IGNOU MHD-5 : प्लेटो का काव्य चिंतन भाग 1 | Plato’s Poetic Thought part – 1

pleto ka kaavy chintan

परिचय (Introduction)

पश्चिम में साहित्य-शास्त्र के विकास के संकेत पाँचवीं शती ईसा पूर्व के पहले से ही मिलने लगते हैं। हैसिओड, सोलन, पिंडार आदि की रचनाओं में काव्य, काव्य के हेतु तथा काव्य प्रयोजन संबंधी मान्यताओं का उल्लेख मिलता है। प्रसिद्ध नाटककार अरिस्तोफिनीस के नाटकों में भी हास्य-व्यंग्य के माध्यम से साहित्य के सिद्धांतों का उल्लेख हुआ है। किंतु एक सुसम्बद्ध शास्त्र के रूप में साहित्यालोचन के दर्शन हमें सबसे पहले प्लेटों में ही मिलते हैं। प्लेटो मूलतः आत्मवादी चिंतक हैं, उन्होंने कविता पर एक दर्शनिक की दृष्टि से विचार किया है। प्लेटो के शिष्य अरस्तु ने कविता पर अधिक वैज्ञानिक और व्यवस्थित दृष्टि से विचार किया। गुरू और शिष्य की मूल दृष्टि का अंतर उनके काव्य सिद्धांतों में दो जीवन-दृष्टियों का अंतर बनकर सामने आता है। प्लेटो जहाँ अनुकरण को यथार्थ से दूर और यथार्थ को विकृत करने वाला मानते हैं, वहीं अरस्तु उसे यथार्थ से बढ़कर मानते हैं। उनके बाद रोमन कवि हॉरेस (65-68 ई.पू.) की आर्स पोइटिका (Ars Poetica) का साहित्य सिद्धांत के रूप में उल्ले मिलता है। उनका भाषा संबंधी सिद्धांत काव्यलोचन के क्षेत्र में उनकी एक विशेष देन है। ईसा की पहली शताब्दी में यूनानी चिंतक लौंगिनुस/लांजाइनस की कृति पेरीइप्सुस में काव्य के संदर्भ में उदात्त को बहुत अधिक महत्व दिया गया। ईसा की तीसरी शताब्दी तक आते-आते आत्मवाद तथा वस्तुवाद क्रमशः नव्य-प्लेटोवाद और नव्य-अभिजात्यवाद के रूप में सामने आने लगा। इस समय प्लॉटिनस ने गहन दर्शन पर आधारित सिद्धांतो का प्रतिपादन किया। नव्य-प्लेटोवाद का प्रभाव मध्युगीन धार्मिक चिंतन पर पड़ा।

युग परिचय (Era Introduction)

पश्चिम में साहित्यालोचन के दर्शन सबसे पहले प्लेटो (427-347 ई.पू.) में हुए हैं। इस समय को एथेन्स (यूनान) का पतनकाल कहा जाता है। युद्ध में पराजित एथेन्स अनेक कठिनाइयों से गुज़रते हुए शक्तिहीन हो चुका था। ज्यादातर लोगों की संख्या ऐसी थी जो दास थे और जिनकी पीड़ाएँ अकथनीय थीं। श्रमजीवी दासों के बल पर ही ऐथेन्स की सभ्यता और संस्कृति का निर्माण हुआ था। किंतु ये लोग नागरिक जीवन में अधिकार पाने से वंचित थे। प्रजातंत्र के नाम पर राजसत्ता व्यापारियों और कुछेक कुलीनों के कब्ज़े में थी। परिणाम स्वरूप अधिकांश विद्वानों का यह मत है कि प्लेटो का आदर्शवाद समकालीन सामाजिक पतन की गहरी प्रतिक्रिया का परिणाम है।

प्लेटो की मूल दृष्टि आत्मवादी (Subjective) या प्रत्यवादी (Idealist) थी अर्थात उनके मत से यह विश्व और इसके सकल पदार्थ विश्व की विराट चेतना में प्रत्यय के रूप में स्थित हैं। कविता बाह्य संसार से सामग्री ग्रहण करती है और इस सामग्री को ही संशोधित-सपांदित करती है। प्लेटो के मत से कविता में वैज्ञानिकता, तर्कसिद्धता और गहरी मानवीय सामाजिकता का अभाव होता है।

प्लेटो का व्यक्तित्व (Plato’s Personality)

प्लेटो का जन्म एक कुलीन वंश में हुआ था। माता-पिता ने उनका नाम ‘अरिस्तोक्लीस’ रखा था। किंतु उनके शरीर के आकार-प्रकार को देखकर मल्ल गुरु ने उन्हें ‘प्लातोन’ नाम दिया। प्लातोन का अर्थ है चौड़ा-चकड़ा। अरबी-फारसी परंपरा में यही नाम ‘अफलातून’ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। विश्व की अनेक भाषाओं में उन्हें प्लेटो नाम से ही जाना जाता है। बचपन में ही पिता की मृत्यु हो गई और माता ने दूसरा विवाह कर लिया। उनके परिवार के लोग लम्बे समय से ऐथेन्स की राजनिति में सक्रिय भाग लेते रहे थे। प्लेटो ने स्वयं प्रत्यक्ष राजनिति में भाग नहीं लिया किंतु यह सच बात है कि उनके संस्कारों और विचारों में राजनीति रमी हुई थी। जब प्लेटो की आयु लगभग बीस वर्ष थी तब वे सुकरात के संपर्क में आए। उनकी पूरी शिक्षा-दीक्षा सुकरात की छत्रछाया में हुई। वे सुकरात के मृत्यु-क्षण तक उनके साथ रहे। 28 वर्ष की अवस्था से लगभग 12 वर्ष तक प्लेटो देश-देशांतर में भ्रमण करते हुए विभिन्न मत-मतांतरों का अध्ययन करते रहे और वैचारिक रूप से परिपक्व होकर ऐथेन्स लौटे। प्रौढ प्लेटो ने लौटकर उस प्रसिद्ध अकादेमी की स्थापना की जिसे यूरोप का सर्वप्रथम विश्वविद्यालय कहलाने का श्रेय प्राप्त है। प्लेटो से संबंधित तथ्य यह बात भी सामने लाते हैं कि किशोर और युवा प्लेटो की रूचि काव्य रचना में थी। किन्तु सुकरात के सम्पर्क में आने पर अपनी काव्य रचनाएँ उन्होंने नष्ट कर दीं और रचनाकर्म समाप्त कर दिया। आज भी उनकी काव्य रचना के कुछ अंश ‘आक्सफोर्ड बुक ऑफ ग्रीक वर्स में संकलित हैं।

प्लेटो का चिंतन संवादों में मुखरित हुआ है। अकादेमी की स्थापना के पूर्व के अनेक ‘संवादों’ (Dialogues) की रचना कर चुके थे। अकादेमी की स्थापना के बीस वर्ष तक उन्होंने कोई संवाद नहीं लिखा। अंतिम वर्षों में फिर से संवादों की ओर प्रवृत्त हुए। अंतिम संवाद ‘लॉज’ नाम से प्रसिद्ध है। कुछ संवाद ‘पोलितेइया’ ‘रिपब्लिक’ , तथा  ‘ईऑन’ में संकलित हैं। कुल मिलाकर विद्वान प्लेटो की 28 रचनाओं को प्रामाणिक कृतित्व के रूप में स्वीकार करते हैं जिनमें 27 संवाद और ग्यारह पत्रों का एक संग्रह शामिल है। यह बात भूलने की नहीं है कि प्लेटो ने काव्य और कला के संबंध में किसी स्वतंत्र ग्रंथ की रचना नहीं की है, संवादों में प्रसंगवश काव्य या कला की चर्चा आती रहती है। ऐसे संवादों में ‘ईऑन’, ‘फैड्रस’, सिम्पोसिऑन आदि का नाम लिया जा सकता है। प्लेटो के सवादों की प्रमुख विशेषता है- द्वंद्वात्मक पद्धति। संवादों के प्रमुख नाटकीय पात्र सुकरात के कथन में जगह-जगह पूर्वापर असंगतियाँ और अंतविरोध मिलते हैं। काव्य और कला के विषय में प्लेटो की बुनियादी चिंता है – ‘रिपब्लिक’ या आदर्श गणराज्य में उनकी उपयोगिता। इस उपयोगिता का निर्णय करने के लिए ही प्लेटो ने काव्य की प्रेरणा, काव्य का स्वरूप, काव्य के विषय, काव्य और सत्य का संबंध, काव्य और सौंदर्य, काव्य और लोकमंगल, कला की परिभाषा, कलाओं में काव्य का स्थान, जीवन और कविता आदि अनेक विषयों पर चर्चा की है। प्लेटो के इन विचारों की व्यापकता को देखते हुए इनमें एक व्यापक और व्यवस्थित काव्य सिद्धांत के पुनर्निर्माण को संभावनाओं का संकेत मिलता है, भले ही प्लेटो के संवादों में किसी निश्चित क्रम का निर्वाह न किया गया हो।

काव्य प्रेरणा और काव्य सत्य (Poetic Inspiration and Poetic Truth)

प्लेटो ने काव्य और कला को दैवी प्रेरणा का परिणाम माना है। उन्होंने अपने संवादों में अनेक स्थानों पर कवि के ‘दिव्य पागलपन’ (Divine Insanity) की चर्चा की है। सृजन के क्षणों में परमात्मा कवियों से उनका मष्तिष्क छीन लेता है। विद्या की देवी सरस्वती (Muse) कवि के भीतर एक ऐसी कल्पना-शक्ति जाग्रत करती है कि कृतियों – ‘इलियड’ और ‘ओडसी’ पर विचार करते हुए भी यह मत व्यकत किया है कि उनकी कविताओं और चरित्रों में भावावेग, और कल्पनातिरेक है। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि दुनिया-भर के लोगों को झूठ बोलना होमर ने ही सिखाया है। प्रेरणा दिव्य-शक्ति के रूप में कवि को संचालित करती है और एक अमिट श्रृंखला बनाती है।

प्लेटो द्वारा कविता की दिव्य-प्रेरणा की चर्चा एक प्रकार से काव्य की सृजन प्रक्रिया के संबंध में प्लेटो के विचार हैं जो ‘ईऑन’ नामक संवाद में मिलते हैं। समर्थ कवि अपनी रचना किसी सचेष्ट कलात्मक प्रेरणा द्वारा नहीं बल्कि दैवीय शक्तियों से प्रेरित एवं अभिभूत होकर करते हैं। अर्थात कवि कर्म किसी वैज्ञानिक तर्क-पद्धति पर आधारित नहीं है।

प्लेटो ने यह तर्क दिया कि काव्य सृजन के क्षणों में रचनाकार किन्हीं कलात्मक नियमों के आधआर पर रचना में प्रवृत्त नहीं होता। वह तो दिव्य शक्ति के वशीभूत होकर काव्य-रचना में प्रवृत्त होता है परिणाम सवरूप प्लेटो कवि के ‘दिव्य पागलपन’ (Divine Frenzy) की चर्चा बार-बार करते हैं। दिव्य प्रेरणा से अभिभूत मानव की सहज आत्म-विस्मृति का सुपरिणाम है। निष्कर्ष यह कि काव्य का सृजन ऐसी मनःस्थिति में होता है जब कवि अपनी सहज विवेक वयस्कता को खोकर किन्हीं दैवी शक्तियों के अधीन हो जाता है। इतना ही नहीं, वह एक आरोपित व्यक्तित्व धारण कर लेता है। प्लेटो का विचार इस प्रकार है-

इस अवस्था में वह केवल एक यंत्र एक माध्यम मात्र रह जाता है। इस मनःस्थिति में उच्चारित अमूल्य वाणी का वक्ता स्वयं कवि नहीं होता वह दैवीय उक्तियों का माध्यम मात्र होता है। समस्त सुंदरतम कविता का आविष्कार मुलतः काव्य देवियों द्वारा होता है। अलौकिक शक्ति द्वारा अधिकृत कवि स्रष्टा नहीं, उनका प्रवक्ता मात्र होता है। सृजन क्षण को प्लेटो सचेष्ट प्रयत्न न मानकर अनायास घटित घटना मानते हैं। उनके मतानुसार दैवीय अनुकम्पा के बीना प्रयास नहीं माना। कविता उनके लिए शिल्प नहीं।

(स्रोत – पाश्चात्य साहित्य चिंतन, निर्मला जैन, कुसुम बांठिया पृ.38)

प्लेटो ने कवि को कविता का निमित्त कारण मानकर उसे सभी दायित्वों से मुक्त कर दिया। कवि, कविता के प्रति इस हद तक समर्पित हो जाता है कि कवि कविता की रचना नहीं करता, वह स्वयं रच जाती है। रचनाकार तो ईश्वर ही है। प्लेटो के इस काव्य-सृजन सिद्धांत का काफी समय बाद रोमांटिक कवियों ने समर्थन किया।

होमर ने अपनी काव्य रचना का आरंभ काव्य देवियों की स्तुति के साथ किया है। प्लेटो ने ‘फैड्रस’ में काव्य-विक्षेप (दिव्य पागलपन) के चार प्रकारों की चर्चा की है जिसमें कवि को पैगम्बर धर्मगुरू और प्रेमी का समवर्गी सिद्ध किया गया है। ‘ईऑन’ प्लेटो के इन्हीं विचारों का विस्तार है।

प्लेटो का यह सिद्धांत आज भी जीवित है। जीवित होने का प्रमाण यह है कि इस सिद्धांत की अनूगूँज शेक्सपियर और ड्राइडन तक में सुनाई देती है। यह दूसरी बात है कि प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ के दसवें अध्याय में जिस रूप में काव्य की चर्चा की है वह ‘ईओन’ में तो प्लेटो कविता की दैवीय प्रेरणापरक व्याख्या करते हुए कवि को एकदम झूठा असत्य-भाषी तक कह देते हैं। अपने काव्य चिंतन में प्लेटो नैतिक मूल्यों की ओर बढ़ते चले गए और उन्होंने कवि की नैतिक जिम्मेदारी के प्रश्न पर ही गंभीरता से विचार किया। रिपब्लिक के विचारों में कवि के नैतिक दायित्व की चिंता प्रधान रूप से व्याप्त है। विद्वान कहते हैं कि यह कवि और दार्शनिक के बीच द्न्वद्वात्मक संबंध विषयक चिंता का परिणाम है।

प्लेटो के संपूर्ण चिंतन का आधार है – नैतिकता और आदर्श राज्य का निर्माण ललित कलाओं का प्रसंग आने पर कभी-कभार प्लेटो व्यक्तित्व निर्माण के लिए संगीत की आवश्यकता स्वीकार करते हैं। किंतु कला के संदर्भ में ‘माइमेसिस’ (Mimesis) (अनुकरण) शब्द का प्रयोग उन्होंने परंपरा सिद्ध मानकर प्रश्न को यह रूप दिया कि अनुकरण का विषय क्या है और कला के लिए अनुकरणीय क्या है। प्लेटो ने ‘अनुकरण’ शब्द का प्रयोग दो संदर्भो में किया 1) विचार जगत और गोचर जगत के बीच संबंध की व्याख्या के लिए 2) वास्तविक जगत और कला जगत के बीच संबंध निरूपण के लिए।

काव्य सत्य और अनुकरण (poetic truth and imitation)

काव्य में सत्य का अनुकरण नहीं किया जाता। उदाहरण के तौर पर बच्चों को सुनाई जाने वाली कहानियाँ प्रायः कल्पित और असत्य होती हैं। मूल चुनाव यहाँ सत्य-असत्य का नहीं है, अच्छे झूठ और बुरे झूठ के बीच का है। प्लेटो की बहस अनुकरण से नहीं, अनुकरण के विषय से रही है। भारत में भी अनेक पुराण कथाएँ ऐसी हैं जिनको लेकर प्रश्न सत्य-असत्य का नहीं है।

प्लेटो का स्पष्ट मत है कि काव्य में ऐसे विषयों की चर्चा होनी चाहिए जो सद-मूल्यों पर आधारित हों। विवेकहीन, अपरिपक्व, असगत, अनैतिक, मन पर दुष्प्रभाव डालने वाले साहित्य का पूर्णतया निषेध होना चाहिए चाहै वह सत्य ही क्यों न हो। उनका स्पष्ट मत है कि साहित्य नैतिक संस्कारों के निर्माण का साधन होना चाहिए। प्लेटो ने अन्यापदेशिक शैली में लिखी गई कथाओं को भी निषिद्ध माना है। तर्क यह है कि कच्ची उम्र के बच्चों में कथा के अभिधेय और अन्योपदेशिक अर्थ के बीच अंतर करने की न तो क्षमता होती है और न तमीज़। यदि कवि लोकमंगलकारी विचारों का अनुकर्ता हो यानी ऐसी कविता करे जिससे समाज का हित (लोकमंगल) हो तो प्लेटो उसे अपने आदर्श गणतंत्र में रखने को तैयार दिखाई देते हैं।

प्लेटो ने काव्य का निषेध अनुकरण का अनुकरण होने मात्र होने के कारण नहीं किया बल्कि अनैतिक होने के कारण किया है। प्लेटो के मत से मूल सत्य ‘प्रत्यय’ (Idea) है। उस सत्य प्रत्यय का अनुकरण प्रकृति है और उस प्रकृति का अनुकरण कलाकृति अथवा कविता में प्रकट होता है। जो अंतर सत्य और असत्य के बीच है, ज्ञान और धारणा के बीच है वही अस्तित्व और आभास के बीच है। कला का स्वभाव अनुकरणात्मक के अर्थात असत्यमूलक है। प्लेटो अपनी बात कुर्सी-मेज़ बनाने वाले एक बढ़ई का उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि रचनाकार वस्तु जगत की चीज़ों के इस तरह के अनुकरण से प्रभावित होता है। प्लेटो ने सुकरात और ग्लॉकन के संवाद के द्वारा अपने अभिप्रेत को स्पष्ट किया है।

प्लेटो ने स्पष्ट कहा कि अनुकर्ता कवि या चित्रकार यथार्थ वस्तुओं का चित्रण नहीं करते, प्रतीयमान वस्तुओं का चित्रण करते हैं क्योंकि मूल में यथार्थ वस्तु महान शिल्पी (परमात्मा) की बनाई हुई है कवि तथा चित्रकार दोनों ही उसका अनुकरण या नकल करते हैं। उदाहरण के लिए – बढ़ई जिस पलंग या कुर्सी को बनाकर तैयार करता है वह विराट स्रष्टा (ईश्वर) के मस्तिष्क में बने रूप की छाया मात्र है। फिर भी बढ़ई सत्य के काफी निकट पहुँचा है, लेकिन चित्रकार जो उस पलंग का चित्र बनाता है वह तो यथार्थ से ‘दोगुना-तिगुना’ दूर चला गया है। बढ़ई जो बनाता है वह वास्तविक (सत्य पलंग) का निर्माण करता है, वह जो बनाता है वह वास्तविक का अनुकरण मात्र है। अतः मूल पलंग का निर्माता है ईश्वर, दूसरा इसी का निर्णाण करता है बढ़ई, तीसरा उसी पलंग का चित्र आँकरता है,चित्रकार। ईश्वर द्वारा पलंग की रचना वास्तविक है। शेष दोनों ही उसके अनुकर्ता है। बढ़ई सत्य से दूना दूर और चित्रकार सत्य के तीन गुना दूर हो जाता है। जो बात चित्रकार पर लागू होती है, वही कवि पर भी लागू होती है। क्योंकि दोनों ही एक ही कोटि के प्राणी हैं। काव्य मूल प्रकृति का अनुकरण है एवं प्रकृति सत्य का अनुकरण करती है। अनुकरण का अनुकरण (Imitation of Imitation) होने के कारण कला वास्तविकता से तीन गुना दूर (Thrice Removed from reality) होती है। अतः कवि का अनुकरण झूठा होने के कारण वह पूर्ण आदर का आधिकारी नहीं है।

वास्तविकता और उसका आभास (Appearance and Reality)

प्लेटो ने ‘अनुकरण’ के संबंध में एक अत्यंत महत्वपूर्ण जिज्ञासा को प्रकट किया है कि कवि या कलाकार वस्तुओं का बिल्कुल वैसा ही अनुकरण करता है जैसी वे हैं अथवा उसका अनुकरण मात्र तथ्य और कल्पना पर आधारित होता है।

कवि या कलाकार प्रकृति निर्माता के पलंग का यथा-तथ्य (Actual) अनुकरण नहीं कर सका है उसकी असफलता ने उसे अनुकरण के द्वारा सत्य से बहुत दूर कर दिया है। (The imitation is far removed from truth) वह ऐसी कल्पना मिला देता है जिसपर पहले तो विश्वास ही नहीं हो सकता और यदि विश्वास हो भी जाए तो यह धोखे का विश्वास (Illusion) है। धोखे का यह विश्वास विवेकहीन व्यक्ति को ही हो सकता है। कवि या कलाकार अपनी तरह के मूर्ख व्यक्तियों को ही मूर्ख बना सकते हैं। सच्चे सत्य की अभिव्यक्ति उन्हें नहीं आती। विवेक-युक्त प्राणी को तो इस अज्ञानपूर्ण अनुकरण की भत्सना करनी चाहिए क्योंकि यह त्याज्य है।

प्लेटो ने अपनी बात के पुष्टीकरण के लिए त्रासद-कवियों में अग्रणीय होमर का नाम लिया। दुनिया भर के त्रासद कवियों को होमर ने ही झूठ सिखाया। त्रासदी का कवि होमर यह जानता है कि वह कैसे लिखी जाती है और इसक दिव्य-ज्ञान उसे है। साथ ही, वह त्रासदी का उचित निर्वाह भी कर सकता है और म्यूज (Muse) के वश में रहता हुआ भी वह, कह देता है जो उसे कहना चाहिए। यह एक अनुकरण है और यह अनुकर्ता कवि अंतिम वास्तविकता (Utimate reality) को व्यक्त करने में असमर्थ रहता है-

मेरे प्यारे होमर, अगर तुम्हारा गुणात्मक ज्ञान सत्य से दूर नहीं है और तुम हमारी अनुकरण की परिभाषा के अनुसार केवल कल्पनाजीवी नहीं हो और अगर तुम सत्य से सच्चे अर्थों में संबंधित हो साथ ही तुम मनुष्य की ज़िन्दगी की अच्छी-बुरी बनाने वाली वस्तुएँ भी जानते हो तो भी क्या तुम हमें बता सकते हो कि तुमने किस शहर अथवा किस सरकार का कितना सुधार किया है। होमर के सेनापतियों ने या सलाहकारों ने अपने समय में ऐसा कौन-सा युद्ध लड़ा है, जिसने देश का उद्धार किया हो।

अर्थात यह बात कैसे मानी जाए कि होमर ने मनुष्य को एक नई जीवन-दृष्टि दी है। जबकि उसकी कृतियों के देखने से यह लगता है कि उसने मनुष्य को छला है। जिस व्यक्ति ने अनुकरण को अपनाया है वह केवल छाया-कृति को ही पकड़ सका है। अतः प्लेटो ने होमरीय जीवन के आदर्शों का भरसक खण्डन किया है।

प्लेटो का काव्य चिंतन – भाग 2 

By Sunaina

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