Study Material : उपभोक्तावाद की संस्कृति का सारांश (Study Material : Class – 9 upabhoktaavaad kee sanskrti)
उपभोक्ता का अर्थ (Meaning of Consumer)
भोक्ता का अर्थ होता है, किसी वस्तु का भोग करना या उपयोग करना। बज़ार से समान खरीदने वाले व्यकिति को उपभोक्ता कहते हैं, क्योंकि वह खरीदी गई वस्तु का उपयोग (भोग) करता है। परिणाम स्वरूप यह कहा जा सकता है, उपभोक्ता वह व्यक्ति या संगठन है जो किसी वस्तु या सेवा का उपयोग करता है। उपभोक्ता को जिस वस्तु की आवश्यकता होती है उसी वस्तु का उत्पाद किया जाता है, साथ ही उसके मूल्य तय किया जाता है।
उपभोक्तावाद की संस्कृति अध्याय का परिचय (Introduction to the Chapter Culture of Consumerism)
अक्सर हम बज़ार कोई आवश्यक वस्तु लेने जाते हैं, लेकिन जब हम बज़ार पहुँचते हैं तो हमारी नज़र अनेक वस्तुओं पर जाती है। उन अनेक वस्तुओं में से कोई वस्तु को लेने का मन करता है, मन करता है, लेकिन वह वस्तु हमारे लिए आवश्यक नहीं होती अर्थात हम अपने मन की खुशी के लिए वह वस्तु खरीद लेते हैं, वह वस्तु अनावश्यक भी हो सकती है और अत्यधिक महँगी भी हो सकती है।
उदाहरण के लिए – 1) पीज़्जा, बर्गर आदि यह खाद्य पदार्थ हैं, इन्हें खाना हमारी आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह खाद्य पदार्थ खाने का मन हो सकता है। इन्हें खाने से सेहत खराब होती है, और यह भारतीय संस्कृति के खाद्य पदार्थ भी नहीं है।
2) हो सकता है हम कोई ऐसी महँगी वस्तु खरीद रहें हों जिसे यदि हम कम रूपयों में खरीदें तो भी हमारा काम हो जाए, जैसे – घड़ी, घडी का मुख्य उद्देश्य समय बताना है, लेकिन समय बताने वाली घड़ी ही कुछ लोग एक हज़ार की खरीदते हैं, कुछ लोग एक लाख की खरीदते हैं। अर्थात अधिक रूपये खर्च करना आवश्यक नहीं था बल्कि शौक के लिए खर्च किए गए।
बज़ार में मौजूद प्रत्येक वस्तु खरीदी व बैंची जा रही है, परिणाम स्वरूप समाज में एक वर्ग वह है जो अर्थिक रूप से कमज़ोर है और अपनी अवश्यकताओं की वस्तु भी नहीं खरीद सकता है। एक वर्ग वह है जो अपनी अवश्यकताओं की वस्तु ही खरीद पाने में समर्थ है। एक उपभोक्ता वह है जो उन चीज़ो का भोग करता है, जिन चीज़ो का भोग करने की उसे अवश्यकता ही नहीं है। अर्थात वह उन चीज़ो को भोग कर रहा है जो उसे अमीर बताती हैं, या फिर उन चीज़ो के विज्ञापन से उपभोक्ता प्रभावित हो गया है।
हम बात कर रहें हैं, श्यामाचरण दुबे द्वारा लिखे निबन्ध उपभोक्तावाद की संस्कृति की, जिसमें लेखक ने उपभोक्ता के अनावश्यक उपभोग पर अपने विचार स्पष्ट किए हैं।
श्यामाचरण दुबे का परिचय (Introduction of Shyamacharan Dubey)
श्यामाचरण दुबे का जन्म सन् 1922 में मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में हुआ। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से मानव विज्ञान में पीएच.डी. की है। वे भारत के अग्रणी समाज वैज्ञानिक रहे हैं। उनका देहांत सन् 1996 में हुआ।
मानव और संस्कृति, परंपरा और इतिहास बोध, संस्कृति तथा शिक्षा, समाज और भविष्य, भारतीय ग्राम, संक्रमण की पीड़ा, विकास का समाजशास्त्र, समय और संस्कृति हिंदी में उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। प्रो. दुबे ने विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया तथा अनेक संस्थानों में प्रमुख पदों पर रहे। भारत की जनजातियों और ग्रामीण समुदायों पर केंद्रित उनके लेखों ने बृहत समुदाय का ध्यान आकर्षित किया है। वे जटिल विचारों को तार्किक विश्लेषण के साथ सहज भाषा में प्रस्तुत करते हैं।
उपभोक्तावाद की संस्कृति का संक्षिप्त सारांश व अर्थ (Brief summary and Meaning of the Culture of Consumerism)
उपभोक्तावाद की संस्कृति निबंध बाज़ार की गिरफ़्त में आ रहे समाज की वास्तविकता को प्रस्तुत करता है। लेखक का मानना है कि हम विज्ञापन की चमक-दमक के कारण वस्तुओं के पीछे भाग रहे हैं, हमारी निगाह गुणवत्ता पर नहीं है। संपन्न और अभिजन वर्ग द्वारा प्रदर्शनपूर्ण जीवन शैली अपनाई जा रही है, जिसे
सामान्य जन भी ललचाई निगाहों से देखते हैं। यह सभ्यता के विकास की चिंताजनक बात है, जिसे उपभोक्तावाद ने परोसा है। लेखक की यह बात महत्वपूर्ण है कि जैसे-जैसे यह दिखावे की संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति और विषमता भी बढ़ेगी।
उपभोक्तावाद की संस्कृति का सारांश (Summary of the Culture of Consumerism)
लेखक ने इस अध्याय में उपभोक्ता के द्वारा अनावश्यक उपभोग के बारे में अपने विचार स्पष्ट रूप से व्यक्त किए हैं। अनावश्यक उपभोग का मुख्य कारण विज्ञापन को माना है। उपभोक्ता अब यह विचार ही नहीं करता कि उसके लिए क्या सही है या क्या गलत है।
विज्ञापन में हर वस्तु का विज्ञापन इस प्रकार किया जाता है, जैसे उस वस्तु से अच्छी कोई वस्तु नहीं है और यदि उस वस्तु का इस्तेमाल नहीं किया तो उपभोक्ता का नुकसान हो जाएगा। पहले लोग उस वस्तु का भोग करते थे जिसकी उन्हें अवश्यकता थी, लेखक का कहना है अब सुख की व्याख्या बदल गई है। अब लोग भोग को सुख समझते हैं, यह समाज में नया बदलाव आया है।
अब बाज़ार विलासिता की वस्तुओं से भरा है। जिनकी हमें अवश्यकता नहीं है, लेकिन हमने उन्हें आवश्यक समझ लिया है। लेखक का कहना है दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुएँ खरीदनी चाहिए। अब समाज बहुविज्ञापित और कीमती ब्रांड खरीदना ही पसंद करता है। सौंदर्य प्रसाधनों (cosmetics) में लगातार नई चीजे जुड़ती जा रही हैं।
लेखक ने सौंदर्य प्रसाधनों (cosmetics), साबुन, पर्फ्यूम, पाँच सितारा होटल (five star hotel), कीमती म्यूज़िक सिस्टम, पाँच सितारा अस्पताल (five star hospital) आदि का उदाहरण देकर यह बताया है कि किस प्रकार इनका विज्ञापन किया जाता है और विज्ञापन के माध्यम से यह वस्तुएँ आवश्यक और उपयोगी बताई जाती हैं। हम बिना तर्क किए सही गलत में फर्क किए विज्ञापनो को सत्य मानकर इन वस्तुओं का उपभोग कर रहें हैं।
लेखक का मानना है उपभोक्ता की जिस संस्कृति का विकास भारत में हो रहा है, वह हमें हमारी संस्कृति से कहीं न कहीं दूर कर रहा है। अब हम पश्चिम की संस्कृति का उपनिवेश बन रहे हैं। हमारी नई संस्कृति अनुकरण (simulation) की संस्कृति है। विज्ञापन के द्वारा हमें सम्मोहित करके हमारा वशीकरण किया जा रहा है, यह गंभीर चिंता का विषय है। लेखक का कहना है पीज़ा और बर्गर कितने ही आधुनिक क्यों न हो वे कूड़ा खाद्य है। दिखावे की संस्कृति के परिणाम स्वरूप सामाजिक अशांति बढ़ेगी।
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