प्रेमचन्द द्वारा लिखित उपन्यास कर्मभूमि का सारांश : रेणुका का नागर में आगमन | Summary of the Novel Karmabhoomi

प्रेमचन्द Study Material: कर्मभूमि (कर्मभूमि भाग – 1 अध्याय – 4

कर्मभूमि अध्याय – 4 का परिचय (Introduction to Karmabhoomi Chapter – 4)

इस अध्याय में अमरकान्त और सुखदा के बीच अमरकान्त की नौकरी के लिए तनाव बना रहता है। सुखदा बहुत दिनों तक माँ से मिलने नहीं जाती परिणाम स्वरूप सुखदा की माता रेणुका सुखदा के नगर में ही रहने आ जाती है।

कर्मभूमि अध्याय – 4 का सारांश (Summary of Karmabhoomi Chapter – 4)

अमरकान्त मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में प्रान्त में सर्वप्रथम आया। उसके बाद अमरकान्त ने कई बड़ी-बड़ी कोठियों में पत्र-व्यवहार का काम करना शुरू कर दिया। समरकांत के व्यवसाय-निति के कारण उनकी बिरादरीवाले उनसे जलते थे परिणाम स्वरूप पिता-पुत्र में मतभेद का तमशा देखना चाहते थे। समरकांत ने पहले अमरकान्त के इस काम का विरोध किया बाद में यह सोच कर कि कुछ न कुछ सीख जायेगा उन्होंने विरोध करना छोड़ दिया।

सुखदा ने अमरकान्त के काम का बहुत ज्यादा विरोध किया। उसे यह पसंद नहीं था कि उसका पति दस पांच रूपए के लिए किसी की खुशामद करे। अमरकान्त ने शान्तिपूर्वक सुखदा से कहा जब तक अपनी योग्यता का मालूम नहीं था तब तक पिताजी को कष्ट देता था लेकिन अब मुझे लाला जी खुशी से पैसे दें तो भी ना लूँ। अमरकान्त का कहना था कि मैं अपनी अवश्यकता पुरी करने के लिए कमा लेता हूँ। सुखदा ने कहा कि पिताजी से रूपये लेना अपमान समझते हो तो मैं ही क्यों उन पर आश्रित रहूँ, मैं भी पाठशाला में नौकरी करूँ या सिलाई का काम ले लूँ। अमरकान्त ने कहा तुम्हें काम करने की जरूरत नहीं है। परिणाम स्वरूप सुखदा ने भी अपनी वह अवश्यकताएँ गिना दी जिसके लिए उसे रूपए कि आवश्यकता पड़ती है, साथ ही उसने यह भी कह दिया कि मेरा तो तुम्हारे रूपए पर भी अधिकार नहीं है। अमरकान्त का कहना था कि जैसा व्यवहार अमरकान्त के साथ उसके पिता करते हैं अगर वैसा ही व्यवहार अमरकान्त, समरकान्त और सुखदा की माँ करें, तब सुखदा को खुद नौकरी करने की अवश्यकता है। सुखदा ने फिर से कहा मुझे तुम पर कोई अधिकार नहीं है। उसके बाद अमरकान्त ने हारकर कहा तुम क्या चाहती हो हर महीने मैं रूपए के लिए दादा से लड़ता रहूँ।

सुखदा ने कहा हाँ मैं यही चाहती हूँ कि दूसरों की चाकरी छोड़ दो और घर का काम देखो, जो समय वहाँ देते हो वह यहाँ दो। अमरकान्त ने कहा मुझे लेन-देन, सूद-ब्याज से घृणा है। यह सुनकर सुखदा ने कहा तुम दुकान पर बैठोगे तो यह काम नहीं होने दोगे, हो सकता है दादा तुम्हारा अनुराग देखकर सारा काम दादा तुम्हीं को सौंप दें। सुखदा ने अमरकांत को धमकी तक दे दी की यदि तुम अपने मन की करोगे तो मैं अपने घर चली जाऊँगी। परिणाम स्वरूप अमरकांत परास्त हो गया हो गया और पत्र-व्यवहार का काम छोड़ने का साथ ही दुकान पर बैठने का फैसला किया।

एक साल से ज्यादा हो गया था सुखदा अपने मायके नहीं गई समरकान्त चाहते थे कि वह कुछ दिन के लिए चली जाए लेकिन अमरकांत के प्रति वह निश्चिन्त नहीं हो पाई परिणाम स्वरूप वह मायके नहीं गई। बेटी को देखने की चाह में सुखदा की माता ने खुद ही काशी आने का फैसला किया यहाँ तक की अब उनकी इच्छा काशी में बसने की हो गई। अमरकांत ने गंगातट पर एक घर उनके लिए तैयार करा दिया। रेणुका देवी ने एक हजार रूपए घर तैयार करने के लिए भेजा था लेकिन अमरकांत ने पांच सौ रूपए में ही सारा काम करा दिया। पांच सौ रूपए अपनी सास रेणुका देवी को लौटा दिया।

रेणुका देवी रूप और अवस्था से नहीं मात्र विचार और व्यवहार से वृद्धा थी। रेणुका ने तोते, मैने, बन्दर, बिल्ली, गाये, हिरन, मोर, कुत्ते आदि पाल रखे थे जिन्हें वह साथ लाई थी। पशु-पक्षियों में रेणुका की जान बसती थी, वह उन्हें भोजन ऐसे कराती थी जैसे अपने नाती-पोतो को कराती।

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दूसरे दिन रेणुका और सुखदा की मुलाकात हुई। रेणुका ने सुखदा से शिकायत करते हुए कहा कि ससुराल तुझे इतना प्यारा हो गया है? सुखदा ने अमरकान्त और समरकान्त दोनों के बीच के मतभेद बताते हुए कहा – मैं चली जाती तो जाने क्या दशा होती। मझे डर लगता है कि कहीं यह देश-विदेश की राह न लें। तुमने मुझे कुएँ में ढकेल दिया और क्या कहूँ। जब रेणुका ने पूछा लड़का चाल-चलन का कैसा है? सुखदा जानती थी कि अमरकांत में ऐसी कई दुर्वासना नहीं है लेकिन इसके बाद भी उसने कहा किसी के दिल का हाल मैं क्या जानूँ अम्मा। रेणुका ने जब कहा तु उसका ख्याल रखती है या नहीं तो सुखदा ने कहा – जब वह मेरी बात नहीं पूछते, तो मुझे क्या ग़रज पड़ी है। यह सुनकर रेणुका ने कहा – मुझे इसमें तेरा दोष लगता है अमरकांत का नहीं। उसे कभी प्रेम नहीं मिला, पहले विमाता मिली उसके बाद पिता से भी नहीं बनी परिणाम स्वरूप उसे स्नेह और सेवा करने के बाद ही प्रेम का बीज बोया जा सकता है। सुखदा ने कहा – वह चाहते हैं मैं उनकी तपस्विनी बनकर रहूँ। रूखां-सूखा खाऊँ, मोटा-झोटा पहनूँ और वह घर से अलग होकर मेहनत और मजूरी करें। मुझसे यह न होगा, चाहे सदैव के लिए उनसे नाता ही टूट जाय। वे अपने मन की करेंगे मेरे अराम तकलीफ़ की बिलकुल परवाह न करेंगे, तो मैं भी उनका मुँह न जोहूँगी। रेणुका ने कहा – अगर आज समनकान्त का दिवाला पिट जाय? इसका उत्तर सुखदा ने इस प्रकार दिया – जब मौत आती है, तो आदमी मर जाता है। जान-बूझकर आग में नहीं कूदा जाता।

निष्कर्ष (Conclusion)

सुखदा और रेणुका की बातचीत से ही इस यह अध्याय समाप्त हो जाता है। कर्मभूमि के अन्य अध्याय का सारांश जानने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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