IGNOU MHD-5 : प्लेटो का संक्षिप्त काव्य चिंतन | Brief Poetic Reflection of Plato

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प्लेटो का परिचय (Introduction to Plato)

प्लेटो यूनान के एक महान दार्शनिक और समाज सुधारक थे। उनका जन्म एक कुलीन वंश में हुआ था। उनके गुरू महान दार्शनिक सुकरात हुए। उनकी पूरी शिक्षा दीक्षा सुकरात की छत्रछाया में हुई थी। प्लेटो दार्शनिक थे लेकिन कविता के प्रति उनका विशेष चिंतन है। उन्होंने कवियों के विषय में भी अध्ययन किया था।

28 वर्ष की अवस्था से लगभग 12 वर्ष तक प्लेटो देश-देशांतर में भ्रमण करते हुए विभिन्न मत-मतांतरों का अध्यन करते रहे और वैचारिक रूप से परिपक्व होकर ऐथेन्स लौटे। लौटकर प्लटो ने प्रसिद्ध अकादेमी की स्थापना की जिसे यूरोप का सर्वप्रथम विश्वविद्यालय कहलाने का श्रेय प्राप्त है।

युवावस्था में प्लेटो की रूचि काव्य रचना में थी। किंतु सुकरात के संपर्क में आने पर अपनी काव्य रचनाएँ उन्होंने नष्ट कर दीं और रचनाकर्म समाप्त कर दिया। उनकी काव्य रचना के कुछ अंश ऑक्सफोर्ड बुक ऑफ ग्रीक वर्स में संकलित हैं।

प्लेटो का सक्षिप्त काव्य चिंतन (Brief Poetic Reflection of Plato)

प्लेटो काव्य और कवि की निंदा करते हुए हैं परिणाम स्वरूप आश्चर्य होता है। प्लेटो के युग की परिस्थितियों व उनकी रूचि व जीवन शैली को देखें तो काव्य के प्रति उनका दृष्टिकोण स्पष्ट समझ आता है। वे दार्शनिक थे, सत्य के उपासक थे साथ ही तर्क के हिमायती थे। वह सर्वप्रथम अपने देश में सुधार करना चाहते थे।

सत्य की रक्षा के लिए उन्होंने दर्शन की वेदी पर अपने कवि हृदय की बलि चढ़ा दी। वह खुद शुरूआत में कविता लिखते थे। प्लेटो को केवल बौद्धिक आनंद स्वीकरा था, इंद्रिय आनंद वे पसंद नहीं करते थे। क्योंकि काव्य आनंद इंद्रियों से है वह उन्हें मान्य नहीं था। उनका मानना था कि उनके काल का काव्य उत्तम नहीं है। उनका यकीन था कि जनता के लिए कलाओं के प्रति आसक्ति राज्य के लिए अहितकर है। प्लटो उनके समय की कविता मनोरंजन के लिए लिखी जाती है। परिणामस्वरूप गरीब लोगों के अस्वस्थ मनोवेगों को उभारती थी।

उस समय का सामाजिक व राजनीतिक जीवन अत्यधिक दूषित हो गया था कि दार्शनिक और संत स्वभाव वाले व्यक्ति को उससे भयभीत होना तथा उसके प्रति कठोर दृष्टि अपनाना स्वाभाविक ही था।

ईसा पूर्व पांचवी सदी में जनता शासन में सुधार चाहती थी। प्लेटो आदर्शवादी सुधारक थे। वे प्रत्येक एथेंसवासी को आदर्श नागरिक बनाना चाहते थे। वे मनुष्य के दो धर्म बताते थे – मनुष्य को सत्य के प्रति संलग्न रहना चाहिए और समाजिक सदस्य होने के नाते उसे सदाचारी रहना चाहिए।

वह यह सहन नहीं कर सकते थे कि कवि अपने काव्य में देवताओं को कुटिल पापी, षड्यंत्रकारी, क्रूर, लालची, असत्यवादी आदि कह कर चित्रित करें क्योंकि पाठक पर इसका गलत असर पड़ने का भय रहता था। परिणाम स्वरूप कहा जा सकता है कि दार्शनिक, सुधारक होने के नाते उन्होंने कविता के विषय में अपने विचार प्रकट किए।

प्लेटो के काव्य चिंतन में दोष (Flaws in Plato’s Poetic Thinking)

प्लेटो का कहना है कि कवि वास्तविकातओं से कम रचना करते हैं। उनका कहना था कि कवि सत्य से तीन गुना दूर हो जाता है। वे ईश्वर को सत्य बताते थे, लकड़ी से पलंग बनाने वाले को सत्य सो दो गुना दूर बताते थे। उसी पलंग का चित्र बनाने वाले को सत्य से तीन गुना दूर बताते थे। उनका कहना था कि जिस तरह चित्रकार सत्य से तीन गुना दूर रहता है उसी प्रकार कवि भी सत्य से तीन गुना दूर रहता है। उनका कहना था कि कवि कविता के प्रति इस हद तक समर्पित हो जाता है कि कविता की रचना नहीं करता, वह स्वयं रच जाती है। उसका रचनाकार तो ईश्वर ही है।

कला में शामिल सर्जनशीलता को न समझ पाना यह उनकी बहुत बड़ी कमी है। वे भाव एवं कल्पना के स्थान पर अनुकरण को अत्याधिक महत्व देते हैं। परिणाम स्वरूप वह कविता को वास्तविक नहीं नकल (प्रकृति की नकल) मानते थे। वे कलाकार की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार ही नहीं करते हैं। वे सुंदर से आधिक शिव (कल्यणकारी) पर बल दिया था। इस वजह से उनके शिष्य अरस्तु ने ही उनके विचारों का विरोध किया है।

प्लेटो ने स्पष्ट कहा कि अनुकर्ता कवि या चित्रकार यथार्थ वस्तुओं का चित्रण नहीं करते हैं। कवि या चित्रकार दोनों ही उसका अनुकरण या नकल करते हैं। प्लेटो के शब्दों में कविता या कला सत्य से तिगुना दूर (Thrice recoved reom reality) होती है।

समाज को प्लेटो की देन (Plato’s Contribution to Society)

प्लेटो के संपूर्ण चिंतन का आधार नैतिकता और आदर्श राज्य का निर्माण करना है। प्लेटो के अनुसार काव्य की अग्राहयता के दो आधार हैं – दर्शन और प्रयोजन। मूलतः प्लेटो प्रत्यवादी (Idealist) दार्शनिक हैं।

समान्य तौर पर अधिकतर लोग उनके निष्कर्ष विचार पर अपनी सहमति नहीं देते। लेकिन कला के विषय में कुछ ऐसे विचार भी उन्होने व्यक्त किए हैं जो हमें प्रभावित करती हैं। उनके उन्हीं विचारो का विश्लेषण करके काव्यशास्त्रियों ने सत्य का दर्शन किया है।

कला में अनुकरण और आनंद-तत्व की बात सर्वप्रथम उन्होंने ही कहा था। उन्होंने कहा कि कलाएँ परस्पर संबद्ध होते हुए भी भिन्न हैं परिणाम स्वरूप कलाओं के दो भेद हैं – 1) ललित कलाएँ और उपयोगी कलाएँ।

कलाओं में आदर्श की, न्याय, सौंदर्य और सत्य की प्रतिष्ठा की बात भी उनके द्वारा कही गई है। प्लेटो के काव्य प्रेरणा संबंधी विचार मौलिक थे। वह चिंतन को कला-साधना का आवश्यक अंग मानते हैं। विरेचन सिद्धांत के संकेत भी उनके वचनों में मिलते हैं।

भाषण कला के लिए उनके सुझाव विषय का पूर्ण ज्ञान, अभ्यास, व्यवस्थित विचार और भाषा, श्रोताओं के मनोविज्ञान से परिचय वर्तमान में भी लाभदायक है। साहित्य में काव्यगत न्याय के सिद्धांत का प्रतिष्ठाता भी प्लेटो हैं।

कुछेक का मत है कि वह काव्य को उपदेश, शिक्षा का माध्यम मानते थे। वस्तुतः ऐसा नहीं है। उनकी दृष्टि में कला या काव्य का प्रथम तथा प्रमुख कार्य प्रभावित करना है, उपदेश देना नहीं है। उनका मत था कि चरित्र में जो भी उदात्त और महान हो वही काव्य का विषय बनाया जाए। काव्य का सत्य सार्वभौम और सर्वकालिक होना चाहिए। उन्होंने कतिपय ऐसे मनोवैज्ञानिक शक्तियों का उद्घाटन किया जो आज भी मनोवैज्ञानिक प्रश्नों की नींव है।

प्लेटो के वक्तव्य में कहीं-कहीं विरोध पाया जाता है तो कहीं वे अपने आदर्श राज्य में कवि को बहिष्कृत करने की बात कहते हैं, कभी तो काव्य की प्रशंसा करते हैं। परिणाम स्वरूप प्लेटो के काव्य संबंधी विचार यदि हम संदर्भ सहित पढ़ेंगे तो स्पष्ट रूप से समझ पाएंगे कि वह किसे बहिष्कृत करना चाहते हैं और कैसे काव्य की प्रशंसा करते हैं।

By Sunaina

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