प्रेमचन्द (कर्मभूमि भाग – 1 अध्याय 2 व अध्याय 3) Study Material | (Karmabhumi Part – 1 Chapter 2 and Chapter 3)
कर्मभूमि अध्याय – 2 का परिचय (Introduction to Karmabhoomi Chapter – 2)
माता के स्वर्गवास के बाद संतान के साथ किस प्रकार अन्याय होता है, उसका चित्रण कर्मभूमि के अध्याय दो में देखने को मिलता है। अमरकांत को अपनी माता का प्रेम तो नहीं मिला साथ ही सौतेली माँ के अनुचित व्यवहार का समना भी करना पड़ा, परिणाम स्वरूप अमरकांत के जीवन की दिशा ही परिवर्तित हो गई।
कर्मभूमि अध्याय – 2 का सारांश (Summary of Karmabhoomi Chapter – 2)
अमरकांत के पिता लाला समरकान्त उद्योगी पुरूष थे। अमरकांत के दादाजी की जब मृत्यु हुई थी तब सिर्फ एक झोपड़ी थी, अर्थात समरकान्त ने अपनी मेहनत से लाखो की सम्पत्ति जमा की थी। समरकान्त अत्यधिक मेहनती व्यक्ति हैं, साथ ही वह पूजा-पाठ भी बहुत करते थे। अमरकांत जब लगभग सात साल का था तभी उसकी माता का देहांत हो गया परिणाम स्वरूप समरकान्त ने दूसरा विवाह कर लिया। अमरकांत ने दूसरी माँ को स्वागत किया लेकिन कुछ ही दिनों में दूसरी माँ ने सौतेलापन दिखाना शुरू कर दिया जिस कारण अमरकांत की दूसरी माँ से दूरी हो गई। समरकान्त के विचार भी अमरकांत से मेल नहीं खाते हैं परिणाम स्वरूप पिता-पुत्र के बीच स्नेह का बंधन समाप्त हो गया।
समरकान्त अपनी संपत्ति को पुत्र से ज्यादा मूल्यवान समझते थे। अमरकांत कू सौतेली माँ चाहती थी के अमरकांत को घर से निकाल दिया जाए और सारी सम्पत्ति की मालकिन उसकी बेटी नैना हो जाए। समरकान्त की दूसरी पत्नी से पुत्र की प्राप्ति ना होने के कारण अपनी सम्पत्ति की रक्षा के लिए अमरकांत की अवश्यकता थी परिणाम स्वरूप विमाता की इच्छा की पूर्ति नहीं हुई।
अमरकांत के माता-पिता से संबन्ध अच्छे नहीं थे लेकिन अमरकांत और नैना (भाई-बहन) में अत्यिधिक स्नेह था। नैना की सूरत अमरकांत से अत्यधिक मेल खाती थी ऐसा लगता है कि दोनों सगे भाई बहन हैं। माता चाहती थी कि नैना अमरकांत से दूर रहे लेकिन नैना अपने भाई को इस लायक नहीं समझती थी कि उससे दूर रहे परिणाम स्वरूप नैना की माता नैना को भी पसंद नहीं करती थी। उसकी अपने एक पुत्र की चाहत थी लेकिन यह इच्छा इच्छी ही रही और वह संसार से विदा हो गई।
अमरकांत की आयु उन्नीस साल थी लेकिन वह शरीर और बुद्धि दोनों से किशोर था। दस साल से लगातार पढ़ने के बाद भी अभी तक वह अठवीं कक्षा तक ही पहुँचा था। विवाह के लिए बुद्धि नहीं देखी जाती, आयु के परिणाम स्वरूप समरकांत अमरकांत का विवाह कर देना चाहते थे। लखनऊ के एक धनी परिवार में रिश्ते की बात चली उस परिवार में विधवा माता के अतरिक्त कोई और नहीं था परिणाम स्वरूप अमरकांत व कन्या का विवाह हो गया।
अमरकांत के विवाह को दो साल हो चुके थे, लेकिन अमरकातं व उनकी पत्नी दोनों में कोई सामंजस्य नहीं था। दोनों के विचार व व्यवहार अलग थे। विवाह के बाद समरकांत अमरकांत को घर के काम में लगाना चाहते थे लेकिन अब अमरकांत को विद्याभ्यास मं अत्यधिक रूचि हो गई थी।
कर्मभूमि अध्याय – 3 का परिचय (Introduction to Karmabhoomi Chapter – 3)
कर्मभूमि अध्याय तीन में अमरकांत के निजी जीवन का चित्रण किया गया है। अमरकांत के अपने पिता के साथ मधुर संबन्ध नहीं है साथ ही अमरकांत व उसकी पत्नी सुखदा के बीच भी तनाव बना रहता है, इसका कारण मात्र दोनों के विचारों का आपस मे मेल न खाना है।
कर्मभूमि अध्याय – 3 का सारांश (Summary of Karmabhoomi Chapter – )
स्कूल से लौटकर अमरकांत नियमानुसार छोटी कोठरी में जाकर चरखा चलाने बैठ गया। बहुत बड़े घर में जहाँ पुरी बरात रूक सकती है, उस घर में अमरकांत ने अपने लिए एक छोटी सी कोठरी पसंद की थी। मकान का इस प्रकार इंतज़ाम किया था कि चोर घर में ना आ सकें, परिणाम स्वरूप नीचे के तल्ले में हवा व प्रकाश अन्दर नहीं आते थे। ऊपर के दोनों तल्ले हवादार और खुले हुए थे। कमरों के आगे एक सायबान था, जिसमें गायें बँधती थीं, समरकांत पक्के गोभक्त थे।
अमरकांत सूत कातने में मग्न था तभी नैना ने आकर कहा – “क्या हुआ भैया, फ़ीस जमा हुई या नहीं? मेरे पास बीस रुपये हैं, यह ले लो। मैं कल और किसी से माँग लाऊँगी” अमरकांत ने कहा – “आज ही फ़ीस जमा करने का दिन था, अब पैसे लेकर क्या करूँगा?” नैना यह सुनकर बहुत उदास हो गई। उसने कहा – “तुमने कहा नहीं नाम न कटो”। अमरकांत ने कहा मैंने सब कहा लेकिन उन्होंने मेरी सुनी नहीं। यह सुनकर नैना गुस्सा होते हुई बोली – “मैं तुम्हें अपने कड़े दे रही थी क्यों नहीं लिए? नैना बहुत दुखी हो गई परिणाम स्वरूप अमरकांत ने बता दिया कि मैंने फ़ीस जमा कर दी है, साथ ही फ़ीस से संबन्धित अपने दोस्त द्वारा फ़ीस जमा करने की सारी कथा सुना दी।
अमरकांत ने नैना से पूछा तुम्हारे पास बीस रूपये कहाँ से आए? अमरकांत के बहुत पूछने पर नैना ने बताया की उसने यह पैसे दादा (समरकांत) से लिए हैं। यह जानकर अमरकांत बहुत गुस्सा हुआ और रूपये ज़मीन पर फैंक दिए, साथ ही रूपये वापस लौटाने के लिए कहा। तभी समरकांत आ गए उन्हें देखकर नैना की सिसकियाँ बन्द हो गईं। समरकांत ने पूछा – “चरखा चला रहा है, इतनी देर में कितना सूत काता होगा? दो चार रूपये का?” अमरकांत ने उत्तर दिया चरखा रूपये के लिए नहीं आत्म-शुद्धि के लिए चलाया जाता है।
समरकांत को अत्यधिक क्रोधित होकर बोले – “तुम सारा दिन स्कूल में रहो, घर आओ तो चरखे पर बैठ जाओ, शाम को तुम्हारे जलसे चलते हैं, रात को तुम्हारी स्त्री पाठशाला खुले तो घर का काम कौन करे? मैं बैल नहीं हूँ, तुम्हीं लोगों के लिए इस जंजाल में फँसा हुआ हूँ। अपने ऊपर लाद न ले जाऊँगा। तुम्हें कुछ तो मेरी मदद करनी चाहिए। अमरकांत ने कहा – मुझे धन की अवश्यकता नहीं है आपकी भी उम्र हो गई है इसलिए आप भी भगवत-भजन कीजिए। समरकांत ने भी कहा – धन नहीं रहेगा तो भीख माँगोगे, यौ चैन से बैठकर चरखा नहीं चलाओगे। अमरकांत ने फिर उत्तर दिया – संसार धन के लिए प्राण दे, मुझे धन की इच्छा नहीं, एक मजूर भी धर्म और आत्मा की रक्षा करते हुए जीवन का निरवाह कर सकता है। परिणाम स्वरूप यह स्पष्ट हो जाता है कि अमरकांत समरकांत के व्यपार में सहयोग नहीं करना चाहता बल्कि एक मजदूर की तरह परिश्रम करके अपना जीवन व्यतीत करना चाहता हैं।
समरकांत के जाने के बाद सिल्लो आकर कहती है की – भैया, तुम्हें भौजी बुला रही है। पहले तो अमरकांत ने गुस्से से जाने के लिए मना कर दिया जब महरी लौटने लगी तो अमरकांत ने कहा जाकर कह दो अभी आ रहें हैं। सिल्लो का पूरा नाम कोशल्या है, सीतला में उसने पति, पुत्र और अपनी एक आँख खो दी थी। सिल्लो को नौकर-चाकर तक डाँटते रहते थे, सिर्फ अमरकांत ही उसे मनुष्य समझता है।
अमरकांत प्रसन्न मुख से सुखदा के पास गया। सुखदा ने भी अमरकांत से अपना समय सुखदा को न देने की शिकायत की और कहा इस बार मुझे आए छ: महीने हो गए हैं, अब मुझे जाने दो जब जरूरत समझो बुला लेना। दो साल की शादी में सुखदा दो बार एक-एक महीने रहकर मायके चली गई थी। इस बार उसे छ: महीने हो गए थे। सुखदा सदैव सुख-सुविधाओं में रहने वाली स्त्री रही है, उसने कभी किसी चीज की कमी नहीं देखी। भोग-विलास को सुखदा मूल्यवान समझती थी, सुखदा भी अमरकांत को घर के कामकाज के हिस्सा लेने के लिए समझाती थी। अमरकांत उसकी बातें सदैव हँसी में टाल देता है। कभी-कभी अमरकांत को घर आने में देर हो जाती तो सुखदा व्यंग्य कर देती। दोनों आपस में साहित्य और इतिहास की चर्चा करते थे, लेखक का कहना है कि दोनों रेत और पानी की तरह थे, जो एक पल के लिए मिलकर पृथक हो जाते थे।
सुखदा का कहना है कि चरखे और जलसों में जो समय देते हो वह दुकान पर दिया करो। अमरकांत के यह बताने पर कि आज फ़ीस के कारण उसे शर्मिंदा होना पड़ा है तो सुखदा ने कहा मेरे पास एक हजार रूपये पड़े हैं, तुम मुझे बता देते, मुझसे फ़ीस के रूपये ले लेते, मुझसे नहीं ले सकते तो अम्मा से ले लेते। सुखदा ने यह प्रस्ताव रख दिया कि मेरे साथ अम्मा के यहाँ चलो वहाँ मन लगा के पढ़ना। अमरकांत ने कहा – मुझे डिग्री इतनी प्यारी नहीं है कि मैं इसके लिए ससुराल की रोटी तोड़ू। यह सुनने के बाद सुखदा ने इस विषय की चर्चा को समाप्त करना अवश्यक समझा और अमरकांत को नाश्ता करने के लिए कहा। अमरकांत जब नाश्ता करके उठा तो सुखदा ने फिर से उससे दुकान में बैठने का आग्रह किया।
सुखदा व अमरकांत दोनों ही एक दूसरे की भवनाओं का सम्मान नहीं करते परिणाम स्वरूप दोनों में तनाव बना रहता है।ट
निष्कर्ष (Conclusion)
प्रेमचंद जी द्वारा लिखित उपन्यास कर्मभूमि के अध्याय दो व तीन का सारांश बताया गया है। यदि आप प्रत्येक अध्याय की जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो नीचे क्लिक करें-
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