बच्चन सिंह का परिचय
बच्चन सिंह का जन्म 2 जुलाई 1919 में उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के भदवार गाँव में हुआ था। बच्चन सिंह जी की दो किताबें हैं, “आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास” और हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास।
बच्चन सिंह जी द्वारा लिखी आलोचनात्मक पुस्तकें व कहानी संग्रह इस प्रकार है-
1 1947 में क्रान्तिकारी कवि निराला
2 1951 में भारतेंदु की कविता
3 1954 में हिन्दी नाटक
4 1956 में रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना
5 1957 में बिहारी का नया मूल्यांकन
6 1968 में समकालीन साहित्य : आलोचना की चुनौती
7 1970 में आलोचक और आलोचना
8 1978 आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास
9 1983 हिन्दी आलोचना के बीज शब्द
10 1984 में साहित्य का समाजशास्त्र
11 1987 में भारतीय और पाश्चात्य काव्यशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन
12 1989 में आचार्य शुक्ल का इतिहास पढ़ते हुए
13 1993 में कथाकार जैनैंद्र
14 1996 हिन्दी साहित्यिका दूसरा इतिहास
15 2001 में कविता का शुक्ल पक्ष
16 2005 में निराला का काव्य
17 2008 में उपन्यास का काव्यशास्त्र
18 2008 में महाभारत की संरचना
19 2008 में निराला काव्य कोश
20 2008 साहित्यिक निबंध : आधुनिक दृष्टिकोण
21 1960 में लहरें और कगार (कहानी संग्रह)
22 1998 में सूतो वा सूत पुत्रोवा (कहानी संग्रह)
23 2001 पांचाली (कहानी)
24 कई चेहरों के बाद (कहानी संग्रह)
5 महाभारत की कथा 2007, यह पुस्तक साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित है, इसे बुदधदेव बसु बाँग्ला में लिखा था, जिसका बच्चन सिंह जी ने हिन्दी में अनुवाद किया।
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निवेदन के मुख्य तथ्य (Key Facts of the Request)
इतिहास अतीतोन्मुख नहीं भविष्योन्मुख होता है, वह जड़ नहीं गत्यात्मक होता है। अतीतोन्मुखी इतिहासकार अथवा साहित्यकार पुनरुत्थानवादी होकर जड़ हो जाता है। अतीतोन्मुखता हमें कहीं ले नहीं जाती बल्कि एक तरह की भावनामयता में बाँध कर सही कर्तव्य से विमुख बना देती है। अतीतोन्मुखता हमें पुनुरुत्थानवादी बनाती है तो भविष्योन्मुखता सर्जनात्मक। इस अर्थ में इतिहास लिखने का अर्थ भविष्योन्मुखी होना होता है। अर्थात इतिहास लिखते समय लेखक को भविष्य की ओर अग्रसर होना चाहिए।
इतिहास के लेखक की तरह साहित्य के इतिहास का लेखक तथ्यों के अर्थापन में उतना स्वतंत्र नहीं है। इतिहास लेखक की तरह उसके पास तरह-तरह के आँकड़े नहीं होते आधे-अधूरे सही और गलत आँकड़े। लेखक के सामने ग्रंथ होते हैं, पाचीन काल के ग्रंथों के बारे में तो प्रामाणिक और अप्रामाणिक कहा जा सकता है, लेकिन आधुनिक काल के ग्रेंथों के बारे में यह भी नहीं कहा जा सकता है। अत: साहित्य के इतिहासकार को दुहरे दौर से गुजरना पड़ता है अर्थात उसे ऐसा इतिहास लिखना पड़ता है जो साहित्यिक भी हो और ऐतिहासिक सामाजिक भी हो।
इतिहास के चौखटे में साहित्य को फिट कर देना साहित्य का इतिहास नहीं है। इतिहास के पुष्ट्यर्थ इतिहासकार साहित्य को इतिहास के चौखटे में फिट करने लगे हैं। बहुत से वादग्रस्त साहित्येति एस लेखक साहित्य को एक खास तरह के ऐतिहासिक सूत्रों में संग्रथिक कर देते हैं। पर वह साहित्य का इतिहास न होकर समाजशास्त्रीय इतिहास हो जाता है। इस तरह साहित्य के अपने व्यक्तित्व का पक्ष-जो व्यक्तित्व बनकर समाज के निर्माण में योग देता है- उपेक्षित रह जाता है।
साहित्य के ग्रंथ वे ही रहते हैं लेकिन काल बदलता जाता है। जिसमें काल के बदलाव में भी कुछ शेष बचा रहता है या हर काल के नए अर्थापन के लिए कुछ छूटा रहता है वह साहित्य श्रोण होता है। केवल अखबारी साहित्य पर साहित्य का इतिहास निर्मित नहीं होता। वह इतिहास-लेखन का उपकरण बन सकता है पर साहित्य का इतिहास लेखक उस पर केवल चलता ध्यान देगा।
वह तो उन ग्रंथों को (आंकड़ों को) देखता है जो इतिहास को गति देने में, मोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। आधुनिक युग इतनी तेजी से बदलता रहा है और बदल रहा है कि साहित्य के बदलाव से भी उसे समझा जा सकता है। इस बदलाव-को क्षिप्रतर बदलाव को-साहित्य और इतिहास दोनों के सन्दर्भों में एक साथ पकड़ना ही इतिहास है।
यह पकड़ जब तक विश्वसनीय नहीं हो सकती जब तक समसामयिक अखबारी साहित्य को श्रेष्ठ भविष्योन्मुखी साहित्य से अलगाया न जाय। प्रत्येक युग का आधुनिक काल ऐसे साहित्य से भरा रहता है जो सहित्येतिहास के दायरे में नहीं आता। किन्तु यह जरूरी नहीं है कि हम अपने इतिहास के लिए ग्रंथों का जो अनुक्रम प्रस्तुत करेंगे वह कल भी ठीक होगा, अपरिवर्तनीय होगा।
इतिहास लिखने का क्रम तब तक जारी रहेगा जब तक मानवीय सृष्टि रहेगी। अर्थात यह दुनिया रहेगी। आरंभ में श्री कृष्णशंकर शुक्ल ने ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास’ लिखा था, जो कि अब पुराना हो गया है। यह इतिहास मूलत: साहित्यिक कृतियों पर आधारित है पर उनका अपेक्षित पर्यावरण सर्वत्र दृष्टि में रखा गया है। शुरू से ही भविष्योन्मुखता को लक्ष्य में रखने के कारण श्रेष्ठ साहित्यकार अपने आप रेखांकित हो उठे हैं।
भूमिका के महत्वपूर्ण तथ्य (Important Facts About the Role)
संयोग है कि हिन्दी साहित्य में आधुनिक जीवन-बोध के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चन्द्र का जन्म सन् 1850 ठी उन्नीसवीं शती के मध्य में हुआ है। अत: इतिहास लेखकों ने इस वर्ष को ही आधुनिक हिन्दी साहित्य की शुरुआत का वर्ष मान लिया। किंतु यह वर्ष स्वयं इतिहास की गतिमानता या बदलाव में किसी प्रकार की भूमिका अदा नहीं करता है।
इतिहास के काल-विभाजन की रेखा कम से कम दो विभिन्न प्रवृत्तियों को स्पष्टत: अलगाने वाली तथा इस अलगाव के लिए खुद भी बहुत कुछ उत्तरदायी होनी चाहिए। यदि सन् 1857 को आधुनिक काल का प्रारंभिक बिन्दु मान लिया जाए तो उपयुक्त दोनों शर्तें पूरी हो जाती हैं।
सन् 1857 का प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम (जो पहेल गदर के नाम से प्रसिद्ध था) ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें हिला देने वाला साबित हुआ। इसके पहले देश के अन्य भागों में छिटपुट विद्रोह हो चुके थे। जैसे बंगाल का संन्यासी विद्रोह जो 1763 से 1800 के बीच हुआ था। उड़ीसा के जमींदारों का विद्रोह जो 1804 से 1817 के बीच हुआ था। विजय नगरम् के राजा का विद्रोह जो लगभग 1764 में हुआ।
इसकी शुरुआत अवध के सिपाहियों ने आकस्मिक ढंग से की, किन्तु इसकी स्थितियाँ वर्षों पहेल से बन रही थीं। बाद में इसमें जमींदार, किसान, कारीगर और सामंत भी जुट गए। छोटी सी शुरूआत जनता की व्यापक लड़ाई में बदल गई। इसे दबाने में अंग्रेजों को मुश्किलें आई।
इसी के परिणाम स्वरूप कम्पनी राज्य का अंत हुआ और महारानी विक्टोरिया को घोषणा-पत्र जारी करना पड़ा। देश के मिजाज को बदलने तथा राष्ट्रीयता की ओर उन्मुख करने में इसका विशेष महत्व है। अत: इसी को आधुनिक काल का प्रारंभिक वर्ष मानना सर्वाधिक तर्कसंगत है।
नामकरण (Naming)
आधुनिक शब्द हो अर्थों की सूचना देता है- मध्यकाल से भिन्नता की और नवीन इहलौकिक दृष्टिकोण की। मध्यकाल अपने अवरोध, जड़ता और रूढ़िवादिता के कारण स्थिर औऱ एकरस हो चुका था। एक विशिष्ट ऐतिहासिक प्रक्रिया ने उसे तोड़कर गत्यात्मक बनाया। मध्यकालीन जड़ता और आधुनिक गत्यात्मकता को साहित्य और कला के माध्यम से समझा जा सकता है।
रीति-काल की कला औऱ साहित्य अपने-अपने कथ्य, अलंकृति और शैली में एक रूप हो गए थे। वे घोर शृंगारिकता के बँधे घाटों में बहर रहे थे। इन छंदों में न वैविध्य था और न विन्यास (डक्शन) में। एक ही प्रकार के छंद एक ही प्रकार के ढंग। आधुनिक काल में बँधे हुए घाट टूट गए और जीवन की धारा विविध स्रोतो में फूट निकली। साहित्य मनुष्य के बृहत्तर सुख-दु:ख के साथ पहली बार जुड़ा।
आधुनिक शब्द से जो दूसरा अर्थ ध्वनित होता है वह है इहलौकिक दृष्टिकोण। धर्म, दर्शन, साहित्य, चित्र आदि सभी के प्रति नए दृष्टिकोण का आविर्भाव हुआ। मध्यकाल में पारलौकिक दृष्टि से मनुष्य इंतना अधिक आच्छन्न था कि उसे अपने परिवेश की सुध ही नहीं थी। पर आधुनिक युग में मनुष्य अपने पर्यावरण के प्रति अधिक सतर्क हो गया।
आधुनिक युग की पीठिका के रूप में इस देश में जिन दार्शनिक चिंतकों और धार्मिक व्याख्याताओं का आविर्भाव हुआ उनकी मूल चिंता धारा इहलौकिक ही है। सुधार-परिष्कर, अतीत का पुनराख्यान नवीन दृष्टिकोण का फल है। आधुनिक युग की ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है कि साहित्य की भाषा ही बदल गई-ब्रजभाषा की जगह खड़ी बोली ने ले ली।
उपविभाग (Sub Department)
रामचन्द्र शुक्ल ने आधुनिक काल का जो उप-विभाजन किया है वह एकसूत्रता के अभाव में विसंगतिपूर्ण हो गया है। उन्होंने आधुनिक काल को दो खण्डों में बाँटा है- गद्य खंड और काव्य खंड। ये दोनों खंड एक दूसरे से इतने पृथक हैं कि उनमें एकतानता नहीं आ पाती, दोनों खंडों को दो-दो प्रकरणों में बाँटा गया है।
गद्य के पहले प्रकरण में व्रजभाषा गद्य और खड़ी बोली गद्य का विकास विवेचित हैं। दूसरे प्रकरण में गद्य साहित्य का आविर्भाव विश्लेषित है। इसे फिर तीन उत्थानों में विभाजित किया गया-प्रथम, द्वितीय और तृतीय। काव्य खंड में भी दो प्रकरण हैं- पुरानी काव्य धारा और नई काव्य धारा। नई धारा के भी तीन उत्थान हैं- प्रथम, द्वितीय और तृतीय।
शुक्ल जी के गद्य खंड और काव्य खंड एक दूसरे से सर्वथा अलग हैं, एक की प्रवृत्ति का दूसरे की प्रवृत्ति से कोई तालमेल नहीं है। ऐसा लगता है मानो गद्य खंड में एक प्रवृत्ति क्रियाशील है तो काव्य खंड में दूसरी प्रवृत्ति। उदाहरणार्थ, काव्य खंड दूसरे प्रकरण के तृतीय उत्थान (काव्य में जो छायावाद के नाम से अभिहित किया जाता है) तथा गद्य खंड के द्वितीय प्रकरण के तृतीय उत्थान में कोई एकरूपता नहीं निरूपित की जा सकी है।
परवर्ती इतिहासकारों ने प्राय: शुक्लजी का अनुगमन किया। आधुनिक काल के इतिहास लेखन में सामान्य रूप से उनकी उत्थानवादी शैली ही स्वीकृति कर ली गई। कुछ लोगों ने आधुनिक काल के विकास के विकास के प्रथम दो चरणों को भारतेंदु युग और द्विवेदी युग कहना अधिक संगत समझा।
किन्तु इन नामों की ग्राह्यता को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। भारतेंदु युग और द्विवेदी युग की परिकल्पना कर लेने पर युगों की बाढ़ आ गई। भारतीय हिन्दी परिषद् प्रयाग से प्रकाशित हिन्दी साहित्य (तृतीय खंड) में उपन्यासों के सन्दर्भ में प्रेमचन्द युग और नाटकों के संदर्भ में प्रसाद युग की कल्पना की गई।
रोमैंटिक शब्द का समानार्थी शब्द ही इस युग को समग्रता में उजागर कर सकता है। हिन्दी में ‘स्वच्छन्दतावाद’ शब्द का प्रयोग ‘रोमैंटिसिज्म’ के अर्थ में किया जाने लगा है। अत: जिसे छायावाद युग कहा जाता है उसे स्वच्छन्दतावाद युग के नाम से अभिहित किया जाना चाहिए। यह शब्द अपनी अर्थवत्ता में गांधी-नेहरू युग के आदर्शों और अन्तर्विरोधों की समानान्तरता पा लेता है
रोमैंटिक या स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन में जिस वैयक्तिकता को अत्यधिक महत्व दिया जाता है वह गांधीवादी आन्दोलन में आद्यन्त मौजूद है। ‘अन्तरात्मा की आवाज’ इस युग के संपूर्ण साहित्य में विद्यमान है। स्वच्छन्दतावादी साहित्य मुक्ति का साहित्य है, ठीक उसी तरह जैसे गांधी-नेहरू का आन्दोलन समग्र अर्थ में मुक्ति का आन्दोलन था।
‘स्वछन्दतावाद’ युग नाम स्वीकार कर लेने पर न तो इसे ईसायत के फैंटसमाटा से जोड़ने की जरूरत पड़ेगी और न स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह कह कर सरलीकरण की आवश्यकता।
‘छायावाद’ को लेकर जितनी परिभाषाएँ दी गई हैं उनकी दृष्टि में केवल काव्य रहा है। प्रसाद, जैनेन्द्र और इलाचन्द्र जोशी आदि के उपन्यासों को, जो उसी काल में लिखे गए, क्या छायावादी कहा जाएगा? इस काल के काव्य, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, आलोचना आदि को स्वच्छन्दतावादी तो कहा जा सकता है, छायावादी नहीं।
स्वच्छन्दतावादी युग के ठीक पहले का काल पूर्व स्वच्छन्दतावादी युग के नाम से अभिहित किया जाना चाहिए। द्विवेदी युग व्यक्ति-वाचक नाम होने से यों ही अग्राहय है, दूसरे इससे किसी तरह की प्रवृत्ति का बोध नहीं होता। तीसरे इस नाम के कारण ऐतिहासिक प्रवाह खंडित हो जाता है।
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इस युग में निबन्ध और कविताएँ अधिक लिखी गई। निबन्ध लेखकों में मुख्यत: महावीर प्रसाद द्विवेदी, माधव प्रसाद मिश्र, गोविन्द नारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पूर्णसिंह की गणना की जाती है। श्रीधर पाठक, रामचरित उपाध्याय, सनेही, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, रूपनारायणं पांडेय, मुकुटधर पांडेय आदि इस युग के प्रमुख कवि हैं।
निवन्ध-लेखकों में पहले तीन द्विवेदी-कलम के लेखक हैं। शेष तीन पूर्व-स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्ति के निबन्धकार हैं क्योंकि उनमें स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति पायी जाती है। निवन्ध-लेखकों के रूप में इन्हीं तीनों का महत्व है। द्विवेदी-कलम के कवियों में केवल मैथिलीशरण गुप्त को ही ऐतिहासिक महत्व प्राप्त है, वह भी ‘साकेत’ के कारण। ‘साकेत’ पर स्वच्छन्दतावाद का कम प्रभाव नहीं है।
श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, मुकुटधर पांडेय को शुक्लजी ने स्वयं प्रकृत स्वच्छन्दतावादी कहा है। वस्तुत: अगले संदर्भ में इन्हीं कवियों का विकास प्रसाद, निराला, पंत में हुआ। अत: इस युग को पूर्व-स्वच्छन्दता युग का नाम देना अधिक संगत है। भारतेंदु युग को पुनर्जागरण युग कहने में कोई आपत्ति नहीं उठाई जानी चाहिए।
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