आसाढ़ का एक दिन का परिचय (Aasaadh Ka Ek Din Ka Parichay)
आसाढ़ का एक दिन 1958 ईसवी में प्रकाशित हुआ था। 1959 में इस नाटक को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस नाटक का अनेको बार मंचन किया जा चुका है।
1971 में निर्देशक मणि कौल ने इस पर आधारित एक फिल्म बनाई, जिसे साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। आषाढ़ का एक दिन नाटक महाकवि कालिदास के निजी जीवन पर आधारित है। सत्ता और सर्जनात्मकता के बीच मनुष्य के अन्तर्द्वन्द और प्रेम की स्थिति का चित्रण इस नाटक में किया गया है।
नाटक की शुरूआत व अंत दोनों ही आसाढ़ के दिन होता है, परिणाम स्वरूप इस नाटक का नाम आसाढ़ का एक दिन रखा गया है। इस नाटक मे तीन अंक हैं।
यह नाटक मोहन राकेश द्वारा लिखा गया है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में हम पढ़ते हैं कि – आदिकाल में काव्य रचनाओं में युद्धो का वर्णन किया जाता था। अर्थात राजा अपने राज्य में निजी रूप से राज्य कवि रखता था। यह नाटक भी इसी पृष्ठ भूमि पर आधारित है। नाटक का नायक कवि है, जिसे राज कवि बनने का प्रस्ताव आता है। कालीदास अपनी प्रेमिका के कहने पर यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेता है, लेकिन राज कवि बनने के बाद वह राजकाज में ऐसे व्यस्त हो जाता है कि मलिका को ही भूल जाता है।
नाटक के प्रमुख पात्र (Main Characters of the Drama)
1 अम्बिका – गाँव की एक विधवा महिला और मल्लिका की माँ।
2 मल्लिका – अम्बिका की बेटी और कालीदास के प्रेमिका।
3 कालिदास – कवि व नाटक का नायक
4 दन्तुल – एक राजपुरूष है, जो कालिदास को उज्जयिनी ले जाने के लिए आया था।
5 निक्षेप – गाँव का एक पुरूष है, जो मल्लिका से कालीदास को उज्जयिनी भेजने के लिए कहता है।
6 विलोम – गाँव का एक पुरूष है, जो हमेशा अम्बिका को कालीदास के खिलाफ भड़काता है, लेकिन प्रत्येक बात तर्कसंगत करता है।
7 मातुल – कवि कालीदास का मामा है।
8 रंगिणी – प्रियंगुमंजरी की सेविका
9 संगिनी – प्रियंगुमंजरी की सेविका
10 अनुस्वार – राजकीय अधिकारी
11 अनुनासिक – राजकीय अधिकारी
12 प्रियंगुमंजरी – राजकन्या है, और कालीदास की पत्नी भी है।
नाटक का संक्षिप्त सारांश (Short Summary of the Play)
नाटक की शुरूआत कालीदास और मल्लिका से होती है, मल्लिका कालीदास से प्रेम करती है, परिणाम स्वरूप वह अपनी माँ के कहने पर भी किसी से शादी करने के लिए राज़ी नहीं होती है। अम्बिका कालीदास के पसंद नहीं करती है, क्योंकि वह कालीदास को योग्य नहीं समझती है। एक दिन उज्जयिनी से राजपुरूष आता है, जो कालीदास को राज कवि बनने के लिए बुलाने आया है।
यह जानकर मल्लिका बहुत खुश होती है, वह कालीदास को वहाँ जाने के लिए मना लेती है। अम्बिका चाहती है कि कालीदास मल्लिका को भी अपने साथ लेकर जाए, लेकिन मल्लिका कालीदास के रास्ते की बाँधा नहीं बनना चाहती इसलिए वह अपनी यह इच्छा कालीदास के सामने प्रकट नहीं करती। कालीदास अकेले ही उज्जयीनी चला जाता है।
नाटक के दूसरे अंक में प्रियंगुमंजरी मल्लिका के घर आती है, उसके साथ उसकी दो सेविकाएँ भी आती हैं, जिनका नाम रंगिणी और संगिनी है। प्रियंगुमंजरी एक राजकन्या है, जो अब कालीदास (मातृगुप्त) की पत्नी है। वह मल्लिका से कहती है, मेरे साथ दो राजअधिकारी हैं, इनमें से जिसे पसंद करोगी उससे तुम्हारा विवाह करा दूँगी। मल्लिका यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं करती है। कालीदास भी इसी दौरान गाँव में आया है, लेकिन वह मल्लिका से मिले बिना ही चला जाता है, मल्लिका को इसका बहुत दुख होता है। अम्बिका इस अंक में बहुत बीमार है, घर की हालत भी बहुत खराब हो गई है। जिसकी मरम्मत करवाने का प्रस्ताव मल्लिका ठुकरा देती है।
नाटक के तीसरे अंक में कालीदास मल्लिका से मिलने आता है। अब अंत में वह शुरू से शूरूआत करना चाहता है, लेकिन मल्लिका अब कुँवरी कन्या नहीं रही है, उसकी एक बेटी है। अम्बिका की मृत्यु हो जाती है, विलोम आकर कालीदास के सामने बच्ची की चर्चा करता है। “कितनी आकृतियाँ आईं और चली गई” मल्लिका की इस बात से स्पष्ट होता है कि वह अब वैश्या बन चुकी है। विलोम भी यह स्पष्ट नहीं कर पाता की मल्लिका की बेटी उसकी है या नहीं। कालीदास निराश होकर वापस लौट जाता है, मल्लिका कालीदास के पीछे जाना चाहती है, लेकिन जा नहीं पाती है।
असाढ़ का एक दिन : परीक्षा उपयोगी संवाद – अंक एक
1) मल्लिका – आषाढ़ का पहला दिन और ऐसी वर्षा माँ! ऐसी धारासार वर्षा! दूर-दूर की उपत्यकाएँ भीग गयीं।… और मैं भी तो! देखो न माँ, कैसी भीग गयी हूँ।
माँ, आज के वे क्षण मैं कभी नहीं भूल सकती। सौन्दर्य का ऐसा साक्षात्कार मैंने कभी नहीं किया। जैसे वह सौन्दर्य अस्पृश्य होते हुए भी माँसल हो। मैं उसे छू सकती थी, देख सकती थी, पी सकती थी। तभी मुझे अनुभव हुआ कि वह क्या है जो भावना को कविता का रूप देता है। मैं जीवन में पहली बार समझ पायी कि क्यों कोई पर्वत-शिखरों को सहलाती मेघ-मालाओं में खो जाता है, क्यों किसी को अपने तन-मन की अपेक्षा आकाश में बनते-मिटते चित्रों का इतना मोह हो रहता है। क्या बात है माँ? इस तरह चुप क्यों हो?
मल्लिका – ये कौन लोग हैं माँ?
अम्बिका – सम्भवत: राज्य के कर्मचारी हैं।
मल्लिका – ये यहाँ क्या कर रहे हैं?
अम्बिका – जाने क्या कर रहे हैं!… कभी वर्षों में ये आकृतियाँ यहाँ दिखाई देती हैं। और जब भी दिखाई देती हैं, कोई न कोई अनिष्ट होता है।
पिछली महामारी में जब तुम्हारे पिता की मृत्यु हुई थी तब मैंने यह आकृतियाँ देखी थी…
अम्बिका – मैं देख रही हूँ तुम्हारी बात सच होने जा रही है। अग्निमित्र सन्देश लाया है कि वे लोग इस सम्बन्ध के लिए प्रस्तुत नहीं हैं। कहते हैं…
मल्लिका – क्या कहते हैं? क्या अधिकार है उन्हें कुछ भी कहने का? मल्लिका का जीवन उसकी अपनी सम्पत्ति है। वह उसे नष्ट करना चाहती है तो किसी को उस पर आलोचना करने का क्या अधिकार है?
अम्बिका – मैं कब कहती हूँ मुझे अधिका है?
मल्लिका – मैं तुम्हारे अधिकार की बात नहीं कर रही।
अम्बिका – तुम न कहो, मैं कह रही हूँ। आज तुम्हारा जीवन तुम्हरी सम्पत्ति है। मेरा तुम पर कोई अधिकार नहीं है।
मल्लिका – मैंने भावना में एक भावना का वरण किया है। मेरे लिए वह सम्बन्ध और सब सम्बन्धों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूँ जो पवित्र है, कोमल है, अनश्वर है…।
अम्बिका – और मुझे ऐसी भावना से वितृष्णा होती है। पवित्र कोमल और अनश्वर! हँ!
मल्लिका – माँ, तुम मुझ पर विश्वास क्यों नहीं करतीं?
अम्बिका – तुम जिसे भावना कहती हो वह केवल छलना और आत्म-प्रवंचना है।… भावना में भावना का वरण किया है। मैं पूछती हूँ भावना में भावना का वरण क्या होता है।
मल्लिका – ठहरो माँ, तुम चल क्यों दी?
अम्बिका – माँ का जीवन भावना नहीं, कर्म है।…(कालिदास एक घायल हिरण शावक को लेकर आता है)
मल्लिका – यह आहत हरिणशावक?…यहाँ ऐसा कौन व्यकति है जिसने इसे आहत किया? क्या दक्षिण की तरह यहाँ भी…?
कालिदास – आज ग्राम – प्रदेश में कई नयी आकृतियाँ देख रहा हूँ।, (झरोखे के पास जाकर आसन पर बैट जाता है, राज्य के कुछ कर्मचारी आए हैं) हम पहले से सुखी हैं। हमारी पीड़ा धीरे-धीरे दूर हो रही है। हम स्वस्थ हो रहे हैं… न यह जाने इसके रूई जैसे कोमल शरीर पर उससे बाण छोड़ते बना कैसे? यह कुलांच भरता मेरी गोद में आ गया। मैंने कहा, तुझे वहाँ ले चलता हूँ जहाँ तुझे अपनी माँ की-सी आँखें और उसका-सा ही स्नेह मिलेगा।
मल्लिका – सच, माँ आज बहुत रूष्ट हैं। माँ को अनुमान हो गया होगा कि वर्षा में मैं तुम्हारे साथ थी, नहीं तो इस तरह भीगकर न आती। माँ को अपवाद की रहती है…।
(राजपूरूष दन्तुल ड्योढ़ी से आकर द्वार के पास रूक जाता है। क्षण-भर वह उन्हें देखता रहता है। कालिदास हरिण का मुँह दूध से मिला देता है।)
दन्तुल – तो राजपुरूष के अपराध का निर्णय ग्रामवासी करेंगे। ग्रामीण युवक, अपराध और न्याय का शब्दार्थ भी जानते हो!
कालिदास – शब्द और अर्थ राजपुरूषों की सम्पत्ति है, जानकर आश्चर्य हुआ।
कालिदास – यह हरिणशावक इस पार्वत्य – भूमि की सम्पत्ति है, राजपुरूष और इसी पार्वत्य- भूमि के निवासी हम इसके सजातीय हैं। तुम यह सोचकर भूल कर रहे हो कि हम इसे तुम्हारे हाथ में सौंप देंगे।…
अम्बिका – हाँ, देख रही हूँ। इसीलिए तो कह रही हूँ। तल्प और आस्तरण मनुष्यों के सोने के लिए हैं, पशुओं के लिए नहीं।
दन्तुल – कालिदास? तुम्हारा अर्थ है कि मैं जिनसे हरिणशावक के लिए तर्क कर रहा था, वे कवि कालिदास हैं?
मल्लिका – हाँ हाँ। परन्तु तुम कैसे जानते हो कि कालिदास कवि हैं?
दन्तुल – कैसे जानता हूँ। उज्जयिनी की राज्य-सभा का प्रत्येक व्यक्ति ‘ऋतु-संहार’ के लेखक कवि कालिदास को जानता है।
मल्लिका – उज्जयिनी की राज्य सभा का प्रत्येक व्यक्ति उन्हें जानता है?
मल्लिका – नहीं, उठो नहीं। इसी तरह बैठी रहो…राज्य उन्हें सम्मान दे रहा है, माँ। उन्हें राजकवि का आसन प्राप्त होगा…
उस व्यक्ति को, जिसे उसके निकट के लोगों ने आज तक समझने का प्रयत्न नहीं किया। जिसे घर में और घर से बाहर केवल लांछना और प्रताडना ही मिली है। अब तो तुम विश्वास करती हो मां, कि मेरी भावना निराधार नहीं है।
मल्लिका – उनमें तुम्हें क्या दोष दिखाई देता है?
अम्बिका – वह व्यक्ति आत्म-सीमित है। संसार में अपने सिवा उसे और किसी से मोह नहीं है।
अम्बिका – मैं भी चाहती हूँ तुम आज समझ लो। तुम कहती हो तुम्हारा उससे भावना को सम्बन्ध है। वह भावना क्या है?
मल्लिका – मैं उसे कोई नाम नहीं देती।
अम्बिका – परन्तु लोग उसे नाम देते हैं।… यदि वास्तव में उसका तुमसे भावना का सम्बन्ध है, तो वह क्यों तुमसे विवाह नहीं करना चाहता।
अम्बिका – और अब जब कि उसका जीवन साधन-हीन और अभाव-ग्रस्त नहीं रहेगा?
(मल्लिका कुछ क्षण चुप रहकर अपने पैरों को देकथी रहती है)
किसी सम्बन्ध से बचने के लिए अभाव जितना बड़ा कारण होता है, अभाव की पूर्ति उससे बड़ा कारण बन जाती है।
मल्लिका – यह तुम्हारी नहीं, विलोम की भाषा है।
अम्बिका – मैं ऐसे व्यक्ति को अच्छी तरह समझती हूँ। तुम्हारे साथ उसका इतना ही सम्बन्ध है कि तुम एक उपादान हो जिसके आश्रय से वह अपने से प्रेम कर सकता है, अपने पर गर्व कर सकता है। परन्तु तुम क्या सजीव व्यक्ति नहीं हो? तुम्हारे प्रति उसका या तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है? कल तुम्हारी माँ का शरीर नहीं रहेगा, और घर में एक समय के भोजन की व्यवस्था भी नहीं होगी, तो जो प्रश्न तुम्हारे सामने उपस्थित होगा, उसका तुम क्या उत्तर दोगी। तुम्हारी भावना उस प्रश्न का समाधान कर देगी? फिर कह दो यह मेरी नहीं, विलोम की भाषा है।
मल्लिका – माँ, आज तक का जीवन किसी तरह बीता ही है। आगे का भी बीत जाएगा। आज जब उसका जीवन एक नयी दिशा ग्रहण कर रहा है, मैं उनके सामने अपने स्वार्थ की घोषणा नहीं करना चाहती।
(मातुल अंबिका से – “मैं राजकीय मुद्राओं से क्रीत होने के लिए नहीं हूँ”)
मल्लिका – वे राजकीय सम्मान को स्वीकार नहीं करना चाहते?
मातुल – मेरी समझ में नहीं आता कि इसमें क्रय-विक्रय की क्या बात है। सम्मान मिलता है, ग्रहण करो। नहीं, कविता का मूल्य ही क्या है?
मल्लिका – कविता का कुछ मूल्य है आर्य मातुल, तभी तो सम्मान का भी मूल्य है।…
अम्बिका – सम्मान प्राप्त होने पर सम्मान के प्रति प्रकट की गयी… उदासीनता व्यक्ति के महत्व को बढ़ा देती है।
मातुल – यह लोकनीति है, तो मैं क्यू कहूँगा कि लोकनीति और मूर्खनीति दोनों का एक ही अर्थ है। जो व्यक्ति कुछ देता है, दन हो या सम्मान हो, वह अपना मन बदल भी सकता है और बदल गया तो बदल गया।
मातुल – मैं राजकीय मुद्राओं से क्रीत होने के लिए नहं हूँ। ऐसे कहा जैसे राजकीय मुद्राएँ आपके विरह में घुली जा रही हों, और चल दिये।…
निक्षेप – कालिदास अपनी भावुकता में भूल रहे हैं कि इस अवसर का तिरस्कार करके वे बहुत कुछ खो बैठेंगे।
“योग्यता एक चौथाई व्यक्तिगत का निर्माण करती है। शेष पूर्तिप्रतिष्ठा द्वारा होती है। कालिदास को राजधानी अवश्य जाना चाहिए”।
निक्षेप मल्लिका से – “उस कटुता को केवल तुम्हीं दूर कर सकती हो, मल्लिका। अवसर किसी भी प्रतिक्षा नहीं करता। कालिदास यहाँ से नहीं जाते हैं, तो राज्य को कोई हानि नहीं होगी। राजकवि का आसन रिक्त नहीं रहेगा। परन्तु कालिदास जो आज हैं, जीवन-भर वही रहेंगे-एक स्थानीय कवि। जो लोग आज ऋतु-संहार की प्रशंसा कर रहे हैं, वे भी कुछ दिनों में उन्हें भूल जाएँगे”।
विलोम – “देख रहा हूँ इस समय तुम बहुत दुखी हो, और तुम दुखी कब नहीं रहीं, अम्बिका? तुम्हारा तो जीवन ही पीड़ा का इतिहास है। पहले से कहीं दुबली हो गयी हो? सुना है कालिदास उज्ज्यिनी जा रहा है”।
विलोम – यह वास्तव में प्रसन्नता का विषय है कालिदास, कि हम दोनों एक-दूसरे को इतनी अच्छी तरह समझते हैं। नि:सन्देह मेरे स्वभाव में ऐसा कुछ नहीं है, जो तुमसे छिपा हो। क्षण-भर कालिदास की आँखों में देखता रहता है।
विलोम क्या है? एक असफल कालिदास। और कालिदास? एक सफल विलोम। हम कहीं एक-दूसरे के बहुत निकट पड़ते हैं।
कालिदास – वर्षों का व्यवधान भी विपरीत को विपरीत से दूर नहीं करता। मैं तुम्हारा प्रश्न सुनने के लिए उत्सुक हूँ।
विलोम – उसे दृष्टि में रखते हुए क्या यह उचित नहीं कि कालिदास यह स्पष्ट बता दे कि उसे उज्जयिनी अकेले ही जाना है या…
कालिदास – मैं तुम्हारी प्रशंसा करने के लिए अवश्य बाध्य हूँ। तुम दूसरों के घर में ही नहीं, उनके जीवन में ही अनधिकार प्रवेश कर जाते हो।
कालिदास – तुम कुछ भी अनुमान लगाने के लिए स्वतन्त्र हो। मैं इतना ही जानता हूँ कि मुझे ग्राम-प्रान्तर छोड़कर उज्जयिनी जाने का तनिक मोह नहीं है।
मल्लिका – आर्य विलोम, आप अपनी सीमा से आगे जाकर बात कर रहे हैं। मैं बच्ची नहीं हूँ, अपना भला-बुरा सब समझती हूँ।… आप सम्भवत: यह अनुभव नहीं कर रहे कि आप यहाँ इस समय एक अनचाहे अतिथि के रूप में उपस्थित हैं”।
(कालिदास और मल्लिका संवाद)
उमड़ते आँसुओं को दबाने के लिए आँखें, झपकती और ऊपर की ओर देखने लगती है। मैं जानती हूँ कि तुम्हारे चले जाने से मेरे अन्तर को एक रिक्तता छा लेगी। बाहर भी सम्भवत: बहुत सूना प्रतीती होगा। फिर भी मैं अपने साथ छल नहीं कर रही। मुस्कराने का प्रयत्न करती है।
मैं हृदय से कहती हूँ जाना चाहिए।
कालिदास – चाहता हूँ तुम इस समय अपनी आँखें देख सकतीं।
मल्लिका – मेरी आँखें इसलिए गीली हैं कि तुम मेरी बात नहीं समझ
मल्लिका – यह क्यों नहीं सोचते कि नयी भूमि तुम्हें यहाँ से अधिक सम्पन्न और उर्वरा मिलेगी। इस भूमि से तुम जो कुछ ग्रहण कर सकते थे, कर चुके हो। तुम्हें आज नयी भूमि की आवश्यकता है, जो तुम्हारे व्यक्तित्व को अधिक पूर्ण बना दे।
कालिदास – नयी भूमि सुखा बी तो सकती है।
(….कालिदास चाल जाता है मल्लिका को छोड़कर)
मल्लिका – मुझे यहीं रहने दो माँ। मैं अस्वस्थ नहीं हूँ। देखो माँ, चारों ओर कितने गहरे मेघ घिरे हैं। कल ये मेघ उज्जयिनी की ओर उड़ जाएँगै…।
(पुन: हाथों में मुँह छिपाकर सिसक उठती है। अम्बिका पास जाकर उसे अपने से सटा लेती है)
अम्बिका – मैं रो नहीं रही हूँ, माँ। मेरी आँखों से जो बरस रहा है, यह दुख नहीं है। यह सुख है माँ, सुख…।
असाढ़ का एक दिन : परीक्षा उपयोगी संवाद – दूसरा अंक
कुछ वर्षों के अंतराल
निक्षेप – अब कैसा है अम्बिका का स्वास्थ्य?
मल्लिका – वैसे ही ज्वर आता है अभी।
निक्षेप – पहले से कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा?
मल्लिका – लगता तो नहीं।
निक्षेप – दो वर्ष से निरन्तर एक-सा ज्वर!
निक्षेप – बात तुम जानती हो। मैंने आशा नहीं की थी कि उज्जयिनी जाकर कालिदास इस तरह वहाँ के हो जाएँगे।
मल्लिका – और मुझे प्रसन्नता है कि वे वहाँ के रहकर इतने व्यस्त हैं। यहाँ उन्होंने केवल ‘ऋतु-संहार’ की रचना की थी, दो वर्ष पहले जो व्यवसायी आए थे, उन्होने कुमार सम्भव और मेघदूत की प्रतियाँ मुझे ला दी थीं। बता रहे थे, उनकेएक और बड़े काव्य की बहुत चर्चा है, परन्तु उसकी प्रति नहीं मिल पायी।
निक्षेप – मुझे कहते दुख होता है। उन्हीं व्यवसायियों के मुँह से और भी तो कई बातें सुनी थीं…
मल्लिका – व्यक्ति उन्नति करता है, तो उसके नाम के साथ कई तरह के अपवाद जुड़ने लगते हैं।
निक्षेप – मैं अपवाद की बात नहीं कर रहा। उठकर टहलने लगता है। सुना यह भी तो था न कि गुप्त वंश की राज-दुहिता से उनका विवाह हो गया।
मल्लिका – तो उसमें बुरा क्या है?
निक्षेप – एक तरह से देखें, तो बुरा नहीं भी है। परन्तु यहाँ रहते उनका जो आग्रह था कि जीवन-भर विवाह नहीं करेंगे? उस आग्रह का क्या हुआ? उन्होंने यह नहीं सोचा कि उनके इसी आग्रह की रक्षा के लिए तुमने…?
मल्लिका – उनके प्रसंग में मेरी बात कहीं नहीं आती। मैं अनेकानेक साधारण व्यक्तियों में से हूँ। वे असाधारण हैं। उन्हें जीवन में असाधारण का ही साथ चाहिए था।
निक्षेप – लगता है आज फिर कुछ लोग बाहर से आए हैं।
मल्लिका – कौन लोग?
निक्षेप – सम्भवत: राज्य के कर्मचारी हैं। दो वैसी ही आकृतियाँ मैंने देखी हैं, जैसी तब देखी थीं, जब आचार्य कालिदास को लेने आए थे (मल्लिका थोड़ा सिहर जाती है।)
मल्लिका – वैसी आकृतियाँ?
मल्लिका – कालिदास? यह कैसे सम्भव है?
निक्षेप – मैंने अपनी आँखों से देखा है। वे घोड़ा दौड़ाते पर्वत-शिखर की ओर गए हैं। इस राजसी वेश-भूषा में और कोई उन्हें न पहचान पाये, निक्षेप की आँखें पहचानने में भूल-नहीं कर सकतीं।…मैं अभी जाकर देखता हूँ। राज्य-कर्मचारी भी अवश्य उन्हीं के साथ आए होंगे।
(ड्योढी से रंगिनी और संगिनी अन्दर आती हैं। मल्लिका आश्चर्य से उनकी ओर देखती है रंगिणी संगिनी को आगे करती है)
संगिनी – यह मैं नहीं मान सकती। इस प्रदेश ने कालिदास जैसी असाधारण प्रतिभा को जन्म दिया है। यहाँ की तो प्रत्येक वस्तु असाधारण होनी चाहिए।
(मल्लिका सोचती है – आज वर्षों के बाद तुम लौटकर आए हो। सोचती थी तुम आओगे तो उसी तरह मेघ घिरे होंगे, वैसा ही अँधेरा-सा दिन होगा, वैसे ही एक बार वर्षा में भीगूँगी और तुमसे कहूँगी कि देखो मैंने तुम्हारी सब रचनाएँ पढ़ी हैं…कुछ पृष्ठ हाथ में ले लेती है। उज्जयिनी की ओर जाने वाले व्यवसायियों से कितना-कितना कहकर मैंने तुम्हारी रचनाएँ मँगवायी हैं। सोचती थी तुम्हें मेघदूत की पंक्तियाँ गा-गाकर सुनाऊँगी। पर्वत-शिखर से घण्टा-ध्वनियाँ गूँज उठेंगी और मैं अपनी यह भेंट तुम्हारे हाथों में रख दूँगी…
(मोढ़े पर रखा ग्रन्थ उठा लेती है।) कहूँगी कि देखो, ये तुम्हारी नई रचना के लिए हैं। ये कोरे पृष्ठ मैंने अपने हाथों से बनाकर सिए हैं। इन पर तुम जब जो भी लिखोगे, उसमें मुझे अनुभव होगा कि मैं भी कहीं हूँ, मेरा भी कुछ है।
परन्तु आज तुम आये हो, तो सारा वातावरण ही और है। और…और नहीं सोच पा रही कि तुम भी वही हो या…?
अनुस्वार – (देव मातृगुप्त के अनुचरों का अभिवादन स्वीकार कीजिए।)
मल्लिका – देव मातृगुप्त? देव मातृगुप्त कौन हैं?
अनुस्वार – ‘ऋतुसंहार’ ‘कुमारसम्भव’, ‘मेघदूत’ एवं ‘रघुवंश’ के प्रणेता कवीन्द्र, राजनीति-निष्णात आचार्य तथा काश्मीर के भावी शासक। देव मातृगुप्त की राजमहिषी गुप्त वंश-दुहिता परम विदुषी देवी प्रियंगुमंजरी आपके साक्षात्कार के लिए उत्सुक हैं और शीघ्र ही यहाँ आया चाहती हैं। हम उनके अनुचर आपको इसकी पूर्व-सूचना देने के लिए उपस्थित हैं।
अनुस्वार – वे गुप्त राज्य की ओर से काश्मीर का शासन सँभालने जा रहे हैं। मातृगुप्त उन्हीं का नया नाम है।
मल्लिका – वे काश्मीर का शासन सँभालने जा रहे हैं? और…और उनकी राजमहिषी मुझसे मिलने के लिए आ रही हैं?
मातुल – अधिकारी-वर्ग, आपका कार्य यहाँ पूरा हो गया।
अनुनासिक – क्यों अनुस्वार?
अनुस्वार – हाँ, पूरा हो गया। हो गया न? क्यों अनुनासिक?
मातुल – मैं पशुओं के पीछे दिन में दस-दस योजन घूमा हूँ। मैं कहता हूँ संसार में सबसे कठिन काम कोई है तो पशु-पालन का। एक भी पशु मार्ग से भटक जाए, तो…
प्रियंगु – सचमुच बहुत सुन्दर हो। जानती हो, अपरिचित होते हुए भी तुम मुझे अपरिचित नही लग रहीं?
मल्लिका – आप बैट जाइए न।
प्रियंगु – नहीं, बैठना नहीं चाहती। तुम्हें और तुम्हारे घर देखना चाहती हूँ। उन्होंने बहुत बार इस घर की अ तुम्हारी चर्चा की है। जिन दिनों ‘मेघदूत’ लिख रहे उन दिनों प्राय: यहाँ का स्मरण किया करते थे।
प्रियंगु – इस (प्रांत प्रदेश) सौन्दर्य के सामने जीवन की सब सुविधाएँ हेय हैं। इसे आँखों में व्याप्त करने के लिए जीवन-भर का समय भी पर्याप्त नहीं (झरोखे के पास से हट आती है) परन्तु इतना अवकाश कहाँ है? काश्मीर की राजनीति इतनी अस्थिर है कि हमारा एक-एक दिन वहाँ से दूर रहना कई-कई समस्याओं को जन्म दे सकता है। एक प्रदेश का शासन बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। हम पर तो और भी बड़ा उत्तरदायित्व है क्योंकि काश्मीर की स्थिति इस समय बहुत संकटपूर्ण है। यूँ वहाँ के सौन्दर्य की ही इतनी चर्चा है, परन्तु हमें उसे देखने का अवकाश है। सौंदर्य का यह सहज उपभोग हमारे लिए सपना है।
प्रियंगु मंजरी – मैं समझ सकती हूँ। उनसे जान चुकी हूँ कि तुम बचपन से उनकी संगिनी रही हो। उनकी रचनाओं के प्रति तुम्हारा मोह स्वाभाविक है।
राजनीति साहित्य नहीं है। उसमें एक-एक क्षण का महत्व है। कभी एक क्षण के लिए भी चूक जाएँ, तो बहुत बड़ा अनिष्ट हो सकता है।
(देख रही हूँ तुम्हारा घर बहुत जर्जर स्थिति में है। इसका परिसंस्कार आवश्यक है।)….(प्रियंगु अपने दो अधिकारियों का ज़िक्र करते हुए मल्लिका की शादी की बात करती है)
प्रियंगु – तुम उनमें से जिसे भी अपने योग्य समझो, उसी के साथ तुम्हारे विवाह का प्रबन्ध किया जा सकता है। दोनों योग्य अधिकारी हैं।
मल्लिका – देवी।
अम्बिका – इसके मन में यह कल्पना नहीं है क्योंकि यह भावना के स्तर पर जीती है। उसके लिए जीवन में…(साँस फूल जाने से शब्द गले में अटक जाते हैं)
अंबिका – मैं किसी आनेवाले से बात भी नहीं कर सकती? दिन, मास, वर्ष मुझे घुटते हुए बीत गए हैं। मेरे लिए यह घर घर नहीं, एक काल-गुफा है जिसमें मैं हर समय बन्द रहती हूँ। और तुम चाहती हो, मैं किसी से बात भी न करूँ?
अंबिका – आज वह शासक है, उसके पास सम्पत्ति है। उस शासन और सम्पत्ति का परिचय देने के लिए इससे अच्छा और क्या उपाय हो सकता था?
विलोम – आश्चर्य है कि कालीदास ने यहाँ आना उचित नहीं समझा। कल तो सुनते हैं वे लोग चले भी जाएँगे।
अम्बिका – उसने आना उचित नहीं समझा, क्योंकि वह जानता है अम्बिका अभी जीवित है।
विलोम – परन्तु मैं समझता हूँ वह एक बार आएगा अवश्य। उसे आना चाहिए। व्यक्ति किसी सम्बन्ध को ऐसे नहीं तोड़ता।
अम्बिका – मैं जानती थी। आज नहीं, तब से ही जानती थी। वह आता, तो मझे आश्चर्य होता। अब मुझे आश्चर्य नहीं है (स्वर ऊँचा उठता जाता है। मल्लिका जैसे सारी शक्ति खोकर, धीरे-धीरे आसन पर बैठ जाती है।) कोई आश्चर्य नहीं है। प्रसन्नता है कि मैं उसके समबन्ध में ठीक सोचती थी। जीवन एक भावना है। कोमल भावना। बहुत-बहुत कोमल भावना।
(मल्लिका रुक जाती है। पर कुछ भी उत्तर न देकर मुँह हाथों में छिपा लेती है। अम्बिका उठकर धीरे-धीरे उसके पास आ जाती है और उसे हाँहों में ले लेती है। मल्लिका अम्बिका के वक्ष में मुँह छिपा लेती है। सारा शरीर रुलाई से काँपता रहता है, पर गले से स्वर नहीं निकलता। अम्बिका की आँखें भर आती हैं और वह उसके काँपते शरीर को अपने से सटाए उसकी पीठ पर हाथ फेरती रहती हैं फिर होंठों और गालों से उसके सिर को दुलारने लगती है।)
अम्बिका – अब भी रोती हो? उसके लिए? उस व्यक्ति के लिए जिसने?
मल्लिका – उनके सम्बन्ध में कुछ मत कहो माँ,
असाढ़ का एक दिन : परीक्षा उपयोगी संवाद तीसरा अंक (अंतिम अंक)
साल और बीत जाते हैं।
वर्षा और मेघ गर्जन का शब्द। परदा उठने पर वही प्रकोष्ठ। एक दीपक जल रहा है। प्रकोष्ठ की स्थिति में पहले से बहुत अन्तर दिखाई देता है। सब कुछ जर्जर और अस्तव्यस्त है।
मातुल मल्लिका से – मुझसे कोई पूछे तो मैं कहूँगा कि राज-प्रासाद में रहने से अधिक कष्टकर स्थिति संसार में हो ही नहीं सकती।
मल्लिका – मैं हर समय घर में ही रहती हूँ। कहीं का भी समाचार कैसे सुन सकती हूँ?
मातुल – मैंने सुना है। विश्वास नहीं होता, परन्तु होता भी है। राजनीति मे कुछ भी असम्भव नहीं है। जितना सम्भव है कि ऐसा न हो, उतना ही सम्भव है कि ऐसा हो। और यह भी सम्भव है कि जो हो, वह न हो…।
मैं समझता हूँ कि जो कुछ मैं समझ पाता हूँ, सत्य सदा उसके विपरीत होता है। और मैं जब उस विपरीत तक पहुँचने लगता हूँ, तो सत्य उस विपरीत से विपरीत हो जाता है।
(कालिदास के विषय में जानकारी मिलती है की वह राजपद छोड़कर कहीं चला गया है) मल्लिका सोचती है, मैं यद्यपि तुम्हारे जीवन में नहीं रही, परन्तु तुम मेरे जीवन में सदा बने रहे हो। मैंने कभी तुम्हें अपने से दूर नहीं होने दिया। तुम रचना करते रहे, और मैं समझती रही कि मैं सार्थक हूँ, मेरे जीवन की भी कुछ उपलब्धि है।
तुम जीवन से तटस्थ हो सकते हो, परन्तु मैं तो अब तटस्थ नहीं हो सकती। क्या जीवन को तुम मेरी दृष्टि से देख सकते हो? जानते हो मेरे जीवन के ये वर्ष कैसे व्यतीत हुए हैं? मैंने क्या-क्या देखा है? क्या से क्या हुई हूँ? उठकर अन्दर का किवाड़ खोल देती है और पालने की ओर संकेत करती है।
इस जीव को देखतो हो? पहचान सकते हो? यह मल्लिका है जो धीरे-धीरे बड़ी हो रही है और माँ के स्थान पर अब मैं उसकी देख-भाल करती हूँ।…यह मेरे अभाव की सन्तान है। जो भाव तुम थे, वह दूसरा नहीं हो सका, परन्तु अभाव के कोष्ठ में किसी दूसरे की जाने कितनी-कितनी आकृतियाँ हैं। जानते हो मैंने अपना नाम खोकर एक विशेषण उपार्जित किया है और अब मैं अपनी दृष्टि में नाम नहीं, केवल विशेषण हूँ।
व्यवसायी कहते थे, उज्जयिनी में अपवाद है, तुम्हारा बहुत-सा समय वारांगणाओं के सहवास में व्यतीत होता है। …परन्तु तुमने वारांगणा का यह रूप भी देखा है? आज तुम मुझे पहचान सकते हो? मैं आज भी उसी तरह पर्वत-शिखर पर जाकर मेघ-मालाओं को देखती हूँ। उसी तरह ‘ऋतुसंहार’ और ‘मेघदूत’ की पंक्तियाँ पढ़ती हूँ।
मैंने अपने भाव के कोष्ठ को रिक्त नहीं होने दिया। परन्तु मेरे अभाव की पीड़ा का अनुमान लगा सकते हो?
कुहनियाँ आसन पर बैठी रहती हैं। और ग्रन्थ हाथों में उठा लेता है नहीं, तुम अनुमान नहीं लगा सकते। तुमने लिखा था कि एक दोष गुणो के समूह में उसी तरह छिप जाता है, जैसे चाँद की किरणो में कलंक: परन्तु दारिद्रय नहीं छिपता। सौ-सौ गुणों में भी नहीं छिपता। नहीं, छिपता ही नहीं, सौ-सौ गुणों को छा लेता है-ए-ए एक-एक करके नष्ट कर देता है।
परन्तु मैंने यह सब सह लिया। इसलिए कि मैं टूटकर भी अनुभव करती रही कि तुम बन रहे हो। क्योंकि मैं अपने को अपने में न देखकर तुममें देखती थी। और आज यह सुन रही हूँ कि तुम सब छोड़कर संन्यास ले रहे हो? तटस्थ हो रहे हो? उदासीन? मुझे मेरी सत्ता के बोध से इस तरह वंचित कर दोगे?
वही आषाढ़ का दिन है। उसी तरह मेघ गरज रहे हैं। वैसे ही वर्षा हो रही है। वही मैं हूँ। उसी घर में हूँ। किन्तु…
(पुन: बिजली कौंधती है, मेघ गर्जन सुनायी देता है और ड्योढ़ी का द्वार धीरे-धीरे खुलता है। कालिदास क्षत-विक्षत-सा, द्वार खोलकर ड्योढ़ी में ही खड़ा रहता है। मल्लिका किवाड़ खुलने के शब्द से उधर देखती है और सहसा उठ खड़ी होती है)
कालिदास – सम्भवत: पहचानती नहीं हो। और न पहचानना ही स्वाभाविक है, क्योंकि मैं वह व्यक्ति नहीं हूँ जिसे तुम पहले पहचानती रही हो। दूसरा व्यक्ति हूँ, और सच कहूँ तो वह व्यक्ति हूँ जिसे मैं स्वयं नहीं पहचानता।…तुम इस तह जड़-सी क्यों खड़ी हो? मुझे देखकर बहुत आश्चर्य हुआ?
मल्लिका – आश्चर्य?…मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा कि तुम तुम हो, और मैं जो तुम्हें देख रही हूँ, वास्तव में मैं मैं ही हूँ। या सम्भव है कि परिवर्तन केवल मेरी दृष्टि में हुआ है।
कालिदास – देख रहा हूँ कि तुम भी वह नहीं हो। सब कुछ बदल गया है…
मल्लिका – मुझे विश्वास नहीं होता कि यह स्वप्न नहीं है…
कालिदास – नहीं, स्वप्न नहीं है। यथार्थ है कि मैं यहाँ हूँ। दिनों की यात्रा करके थका, टूटा-हारा हुआ यहाँ आया हूँ कि एक बा यहाँ के यथार्थ को देख लूँ। सम्भव है दृश्य उतना नहीं बदला जितना मेरी दृष्टि बदल गई।
मल्लिका – आर्य मातुल से आज ही पता चला था कि तुमने काश्मीर छोड़ दिया है
कालिदास – हाँ, क्योंकि सत्ता और प्रभुता का मोह छूट गया है। आज मैं उस सबसे मुक्त हूँ जो वर्षों से मुझे कसता रहा है। काश्मीर में लोग समझते हैं कि मैंने संन्यास ले लिया है। परन्तु मैंने संन्यास नहीं लिया। मैं केवल मातृगुप्त के कलेवर से मुक्त हुआ हूँ जिससे पुन: कालिदास के कलेवर में जी सकूँ।
(कोई द्वार खटखटाता है। मल्लिका अव्यवस्थित होकर उस ओर देखती है। कालिदास द्वार की ओर जाना चाहता है, पर वह उसे रोक देती है)
मल्लिका – द्वार बन्द रहने दो। तुम जो बात कर रहे हो, करते जाओ।
कालिदास – देख तो लो कौन आया है।
मल्लिका – वर्षा का दिन है। कोई भी हो सकता है। तुम बात करते रहो, वह चला जाएगा।
(बाहर से आगन्तुक नशे के स्वर में झल्लाता है)
मल्लिका – कहा है न कोई भी हो सकता है। वर्षा में जिस किसी को आश्रय की आवश्यकता पड़ती है, वह यहाँ चला आता है।
कालिदास – परन्तु मुझे इसका स्वर बहुत विचित्र-सा लगा।
मल्लिका – तुम यहाँ के सम्बन्ध में बात कर रहे थे
कालिदास – लगा जैसे मैं इस स्वर को पहचानता हूँ। जैसे यहाँ की हर वस्तु की तरह यह भी किसी परिचित स्वर का बदला हुआ रूप है।
कालिदास – अभावपूर्ण जीवन की वह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। सम्भवत: उसमें कहीं उन सबसे प्रतिशोध लेने की भावना भी थी जिन्होंने जब-तब मेरी भत्र्सना की थी, मेरा उपहास उड़ाया था।
परन्तु मैं यह भी जानता था कि मैं सुखी नहीं हो सकता। मैंने बार-बार अपने को विश्वास दिलाना चाहा कि कमी उस वातावरण में नहीं मुझमें है।
जो कुछ लिखा है वह यहाँ के जीवन का ही संचय था। ‘कुमारसम्भव’ की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो। ‘मेघदूत’ के यक्ष की पीड़ा मेरी पीड़ा है औऱ विरह-विमर्दिता यक्षिणी तुम हो-यद्यपि मैंने स्वयं यहाँ होने और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की। ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’ में शकुन्तला के रूप में तुम्हीं मेरे सामने थीं। मैंने जब-जब लिखने का प्रयत्न किया तुम्हारे औऱ अपने जीवन के इतिहास को फिर-फिर दोहराया।
‘रघुवंश’ में आज का विलाप मेरी ही वेदना की अभिव्यक्ति है और…।
चाहता था, तुम यह सब पढ़ पातीं, परन्तु सूत्र कुछ इस रूप में टूटा था कि…।
मल्लिका – वह सूत्र कभी नहीं टूटा (उठकर वस्त्र में लिपटे पन्ने कोने से उठा लाती है और कालिदास के हाथ में रख देती है, कालिदास पन्ने पलटकर देखता है)
कालिदास – ‘मेघदूत’। तुम्हारे पास ‘मेघदूत’ की प्रतिलिपि कैसे पहुँच गयी?
कालिदास – और उनके पास ये प्रतिलिपियाँ मिल जाती हैं?
मल्लिका – मैंने कहकर मँगवायी थीं। वर्ष-दो वर्ष में कहीं एक प्रतिलिपि मिल पाती थी।
कालिदास – और इनके लिए धन?
मल्लिका – वर्ष-दो वर्ष में एक प्रति मिल पाती थी। धन एकत्रित करने के लिए बहुत समय मिल जाता था।
कालिदास – जो अभाव वर्षों से मुझे सालते रहे हैं, वे आज और बड़े प्रतीत होते हैं, मल्लिका! मुझे वर्षों पहले यहाँ लौट आना चाहिए था ताकि यहाँ वर्षा में भीगता, भीगकर लिखता – वह सब जो मैं अब तक नहीं लिख पाया और जो आषाढ़ के मेघों की तरह वर्षों से मेरे अन्दर घुमड़ रहा है। परन्तु बरस नही पाता। क्योंकि उसे ऋतु नहीं मिलती। वायु नहीं मिलती।…यह कौन-सी रचना है? ये तो केवल कोरे पृष्ठ हैं।
मल्लिका – ये पन्ने अपने हाथों से बनाकर सिये थे। सोचा था तुम राजधानी से आओगे, तो मैं तुम्हें यह भेंट दूँगी। कहूँगी कि इन पृष्ठों पर अपने सबसे बड़े महाकाव्य की रचना करना। परन्तु उस बार तुम आकर भी नहीं आये और यह भेंट यहीं पड़ी रही। अब तो ये पन्ने टूटने भी लगे हैं, और मुझे कहते संकोच होता है कि ये तुम्हारी रचना के लिए हैं।
कालिदास – तुमने ये पृष्ठ अपने हाथों से बनाए थे कि इन पर एक महाकाव्य की रचना करूँ। वह पन्ने पलटते हुए एक स्थान पर रुक जाता है। स्थान-स्थान पर इन पर पानी की बूँदें पड़ी हैं जो नि:सन्देह वर्षा की बूँदें नहीं हैं।
स्थान-स्थान पर ये पृष्ठ स्वेद-कणों से मैले हुए हैं, स्थान-स्थान पर फूलों की सूखी पत्तियों ने अपने रंग इन पर छोड दिए हैं। कई स्थानों पर तुम्हारे नखों ने इन्हें छीला है, तुम्हारे दांतों ने इन्हें काटा है। इसके अतिरिक्त ये ग्रीष्म की धूप के हल्के-गहरे रंग, हेमन्त की पत्रधूलि और इस घर की सीलन…ये पृष्ठ अब कोरे कहाँ हैं मल्लिका? इन पर एक महाकाव्य की रचना हो चुकी है…अनन्त सर्गों के एक महाकाव्य की।
(ग्रन्थ रख देता है)
इन पृष्ठों पर अब नया कुछ लिखा जा सकता है? उठकर झरोखे के पास चला जाता है। कुछ क्षण बाहर देखता रहता है, फिर मल्लिका की ओर मुड़ आता है। परन्तु इसके आगे भी तो जीवन शेष ह, हम फिर अथ से आरंभ कर सकते हैं।
कालिदास – मल्लिका!
(मल्लिका रूककर उसकी ओर देखती है)
कालिदास – किसके रोने का शब्द है यह?
मल्लिका – यह मेरा वर्तमान है।
(अन्दर चली जाती है। कालिदास स्तम्भित-सा प्रकोष्ठ के बीचों-बीच आ जाता है)
कोई द्वार खटखटाता है। फिर पैर की चोट से द्वार खोल देता है…
(विलोम आता है, शराब के नशे में कालिदास को देखकर बोलते-बोलते रुक जाता है। दृष्टि का भाव ऐसा हो जाता है)
मल्लिका अन्दर से आती है और विलोम को देखकर द्वार के पास जड़ हो जाती है।
कालिदास – आकृति बहुत बदल गई हैं, परन्तु व्यक्ति आज भी वही हो…
विलोम – स्वर भी परिचित है और शब्द भी। आँखें स्थिर करके देखने का प्रयत्न करता है। फिर सहसा हँस उठता है। तो तुम हो, तुम?…गिरने और चोट खाने का सारा कष्ट दूर हो गया… (मल्लिका की ओर मुड़ता है) क्यों मल्लिका, मैं ठीक नहीं कहता?…तुम वहाँ स्तम्भित सी क्यों खड़ी हो? विलोम इस घर में अब तो अयाचित अतिथि नहीं है। अब तो वह अधिकार से आता है। नहीं? अबतो वह इस घर में कालिदास का स्वागत और आतिथ्य कर सकता है। नहीं? (फिर कालीदास की ओर मुड़ता है)
तुमने अब तक कालिदास के आतिथ्य का उपक्रम नहीं किया? वर्षों के बाद एक अतिथि घर में आए और उसका आतिथ्य न हो? जानती हो? कालिदास को इस प्रदेश के हरिणशावकों का कितना मोह है…?
(फिरसे कालीदास की ओर मुडता है)
एक हरिणशावक इस घर में भी है।…तुमने मल्लिका की बच्ची को नहीं देखा? उसकी आँखें किसी हरिणशावक से कम सुन्दर नहीं हैं। जानते हो अष्टावक्र कहता है? कहता है…। (मल्लिका सहसा आगे बढ़ जाती है)
मल्लिका – आर्य विलोम।
विलोम – तुम नहीं चाहतीं कि कालिदास यह जाने कि अष्टावक्र क्या कहता है। परन्तु मुझे उसकी बात पर विश्वास नहीं होता। मैं इसलिए कह रहा था कि सम्भव है कालिदास ही देखकर बता सके कि अष्टावक्र की बात कहाँ तक सच है। क्या बच्ची की आकृति सचमुच विलोम से मिलती है या…?
(मल्लिका हाथों में मुँह छिपाये आसन पर जा बैठती है।)
मल्लिका – तुम कह रहे थे तुम फिर अथ से आरम्भ करना चाहते हो। (कालिदास निश्वास छोड़ता है)
कालिदास – मैंने कहा था कि मैं अथ से आरम्भ करना चाहता हूँ। यह सम्भवत: इच्छा का समय के साथ द्वन्द्व था। परन्तु देख रहा हूँ कि समय अधिक शक्तिशाली है क्योंकि…।
मल्लिका – क्योंकि?
(फिर अन्दर से बच्ची के रोने का शब्द सुनायी देता है। मल्लिका झट से अन्दर चली जाती है। कालिदास ग्रन्थ आसन पर रखता हुआ जैसे अपने को उत्तर देता है)
कालिदास – क्योंकि वह प्रतीक्षा नहीं करता।
(बिजली चमकती है और मेघ गर्जन सुनायी देता है। कालिदास एक बार चारों ओर देखता है, फिर झरोखे के पास चला जाता है, वर्षा होने लगती है। वह झरोखे के पास आकर ग्रन्थ को एक बार फिर उठाकर देखता है और रख देता है। फिर एक दृष्टि अन्दर की ओर डालकर ड्योढी में चला जाता है। क्षण-भर सोचता-सा वहाँ रूका रहता है। फिर बाहर से दोनों किवाड़ मिला देता है। वर्षा और मेघ गर्जन का शब्द बढ़ जाता है। कुछ क्षणों के बाद मल्लिका बच्ची को वक्ष से सटाए अन्दर आती है और कालिदास को न देखकर दौड़ती-सी झरोखे के पास चली जाती है।)
मल्लिका – कालिदास की तरह झरोखे के पास से आकर ड्योढी के किवाड़ खोल देती है। कालिदास! कालिदास! पैर बाहर की ओर बढ़ने लगते हैं परन्तु बच्ची को बाँहों में देखकर जैसे वहीं जकड़ जाती है। फिर टूटी-सी आकर आसन पर बैठ जाती है, रोती हुई बच्ची को चूमने लगती है। बिजली बार-बार चमकती है और मेघ गर्जन सुनाई देता रहता है।
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