IGNOU Study Material MHD-5 : अस्तित्ववाद | Existentialism
परिचय (Introduction)
बीसवीं शताब्दी महत्वपूर्ण घटनाओं और विचारों की सदी रही है। संसार में राजतंत्र में जो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए उनमें साम्यवाद, फ़ासीवाद और उतर-उपनिवेशवाद शामिल हैं।
मानव संहार से उत्पन्न निराशा ने नीति, धर्म, ईश्वर दर्शन आदि मानव निर्मित निष्ठाओं पर प्रश्न चिह्न लगा दिए। युध्दोत्तर संसार में कला और साहित्य के पुराने सिद्धांत लगभग अर्थहीन हो गए। इसी सदी में दो विश्व-युद्धों तथा अणु-विस्फोटों द्वारा जो विनाश हुआ उसका व्यापक प्रभाव विश्व के चिंतन पर पड़ा।
इसी दौरान प्रौद्योगिकी ने जैसे दुनिया का मानचित्र ही बदल दिया। उपग्रह, जनसंचार तथा इंटरनेट ने साइबरस्पेस के अदृश्य संसार की रचना की। भूमंडल सिमट कर ग्लोबल गाँव बन गया।
माकर्सवाद, फ्रायडवाद, आधुनिकतावाद, अस्तित्ववाद एवं उत्तर-आधुनिकतावाद ने साहित्य और संस्कृति को इतना प्रभावित किया कि नवीन मानसिकता का उदय हुआ, नई-नई प्रवृत्तियाँ जन्म लेने लगी। कला और शिल्प में नए-नए प्रयोग किए जाने लगे।
बौद्धिक, संवेदनात्मक, सांस्कृतिक तथा साहित्यिक चिंतन को आधुनिक युग-बोध कहा गया। आधुनिकतावाद के अंतर्गत सांस्कृतिक संकट, मूल्य संक्रांति, स्वत्व का ह्रास विशेष बन गया। अस्तित्ववाद ने अजनबीपन, अलगाव तथा मृत्यु-बोध और संत्रास के प्रश्न उठाए। संकल्प-विकल्प, स्वतंत्रता और लेखनीय प्रतिबद्धता पर बहसें शुरू हो गई।
साहित्य सिद्धांत तथा आलोचना में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया है। केंद्र से परिधि की ओर वर्ण की अपेक्षा जाति तथा लिंग की ओर झुकाव ने उत्तर-आधुनिकतावाद के युग के आगमन की सूचना दी।
अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद और उत्तर-आधुनिकतावाद की पृष्ठभूमि, अवधारणाओं और मूल विचार-बिंदुओ को प्रस्तुत किया गया है। द्वितीय विश्व-युद्धोत्तर मानसिकता के आतरिक और बाह्य अर्थ संदर्भों को समझने के लिए इन तीनों का एक-साथ अध्ययन आवश्यक है। जैसी कि चर्चा की जा चुकी है, आधुनिक युगबोध का निर्माण इन तीनों से मिलकर हुआ है। यह युगबोध ही नवीन युग संवेदना की भावभूमि है जिसमें मनुष्य की चिंताओं और स्थितियों का पूरा अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र निहित है।
अस्तित्ववाद की अवधारणा (Concept of Existentialism)
अस्तित्ववाद (एग्ज़िस्टेंशलिज्म) मूल रूप से दर्शन का सिद्धांत है। लेकिन अस्तित्ववाद ने साहित्य सृजन तथा आलोचना सिद्धांतो को भी प्रभावित किया है।
अस्तित्ववाद के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के सामने विभिन्न संभावनाएँ या रास्ते हैं। मनुष्य इन संभावनाओं या रास्तों में से एक या अधिक का वरण करता है। इस वरण के लिए मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल करता है।
वरण की स्वतंत्रता के परिणामस्वरूप मनुष्य अपने अस्तित्व (एग्ज़िस्टेंस) को न केवल प्रमाणित करता है बल्कि प्रामाणिक (ऑथंटिक) भी बनाता है।
वरण के स्वतंत्र प्रयोग के कारण उसके सार (एसेंस) का निर्माण होता है। अर्थात सार से पूर्व अस्तित्व है। अस्तित्व के पूर्ववर्ती होने के कारण इसे अस्तित्ववाद की संज्ञा दी गई है।
अस्तित्ववाद मानव को परिभाषित नहीं करता क्योंकि मानव की कोई आदि-मूल चिरंतन या शाश्वत प्रवृत्ति नहीं।
मनुष्य उसके सिवाय कुछ नहीं जो अपने स्वतंत्र कर्म तथा वरण द्वारा बनाता है। इकबाल की एक शाश्वत प्रवृत्ति नहीं। अमल (कर्म) से ज़िंन्दगी बनती है जन्नत भी जहन्नुम भी
यह ख़ाकी (पार्थिव) अपनी फ़ितरत (प्रवृत्ति) में न नूरी (राजसी) है न नारी (तामसी)। अर्थात कर्म से ही जीवन को अर्थ मिलता है यानी कर्म स्वर्ग और नरक का निर्माता है। वरना मनुष्य अपनी प्रवृत्ति में न सत् है न असत्।
मेनियर ने अस्तित्वाद की परिभाषा करते हुए लिखा है कि अस्तित्ववाद विचारों के दर्शन तथा वस्तु-यथार्थ के दर्शन की अति के विरूद्ध मानव के दर्शन की प्रतिक्रिया है। अस्तित्ववाद का सीधा संबंध अस्तित्व से है। अर्थात जिसका मूल सरोकार मानव अस्तित्व, मानव-स्थिति, संसार में मनुष्य का मकाम तथा प्रयोजन और मानवीय संबंधो की उपस्थिति और अनुपस्थिति से है।
पृष्ठभूमि (Background)
उन्नीसवी शती के उत्तरादर्ध में युरोप के दर्शन में अस्तित्ववाद एक महत्वपूर्ण विमर्श रहा है। दूसरे महायुद्ध के दौरान और उसके पश्चात यह बहुत चर्चित रहा है।
साहित्य मे अस्तित्वाद के प्रभाव का कारण मानव की वह भयावह विषम स्थिति थी जो फ़ासीवाद के रक्तरंजित आतंक, साम्यवाद से मोह-भंग तथा द्वितीय महायुद्ध की विभीषिका और अणु-विस्फोटो के मानव संहार से उत्पन्न हुई थी। चारों ओर निराशा एवं निस्सारता की लह फैल गई। लगा कि मनुष्य किसी अंधी सुरंग में फँस गया ह। फ्रांज़ काफ्फा के शब्दों में – मैं एक ऐसी काल कोठरी में कैद हूँ जिसके न दरवाज़े हैं और न खिड़कियाँ और बाहर निकलने के तमाम रास्ते बंद हैं।
अस्तित्ववाद की दो धाराएँ (Two Strands of Existentialism)
1) ईश्वरवादी अस्तित्ववाद अर्थात आध्यत्मिक, धार्मिक, पराभोतिक। इस धारा में ईसाईयत का प्रभुत्व है। ईश्वर केंद्र में है। मनुष्य की मीमांसा ईश्वर के संदर्भ में ही संभव है। ईश्वरवादी अस्तित्ववाद के अनुसार इस संसार में निरर्थक जीवन को सार्थक तथा सारपूर्ण बनाने के लिए निष्ठा तथा (ईश्वर में) आस्था अनिवार्य है। मनुष्य की गति ईश्वर की शरण बिना संभव नहीं। ईश्वरवादी अस्तित्ववाद के प्रवर्तकों में सोरेन कीर्केगार्ड (1813-55) तथा गोब्रियल मार्सल (1889-1973) के नाम उल्लेखनीय हैं।
2 अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद में मनुष्य इस संसार में निस्सहाय है। फ्रेडरिक नीत्शे (1840-1900) के अनुसार ईश्वर की मृत्यु हो चुकी है। ज्याँ पाल सार्त्र (1905-80) के कथनानुसार संघर्ष में ही मानव की गति है। जब ईश्वर ही नहीं तो मनुष्य अपने प्रत्येक कर्म के लिए स्वयं उत्तरदायी है। अनीश्वरवादी अस्तित्ववादी के प्रमुख प्रवर्तकों में मार्टिन हाइडेगर (1889-1978) और ज्याँ पाल सार्त्र शामिल हैं।
आस्तित्ववाद के मूल तत्व (Basic Elements of Existentialism)
1 मानव रचना – मानव रचना के मूल में कोई प्रयोजन नहीं। स्वयं जो निर्धारित करता है उसेक अलावा बिना किसी प्रयोजन के उसकी इच्छा के बगैर फेंक दिया गया है। जो वह स्वयं निश्चित करता है, सिवाय उस उद्देश्य या गंतव्य के, वह संसार में भटकने के लिए विवश है। वह किसी सहारे या सहायता के बगैर निरंतर गर्दिश में है।
2 मानव प्रकृति – मानव प्रकृति एक अर्थहीन शब्द है। मानव की कोई प्रवृत्ति नहीं केवल इतिहास है। मानव प्रकृति को स्वीकार करने का अर्थ है मानवेतर (दैवी) शक्ति में विश्वास। अर्थात ऐसी परम शक्ति को स्वीकार करना जो मनुष्य के अस्तित्व से पूर्व पैदा हुई है या मौजूद थी।
3 मानव आदतें – मानव प्रकृति के बने-बनाए या पूर्व निश्चित नियम नहीं होते। बल्कि कुछ आदतें हैं, जो कभी भी बदल सकती हैं। मनुष्य स्वतंत्र है।
4 मानव स्थिति – यह वह स्थिति जिसमें मनुष्य अलगाव (एलियेनेशन) और एकाकीपन का जीवन व्यतीत करने पर विवश है। हाइडेगर का कथन है – मनुष्य इस संसार में अकेला, थका हुआ, निराश और भयभीत है। मानव की यह निरुद्देश्य प्रयोजन अलगाव तथा संत्रास स्थिति इस दुनिया को विसंगतियों का रंगमंच बना देती है।
5 मानव नियति – अस्तित्ववाद का प्रश्न है कि मानव की विषम परिस्थितियों के लिए कौन ज़िम्मेदार है – ईश्वर, धर्म, राज्य, व्यवस्था, समाज, सभ्यता, संस्कृति नैतिकता, राजनिति विज्ञान या स्वयं मनुष्य? अस्तित्ववाद के अनुसार मानव अपनी परिस्थितियों के लिए स्वयं उत्तरदायी है।
6 मानव वरण तथा स्वतंत्रता – अस्तित्ववाद में मनुष्य अपने कर्म तथा निर्णय के लिए स्वयं ही उत्तरदायी है। कर्म तथा निणर्य के लिए उसे वरण करना पड़ता है। वरण के लिए स्वतंत्रता आवश्यक है। स्वतंत्रता के बोझ से भयभीत होकर वह धर्म, राज्य या नैतिकता की शरण लेता है।
7 चिंता एवं संत्रास – वरण की स्वतंत्रता की स्थिति चिंता (एंग्सट) तथा संत्रास (ड्रेड) उत्पन्न करती है। (मूल जर्मन शब्द ‘ऐंग्स्ट’ में मानसिक परिताप (चिंता) और भय (संत्रास) दोनों शामिल हैं।
8 प्रामाणिक व्यक्ति तथा जीवन – सच्चा व्यक्ति वही है जो वरण करने में संकोच नहीं करता, जो स्वेच्छा से निर्णय लेता है, जो इस निर्णय के लिए संताप के लिए तत्पर है, जो अपने प्रत्येक कर्म के लिए उत्तरदायी है और इसकी सज़ा भुगतने के लिए तैयार है। ऐसा व्यक्ति ही प्रमाणिक व्यक्ति है, अन्य लोग झूठी आस्था वाले होते हैं।
9 मूल्य का प्रश्न – प्रत्येक व्यक्ति स्थितियों के अलग-अलग होने के बावजूद अलग-अलग वरण करता है। मानव की मानवता वरण की अच्छाई में नहीं बल्कि सच्चाई में है। मूल्य का प्रश्न वरण के बाद पैदा होता है। क्योंकि सार अस्तित्व के बाद है। अस्तित्व सार से पूर्ववर्ती है।
अतः अस्तित्ववाद के अनुसार ऐसे मनुष्य का ही अस्तित्व है जो वरण करता है, स्वतंत्रता का प्रयोग करता है। अपने संकल्प तथा कर्म के लिए उत्तरदायित्व स्वीकार करता है और हर मूल्य को चुकाने के लिए तैयार है। अस्तित्व के बगैर कोई सार नहीं। अस्तित्व सार से पूर्ववर्ती होता है। अतः पूर्व-निश्चित मूल्य या आदर्श या कोई बाह्य शक्ति (ईशअवर समेत) मनुष्य के अस्तित्व का निर्माण नहीं करता।
अस्तित्ववाद और साहित्य आलोचना (Existentialism and Literary Criticism)
अस्तित्ववाद विशुद्ध साहित्यिक प्रवृत्ति या आलोचना सिद्धांत नहीं है फिर भी साहित्य सृजन तथआ समालोचना पद्धतियों को अत्यधिक प्रभावित किया है। ज्याँ पाल सार्त्र, सिमोन द बिउआ और अल्बेयर कामू ने अस्तित्वाद से प्रभावित होकर कई श्रेष्ठ कृतियाँ रची हैं। फियोडॉर दोस्तोएवस्की (कृति – नोट्स फ्रॉम द अंडर ग्राउंड) फ्रांज काफ्का (कृति – मेटामोर्फोसिस) के नाम विषेश रूप से उल्लेखनीय हैं। अस्तित्ववादी लेखक दार्शनिकों के चिंतन से प्रभावित हुए हैं जैसे – सोरे कीर्केगार्ड, फ्रेडरिक नीत्शे, गेब्युल उनामानो, खोखे ऑस्त्रेगा, मार्टिन हाइडेगर, कार्ल जैस्परस, रूउल्फ़ बुल्टमेन, ग्रेबियल मार्सल तथा पाल तिलिश।
1) ज्याँ पाल सार्त्र – सार्त्र का नाम अस्तित्ववाद से इतना गहरे तौर पर जुड़ गया है कि वह केवल अस्तित्ववादी लेखक ही नहीं, बल्कि अस्तित्ववादी चिंतक भी स्वीकार किए जाने लगे। सार्त्र के विचार में मनुष्य अपनी स्वतंत्रता से आतंकित रहता है। मानव समस्याओं में स्वतंत्र वरण भाग लेकर ही हम अपने अस्तित्व को प्रामाणिक बना सकते हैं। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में सक्रिय भाग लेकर ही हम मनुष्य होने का अर्थ तथा आत्म-बोध प्राप्त कर सकते हैं तथा छद्म जीवन एवं छद्म आस्था से बच सकते हैं। सार्त्र के शब्दों में अस्तित्ववाद की मूल अवधारणा है – कोई नियति नहीं। मनुष्य स्वतंत्र है। मनुष्य स्वतंत्रता है। सार्त्र मानते हैं कि –
– मनुष्य विपरित परिस्थितियों से उबर सकता है और सजग जीवन व्यतीत कर सकता है।
– सार्त्र के अनुसार इस प्रकार मनुष्य अपने अस्तित्व का प्रमाण देता है।
– अपने वरण की शक्ति का प्रयोग करके वह स्वयं तथा संसार को अर्थ देता है।
– मनुष्य का सार वह है जो वह इस वरण के स्वतंत्र इस्तेमाल से प्राप्त करता है।
– मनुष्य अपनी निष्क्रिय तथा अनिश्चित परिस्थिति से स्वैच्छिक क्रिया द्वारा निकल सकता है। सक्रियशीलता (एंगेज) द्वारा वह जो कर्म करता है वह सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन का अंग है। सार्त्र ने इस सक्रियशीलता को प्रतिबद्धता कहा है।
2) अल्बेयर कामू – कुछेक आलोचकों की दृष्टि में अस्तित्ववाद की प्रामाणिक प्रस्तुति अल्बेयर कामू की कृतियों में अधिक प्रभावी तौर पर हुई है जैसा कि उसकी कृतियों ‘द मिथ ऑफ सिसीफ़्स’ और ‘दि आउटसाइडर’ से प्रकट है। कामू के विचार में जीवन निरर्थक एवं निस्सार है, इस संसार में एक ही समस्या है – आत्महत्या, प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन एक अर्थहीन बोझ है जिसे वह उठाने के लिए अभिशप्त है।
कामी के अनुसार निरर्थक जीवन जीना मनुष्य की आदत बन चुकी है। कामू आत्महत्या को बेकार समझते हैं क्योंकि इससे जीवन की निरर्थकता की समस्या हल नहीं होती है। निरर्थकता तथा आत्महत्या से बचने के लिए कामू ने कहा है इसका एक ही रास्ता है – विद्रोह। प्रतिरोध की क्रिया कितनी ही अकेली क्यों न हो वास्तव में यह एक सामूहिक क्रिया है। मैं विद्रोह करता हूँ, इसलिए मेरा अस्तित्व है। कामू का कहना है कि जब हम अपनी समस्याओं का वरण स्वयं नहीं करते तो एक के बाद एक समस्याएँ हमारा वरण करने लगती हैं।
3. विसंगति का रंगमंच
अस्तित्ववाद का प्रभाव रंगमंच पर भी गहरा पड़ा है। नया प्रयोगवादी रूप लोकप्रिय हो गया। विसंगति का रंगमंच (द थियेटर ऑफ ऐब्सर्ड) इस रंगमंच को ऊलजुलूल का रंगमंच और एण्डी-थियेटर भी कहा जाता है।
ऐब्सर्ड का अर्थ है ऊल जुलूल, अर्थहीन और निरुद्देश्य। यूजीन आयोनेस्को के अनुसार ऐब्सर्ड वह है जिसका कोई उद्देश्य या प्रयोजन नहीं। मनुष्य अपनी धार्मिक, आध्यात्मिक और अनुभवातीत जड़ों से कट गया है। वह परास्त हो चुका है। उसके समस्त क्रियाकलाप अर्थ-शून्य और विसंगतिपूर्ण हैं। इस हास्यास्पद स्थिति को त्रासदी-कामदी द्वारा ही प्रस्तुत किया जा सकता है।
4) नव- अस्तित्वाद
नव-अस्तित्ववाद पर आधारित साहित्य आलोचना साहित्यिक कृतियों का मूल्यांकन इस दृष्टि से करती है कि वह जीवन की कला को किस हद तक मनुष्य के लिए उपयोगी बनाती है और जीवन की अर्थवत्ता को किस हद तक स्थापित करती है। इसके साथ ही मनुष्य की सार्थक तौर पर जिंदा रहने की कामना को तीव्र करती है।
समाहार (Collection)
अस्तित्ववाद मूल रूप से दर्शन की एक विचार-पद्धति है। लेकिन इसने द्वितीय युद्धोपरांत साहित्य सृजन तथा आलोचना सिद्धांतो को भी प्रभावित किया है।
अस्तित्वाद अस्तित्व से वरण के सिद्धांत तक पहुँचता है और फिर वरण से स्वतंत्रता के विचार तक। वरण की स्वतंत्रता के प्रयोग से सार का निमार्ण होता है।
मनुष्य वरण तथा स्वतंत्रता की प्रक्रिया में चिंता और भय का अनुभव करता है। अलगाव और एकाकीपन मानव की नियति है क्योंकि वह इस संसार में बिना किसी सहारे के फेंक दिया गया है।
सार्त्र लके अनुसार वह इस विषमावस्था से सामाजिक सक्रियता तथआ प्रतिबद्धता से नजा पा सकता है। कामू इस सक्रियता को विद्रोह के रूप में देखते हैं क्योंकि मनुष्य की यह प्रक्रिया सामाजिक सक्रियता से प्रतिफलित होती है इसलिए वह अलगाव, एकाकीपन तथा अजनबीपन का सशक्व साक्षात्कार कर सकता है।
मनुष्य अपनी स्वतंत्रता को छोडने के लिए स्वतंत्र नहीं। यानी वह स्वतंत्र रहने तथा स्वतंत्र कर्म करने के लिए अभिशप्त है। मैन इज़ कंडेमम्ड डू बी फ्री। इसी कारण कुछ आलोचक कहते हैं कि अस्तित्ववाद भी नियति या पूर्व-निश्चित तत्व से पूर्णतया मुक्त नहीं हो सका क्योंकि इस विचार में यह तथ्य निहित है कि स्वतंत्रता मानव का मूल तत्व है जो अस्तित्व से पूर्व मौजूद है।
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