़ी (डिब्बे) में बिठाया।
बंशीधर का टिकट ड्योढ़े का था, लेकिन भीड़ होने के कारण वह तीसरे दरजे में बैठा था।
गाड़ी मिरजापुर पहुँची। खोंचेवाले से ताजी पूड़िया और मिठाई खरीद कर बंशीधर ने खाई।
तीसरे दरजे में अगर अधिक सभ्य कोई थे तो बंशीधर ही थे।
स्त्री सिर से पैर तक ओढ़ कर बैठी थी, अर्थात इस कहानी में पर्दा प्रथा का भी ज़िक्र किया गया है।
एक स्त्री अस्पष्ट स्वर से रोने लगी। वहाँ तीन-चार प्रौढ़ा ग्रामीण स्त्रियाँ भी थीं।
अरे एक के एक करत न बायतो दुनिया चलत कैसे बाय?
यह क्या बात है? देखने में तो यह भले घर की मालूम होती है, पर आचरण इसका अच्छा नहीं। बंशीधर नवलकिशोर के लिए बोलता है।
बिना टिक्कस के आवत होय तो ओकर का सजाय होला? अरे ओंका ई नाहीं चाहत रहा कि मेहरारू के तो बैठा दिहलेन, अउर अपुआ तउन टिक्कस लेई के चल दिहलेन।
बशीधर इलाहाबाद में उतरे। एक बुढ़िया को भी वहीं उतरना था। उससे उन्होंन कहा कि, “उनको भी अपने संग उतार लो”।
क्योंकि वह स्त्री बे-टिकट है। बंशीधर यह नवलकिशोर की पत्नी के लिए कह रहे थे।
आज कैसी बुरी साइत में घर से निकले कि एक के बाद दूसरी आफत में फँसते चले आ रहे हैं। बंशीधर सोच रहे हैं।
दुलाईवाली को आते देखा। “तु ही उन स्त्रियों को कहीं ले गयी है, “इतना कहना था कि दुलाई से मुँह खोलकर नवलकिशोर खिलखिला उठे।
मालूम होता कि वह तुम्हारी ही बहू थी। अच्छा तो वे गयीं कहाँ?
वे लोग तो पालकी गाड़ी में बैठी हैं। तुम भी चलो”।
मिरजापुर नहीं, मैं तो कलकत्ते से, बल्कि मुगलसराय से तुम्हारे साथ चला आ रहा हूँ।
चार हाथ की दुलाई की बिसात ही कितनी?
“अरे तुम क्या जानो, इन लोगों की हँसी ऐसी ही होती है। हँसी में किसी के प्राण भी निकल जाएँ तो भी इन्हें दया न आवै”।
यह राम-कहानी लिखने से छुट्टी मिली।