Net JRF Hindi Unit 9 : कुबेरनाथ राय का निबन्ध उत्तरा फाल्गुनी के आसपास
उत्तरा फाल्गुनी के आसपास (Uttara Phalguni Ke Aasapaas)
इस निबन्ध के लेखक कुबेरनाथ राय हैं, यह ललित निबन्धकार हैं। 1933 ईसवी उत्तर प्रदेश में इनका जन्म हुआ था। इनका प्रसिद्ध निबन्ध प्रिया नीलकंठी है।
उत्तरा फाल्गुनी विषाद योग नामक निबन्ध संग्रह में संकलित है। जो 1974 में यह प्रकाशित हुआ है।
निबन्ध का विषय – लेखक ने बदले मौसमों के माध्यम से जिंदगी के बदलते रूप को परिभाषित एवं व्याख्यातित किया है।
उत्तरा फाल्गुनी एक नक्षत्र है। नक्षत्र की विशेषता है कि सूर्य के साथ सिंह राशि में जन्म लेने वाला नक्षत्र। अर्थात सूर्य और सिंह राशि दोनों का योग है, परिणाम स्वरूप जन्म लेने वाला व्यक्ति तेजस्वी स्वभाव का होगा। गदहा पच्चीसी पच्चीस वर्ष की अवस्था को कहा जाता है। उत्तरा फाल्गुनी का समय 40 से 45 वर्ष तक माना है। इस निबन्ध में पच्चीस से पैतालीस वर्ष तक की अवस्था को दर्शाया गया है। उत्तरा फाल्गुनी के बाद का जीवन सहज नहीं है।
वर्षा ऋतु (भाद्रपद) की अंतिम नक्षत्र उत्तर फाल्गुनी है।
25 वर्ष की अवस्था को गदहा पचीसी कहा है, जो जीवन का सावन होता है।
27 वर्ष की अवस्था में भाद्रपद के अशनि संकेत मिलने शुरू होते हैं।
30 वर्ष की अवस्था में काम, क्रोध और मोह के तामिस्त्र सुख भोगते हैं। इस दौरान सिसृक्षा कृतार्थ होती है।
30 से 40 वर्ष के बीच की अवस्था में कर्मठ, सावधान, सचेत जीवन जीते हैं।
40 वर्ष की अवस्था में उत्तरा फाल्गुनी भाद्रपद का अंतिम नक्षत्र और उत्तरा फाल्गुनी की शुरूआत होती है। जरा अर्थात बुढ़ापा और जीर्णता अर्थात कमज़ोरी का आगमन होता है।
40 से 45 वाली अवस्था उत्तरा फाल्गुनी का काल है। लेखक ने इस निबन्ध की रचना अपनी आयु की इसी अवस्था में की थी।
Net JRF उत्तरा फाल्गुनी परीक्षा उपयोगी तथ्य
वर्षा ऋतु की अंतिम नक्षत्र है उत्तरा फाल्गुनी है। हमारे जीवन में गदह-पचीसी सावन-मनभावन है, बड़ी मौज रहती है, परंतु सत्ताइसवें के आते-आते घनघोन भाद्रपद के अशनि-संकेत मिलने लगते हैं, और तीसी के वर्षों में हम विद्युन्यमय भाद्रपद के काम, क्रोध और मोह का तमिस्त्र सुख भोगते हैं। इसी काल में अपने-अपने स्वभाव के अनुसार हमारी सिसृक्षा (सृजन करने की इच्छा) कृतार्थ होती है। फिर चालीसवें लगते-लगते हम भाद्रपद की अंतिम नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी में प्रवेश कर जाते हैं और दो-चार वर्ष बाद अर्थात उत्तराफाल्गुनी के अंतिम चरण में जरा और जीर्णता की आगमनी का समाचार काल-तुरंत (रोग) दूर से ही हिनहिनाकर दे जाता है। वास्तव में सृजन-संपृक्त, सावधान, सतर्क, सचेत और कर्मठ जीवन जो हम जीते हैं वह है तीस और चालीस के बीच।
फिर चालीस से पैंतालीस तक उत्तराफाल्गुनी का काल है। उसके अंदर पग-निक्षेप करते ही शरीर की षटउर्मियों में थकावट आ लगती है, अस्ति, (सत्ता) जायते, (जीत) वर्धते (आगे बढ़ना)। ये तीन धीरे-धीरे शांत होने लगती हैं, उनका वेग कम होने लगता है और इनके विपरीत तीन विपतरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति प्रबलतक हो उठती हैं, उन्हें प्रदोष-बल मिल जाता है, वे शरीर में बैठे रिपुओं के साथ साँठ-गाँठ कर लेती हैं और फल होता है, जरा के आगमन का अनुभव। पैंतालीस के बाद ही शीश परकाश फूटना शुरू हो जाता है, वातावरण में लोमड़ी बोलने लगती है, शुक और सारिका उदास हो जाते हैं, मयूर अपने श्रृंगार-कलाप का त्याग कर देता है और मानस की उत्पलवर्णा मारकन्याएँ चोवा-चंदन और चित्रसारी त्याग कर प्रव्रज्या का बल्कव-वसन धारण कर लेती हैं।
45 वर्ष के बाद शीश पर काश फूटता है, अर्थात बाल सफेद होने लगता है। वातावरण में लोमड़ी (जैसा देश वैसा भेष) बोलने लगती है।
जो हमारे हाथ में था, जिसे करने के लिए हम जनमे थे, वह वस्तुत: घटित होता है पच्चीस और पैंतालीस के बीच। इसके बाद तो मन और बुद्धि के वानप्रस्थ लेने का काल है – देह भले ही एकमधु-दोमधु-असंख्य-मधु साठ वर्ष तक भोगती चले। इस पच्चीस-पैंतालीस की अवधि में भी असल हीर रचती है तीसोत्तरी। तीसोत्तरी के वर्षों का स्वभाव शाण पर चढ़ी तलवार की तरह है, वर्ष-प्रतिवर्ष उन पर नई धार, नया तेज चढ़ता जाता है चालीसवें वर्ष तक। मुझे क्रोध आता है उन लोगों पर जो विधाता ब्रहमा को बूढ़ा कहते हैं और चित्र में तथा प्रतिमा में उन्हें वयोवृद्ध रूप में प्रस्तुत करते हैं।
जवानी एक चमाचम धारदार खड्ग है। उस पर चढ़कर असिधाराव्रत या वीराचार करने वाली प्रतिभा ही पावक-दग्ध होंठों से देवताओं की भाषा बोल पाती है। युवा अंग के पोर-पोर में फासफोरस जलता है और यवा-मन में उस फासफोरस का रूपांतर हजार-हजार सूर्यों के सम्मिलित पावक में हो जाता है। मेरी समझ में सृष्टिकर्ता की, कवि की, विप्लव नायक की, सेनापति की, शूरवीर की, विद्रोही की कल्पना श्वेतकेश वृद्ध के रूप में नहीं की जा सकती। अत: प्रजापति विधाता को सदैव तीस वर्ष के पट्ठे सुंदर, युवा के सुंदर रूप में ही कल्पित करना समीचीन है।
वास्तव में तीसवाँ वर्ष जीवन के सम्मुख फण उठाए एक प्रश्न-चिन्ह को उपस्थित करता है और उस प्रश्न-चिहन को पूरा-पूरा उसका समाधान-मुल्य हमें चुकाना ही पड़ता है।
किसी भी पुरूष या नारी की कीर्ति-गरिमा, इसी प्रश्न-चिह्न की गुरूता और लघुता पर निर्भर करती है। गौतम बुद्ध ने उनतीस वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर अमृत के लिए महाभिनिष्क्रमण किया। यीशु क्राइस्ट ने तीस वर्ष की अवस्था में अपना प्रथम संदेश सरमन ऑन दी माउंट (गिरिशिखिर-प्रजनन) दिया था और तैंतीसवें वर्ष में उन्हें सलीब पर चढ़ा दिया गया। उनका समूचा उपदेश काल तीन वर्ष से भी कम रहा।
तीसोत्तर दशक जीवन का घनघोर कुरूक्षेत्र है। यह काल गदहपचीसी के विपरीत एक क्षुरधार काल है, जिस पर चढ़कर पुरुष या नारी अपने को अविष्कृत करते हैं, अपने मर्म और धर्म के प्रति अपने को सत्य करते हैं तथा अपनी अस्तित्वगत महिमा उद्घाटित करते हैं अथवा कम से कम ऐसा करने का अवसर तो अवश्य पाते हैं। चालीस लगने के बाद पैंतालीस तक यथास्थिति की उत्तराफाल्गुनी चलती है। पर इसमें ही जीवन की प्रतिकूल और अनुकूल उर्मियाँ परस्पर के संतुलित को खोना प्रारंभ कर देती हैं और प्राणशक्ति अवरोहण की ओर उन्मुख हो जाती है।
एक दिन वह भी आएगा जब कोई चिल्लाकर मेरे कानों में कहेगा फाइव ओ क्लाक। पाँच बज गए। कोई मेरे शीश पर घंटा बजा जाएगा, कोई मेरे हृदय में बोल जाएगा, बहुत हुआ। बहुत भोगा। अब नहीं। अब, अहं अमृतं इच्छामि। अहं वानप्रस्थ चरिष्यामि। और तब मैं व्यवस्था के पुतलीघर की इन यंत्रकन्याओं से माफी माँगकर उत्तर-पुरूष की जय जयकार बोलते हुए मंच से बाहर आ जाऊँगा और अपने को विसर्जित कर दूँगा। लोकारण्य में, खो जाऊँगा अपरिचित, वृक्षोपम, अवसर प्राप्त, रिटायर्ड स्थाणुओं के महाकांतार में। पर अभी नहीं, अभी तो मैं विश्वेश्वर के साँड की तरह जवान हूँ।
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