pleto ka kaavy chintan part – 1
प्लेटो का काव्य चिंतन – भाग – 1
प्रत्ययवाद से तात्पर्य – प्लेटो (Conceptualism – Plato)
प्लेटो में काव्य और दर्शन के सापेक्ष महत्व को लेकर प्रायः अंतर्द्वद्व दिखाई देता है। इसका कारण है वे स्वाभाव और संस्कार से कवि हैं तथा शिक्षा और परिस्थिति से दार्शनिक। कभी वे काव्य और दर्शन के पुराने कलह की याद दिलाते हैं तो कभी काव्य को ईश्वरीय प्रेरणा से उद्भूत मानकर उसकी प्रशंसा करते हैं। प्रायः प्लेटो का स्मरण काव्य के विरूद्ध अनेक अभियोग लगाने वाले दार्शनिक आचार्य की तरह किया जाता है। उनके मत से काव्य की अग्राह्यता के दो आधार हैं- दर्शन और प्रयोजन। मूलतः प्लेटो प्रत्यवादी (Idealist) दार्शनिक हैं। प्रत्यवाद के अनुसार प्रत्यय अर्थात विचार ही परम सत्य है, वह नित्य है, एक है, अखंड है और ईश्वर ही उसका स्रष्टा है।
कला तीसरे स्थान पर है – पहला स्थान प्रत्यय क (अर्थात ईश्वर का) दूसरा स्थान उसके आभास या प्रतिबिंब या वस्तु-जगत का और तीसरा स्थान वस्तु-जगत के प्रतिबिंब कला-जगत का। इसलिए परम सत्य से कला का तिहरा अलगाव है और अनुकरण का अनुकरण होने के कारण वह मिथ्या या झूठ है। प्लेटो के शब्दों में कविता या कला सत्य से तिगुना दूर (Thrice removed from reality) होती है।
उनका कहना है कि संसार में प्रत्येक वस्तु का एक नित्य रूप होता है। यह प्रत्यय या विचार में ही निहित रहता है और यह रूप ईश्वर निर्मित है। विचार (प्रत्यय) में मौजूद उसी रूप के आधार पर किसी वस्तु का निर्माण होत है। इसके तीन प्रकार हैं-
1) जिसका निर्माण ईश्वर करता है (प्रत्यय या विचार रूप में पलंग)
2) दूसरा वह जिसका निर्माण लकड़ी से बढ़ई करता है।
3) जिसका निर्णाण कलाकार या चित्रकार करता है।
कलाकर – कवि, चित्रकार मूर्तिकार – किसी माध्यम (शब्द, रंग या पत्थर) के द्वारा उस ठोस वस्तु की नकल कर उसे नया रूप देता है। इसलिए वह यथार्थ से तीसरे स्थान पर है। प्लेटो कहते हैं कि कला नकल की नकल है, अनुकरण का अनुकरण है, छाया की छायी है, प्रतिबिंब का प्रतिबिंब है अर्थात नकल है। प्लेटो अपना यह तर्क सभी कलाओं पर लागू करते हैं। होमर औऱ हैसिओड (आठवीं शताब्दी ई.पूर्व) जैसे कवियों के काव्य अथवा सोफोक्लीज़ अरिस्तोफोनीज़ जैसे नाटककारों के नाटक भी अपवाद नहीं हैं। इन कृतियों को पढ़ने के बाद अच्छे नगरिकों का निर्माण आदर्श राज्य के लिए संभव नहीं है। नैतिकतावादी आग्रहों से प्रेरित होकर प्लेटो काव्य और कलाओं की निंदा करते हैं। उनके तर्क इस प्रकार हैं-
1 होमर के महाकव्यों – इलियड और ओडसी में देवताओं का चरित्र असत्य भी है और अनुचित भी। उनमें देवत्व कहाँ है और देवत्व नहीं है तो वे मनुष्यों के उन्नयन में सहायक नहीं हो सकते।
2 होमर और हैसिओड के काव्य में ऐसे स्थल प्रायः आते हैं जो पाठक को वीर और साहसी के बदले दुर्बल और कायर बनाते हैं। काव्य तो ऐसा चाहिए जो नवयुवकों में शौर्य की भावना भरे उनके चरित्र का निर्माण करे और मृत्यु की लालसा के लिए उन्हें तैयार करे। प्लेटो का प्रसिद्ध कथन है – दासता मृत्यु से भी बुरी चीज़ है
3 प्रायः कवि भोग और विलास की कामना से भर कर आवेशपूर्ण, कामुकतापूर्ण भावों की सृष्टि करते हैं। इनसे शुद्धता और संयम में बाधा पड़ती है तथा चारित्रहीनता, भोग-लिप्सा और अराजकता फैलती है।
4 होमर के काव्य में ऐसी कहानियाँ भरी पड़ी हैं जिनमें दुष्ट जन सुख भोगते हैं और सज्जन दुख से व्याकुल रहते हैं। जहाँ सदाचार के लिए दंड और दुराचार के लिए सुख-वैभव और पुरस्कार मिलेगा वहाँ नैतिकता कैसे टिक सकेगी। कोमल बुद्धि वाले बालकों पर इन कहानियों का प्रभाव अनिष्टकारी होता है।
5 नाटककार प्रायः हल्के, ओछे, टुच्चे हँसोड, मसखरे कामुक भावों का चित्रण पसंद करते हैं और प्रेक्षकों का एक वर्ग रंगशाला में ऐसे अभिनयों की दाद भी देता है।
6) काव्य या नाटक की अंतःप्रेरणा भावोच्छलन या भावों के तीव्र आवेग से उत्पन्न होती है तर्क से नहीं और तर्क न होने के कारण भावावेश हृदय से चालित होता है बुद्धि से नहीं। बुद्धि और हृदय में संतुलन का अभाव आ जाने से कला उदात्त की सृष्टि नहीं कर पाती।
7) काव्य में प्रायः अन्योक्ति (Allegory) की रचना होती है। बालकों में इतनी बुद्धि नहीं होती कि वे अन्योक्ति तथा यथार्थ में भेद कर सकें। इसलिए बच्चों के सामने शुद्ध और नैतिक विचारों की ही कहानियाँ आनी चाहिए, असत्य और अनैतिक कल्पनाओं से प्रेरित नहीं।
प्लेटो का काव्य (Plato’s Poetry)
नाटक विषयक विरोध साहित्येतर और नैतिक प्रतिमानों से प्रेरित है। उनके विचार से काव्य-सृजन एक प्रकार का ईश्वरीय उन्माद है, कवि उन्मद है, कवि उन्मत्त व्यक्ति है और काव्य-देवी द्वारा अंतः प्रेरित होकर रचना करता है। प्लेटो बार-बार इस बात की ओर संकेत करते हैं कि साहित्य में मनुष्य के नैतिक पक्ष को सम्पन्न, समद्ध और संतुष्ट करने की शक्ति होनी चाहिए। इस दृष्टि से वे नैतिकतावादी ही नहीं उपयोगितावादी भी हैं। उनकी दृष्टि में सुंदर वही है जो सत्य और शिव से सम्पन्न है।
प्लेटो ने काव्य प्रकृति और काव्य सृजन प्रक्रिया के साथ काव्य प्रभाव पर भी गहराई से विचार किया है। रिपब्लिक के दसवें अध्याय में एक ओर तो वे कविता को स्तय का निम्नतर स्तर का चित्र या वर्णन मानते हैं। वहीं दूसरी ओर वे कविता को आत्मा के अधम भाग से समब्द्ध कर देते हैं।
प्लेटो के शब्दों में – अनुकरण धर्मी कवि का उद्देश्य लोकप्रियता प्राप्त करना होता है। किंतु लोकप्रिय होने के लिए वह आत्मा के बोद्धिक पक्ष को संचालित और प्रभावित करके अपने पाठकों को प्रसन्न नहीं करता बल्कि वह सहज उत्तेजनशील संवेगों को संचालित और प्रभावित करके अपने पाठकों को कवि प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में दुष्ट प्रकृति का बीजारोपण करता है। दर्शनिक प्लेटो को कविता के विरूद्ध केवल यही शिकायत नहीं थी कि वह कविता हमारी वासनाओं को उत्तेजित करती है। उन्हें भड़काती और है, मनुष्य को अनियंत्रित बनाती है और आचरण-भ्रष्ट प्राणी का रूप देती है। जबकि काव्य एक ऐसी शक्ति से सम्पन्न होता है जो भील प्रकृति के व्यक्ति के लिए घातक होती है। अतः प्लेटो कविता को आग्राहय मानते हैं।
प्लेटो ने कहा आम तौर पर सामाजिक मर्यादा की रक्षा के लिए हम जिन भावों को अभिव्यक्त नहीं करते वे भाव अभिव्यक्ति का अवसर खोजते रहते हैं। भावावेग के क्षणों में कविता उन्हें यह अवसर प्रदान करती है और हमारे पूरे आत्म-संयम को शिथिल कर देती है। ध्यान देने की बात है कि प्लेटो की व्यंगमूलक विधाओं के संबंध में भी समान महत्व रखती है।
प्लेटो का आदर्श अच्छे मनुष्य का निर्णाण करना है। ऐसे मनुष्य का निर्माण जो सुख-दुखमूलक सभी प्रकार के संवेगों के दमन पर निभर है। कविता इस दमन में बाधक है, इसलिए प्लेटो कहते हैं – यह अनुकरण इन मनोवेगों को फैलाता, सींचता और पुष्ट करता है, जबकि हमको उन्हें सुखा देना चाहिए।
विचित्र बात है कि प्लेटो कविता का विरोध करते हुए भी कविता को अपने पक्ष समर्थन के लिए पूरा अवसर प्रदान करना चाहते थे। उन्होंने कहा – प्रिय ग्लॉकन सचमुच इस द्वंद्व में बड़ी भारी बाजी लगी हुई है। इतनी बड़ी बाजी जितनी कि लोग समझते नहीं है क्योंकि इस द्वंद्व पर मनुष्य का भला या बुरा होना निर्भर है। अतएव क्या समाज, क्या धन क्या पद और क्या कविता प्रलोभन किसी को भी हमें न्यायपराणता और सद्गुणों के प्रति असंयत एवं असावधान होने के लिए उत्तेजित नहीं करना चाहिए।
विद्वानों का यह मत है कि प्लेटो का य विचार रोमांटिक काव्य सिद्धांतो के विरोध में आज भी खड़ा है। उनके संवादों में विशेषकर ‘फिलेबस’ (Philebus) में विस्तार से मिलती है।
प्लेटो के चिंतन में कवि और दार्शनिक का न केवल द्वंद्व है बल्कि उनके व्यक्तित्व के दोनों पक्षों में आश्चर्यजनक द्वंद्वात्मक एकता के दर्शन होते हैं। वस्तुतः कविता दर्शन को चुनौती देती है और दार्शनिक प्लेटो दर्शन से तुलना करते हुए ही कविता की आलोचना करेत हैं।
निष्कर्ष (Conclusion)
आज भी विद्वान प्लेटो द्वारा कविता पर लगाए गए आक्षेपों से जुझ रहें हैं उनका सही समाधान उन्हें नहीं मिल पा रहा है। समय-समय पर प्लेटो के संवादों में परवर्ती काव्यशास्त्र में विकसित अने सिद्धांतो के बीज भी खोजने के प्रयत्न किए गए हैं। विद्वानों ने करूणा और त्रास की दोहरी मिश्रित स्थिति या विरेचन सिद्धांत, विरूद्धों के सामंजस्य का सिद्धांत आदि के बीज संकेत प्लेटो में पाए हैं जबकि सच बात यह है कि प्लेटो के चिंतन का महत्व काव्य सिद्धांतो की सूची बनाने में नीहं है बल्कि इस बात में है कि प्लेटो कविता को लेकर बुनियाद प्रश्न उपस्थित करते हैं। प्लेटो जैसे चिंतक इसलिए मूल्यवान हैं कि वह कविता पर सजग तार्किकता के साथ विचार करते हैं।
प्लेटो के चिंतन का परवर्ती काव्यचिंतन पर अनेक जहग प्रत्यक्ष और प्रच्छन प्रभाव दिखाई देता है। अनेक आक्षेपों और वाद-विवादों के केंद्र में रहते हुए भी प्लेटो का नाम पश्चिमी आलोचना जगत में आज भी उल्लेखनीय है। इसका प्रधान कारण यह है कि अरस्तु के काव्य सिद्धांत प्लेटो द्वारा कविता पर किए गए आक्षेपों का समाधान या उत्तर देने की मनःस्थिति से उपजे हैं। प्लेटो के बिना अरस्तु के चिंतन की कल्पना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। प्लेटो ने कवियों का गौरव यह कहकर छीन लिया है कि कवि नकलची होता है। कवि के इस छिने हुए गौरव को प्लेटो के शिष्य अरस्तु पश्चिमी काव्यशास्त्र में पुनः स्थापित किया है। बीसवीं सदी के महत्वपूर्ण चिंतन-आलोचक टी.एस.एलियट रोमांटिक साहित्य सिद्धांतो के विरोध में खड़े हुए। रोमांटिक कविता में भावातिरेक और कल्पनातिरेक से उत्पन्न असंतुलन उन्हें अमान्य है। स्वयं एलियट ने कवि की व्याख्या सर्जक के रूप में नहीं माध्यम के रूप में की है। संक्षेप में पश्चिम के कविता संबंधी चिंतन के वाद-विवाद के मूल में प्लेटो कहीं न कहीं अवश्य रहे हैं।
By Sunaina