Net JRF Hindi Unit 10 and IGNOU Study Material : MHD- 4: महादेवी वर्मा द्वारा लिखित रेखाचित्र ठकुरी बाबा
ठकुरी बाबा रेखाचित्र का सरल सारांश (Simple summary of Thakuri Baba sketch)
महादेवी वर्मा द्वारा लिखित ठकुरी बाबा रेखाचित्र विधा है। रेखाचित्र में समान्य व्यक्ति का चित्रण किया जाता है। ठकरी बाबा एक सामान्य व्यक्ति हैं। जिनसे महादेवी वर्मा की जान-पहचान प्रयाग में माघ के मेले में होती है। रेखाचित्र सत्यता के निकट होता है। इस रचना में प्रयागराज का चित्रण है। माघ का मेला वहाँ हर साल आयोजित किया जाता है। धर्म में निष्ठा रखने वाले प्रयागराज में कल्पवास लगभग पन्द्रह से तीस दिन के लिए करते हैं।
महादेवी वर्मा के टेन्ट के पास एक वृद्ध महादेवी के पास आकर सिविर के पास रहने की इजाज़त माँगता है। महादेवी शिविर के बाहर रहने की इजाज़त दे देतीं हैं। महादेवी की सेविका इस बात पर गुस्सा होती है। वृद्ध (ठकुरी बाबा) का परिवार अच्छे स्वभाव के व्यक्ति होते हैं, धीरे-धीरे महादेवी को उस परिवार की आदत लग जाती हैं।
ठकुरी बाबा का जीवन संघर्षों से घिरा था। उनकी दो पत्नियाँ थीं, दोनों की मृत्यू हो गई। अपनी बेटी की देखभाल ठकुरी बाबा अकेले करते हैं, बेटी की शादी करते हैं, लेकिन ठकुरी बाबा का दमाद अंधा हो जाता है। ठकुरी बाबा के चेहरे पर दूखो का पहाड़ कभी भी दिखाई नहीं देता है। इसके बाद कई वर्षों तक ठकुरी बाबा माघ मेले में आते हैं। जब महादेवी वर्मा ने उनका रेखाचित्र लिखा इसके दो साल पहले से उन्होंने मेले में आना बन्द कर दिया था। परिणाम स्वरूप महादेवी वर्मा को उनकी याद आने लगती है, और वह उनका रेखाचित्र लिखती हैं। अंत में किसी से उन्हें खबर मिलती है कि अब ठकुरी बाबा का अंतिम समय नज़दीक है।
परीक्षा उपयोगी तथ्य (Exam Useful Facts)
ठकुरी बाबा रेखाचित्र रचनाकार – महादेवी वर्मा हैं। इसका प्रकाशन वर्ष – 1943 है। यह रेखाचित्र “स्मृति की रेखाएँ” संग्रह में संकलित है। इस संग्रह में कुल 7 रेखाचित्र हैं। ठकुरी बाबा पाँचवें नंबर का रेखाचित्र है। रेखाचित्र में सामान्यत: सामान्य व्यक्तियों का चित्रण किया जाता है।
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विषय – लेखिका ने इसमें ग्रामीण समाज के लोगों के प्रति सहानुभूति और आस्था प्रकट की है। बनावटी जीवन छोड़ लोग सहज जीवन जीते हैं। इस रेखाचित्र में लेखिका के प्रयाग संगम के माघ कल्पवास का चित्रण है। कल्पवास के दौरान ग्रामीण पात्र उनके कुटी में शरण लेते है।
मुख्य पात्र-
लेखिका – महादेवी वर्मा है।
भक्तिन – महादेवी जी की सेविका है।
ठकुरी बाबा – ग्रामीण पात्र जो इस रेखाचित्र के केंद्र में हैं। गाजीपुर के सैदपुर से 33 मील दूर के रहने वाला। भाट वंश में जन्म लेखिका सजातीय कहती है। लोक गायक, बिरहा, आल्हा गाते हैं। ठकुरी बाबा का दो विवाह हुआ था।
बेला – बाबा की पुत्री है।
अन्य पात्र – अंधा दामाद, बूढ़ी मौसी, वृद्ध ठकुराइन, सहुआइन, विधुर काछी, ब्राम्हण दंपति।
Net JRF Hindi हेतु प्रमुख पंक्तियाँ (Key lines for Net JRF Hindi)
ठकुरी बाबा की कहानी (Thakuri Baba’s story)
भक्तिन को जब मैंने अपने कल्पवास सम्बन्धी निश्चय की सूचना दी तब उसे विश्वास ही न हो सका। प्रतिदिन किस तरह पढ़ने आऊँगी, कैसे लौटेंगी, ताँगेवाला क्या लेगा, मल्लाह कितना माँगेगा आदि आदि प्रश्नों की झड़ी लगा कर मेरी अदूरदर्शिता प्रमाणित करने का प्रयत्न किया।
इसी से मैं उसे समझाने का निष्फल प्रयत्न करने की अपेक्षा मौन रहकर उसकी भ्रान्ति को स्वीकृति दे देती हूँ। मौन मेरी पराजय का चिन्ह नहीं प्रत्यत् वह जय की सूचना है यह भक्तिन से छिपा नहीं।
कारण वह रे प्रतिवाद से इतना नहीं घबराती जितना मौन से आतंकित होती है, क्योंकि प्रतिवाद के उपरान्त तो मत परिवर्तन सहज है पर मौन में इसकी कोई सम्भावना शेष नहीं रहती…
तब भक्तिन का और मेरा कल्पवास आरम्भ हुआ। हमारे आस-पास और भी न जाने कितनी पर्णकुटियाँ (टेन्ट) थीं पर वे काम चलाऊ भर कही जायगी!
गर्मियों में जहाँ तहाँ फेंकी हुई आम की गुठली जब वर्षा में ही जम आती है तब उसके पास मुझसे अधिक सतर्क माली दूसरा नहीं रहता। घर के किसी कोने में चिड़िया जब घोसला बना लेती है, तब उसे मुझसे अधिक सज प्रहरी दूसरा नहीं मिल सकता।
न जाने कितनी बार सर्दी में ठिठुरते हुए पिल्लों की टिमटिमाती आँखों के अनुनय ने मुझे उन्हें घर उठा ले आने पर बाध्य किया है।
ऐसा सनकी व्यक्ति, मनुष्य जीवन के प्रति निर्मोही हो तो आश्चर्य की बात होगी, पर उसकी, सुख-दुख, जीवन-मृत्यू आदि के सम्बन्द में बहुत कुछ जानने की इच्छा का सीमातीत हो जाना स्वाभाविक है।
वह भक्तिन कह बैठती है – का ई विद्या का कौनिउ इमथान नाहिन बा? होत तो हमहूँ बुढ़ौती माँ एक ठौ साटीफिटक पाय जाइत, अउर का।
…धर्म में अखण्ड विश्वास होने के कारण भक्तिन के निकट कल्पवास बहुत महत्वपूर्ण है। पर वह जानती है कि मेरी, भानमती का कुनबा, जोड़ने की प्रवृत्ति उसे मोहमाया के बन्धन तोड़ने का अवकाश न देगी।
…भक्तिन ने चूल्हा सुलगाया ही था कि ग्रामीण यात्रियों का एक दल उस ओर के बरामदे के भीतर आ घुसा। मेरे लिए परम अनुगत भक्तिन संसार के लिए कठोर प्रतिद्वन्द्वी है।
वृद्ध ने दो पग आगे बढ़कर परम शान्त पर स्नेहसिक्त स्वर में कहा बिटिया रानी का हम परदेसिन का ठहरै न दैहौं? बड़ी दूर से पाँय पियादे चले चाइत हैं। ई तो रैन बसेरा हैं- भोर भये उठि जाना रे का झूठ कहित है? हम तो बूढ़-बाढ़ मनई हैं।…
– आप यहीं ठहरें बाबा! मेरे लिए तो यह कोठरी ही काफी है।
…भक्तिन मेरे आराम की चिन्ता के कारण ही दूसरों से झगड़ती है।
धीरे-धीरे महादेवी जी के बरामदे में किताबों के आसपास वृद्ध बाबा ने अपना अधिकार जमा लिया।
…सारांश यह कि मेरे पुस्तकों के समारोह को लज्जित करने के लिए ही मानो बूढ़े बाबा ने इतना आडम्बर फैला रखा था। वे सम्भवत: दातून के लिए नीम की खोज में गए हुए थे, इसीसे मैंने भेदिये के समान तीव्र दृष्टि से उनकी शक्ति के साधनों की नाप-जोख कर ली।
…बरामदे की दूसरी ओर का जमघट कुछ विचित्र सा था। एक सूरदास (जिसकी आँखे नहीं है) समाधिस्थ जैसे बैठे थे।
लेखिका देखती है, उसके आसपास एक प्रौढ व्यक्ति, दो किशोर, दो वृद्धाएँ, अधेड़ उम्र की स्त्री, दो सांवली लड़कियाँ ओठ पर स्थापित कर विस्मय के भाव से बड़बढ़ाई, रे मोर वपई। सगर मेला तो हिंयहिं सिकिल आया है। अब ई अजाब-घर छांडि के दूसर मेला को देखै जाई?
गुड़ में बँधे काले तिल के लड्डू बहुत मीठे होने के कारण मैं नहीं खाती इसीसे भक्तिन मेरे निकट मोदकं समर्पयामि का अनुष्ठान पूरा करने के लिए सफ़ेद तिल धो कूट कर और थोड़ी चीनी मिला कर लड्डू बना लेती है।
…मैं तो छूत पाक मानती ही नहीं और भक्तिन अपनी बटलोई सहित कोयले की मोटी रेखा के भीतर सुरक्षित थी।
…बूढ़े बाबा मेरे लिए तिल का लड्डू घी, आम के अचार की एक फाँक और दही लाए थे। अरूचि के कारण घी रहित और पथ्य के कारण मिर्च अचार आदि के बिना ही मैं खिचड़ी खाती हूँ। यह अनेक बार कहने पर भी वृद्ध ने माना नहीं और मेरी खिचड़ी पर दानेदार घी और थाली में एक ओर अचार रख दिया।
उस दिन से उन अभ्यागतों से मेरे विशेष परिचय का सूत्रपात हुआ जो धीरे-धीरे साहचर्य-जनित स्नेह में परिणत होता गया।
मुझे सवेरे नौ बजे झूंसी से इस पार आना पड़ता था…
कल्पनासी एक ही बार खाते और माख के कड़कड़ाते जाड़े में भी आग न तापने के नियम का पालन करते। इन नियमों के मूल में कुछ तो लकड़ी का मँहगापन और अन्न का अभाव रहता है और कुछ तपस्या की परम्परा।
सच्चे कल्पवासी अपने और आग के बीच में इतना अन्तर बनाए रखते थे जितने में, पाप-पुण्य का लेखा जोखा रखने वाले चित्रगुप्त महोदय धोखा खा सकें।
बूढ़े ठकुरी बाबा भाटवंश (गाना-बजाना, कविता गाने वाले) में अवर्तीण होने के कारण कवि और कवि होने के कारण मेरे सजातीय कहे जा सकते हैं। प्रथम पत्नी के दोनों सुयोग्य पुत्रों को भी नीति शास्त्र में पारंगत बनाकर भावुकता के प्रवेश का मार्ग ही बन्द कर दिया।
…दूसरी नवोढ़ा पत्नी भी जब परलोकवासिनी हुई तब उसका पुत्र अवोध बालक था पर पिता ने प्रिय पत्नी के प्रति विशेष स्नेह-प्रदर्शन के लिए उसे साक्षात कौटिल्य बनाने का संकल्प किया।
दम्पत्ति सुखी नहीं हो सके यह कहना व्यर्थ है। दासों का एक से दो होना प्रभुओं के लिए अच्छा हो सकता है, दासों के लिए नहीं। एक ओर उससे प्रभुता का विस्तार होता है और दूसरी ओर पराधीनता का प्रसार।
….कहीं विरहा गाने का अवसर मिल जाता तो किसी के भी मचान पर बैठकर रात रात भर खेत की रखवाली करते रहते। कोई बारहमासा सुननेवाला रसिक श्रोता मिल जाता तो उसके बैलों का सानीपानी करने में भी हेठी न समझते। कोई आल्हा ऊदल की कथा सुनना चाहता तो मीलों पैदल दौड़े चले जाते। कहीं होली का उत्सव होता तो अपने कबीर सुनाने में भूख प्यास भूल जाते।
इनकी पत्नी एक पुत्री को जन्म देकर मृत्यू को प्राप्त हो गई। बेला के लिए अब वही माँ और पिता थे।
बालिका की सगाई (शादी) कर दिया। कितुं उसका पति कुछ समय बाद अंधा हो गया।
…अब कवि ससुर, उसकी बूढ़ी मौसी, अंधा दामाद और रूपसी बेटी एक विचित्र परिवार बनाए बैठे हैं। ससुर ने जामाता को भी काव्य की पर्याप्त शिक्षा दे डाली है।
जब ठकुरी चिकारा बजाकर भक्ति के पद गाते हैं तब वह खंजड़ी पर दो उंगलियों से थपकी देकर तान संभालता है, बूढ़ी मौसी तन्म-यता के आवेश में मँजीरा झनकार देती है और भीतर काम करती हुई बेला की गति में एक थिरकन भर जाती है।
यह विचित्र परिवार हर वर्ष माघ मेले के अवसर पर गंगातीर कल्पवास करके पुण्यपर्व मनाता है।
…एक वृद्धा ठकुराइन है, पति के जीवनकाल में वे परिवार में रानी की स्थिति रखती थी, परन्तु विधवा होते ही जिठौतों ने नि:सन्तान काकी से मत देने का अधिकार भी छीन लिया। गाँव के नाते वे ठकुरी की बुआ होती थी।…
तीसरी एक विधुर काछी हैं। किसी के खेत के टुकड़े में कुछ तरकारी बो कर, किसी की आम की बगिया की रखवाली करके अपना निर्वाह करता है…
चौथे ब्राहम्ण दम्पत्ति हैं।
इस विचित्र साम्राज्य के साथ मैंने माघ का महीना भर बिताया, अत: इतने दिनों के संस्मरण कुछ कम नहीं हैं। पर, इनमें एक संध्या मेरे ले विशेष महत्व रखती है।
…मैं अधिक रात गए तक पढ़ती रहती थी, इसी से मेरा वह अतिथि वर्ग भजन-कीर्तन के लिए दूसरे कल्पवासियों की मण्डलो में जा बैठता था।
माघी पूर्णिमा के पहले आने वाली त्रयोदशी रही होगी।
…भक्तो ने तुलसा महरानी नमो नमो गाया और पंडित जी ने पूजा का विधान समाप्त किया।
…गायकों में कम था और गीतों में गानेवालों की अवस्था के अनुसार विविधता। सबसे पहले दो बूढ़ियों ने गाया। ठकुरी बाबा की मौसी ने सो ठाई दोउ भइया सुरसरि तीर। ऐही पार से लखन पुकारें केवट लाओ नइया सुरसरि तीर।
दूसरा गीत ठकुराइन गाती हैं की “दखिन दिसा हेरै भरत सकारे, आजु अवइया मोरे राम पियारे। दिवस गिनत मोरी पोरें खियानी, मग जोवत थाके नैन के तारे।
पंडिताइन के कहन लागे मोहन मइया मइया विस्तार था तो
सहुआइन – ‘में यदि भाव का के’ चले गए गोकुल से बलवीरा चले गए…विलखत ग्वाल विसूरति गौयें तलफत जमुना-नीरा-चले गए। में अभाव की गहराई।
सुनाए बिना गुजर न होई कह कह कर गवाए हुए काछी काका के, ‘मन मगन भया तब क्यो बोलै’ में यदि तन्मयता की सिद्धि थी
तो अन्धे युवक के ‘सुधि ना बिसरै मोहिं श्याम तुम्हरे दरसन को’ समैं स्मृति की साधना।
तो ठकुरी बाबा गाते हैं-
खेलै लागे अँगना में कुँवर कन्हया हो।
बोलै लागे मइया नीकी खोटो बलभइया हो।
खटरस भोग उनहिं नहिं भावै रामा,
मइया माखन रोटी खबावै लै बलइया हो।
कितने ही विराट कवि सम्मेलन, कितनी ही अखिल भारतीय कवि- गोष्टियाँ मरी स्मृति की धरोहर हैं। मन ने कहा- खोजो तो उनमें कोई इससे मिलता हुआ चित्र और बुद्धि प्रयास में थकने लगी।
उन भोले भाले ग्रामीणों और शहरी लोगों के बीच तुलना करती है
कवि भी हार न मानने की शपथ लेकर बैठते हैं। वह नहीं सुनना चाहते तो इसे सुनिए। यह मेरी नवीनतम कृति है ध्यान से सुनिए, आदि आदि कह कर वे पंडों की तरह पीछे पढ़ जाते हैं। दोनों ओर से कोई भी न अपनी हार स्वीकार करने को प्रस्तुत होता है और न दूसरे को हराने का निश्चय बदलना चाहता है।
… भाव यदि मनुष्य की क्षुद्रता, दुर्भावना और विकृतियाँ नहीं बहा पाता तब वह उसकी दुर्बलता बन जाता है।
ग्रामीण समाज अपने रस-समुद्र में व्यक्तिगत भेदबुद्धि और दुर्बलताएँ सहज ही डुबा देता है इसी से इस भावस्नान के उपरान्त वह अधिक स्वस्थ रूप प्राप्त कर सकता है।
हमारे सभ्यता-दर्पित शिष्ट समाज का काव्यानन्द छिछला और उसका लक्ष्य सस्ता मनोरंजन मात्र रहता है, इसीसे उसमें सम्मिलित होनेवालों की भेदबुद्धि, एक दूसरे को नीचा दिखलाने के प्रयत्न और वैयक्तिक विषम-ताएँ और अधिक विस्तार पा लेती हैं।
जिस दरिद्र समाज ने इस व्यावसायिक आस्था के सम्बन्ध में मुझे नास्तिक बना दिया उसे अब तक मेरी ओर से धन्यवाद भी नहीं मिल सका।
जब ठकुरी बाबा और उनके साथी बसन्तपंचमी का स्नान करके चले गए तब जीवन में पहली बार मुझे कोलाहर का अभाव अखरा तब से अनेक माघ-मेलों में मैंने उन्हें देखा है।
उनका बाह्य जीवन दीन है और हमारा अन्तर्जीवन रिक्त उस समाज में विकृतियाँ व्यक्तिगत हैं, पर सद्भाव सामूहिक रहते हैं। इसके विपरीत हमारी दुर्बलताएँ समष्टिगत पर शक्ति वैयक्तिक मिलेगी।
इधर दो वर्षों से ठकुरी बाबा माघ मेले में नही आ रहे हैं। कभी-कभी इच्छा होती है कि सैदपुर जाकर खोज करूँ, क्योंकि वहाँ से 33 मील पर उनका गाँव है। उनके कुछ पद मैंने लिख रखे हैं जिन्हें मैं अन्य ग्रामगीतों के साथ प्रकाशित करने की इच्छा रखती हूँ। यदि ठकुरी बाबा से भेंट हो गई तो यह संग्रह और भी अच्छा हो सकेगा।
…व्यक्ति समय के सामने कितना विवश है। समय को स्वीकृति देने के ले भी शरीर को कितना मूल्य देना पड़ता है।
उनके (ठकुरी बाबा) स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रश्न करने पर उत्तर मिला अब चलाचली कै बिरिया नियराय आई है बिटिया रानी। पाके पातन की भली चलाई। जौन दिन भरि जाँय तौन दिन सही।
मैंने हँसी में कहा – तुम स्वर्ग में कैसे रह सकोगे बाबा। वहाँ तो न कोई तुम्हारे कूट पद और उलटवासियाँ समझेगा और न आल्हा ऊदल की कथा सुनेगा। स्वर्ग के गन्धर्व और अप्सराओं में तुम कुछ न जँचोगे।
ठकुरी बाबा का मन प्रसन्न हो आया – कहने लगे – सो तो हमहूँ जानित हैं विटिया।
उस कल्पवास की पुनरावृत्ति न हो सकी। सम्बव है वे नया शरीर माँगने चले गए हों। पर धरती से उनका प्रेम इतना सच्चा, जीवन से उनका सम्बन्ध ऐसा अटूट है कि उनका कहीं और रहना संम्भव ही नहीं जान पड़ता। अथर्व के जो गायक अपने आपको धरती का पुत्र कहते थे ठकुरी बाबा उन्हीं के सजातीय सहे जा सकते हैं। इनके लिए जीवन धरती का चरदान, काव्य उसके सौन्दर्य को अनुभूति, प्रेम उसके आकर्षण की गति और शक्ति उसकी प्रेरणा का नाम है। ऐसे व्यक्ति मुक्ति की ऊँची से ऊँची कल्पना को दूब में खिले नीचे से नीचे फूल पर न्यौछावर कर दें तो आश्चर्य नहीं।
किसी लक्ष्य महाकवि के प्रथम जागरण छन्द के समान पक्षियों का कलरव नींद की निस्तब्धता पर फैल रहा है। रात की गहरी निस्पन्द नींद ने जागे हुए वृक्षों के दीर्घ निश्वास के समान समीर बह रही है। और ऐसे समय में मेरी स्मृति ने मुझे भी किसी अतीतकाल के प्रभात में जगा दिया है। जान पड़ता है ठकुरी बाबा गंगा तट पर बैठ कर तन्मय भाव से प्रभाती गा रहे हैं- जागिए कृपानिधान मंत्री बन बोले। अपनी प्रभाती से वे किसे जगाते हैं, यह कहना कठिन है।
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