Net JRF Hindi Unit 9 : आचार्य रामचन्द्र शुकल का निबन्ध कविता क्या है
कविता क्या है निबन्ध का परिचय (Introduction to Essay Kavita Kya Hai?)
“कविता क्या है” सैंधांतिक निबन्ध है। निबन्ध के माध्यम से नई मान्यताओं की स्थापना की गई है। जिस प्रकार प्रेम को परिभाषित नहीं किया जा सकता उसी प्रकार कविता को भी सटीक परिभाषित नहीं किया जा सकता है। अलग-अलग विद्वानों की अलग-अलग परिभाषा हो सकती है। विचारपरक इस निबंध की विशेषता है। 1909 में यह निबन्ध सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।
“कविता क्या है” निबन्ध 1939 में दोबारा चिंतामणि भाग-1 में प्रकाशित किया गया है। इसमें कुल 17 निबन्ध संकलित हैं। चिंतामणि भाग-1 का पूर्व नाम विचारवीथी था, तब इसमें 13 संख्या थी, विचारवीथी 1930 में प्रकाशित हुआ था। इसका संपादन कार्य आचार्य शुक्ल ने किया है।
कविता क्या है, नाम से एक पुस्तक भी है। उसके रचनाकार का नाम विश्वनाथ प्रसाद तिवारी है। यह 1999 में यह पुस्तक लिखी गई है।
कविता क्या है? निबन्ध का सारांश (Kavita Kya Hai? Summary of Essay)
कविता क्या है? परीक्षा उपयोगी तथ्य Kavita Kya Hai exam useful facts
कविता क्या है निबन्ध के लेखक आचार्य रामचन्द्र शुकल हैं।
विषय – कविता क्या है? निबन्ध सर्वप्रथम सरस्वती पत्रिका में सन् 1909 में प्रकाशित हुआ था। फिर इसे चिंतामणि भाग-1 में संकलित किया गया।
कविता क्या है निबन्ध का सारांश व तथ्य
मनुष्य अपने भावों, विचारों के लिए दूसरों के भावों, विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलाता और कहीं लड़ाता हुआ अन्त तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है।
जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आयी है, उसे कविता कहते हैं।
सभ्यता के आवरण और कविता
ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती जाएगी त्यों-त्यों कवियों के लिए यह काम बढ़ता जायेगा। मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबन्ध रखने वाले रूपों और व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से पदों से हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएंगे त्यों त्यों एक और तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।
काव्य में अर्थग्रहण मात्र से काम नहीं चलता, बिम्बग्रहण अपेक्षित होता है। यह बिम्बग्रहण निर्दिष्ट, गोचर और मूर्त विषय का ही हो सकता है। रूपए का डेढ़ पाव घी मिलता है। इस कथन से कल्पना में यदि कोई बिन्ब या मूर्ति उपस्थित होगी तो वह तराजू लिए हुए बनिए की होगी जिससे हमारे करूण भाव का कोई लगाव न होगा। बहुत कम लोगों को घी खाने को मिलता है, अधिकतर लोग रूखी-सूखी खाकर रहते हैं, इस तथ्य तक हम अर्थग्रहण परम्परा द्वारा इस चक्कर के साथ पहुँचते हैं- एक रूपए का बहुत कम घी मिलता है, इससे रूपए वाले ही घी खा सकते हैं, पर रूपए वाले बहुत कम हैं, इससे अधिकांश जनता भी नहीं खा सकती रूखी-सूखी खाकर रहती है।
बिम्बग्रहण वहीं होता है जहाँ कवि अपने सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा वस्तुओं के अंग-प्रत्यंग, वर्ण, आकृति तथा उनके आसपास की परिस्थिति का परस्पर संश्लिष्ट विवरण देता है। बिना अनुराग के ऐसे सूक्ष्म ब्यौरों पर न दृष्टि जा ही सकती नरम ही सकती है। अत: जहाँ ऐसे पूर्ण और संश्लिष्ट चित्रण मिले, वहाँ समझना चाहिए कि कवि ने बाह्य प्रकृति को आलम्बन के रूप में ग्रहण किया है।
कविता और सृष्टि प्रसार
काव्यदृष्टि कहीं तो –
1 नरक्षेत्र के भीतर रहती है।
2 कहीं मनुष्येत्तर बाह्य सृष्टि के
3 कहीं समस्त चराचर के।
पहले नरक्षेत्र को लेते हैं। संसार में अधिकतर कविता इसी क्षेत्र के भीतर हुई है। नरत्व की बाह्य प्रकृति और अन्त: प्रकृति के नाना संबन्धों और पारस्पारिक विधानों का संकलन या उद्भावना ही काव्यों में मुक्तक हो या प्रबन्ध अधिकतर पाई जाती है।
काव्य और व्यवहार
भावों या मनोविकारों के विवेचन में हम कह चुके हैं कि मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त करने वाली मूल वृत्ति भावात्मिकता है। केवल तर्क-बुद्धि या विवेचन के बल से हम किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होते। जहाँ बुद्धि या विवेचन के बल से हम किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होते। जहाँ जटिल बुद्धि-व्यापार के अंतर में किसी कर्म का अनुष्ठान देखा जाता है वहाँ भी तह में कोई भाव या वासना छिपी रहती है। चाणक्य जिस समय अपनी नीति की सफलता के लिए किसी निष्ठुर व्यापार में प्रवृत्त दिखाई पड़ता है। पर थोड़ा अन्तर्दष्टि गड़ाकर देखने से कौटिल्य को नचाने वाली डोर का छोर भी अन्त:करण के रागात्मक खण्ड की ओऱ मिलेगा। प्रतिज्ञा-पूर्ण की आनन्द भावनो और नन्दवंश के क्रोध या वैर की वासना बारी बारी से उस डोर को हिलाती हुई मिलेगी।
मार्मिक तथ्य
अत: यह कहा जा सकता है कि ज्ञान ही भावों में संचार के लिए मार्ग खोलता है। ज्ञान प्रसार के भीतर ही भाव-प्रसार होता है। आरम्भ में मनुष्य की चेतना सत्ता अधिकतर इन्द्रिय ज्ञान की समष्टि के रूप में ही रही। फिर ज्यों-त्यों अन्त:करण का विकास होता गया और सभ्यता बढ़ती गई त्यों-त्यों मनुष्य का ज्ञान बुद्धि – व्यवसायात्मक होता गया। अब मनुष्य का ज्ञानक्षेत्र बुद्धि-व्यवसायात्मक या विचारात्मक होकर बहुत ही विस्तृत हो गया है। अत: उसके विस्तार के साथ हमें अपने हृदय का विस्तार भी बढ़ाना पड़ेगा।
मनुष्यता की उच्च भूमि
कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत के बीच क्रमश: उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती है। भावयोग की सबसे उच्च कक्षा पर पहुँचे हुए मनुष्य का जगत के साथ पूर्ण तादात्म्य हो जाता है, उसकी अलग भावसत्ता नहीं रह जाती, उसका हृदय विश्व- हृदय हो जाता है। उसकी अश्रुधारा में जगत की अश्रुधारा का, उसके ह्रास-विलास में जगत के आनन्द-नृत्य का, उसके गर्जन-तर्जन का आभास मिलता है।
भावना या कल्पना
यहाँ पर अब यह कहने की आवश्यकता प्रतीत होती है कि उपासना भावयोग का ही एक अंग है। पुराने धार्मिक लोग उपासना का अर्थ ध्यान ही लिया करते हैं। जो वस्तु हमसे अलग है, हमसे दूर प्रतीत होती है, उसकी मूर्ति मन में लाकर उसके सामीप्य का अनुभव करना ही उपासना है। साहित्य वाले इसी को भावना कहते हैं और आजकल के लोग कल्पना।
“जिनकी भावना या कल्पना शिथिल या अशक्य होती है, किसी कविता या सरस उक्ति को पढ़-सुनकर उनके हृदय में मर्मिकता होते हुए भी वैसी अनुभूति नहीं होती”।
कल्पना के दो प्रकार होते हैं – विधायक कल्पना और ग्राहक कल्पना।
कवि में विधायक कल्पना अपेक्षित होती है और श्रोता या पाठक में अधिकतर ग्राहक। अधिकार कहने का अभिप्राय यह है कि कवि पूर्ण चित्रण नहीं करता वहाँ पाठका या श्रोता को भी अपनी ओर से कुछ मूर्ति-विधान करना पड़ता है।
मनोरंजन-
प्राय: सुनने में आता है कि कविता का उद्देश्य मनोरंजन है। पर जैसा कि हम पहले कह आए हैं, कविता का अन्तिम लक्ष्य जगत् के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य स्थापन है।
कविता और कहानी का अन्तर स्पष्ट है। कविता सुनने वाला किसी भाव मे मग्न रहता है और कभी-कभी बार-बार एक ही पद्य सुनना चाहता है। पर कहानी सुनने वाला आगे की घटना के लिए आकुल रहता है। कविता सुनने वाला कहता है, जरा फिर तो कहिए। कहानी सुनने वाला कहता है, हाँ। तब क्या हुआ।
सौंदर्य
सौंदर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं है, मन के भीतर की वस्तु है।
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