Net JRF Hindi Unit 9 : अध्यापक पूर्ण सिंह का निबन्ध मजदूरी और प्रेम | Teacher Purna Singh’s Essay on Majadooree aur Prem

Net JRF Hindi Unit 9 : अध्यापक पूर्ण सिंह का निबन्ध मजदूरी और प्रेम

निबन्ध मजदूरी और प्रेम

मजदूरों के प्रति सम्मान के लिए यह निबन्ध लिखा गया है। किसी मजदूर के श्रम का मूल्य हम उसे पैसे देकर नहीं चुका सकते हैं,  उनकी मजदूरी का मूल्य उन्हें सम्मान देकर चुकाया जा सकता है। सरदार पुर्ण सिंह द्विवेदी युग के निबन्धकार माने जाते हैं।

सरदार पूर्ण सिंह जन्म 1881 में हुआ और 1931 में उनकी मृत्यू हुई है। इनके निबन्ध भावात्मक हैं, ललित निबन्ध की श्रेणी में भी इनके निबन्ध आ जाते हैं। हिन्दी में उनके द्वारा लिखित 6 निबन्ध मिलते हैं। इनके निबन्ध 1909 से 1913 के बीच सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुए थे।

1 सच्ची वीरता

2 कन्यादान

3 पवित्रता

4 आचरण की सभ्यता

5 मजदूरी और प्रेम

6 अमेरिका का मस्त योगी वाल्ट व्हिटमैन।

मजदूरी और प्रेम, यह निबन्द आठ भागों में बंटा है-

1 हल चलाने वाले का जीवन

2 गड़रिये का जीवन

3 मजदूरी की मजदूरी

4 प्रेम-मजदूरी

5 मजदूरी औऱ कला

6 मजदूरी और फ़क़री

7 समाज का पालन करनेवाली दूध की धारा

8 पश्चिमी सभ्यता का नया आदर्श़

मजदूरी और प्रेम निबन्ध में मेहनतकश लोगों के श्रम और उसके सच्चे मूल्य की विवेचना गी गई है।

किसान, गड़ेरिया, मजदूर के श्रम का मूल्य केवल पैसे देकर नहीं चुकाया जा सकता। इन लोगों की साधना, महानता व त्याग का मूल्य उनके प्रति प्रेम व सम्मान व्यक्त करके ही चुकाया जा सकता है। हमारा यह कर्तव्य बनता है कि उनके प्रति श्रद्धा एवं स्नेह का भाव अपने हृदय में रखे।

ईश्वर के सच्चे प्रतिनिध वहीं हैं जो कठोर श्रम करते हैं तथा सज्जनता और ईमानदारी से जीवन व्यतीत करते हैं।

परीक्षा उपयोगी तथ्य

1 हल चलाने वाले का जीवन

हल चलाने वाले और भेड़ चराने वाले प्राय: स्वभाव से ही साधु होते हैं। हल चलाने वाले अपने शरीर का हवन किया करते हैं। खेत उनकी हवनशाला है। उनके हवनकुंड की ज्वाला की किरणें चावल के लंबे और सफेद दानों के रूप में निकलती हैं। गेहूँ के लाल-लाल दाने इस अग्नि की चिनगारियों की डालियों-सी हैं।

उसकी मेहनत के कण जमीन में गिरकर उगे हैं और हवा तथा प्रकाश की सहायता से मीठे फलों के रूप में नजर आ रहे हैं। किसान मुझे अन्न में, फूल में, फल में आहुति हुआ सा दिखाई पड़ता है। कहते हैं – ब्रह्माहुति से जगत् पैदा हुआ है। अन्न पैदा करने में किसान भी ब्रहमा के समान है। खेती उसके ईश्वरी प्रेम का केंद्र है। उसका सारा जीवन पत्ते-पत्ते में, फूल-फूल में, फल-फल मे बिखर रहा है। विद्या यह नहीं पढ़ा; जप और तप यह नहीं करता; संध्या-वंदनादि इसे नहीं आते; ज्ञान, ध्यान का इसे पता नहीं; मंदिर, मस्जिद, गिरजे से इसे कोई सरोकार नहीं नहीं केवल साग-पात खाकर ही यह अपनी भूख निवारण कर लेता है।

2) गड़रिये का जीवन

एक बार मैंने एक बूढ़े गड़रिये को देखो। भेड़ों की सेवा ही इनकी पूजा है। जरा एक भेड़ बीमार हुई, सब परिवार पर विपत्ति आई। दिन-रात उसके पास बैठे काट देते हैं। उसे अधिक पीड़ा हुई तो इन सब की आँखें शून्य आकाश में किसी को देखने लग गईं। रातें इसी तरह गुजर गईं। इनकी भेड़ अब अच्छी है। इनके घर मंगल हो रहा है। सारा परिवार मिलकर गा रहा है। इतने में नीले आकाश पर बादल घिरे और झम-झम बरसने लगे। मानो प्रकृति के देवता इनके आनंद से आनंदित हुए।

बूढ़ा गड़रिया आनंद-मत्त होकर नाचने लगा। वह कहता कुछ नहीं, रंग-रंग उसकी नाच रही है। पिता को ऐसा सुखी देख दोनों कन्याओं ने एक-दूसरे का हाथ पकड़कर पहाड़ी राग अलापना आरंभ कर दिया।

ऐसे ही मूक जीवन से मेरा भी कल्याण होगा। विद्या को भूल जाऊँ तो अच्छा है। मेरी पुस्तकें खो जायँ तो उत्तम है। ऐसा होने से कदाचित इन वनवासी परिवार की तरह मेरे दिल में नेत्र खल जाएं और मैं ईश्वरीय झलक देख सकूँ।

चंद्र की सूर्य की विस्तृत ज्योति में जो वेदगान हो रहा है उसे इस गड़रिये की कन्याओं की तरह में सुन तो न सकूँ, परंतु कदाचित प्रत्यक्ष देख सकूँ। कहते हैं, कृषियों ने भी इनको देखा ही था, सुना था। पंडितों की ऊटपटौंग बातों से मेरा जी उकता गया है। प्रकृति की मंद-मंद हँसी में ये अनपढ़ लोग ईश्वर के हंसते हुए ओंठ देख रहे हैं। इन लोगों के जीवन में अद्भुत आत्मानुभव भरा हुआ है। गड़रिए के परिवार की प्रेम-मजदूरी का मुल्य कोन दे सकता है?

मजदूर की मजदूरी-

मजदूर की मजदूरी आपने चार आने पैसे मजदूर के हाथ में रखकर कहा – “यह लो दिन भर की अपनी मजदूरी”। वाह क्या दिल्लगी है। हाथ पाँव, सिर, आँखें इत्यादि सब के सब अवयव उसने आपको अर्पण कर दिए ये सब चीजें उसकी तो थी ही नहीं, ये तो ईश्वरीय पदार्थ थे। जो पैसे आपने उसको दिए वे भी आपके न थे। वे तो पृथ्वी से निकली हुई धातु के टुकडे थे; अतएव ईश्वर के निर्मित थे। मजदूरी का ऋण तो परस्पर की प्रेम-सेवा से चुकता है। अन्न-धन देने से नहीं। वे तो दोनों ही ईश्वर के हैं।

इस माता और इस बहन की सिली हुई कमीज मेरे लिए मेरे शरीर का नहीं- मेरी आत्मा का वस्त्र है। इसका पहनना मेरी तीर्थ यात्रा है। इरस कमीज में उस विधवा के सुख-दुख, प्रेम और पवित्रता के मिश्रण से मिली हुई जीवन-रूपिणी गंगा की याद चली जा रही है। ऐसी मजदूरी और ऐसा काम-प्रार्थना, संध्या और नमाज से क्या कम है? शब्दों से तो प्रार्थना हुआ नहीं करती। ईश्वर तो कुछ ऐसी ही मूक प्रार्थनाएँ सुनता है और तत्काल सुनता है।

3) प्रेम और मजदूरी

मुझे तो मनुष्य के हाथ से बने हुए कामों में उनकी प्रेममय पवित्र आत्मा की सुगंध आती है। राफेल आदि के चित्रित चित्रों में उनकी कला-कुशलता को देख इतनी सदियों के बाद भी उनके अंत: करण के सारे भावों का अनुभव होने लगता है। केवल चित्र का ही दर्शन नहीं, किंतु साथ ही उसमें छिपी हुई चित्रकार की आत्मा तक के दर्शन हो जाते हैं। परंतु यंत्रों की सहायता से बने हुए फोटो निर्जीव से प्रतीत होते हैं।

उनमें और हाथ के चित्रों में उतना ही भेद है जितना कि बस्ती और श्मशान में। हाथ की मेहनत से चित्रों में जो रस भर जाता है वह भला लोहे के द्वारा बनाई हुई चीज में कहीं। मेरा विश्वास है कि जिस चीज में मनुष्य के प्यारे हाथ लगते हैं, उसमें उसके हृदय का प्रेम और मन की पवित्रता सूक्ष्म रूप से मिल जाती है और उसमें मुर्दे को जिंदा करने की शक्ति आ जाती है। होटल में बने हुए भोजन यहाँ नीरस होते हैं क्योंकि वहाँ मनुष्य मशीन बना दिया जाता है। परंतु अपनी प्रियतमा के हाथ से बने हुए रूखे-सूखे भोजन में कितना रस होता है।

जब वह आटे को छलनी से छानती है तब मुझे उसकी उतनी के नीचे एक अदभुत ज्योति की सी नज़र आती है। जब वह मेरे लिए रोटी बनाती है तब उसके चूल्हे के भीतर मुझे तो पूर्व दिशा की नमोसातिमा से भी अधिक आनंदवाधिनी लालिमा देख पड़ती है। यह रोटी नहीं, कोई अमूल्य पदार्थ है। गुरु ने इसी प्रेम से संयम करने का नाम योग रखा है। मेरा यही योग है।

मजदूरी और कला (महत्वपूर्ण)

सोने और लोहे के बदले मनुष्य को बेचना मना है। आजकल भाप की कलों का दाम तो हजारों रूपया है, परंतु मनुष्य कौड़ी के सो-सो बिकते हैं। सोने और चाँदी की प्राप्ति से जीवन का आनंद नहीं मिल सकता। सच्चा आनंद तो मुझे मेरे काम से मिलता है। मुझे अपना काम मिल जाय तो फिर स्वर्गप्राप्ति की इच्छा नहीं, मनुष्य-पूजा ही सच्ची ईश्वर-पूजा है।  मंदिर और गिरजे में क्या रखा है? ईंट, पत्थर, चूना कुछ भी कहो आज से हम अपने ईश्वर की तलाश मंदिर, मस्जिद, गिरजा और पोथी में न करेंगे।

अब तो यही है कि मनुष्य की अनमोल आत्मा में ईश्वर के दर्शन करेंगे ही आर्ट है- यही धर्म है मनुष्य के हाथ से ही ईश्वर के दर्शन कराने वाले निकलते हैं। निकम्मे रहकर मनुष्यों की चिंतन-शक्ति थक गई है। आजकल की कविता में नयापन नहीं। उसमें पुराने जमाने की कविता की पुनरावृत्ति मात्र है। इस नकल में असल की पवित्रता और कुँवारेपन का अभाव है। अब तो एक नए प्रकार का कला-कोशल-पूर्ण संगीत साहित्य संसार में प्रचलित होने वाला है। यदि वह न प्रचलित हुआ तो मनीशों के पहियों के नीचे दबकर हमें मरा समझिए यह नया साहित्य मजदूरों के हृदय से निकलेगा।

उन मजदूरों के कंठ से यह नई कविता निकलेगी जो अपना जीवन आनंद के साथ खेत की मेड़ों का, कपड़े के तागों का, जूते के टॉकों का, लकड़ी की रंगो का, पत्थर की नसों का भेदभाव दूर करेंगे। हाथ में कुल्हाड़ी, सिर पर टोकरी नंगे सिर और नंगे पाँव, धूल से लिपटे और कीचड़ से रंगे चरखा कातने वाली स्त्रियों के गीत संसार के सभी देखों के कौमी गीत होंगे। मजदूरों की मजदूरी ही यथार्थ पूजा होगी। कलारूपी धर्म की तभी वृद्धि होगी। तभी नए कवि पैदा होंगे, तभी नए औलियों का उद्भव होगा। परंतु ये सब के सब मजदूरी के दूध से पलेंगे। धर्म, योग, शुद्धाचरण, सभ्यता और कविता आदि के फूल इन्हीं मजदुर- ऋतुओं के उद्यान में प्रफुल्लित होंगे।

मजदूरी और फकीरी

गेरुए वस्त्रों की पूजा क्यों करते हो? गिरजे की घंटी क्यों सुनते हो? रविवार क्यों मनाते हो? पाँच वक्त नमाज क्यों पढ़ते हो? त्रिकाल संध्या क्यों करते हो? मजदूर के अनाथ नयन, अनाथ आत्मा औऱ अनाश्रित जीवन की बोली सीखो। फिर देखोगे कि तुम्हारा यही साधारण जीवन ईश्वरीय भजन हो गया।

मजदूरी करना जीवनयात्रा का आध्यात्मिक नियम है। जोन ऑव आर्क (Joan of Are) की फकीरी और भेड़ें चराना, टाल्सटाय का त्याग और जूते गाँठना, उमर खेयाम का प्रसन्नतापूर्वक तंबू सीते फिरना, खलीफा उमर का अपने रंग महलों में चटाई आदि बुनना, ब्रह्माज्ञानी कबीर और रैदास का शूद्र होना, गुरू नानक और भगवान श्रीकृष्ण का कूक पशुओं को ताठी लेकर हाँकना-सच्ची फकीरी का अनमोल भूषण है।

समाज की पालन करने वाली दूध की धारा-मजदूरी करने से हृदय पवित्र होता है, संकल्प दिव्य लोकांतर में विचरते हैं। हाथ की मजदूरी ही से सच्चे ऐश्वर्य की उन्नति होती है। जापान में मैंने कन्याओं और स्त्रियों को ऐसी कलावती देखा है कि वे रेशम के छोटे-छोटे टुकड़ों को अपनी दस्तकारी की बदौलत हजारों की कीमत का बना देती हैं, नाना प्रकार के प्राकृतिक पदार्थों और दृश्यों को अपनी सुई से कपड़े के ऊपर अंकित कर देती हैं।

जब तक धन और ऐश्वर्य की जन्मदात्री हाथ की कारीगरी की उन्नति नहीं होती तब तक भारतवर्ष ही की क्या, किसी भी देश या जाति की दरिद्रता दूर नहीं हो सकती। यदि भारत की तीस करोड़ नर-नारियों की उंगलियां मिलकर कारीगरी के काम करने लगें तो उनकी मजदूरी की बदौलत कुबेर का महल उनके चरणों में आप ही आप आ गिरे।

पश्चिमी सभ्यता का एक नया आदर्श-

पश्चिमी सभ्यता का एक नया आदर्श पश्चिमी सभ्यता मुख मोड़ रही है। वह एक नया आदर्श देख रही है। अब उसकी चाल बदलने लगी है। वह कलों की पूजा को छोड़कर मनुष्यों की पूजा को अपना आदर्श बना रही है। इस आदर्श के दर्शाने वाले देवता रस्किन और टालस्टॉय आदि हैं। पाश्चात्य देशों में नया प्रभात होने वाला है। और हो क्यों न? इंजनों के पहिए के नीचे दबकर वहाँ वालों के भाई-बहन नहीं नहीं उनकी सारी जाति पिस गई और जीवन के धुरे टूट गए, उनका समस्त धन घरों से निकलकर एक ही दो स्थानों में अकत्र हो गया।

शोक का विषय है कि हमारे और अन्य पूर्वी देशों में लोगों को मंजदूरी से तो लेशमात्र भी प्रेम नहीं है, पर वे तैयारी कर रहे हैं पूर्वोक्त काली मशीनों का अलिंगन करने की। पश्चिम को विदित हो चुका है कि इनसे मनुष्य का दु:ख दिन पर दिन बढ़ता है। भारतवर्ष जैसे दरिद्र देश में मनुष्य के हाथों की मजदूरी के बदले कलों से काम लेना काल का डंका बजाना होगा।

दरिद्र प्रजा और भी दरिद्र होकर मर जाएगी। चेतन से वेतन की वृद्धि होती है। मनुष्य को तो मनुष्य ही सुख दे सकता है। परस्पर की निष्कपट सेवा ही से मनुष्य जाति का कल्याण हो सकता है।


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