Net JRF Hindi Unit 10 : राहुल सांकृत्यायन की ‘मेरी तिब्बत यात्रा’ | Rahul Sankrityayan’s Meree Tibbat Yaatra

Net JRF Hindi Unit 10 : राहुल सांकृत्यायन की ‘मेरी तिब्बत यात्रा’

सरल शब्दों में मेरी तिब्बत यात्रा का परिचय

यह एक यात्रा वृतान्त है, तीन अलग-अलग समय में लेखक द्वारा तिब्बत यात्रा की गई थी। उसी का चित्रण इम वृतान्त में किया गया है। तिब्बत भारत के उत्तर में पड़ता है। सिद्धों और बोद्धो की रचनाओं को प्राप्त करने के लिए राहुल सांकृत्यान ने तिब्बत की यात्रा की। उस समय बिना सरकारी सुविधा के तिब्बत की यात्रा करना मुश्किल होता है। भोट देश तिब्बत को कहा गया है। बिना सरकारी इज़ाज़त के मठो में नहीं जा सकते हैं। परिणाम स्वरूप राहुल ने राजाओं के पत्र लेकर वहाँ की यात्रा की थी।

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रचना – मेरी तिब्बत यात्रा। यह एक यात्रा वृतान्त है। इसके लेखक राहुल सांकृत्यायन जी हैं। इस यात्रा वृतान्त को 1937 ईसवी में प्रकाशित किया गया था।

प्रमुख तथ्य-

सैकड़ों वर्षों से तिब्बत में पड़ी नालंदा विश्वविद्यालय की पुरानी पाण्डुलिपियों का पता लगाया।

इसमें कुल 3 तिब्बत यात्रा का वर्णन है।
इस वृतांत के अंतिम दो अध्याय सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित थे।

पांडुलिपियों के चित्र सरस्वती तथा प्रवासी पत्रिका में प्रकाशित हुए।

पुस्तक की विषय सूची इस प्रकार है

1 ल्हासा से उत्तर की ओर

2 चाड़ की ओर

3 स-क्य की ओर

4 जेन की ओर

5 नेपाल की ओर

कुछ प्रमुख तथ्य-

पहली यात्रा 1929 में किया था-

नालंदा विश्वविद्यालय पांडुलिपियां को यहीं से तिब्बत ले जाया गया था।

राहुल जी बोद्ध भिक्षु के रूप को धारण कर काठमांडू पहुँचे। वहाँ से एक मंगोल भिक्षु लोब-जंग शेरब के साथ तिब्बत में प्रवेश किए। बोद्ध भिक्षु आम्दो गेंदुन चोफेल से मुलाकात हुई।

आर्थिक रूप से कमी होने के कारण 15 महीने में ही वे वापस लौट आए। तिब्बती ग्रंथ, पांडुलिपियां को लेकर 22 खच्चरों पर लादकर कलिम्पोंग लाए। अपनी इस पहली यात्रा में वह 1619 ग्रंथ लेकर लौटे।

इनके भ्रमण में लोकमंगल की बात है, जहाँ जाते थे वहाँ की लोकभाषा भी सिखते थे।

दूसरी यात्रा 1934 में की।

इस पुस्तक में कुल चित्र सूची में 33 तस्वीर है।

इस बार उन्होंने नेपाल की बजाय कश्मीर के रास्ते तिब्बत में प्रवेश किया।

संस्कृत ग्रंथ की मूल पांडुलिपियां देखने को मिलीं, लेकिन उन्हें भारत (उस समय के भारत) लाने की अनुमति राहुल हासिल नहीं कर पाए थे। इन ग्रंथों की फोटोग्राफ या हाथ से नकल करने की अनुमति भी नहीं मिली थी।

तीसरी यात्रा 1936

1936 को राहुल ने तिब्बत की तीसरी यात्रा की। इस बार उन्होंने रूस से तिब्बत की यात्रा की। रूस में उन्होंने विवाह भी किया था। 23 दिन में ही पत्नी को वहाँ छोड़कर तिब्बत की यात्रा के लिए निकल गए थे।

प्रमाणवार्तिक भाष्य जिसके महान रचनाकार थे दार्शनिक धर्मकीर्ति। इस बहुमूल्य ग्रंथ को पूरी दुनिया के विद्वान ढूंढ रहे थे। यह ग्रंथ मूल संस्कृत में था। संस्कृत ग्रंथ नष्ट हो गया था लेकिन यह तिब्बती भाषा में मौजूद था।

इस ग्रंथ को ढूंढने के लिए रूस में विवाह के मात्र 23 दिन बाद अपनी पत्नी को छोड़कर तिब्बत चले आए।

भूमिका प्राक्कथन

मैंने अपनी इस यात्रा को तिब्बत से लौटते ही प्रेस में दे दिया था, किन्तु कुछ कारणों से 36 पृष्ठ तक छपकर काम रूका रहा, और अब तीसरी बार तिब्बत से लौटने के बाद यह पुस्तिका पाठकों के हाथ में जा रही है। 128 वे पृष्ठ के बाद दो तीन पृष्ठ लुप्त हो गए हैं, इसलिए वहाँ सिलसिला कुछ टूटा सा मालूम होगा।

यात्रा के अन्तिम दो अध्याय सरस्वती में निकले थे। चित्र सरस्वती तथा प्रवासी (बंगला) में प्रकाशित हुए थे। हम दोनों पत्रों के प्रभारी हैं।

खण्ड – 1 ल्हासा से उत्तर की ओर

अलग-अलग समय या महीने में यात्रा की गई थी, परिणाम स्वरूप नीचे तारीख लिख देते थे। फेन-बो की यात्रा आनंद जी को चिट्ठी के रूप में लिखी थी। ल्हासा से उत्तर की ओर बढ़ते हुए यात्रा कर रहे हैं। प-या स्थान का नाम है, जहाँ यात्रा की है। प-या को व्यंग पूर्ण अंदाज़ में पाया कहते हैं।

प-या (फेन-बो) 30-7-1934

श्री आनंद जी,

ल्हासा में दो महीना ग्यारह दिन रहे।

इसी बीच विनय पिटक के अनुवाद तथा विज्ञाप्ति के उस भाग को संस्कृत में करने के अतिरिक्त दो महत्वपूर्ण ग्रंथों “तालपत्र के संस्कृत ग्रंथ” )इसकी खोज में कई मठो में गए थे) “अभिसमयालंकार टीका” और “वादन्याय टीका” की खोज पाने का सौभाग्य मिला।

फेंबो की यात्रा- (खुद को राहुल जी नास्तिक कहते हैं)

भोट सरकार से चिट्ठी मिलने वाली है यात्रा संबंधी सुविधा हेतु।

सौभाग्य से ल्हासा के फोटो ग्राफर ‘लक्ष्मीरत्ने’   ने चलना स्वीकार कर लिया। इन्हें तिब्बत के लोग नाती-लाके नाम से बुलाते थे।

अन्य साथी –

इन ची मिन ची, सो नम ग्यल मू छन, गेन दुन छो फेल

अपने साथ बंदूक और खच्चर ले जाते है सभी लोग ।

ल्हासा के बाद पहिला घर तबू-चीका आया जहाँ राहुल जी कहते है की ल्हासा में बिजली भी पैदा की जाती है।

यहीं भोट सरकार का सरकारी टकसाल और सैनिक कार्यालय भी है… बिजली के लिए कुछ अच्छे मकान बनाए गए थे लेकिन किसी ज्योतिष के कहने पर इसमें कार्य नहीं होता। राहुल जी कहते है की उसके फांसी दे देनी चाहिए।

लेखक पा-या पहुंच जाते हैं…लेखक कहता है हमारे लिए पा-या का अर्थ पाया ही है। इतनी मेहनत से जो पाया और बिना चोरों के गोली के शिकार के पा लिया। तबू-चीका के आसपास बहुत चोर थे।

नालंदा तिब्बत 31-7-1934

पा-या से 8 बजे रवाना हुए 6 खच्चर थे… लडू थडू अर्थात बैलों का मैदान दिखाई दिया…

नालंदा बहुत सुंदर और हरियाली युक्त जगह पर है… यह अच्छा विद्या केंद्र था। लामा अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे जब हम लोग पहुंचे तो।

पूछने पर सहृदयता के साथ बताया कि यहाँ तालपत्र की पुस्तकें नहीं है…शाम को शास्त्रार्थ के बाद हम लोग विश्राम किए।

ग्य-ल्ह-खड्ड 1-8-1934

नालंदा से सुबह विदाई ली…बूंदा बांदी शुरू हो गई थी।

मूर्तियां भोट देश में दुर्लभ है… यहाँ की मूर्तियां भारतीय मालूम पड़ती थी।

यहाँ के बिहार में भी हमें तालपत्र की पुस्तकें नहीं मिली। हम लोग ग्य-ल्ह-खड्ड के तरफ चल दिए। उधर हमें एक गाँव के गरीब घर में शरण मिली। गाँव का नाम फं-दा था। यहाँ से उतराई में हम लोग पैदल चले…

आज खच्चरों को खिलाने का काम ‘नाती-ला’ और ‘धर्म वर्धन’ पर पड़ा…

ल्ह-खड्ड-गदोडू – 4/8/1934

अंधेरा था तभी सो नम गुअंजे आ पहुँचा…पूछने पर बताया कि सामान रास्ते में कोई उठा ले गया। हमल लोगों को डर लगा की ये झूठ बोल रहा होगा…लेकिन विश्वास करना पड़ा…वो ऐसे गाँव से था जहाँ चोरी और हत्या आम बात थी…

यहाँ से कल सवेरे ही हम लोग रे-डिड की तरफ रवाना होंगे…

रे-डिड – 5 अगस्त 1934

हमने एक मानी पारकी। फिर देखा, हमारे दो साथी एक छोटी चट्टानपर पत्थर के टुकड़ों को मार रहे हैं, और साथ ही कहते जा रहे हैं- चा-फु, मा-फु (चाय प्रदान करो, -मक्खन प्रदान करो)। मालू होता है, सभी श्रद्धालु यात्री यहाँ पर चा-फु मा-फु करते हैं, तभी तो इस छोटी-सी चट्टान-पर पचासों गोल-गोल गड्ढे हो गए हैं।

हमारे साथियों ने अपनी पिस्तौल और बन्दूक को हाथ में लि लिया, क्योंकि हथियार को बिना हाथ में लिए इस गुम्बाके भीतर जाना निषिद्ध है।

पश्चिमवाले विशालकाय स्तम्भ के पास पहुँचकर हमने रे-डिड् रिम्पोछे की चिट्ठी भीतर गुम्बाके अफसर दे- छड् के पास भेजी। (सुन्दर कमरा दिया जा सकता है, पीने का साफ पानी दिया जा सकता है, लेकिन किताब देखने पढ़ने की अनुमति नहीं थी।)

हमें जो चिट्ठी दी गई थी उसमें सिर्फ कमरे में रहने की बात थी।

पिछली यात्रा में जबरे-डिड़् रिम्पोछे से-रा बिहार में पढ़ते थे, तभी उन्होंने मुझसे कहा था कि उनके बिहार में दीपंकर के हाथ की कुछ पुस्तकें हैं,

रेडिड़् चलने पर के उन्हें दिखाएंगे। उस समय रे-डिड़् रिम्पोछे तिब्बत के राजा नहीं हुए थे। अबकी बार जब उनसे मिला, तब यह चिट्ठी मिली, और उस चिट्ठी में पुस्तक का जिक्र नहीं। यदि मुझसे यह बात लहासा में ही कह दी गई होती, तो शायद मैं ऐसी खतरनाक यात्रा को न करके इस समय को किसी दूसरे काम में लगाता।

मझे तो आशा न थी कि प्रजातंत्र से इतनी समानता रखने वाले रे डिड के चित्रपट यहाँ हो सकते हैं। दामें तो अजन्ता के प्रसिद्ध बोधिसत्व जैसी खड़ी तसवीर है-

वही आभूषण, वही बंकिम ठवनि, वैसे ही कम और सुन्दर आभूषण, वैसी ही विशाल भुजाएँ और वक्ष, वैसी ही उदर-प्रदेश। फोटो लेने की अनुमती न होने से मैं उनकी नक्कल भारत नहीं ला सकता, इसका बड़ा अफ़सोस रहा।

दीपंकर के हाथ की यह पवित्र पुस्तक (जिसमें शायद उनकी हिंदी में रचित वासन-वागीति भी हो) न जाने कब इन नादान रक्षकों के हाथ से सर्वादा के लिए नष्ट हो जाय।

ल्हासा – 10 अगस्त 1934

परसों शाम को मुझे ल्हासा लौट आना पड़ा। मैंने एक सप्ताह और बाहर ही रहने का विचार किया था। पो-सो, गंदन-छो-कोर, येर्वा जैसे मठ तथा भोट-सम्राटों के समय के दो पाषाण-स्तम्भोंको देखना जरूरी था। किन्तु परसों सवेरे हमारे सो-नम्ग्यं-जेपर फिर पागलपन आ गया। उसने और जगह आने से इनकार ही नहीं कर दिया, बल्कि वह अपनी लम्बी तलवार-


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