Bhaarateey Kavyashaastr ke Pramukh Sampradaay – 1
संस्कृत काव्यशास्त्र की चिंतन-दृष्टि (Perspective of Sanskrit Poetry)
साहित्य चिंतन विषयक छः सम्प्रदायों में से तीन – रस-सिद्धांत, अलंकार-सिद्धांत, रीति-सिद्धांत। भारतमुनि से पंडितराज जगन्नाथ तक फैली संस्कृत काव्यशास्त्र की परंपरा में विभिन्न काव्य सिद्धांतों का प्रतिपादन और खंडन-मंडन होता रहा। प्रणेता आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं-
1. रस संप्रदाय- भरतमुनि
2. अलंकार संप्रदाय – भामह
3. रीति संप्रदाय – वामन
4. ध्वनि संप्रदाय – आनंदवर्धन
5. वाक्रोक्ति संप्रदाय – कुंतक
6. औचित्य संप्रदाय – क्षेमेंद्र
भारतीय काव्यशास्त्र में भारतीय आचार्यों की परंपरा रही है कि वे किसी मत अथवा विचारधारा को आँख मूँद कर स्वीकार नहीं करते हैं। संस्कृत आचार्य आत्मा और देह में बराबर अंतर करते रहे हैं। जिसके लिए दो विचार धारा सक्रिय रही हैं-
1) आत्मा को प्रधानता देने वाली विचारधारा जिसके अंतर्गत रस-संप्रदाय, ध्वनि-संप्रदाय और औचित्य-संप्रदाय को स्थान मिला।
2) काव्य शरीर को प्रधानता देने वाली विचारधारा जिसके अंतर्गत अलंकार संप्रदाय, रीति-संप्रदाय और विक्रोक्ति संप्रदाय से है।
भारतीय काव्यशास्त्र व्याकरण तथा दर्शन से अभिन्न हो कर ही आगे बढ़ा है। शब्द और अर्थ के सहभाव का नाम साहित्य है। प्रश्न यह उठता है कि शब्द और अर्थ में प्रधान कौन है? शब्द को प्रधानता देने वाली परंपरा शरीरवादी और अर्थ को प्रधानता देने वाली परंपरा आत्मवादी कहलाई है। परिणामस्वरूप यह कहा जा सका है कि काव्य की आत्मा न तो रस है न ध्वनि और न ही औचित्य है। काव्य की आत्मा तो रस-ध्वनि को ही कहा जा सकता है।
संप्रदाय का अर्थ – एक विचार को स्वीकार करते हुए उसे आगे बढ़ाने वाले विद्वान एक संप्रदाय के विद्वान कहलाते हैं। संप्रदाय का अर्थ धरोहर होता है। अलंकार संप्रदाय की स्थापना भामह ने की थी। दंडी, उद्भट, रूद्रट, रुय्यक आदि अनेक प्रतिभाशाली व्यक्तियों ने भामह की स्थापना को आगे बढ़ाया। अतः अलंकार संप्रदाय से तात्पर्य है उन विचारकों की परंपरा जिन्होंने रस और ध्वनि सिद्धांतों के प्रतिष्ठित हो जाने के पूर्व अथवा पश्चात् अलंकार को ही काव्य की उत्कृष्टता को प्रमुख साधन माना है।
रस-सिद्धांत – रस-सिद्धांत भरत के ‘नाट्यशास्त्र’ में और इसके बाद काव्यचार्यों के ग्रंथों में मिलती है। भरत ने रस के अतिरिक्त अलंकार गुण, रीति, दोष आदि पर भी प्रकाश डाला था, पर बहुत कम।
भरत-परवर्ती आचार्यों में प्रमुख नाम – भामह, (छठी शती ई.) दंडी (सातवीं शती ई.) और उद्भट (नवीं शती ई.) का है। यह तीनों आचार्य अलंकारवादी कहलाते हैं। नवीं शताब्दी में वामन हुए, ये रीतिवादी आचार्य हैं। आनन्दवर्धन ने ध्वनि-सिद्धांत का प्रवर्तन किया। दसवीं-ग्यारहवीं शती में कुन्तक ने वक्रोक्ति-सिद्धांत का प्रवर्तन किया। ग्याहरवीं शती में क्षेमेन्द्र ने औचित्य-सिद्धांत पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला।
अन्य प्रख्यात आचार्य –
1) अभिनव गुप्त (11 वीं शती), 2) मम्मट (11वीं शती), 3) विश्वनाथ (14वीं शती)
इनके अतरिक्त अन्य उल्लेखनीय काव्याचार्य हैं- महिमभट्ट (11वीं शती), जयदेव (13वीं शती), भानुमिश्र (13वीं 14वीं शती)। संस्कृत काव्यशास्त्र के क्षेत्र में उपर्युक्त आचार्यों का योगदान अति महत्वपूर्ण है। मम्मट, विश्वनाथ और जगन्नाथ संग्रहकर्ता आचार्य हैं।
– काव्य के दो प्रकार होते हैं – पद्यबद्ध और गद्यबद्ध।
पद्यबद्ध काव्य –
1) मुक्तक काव्य – जैसे बिहारी के दोहे, गिरिधर कविराय की कुंडलियाँ आदि।
2) प्रबंध काव्य के दो रूप होते हैं – महाकाव्य और खंडकाव्य। महाकाव्य – तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस, जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कामायनी आदि। खंडकाव्य – मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित पंचवटी आदि। गद्यबध काव्य जैसे – कहानी, उपन्यास, ललित निबंध, रेखाचित्र, नाटक (दृश्य काव्य) आदि हैं। काव्यशास्त्र के अनेक ग्रंथों में काव्य-समय कवि शिक्षा आदि ऐसे अनेक प्रसंग भी हैं, जिनसे कवियों को प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं, लेकिन परोक्ष रूप से सहायता अवश्य मिलती है।
रस-सिद्धांत : रस संप्रदाय (Rasa-Siddhanta : Rasa Sect)
संस्कृत काव्यशास्त्र का आरंभ भरतमुनि से माना जाता है। नाट्यशास्त्र के प्रणेता थे। संभवतः ये तीसरी शती ईसा-पूर्व से तीसरी शती ईस्वी के बीच लिखा गया। नाट्य (अभिनय आदि) के संबंध में जो सिद्धांत में जो सिद्धांत धीरे-धीरे पाँच-छह शताब्दियों में बनते-पनपते चले आए, उनका संग्रह नाट्यशास्त्र नाम से करके इस का कर्ता भरतमुनि को मान लिया गया। भरत कहते हैं कुशीलव अर्थात अभिनेता को।
नाट्यशास्त्र में रस सिद्धांत का विवेचन है। नाट्यशास्त्र में कुल 32 अध्याय हैं। भरतमुनि के बाद सार्वाधिक महत्वपूर्ण नाम अभिनवगुप्त का है, जिन्होंने नाट्यशास्त्र पर अभिनवभारती टीका लिखी।
विचारभूमि (Thoughtland)
भारतीय चिंतको ने मन के तीन गुण माने हैं – रजोगुण, तमोगुण और सत्वगुण, अर्थात हमारा मन सदा इन तीनों गुणों से, न्यून अथवा अधिक रूप में, युक्त रहता है।
काव्य सुख (काव्यनान्द अथवा काव्याह्लाद) को भारतीय काव्यशास्त्र में रस कहते हैं और पाश्चात्य काव्यशास्त्र में Aesthic Experience अथवा Aesthetic कहते हैं।
हमारे मन में दो प्रकार के भाव होते हैं – 1) कुछ भाव सहजात होते हैं अर्थात जन्म के साथ ही उपल्बध होते हैं। जैसे रति, हास, शोक, उत्साह आदि। इन्हें काव्यशास्त्र में स्थायीभाव कहते हैं।
2) उक्त सहजात भावों से उत्पन्न होते हैं, जैसे रति से उत्पन्न लज्जा, शोक से उत्पन्न विषाद आदि जो दूसरो द्वारा सिखाये, समझाये, बताये जाते हैं, जैसे – देशभक्ति, मातृभक्ति, पितृभक्ति, राजभक्ति, राष्ट्रभक्ति आदि। इन्हें संचारी भाव कहते हैं।
स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव इन चारों को रस के अंग अथवा रसाभिव्कति के साधन कहते हैं। 1) रस के अंग 2) रस का स्वरूप 3) रस विष्पत्ति 4) साधारणीकरण।
रस शब्द के विभिन्न अर्थ (Different Meanings of the Word Juice)
1 पदार्थों का रस, अर्थात, मधुर अम्ल, लवण, कटु कषाय और तिक्त, ये षड्रस अथवा आस्वाद।
2 आयुर्वेद का रस, अर्थात किसी एक अथवा अनेक ओषधियों से आयुर्वेदीय प्रक्रिया द्वारा तैयार किया गया द्रव।
3 साहित्य का रस – काव्य का रस जिसे काव्य सौंदर्य, काव्यास्वाद, काव्यान्नद तथा काव्याहलाद भी कहते हैं।
4 मोक्ष या भक्ति का रस या ब्रहमानंद आत्मा द्वारा ब्रहम की प्राप्ति का आनन्द जो आत्मान्द का वाचक होता है। काव्य रस को ब्रहमान्नद-सहोदर भी कहा गया है।
रस के अंग – रसाभिव्यक्ति के साधन (Organs of Rasa – Means of Rasa expression)
भरत का प्रख्यात सिद्धांत कथन (सूत्र) है विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्र रसनिष्पत्तिः। अर्थात स्थायी भाव का संयोग जब विभाव, अनुभाव और व्याभिचारी भाव अथवा संचारी भाव से होता है तो स्थायी भाव रस रूप में निष्पन्न हो जाता है।
1) स्थायी भाव – मनोविकार सदा विद्यमान रहते हैं तथा जिन्हें अन्य कोई भी अविरूद्ध अथवा विरूद्ध भाव दबा नहीं सकता उन्हें स्थायी भाव कहते हैं। स्थायी भावों की संख्या सामान्यतः नौ मानी जाती है – रति, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा, विस्मय और निर्वेद। अन्य रस वत्सल रस भी माना जाता है जिसका स्थायी भाव वात्सल्य है।
2 विभाव – रस के कारण को विभाव कहते हैं। विभाव के दो भेद हैं – आलम्बन विभाव और उद्दीपन विभाव।
क) आलम्बन विभाव – काव्य-नाटकदि में वर्णित जिन पात्रों को आलम्बन करके सामाजिक के रत्यादि स्थायी भाव रसरूप में अभिव्यक्त (परिणत) होते हैं, उन्हें आलम्बन विभाव कहते हैं, जैसे शृंगार रस में नायक – नायिका आदि।
ख) उद्दीपन विभाव – उद्दीपन विभाव वे कहलाते हैं जो रस को उद्दीप्त करते हैं अर्थात जो इत्यादि स्थायी भावों को उद्दीप्त करके उनकी आस्वादन योग्यता बढ़ाते हैं और इस प्रकार उन्हें रसावस्था तक पहुँचाने में सहायक होते हैं।
3) अनुंभाव – रत्यादि स्थायी भावों को प्रकाशित करने वाली आश्रय की बाह्य चेष्टाएँ जो लोक में कार्य कही जाती हैं, काव्य-नाटक में वर्णित अथवा दर्शित होने पर, अनुभाव कहलाती हैं। अनुभाव के चार रूप माने गये हैं – आंगिक, वाचिक, आहार्य (वेशभूषा) और सात्विक।
4) संचारी भाव (व्याभिचारी भाव) – अस्थिर मनोविकार अथवा चितवृत्तियाँ भाव कहलाती हैं। संचारी शब्द का अर्थ है साथ-साथ चलना तथा संचरणील होना। संचारी भावों को व्यभिचारी भाव भी कहते हैं। प्रत्येक संचारी भाव का स्थायी भाव नियत नहीं है। संचारी भाव कई स्थायी भावों के साथ अभिमुख होकर चलता है, अतः यह व्याभिवारी भाव भी कहलाता है।
निष्कर्ष – यह कि लौकिक कारण, कार्य, और सहकारी कारण काव्य-नाटक में, व्यंजना वृत्ति के बल पर क्रमशः विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव नामों से अभिहित होते हैं। ये विभावादि सहृदय के स्थायी भावों को जब भाव के भोग या चव्यमाण स्थिति तक पहुँचा देते हैं, तो इन्हें रस नाम से पुकारा जाता है।
काव्यशास्त्र में रस शब्द से तात्पर्य है – काव्य-सौन्दर्य का आस्वादन। आस्वादन में बाधा डालने वाली स्थिति को रस विघ्न नाम दिया गया है। विघ्न के आठ प्रकार हैं – रस-दोष, भाव दोष, रसाभास, भावोदय, भावोदय, भावसन्धि, भावशबलता और भाशान्ति। रस व्यवहार का अनौचित्य रस विघ्न कहलाता है।
भाव-दोष – भाव का अपर्याप्त कथन भाव-दोष है। प्रायः इसमें विभाव की स्थिति गड़बड़ होती है। जैसे पुरूष का बकरी के प्रति रतिपरक आकर्षण।
रसाभास और भावाभास – जहाँ रस अथवा भाव की व्यंजना में किसी कारणवश अनौचित्य झलकने लगे, वहाँ क्रमशः रसाभास अथवा भावाभास अथवा भावाभास माना जाता है –
1 नायिका का उपनायक-विषयक अथवा बहुपुरूष-विषयक प्रेम
2 एक नर का, अथवा नरों का, एक समय पर अथवा अनेक समयों पर अनेक नारियों से प्रेम
3 उभयनिष्ठ रति न होना, अर्थात नायक या नायिका में से केवल एक का दूसरे के प्रति प्रेम-वर्णन
4 श्रेष्ठ का नीव के प्रति अथवा नीच का श्रेष्ठ के प्रति प्रेम वर्णन
5 नायिका द्वारा मान करने के अनन्तर मानशन्ति न होना
6 पशु-पक्षी विषयक प्रेम, आदि।
स्थायी भाव की अनौचित्यपूर्ण अभिव्यक्ति में रसाभास माना जाएगा और संचारी भाव की अनौचित्यपूण अभिव्यक्ति में भावाभास। भावशान्ति जहाँ एक भाव उदित होकर शान्त हो जाए।
रस-विषयक संक्षिप्त इतिवृत्त तथा रस का महत्व- (Brief History of Rasa and Importance of Rasa-)
रस के सम्बन्ध में उनके प्रख्यात कथन सूत्र – विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति का आशय यह है कि सहृदय के हृदय में वासना-रूप से स्थित रति आदि स्थायी भावों का संयोग अब काव्य नाटक में वार्णित विभाव, अनुभाव और व्याभिचारी भाव से हो जाता है तो स्थायी भाव रस-रूप में ऐसे निष्पन्न (अभिव्यक्त) हो जाता है जैसे दूध खट्टे पदार्थ के संयोग से दही, पनीर आदि के रूप में परिणत हो जाता है – रति नामक स्थायी भाव शृंगार रस के रूप में शोक नामक स्थायी भाव करूण रस के रूप में निष्पन्न (अभिव्यक्त) हो जाता है।
भरत ने मूल रस चार हैं – शृंगार, रौद्र, वीर, वीभत्स। फिर इनसे क्रमशः हास्य, करुण, अद्भुत, और भयानक रसों की उत्पत्ति मानी है। शृंगार रस के आलम्बन विभाव के प्रसंग के अन्तर्गत उन्होंने नायक-नायिका भेद का वर्णन किया है। अलंकार गुण, दोष वर्णयोजना और छन्द के प्रसंगों में उन्होंने निर्दिष्ट किया कि इनका प्रयोग रस को लक्ष्य में रखकर कना चाहिए।
भामह, दण्डी और उद्भट यद्यपि अलंकारवादी थे, फिर भी इन्होंने रस को समुचित स्थान देते हुए रसवत् प्रेमवत् ऊर्जस्वि औऱ समाहित अलंकार माने जो कि रस से सम्बन्धित हैं। भामह का कथन है कि कटु औषधि के समान शास्त्रचर्चा भी रस के संयोग से मधुवत् बन जाती है।
विश्वनाथ ने तो रस को ही काव्य की आत्मा घोषित करते हुए काव्य लक्षण को रस पर आधारित कर दिया वाक्यं रसात्मकं काव्यम्। इससे रस की महता और भी अधिक बढ़ गई।
हिन्दी में रस-विवेचन (Rasa-Vivekh in Hindi)
पंडितराज जगन्नाथ संस्कृत काव्यशास्त्र के अन्तिम आचार्य हैं। वे शाहजहाँ (शासनकाल 1837-1858 ईसवी.) के सभा पंडित थे।
रीतिकाल में चिन्तामणि, कुलपति, देव, भिखारीदास, श्रीपति, सोमनाथ, प्रतापसिंह आदि अनेक आचार्यों ने मम्मट-रचित काव्य प्रकाश और विश्वनाथ रचित साहित्यदर्पण के आधार पर रसों के अंगों स्थायी भाव तथा विभावादि पर प्रकाश डालते हुए रस के स्वरूप को भी उजागर किया।
नृत्य कवित देखत, सुनत, भये आवरन भंग।
आनन्द रूप प्रकाश है, चेतन ही रस अंग।।
जैसो सुख है ब्रह्म को, मिले जगत सुधि जाति।
सोई गति रस मैं मगन भये सुरस नौ भाँति।।
आधुनिक काल (Modern Era)
आधुनिक काल में आचार्य केशव प्रसाद मिश्र डॉ. श्यामसुन्ददास, अयोध्यासिंह उपाध्याया हरिऔध, बाबू गुलाबराय, जयशंकर प्रसाद, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. नगेन्द्र ने रस का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए रस को – चाहे वह शृंगार हास्य आदि रस हों अथवा करूण, बीभत्स आदि सब को – आनन्दस्वरूप माना है।
डॉ. नगेन्द्र का प्रख्यात कथन है – काव्यानुभूति में एक ओर ऐन्द्रिय अनुभूति की स्थूलत एवं तीव्रता (ऐन्द्रियता एवं कटुता) नहीं होती और दूसरी और बौद्धिक अनुभूति की अरूपता नहीं होती, और इसलिए वह (काव्यानुभूति) अधिक शुद्ध परिष्कृत तथा दूसरी से (बोद्धिक अनुभूति से) अधिक सरस होती है।
डॉ. नगेन्द्र काव्य द्वारा प्राप्त अनुभूति (आनन्द अथवा रस) को लौकिक और बोद्धिक अनुभूतियों (आनन्दों) से उत्कृष्ट मानते हैं। उधर भारतीय काव्यशास्त्र भी इसी कारण रस को लोकोत्तर कहते हैं। लोकोत्तर का अर्थ है लोक से ऊपर उठा हुआ – उदात्त अनुभव।
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