UGC Net JRF Hindi : राजा निरबंसिया कहानी घटना संवाद व सारांश | Raja Nirbansiya Story Incident Dialogue And Summary

UGC Net JRF Hindi : राजा निरबंसिया कहानी घटना संवाद व सारांश | Raja Nirbansiya Story Incident Dialogue And Summary

कहानी का परिचय (Introduction To The Story)

राजा निरबंसिया कहानी संग्रह में 19 कहानियाँ संग्रहित हैं। यह संग्रह 1957 में प्रकाशित हुआ था।

इस कहानी के लेखक कमलेश्वर हैं।

कहानी का विषय – संदेह के उपरांत दाम्पत्य बिखराव की कहानी है।

यह कहानी आधुनिक जीवन की उन विसंगतियों की तरफ इशारा कर रही है जो समाज के द्वारा भी उतपन्न किए जाते हैं।

इस कहानी में दो लोगों की कहानी (कथा) समानांतर रूप से चलती है, एक तरफ राजा निरबंसिया की, दूसरी तरफ आधुनिक जगपति की।

कहानी के पात्र – जगपती, चन्दा, दयाराम, बचनसिंह, राजा निरबंसिया, राजा की पत्नी, भटियारिन (जो राजा की पत्नी ही है, अपना रूप बदल कर राजा से मिलने जाती है)।

कहानी का सक्षिप्त सारांश (Brief Summary Of The Story)

राजा निरबंसिया की कहानी (The Story of King Nirbansiya)

इस कहानी में दो कथा है, एक राजा नरबंसिया की है, जो लेखक की माँ सुनाया करती थी। उस कहानी में राजा की कोई संतान नहीं थी, एक दिन राजा को महल में आना था, लेकिन नहीं आए तो रानी परेशान हो गई और मन्त्री के साथ राजा को खोजने चली गई, आई तो देखा राजा पहले से महल में आ चुके हैं। लेकिन मन्त्री के साथ रानी का जाना राजा को अच्छा नहीं लगता।

एक दिन राजा को किसी ने अनुचित शब्द कह दिए, जिससे परेशान होकर वह कहीं चले गए। वहाँ रानी भटियारिन का रूप लेकर राजा से मिलने गई, उनके साथ रही। बिना उन्हें अपनी असली पहचान बताएँ, महल में लौट आई। राजा उसके बाद कई साल तक महल में नहीं आए।

रानी के दो पुत्र हुए, राजा कई साल बाद महल में लौटे उन्होंने दोनों बच्चो को देख कर अपनी संतान मानने से इंकार कर दिया। रानी ने अपने सतीत्व को साबित करने के लिए तपस्या की। उसकी तपस्या पुरी होने पर राजा ने अपनी भूल स्वीकार कर ली, और दोनों बच्चों को अपनी संतान मान लिया।

जगपती और चन्दा की कहानी (The Story Of Jagpati And Chanda)

चन्दा और जगपती की कहानी लेखक के द्वारा लिखी कहानी है, इस कहानी का अंत दुखान्त होता है। जगपती अपने रिश्तेदार के यहाँ शादी में जाता है, जहाँ डाकू डाका डालने के लिए आ जाते हैं। बीच-बचाव में जगपती घायल हो जाता है, उसे अस्पताल में भर्ती कराया जाता है, जिसका कम्पाउंडर है, बचनसिंह।

जगपती के ठीक करने के लिए जिन दवाइयों की जरूरत थी, वह दवाइयाँ लाने के लिए चन्दा अपने हाथों के कड़े बचनसिंह को दे देती है, लेकिन बचनसिंह उसे चन्दा को लौटा देता है। चन्दा कड़े देने की बात तो जगपती को बताती है, लेकिन वापस लौटाने की बात नहीं बताती। एक दिन वह कंगन उसे घर में मिल जाते हैं, जिसे देख कर वह चन्दा पर शक करता है।

जगपती बच्चनसिंह से कर्ज़ा लेकर लकड़ियों की अपनी एक दुकान खोलता है, जिस कारण आए दिन उसका जगपती के घर आना-जाना शुरू हो जाता है। जगपती की चाची उसे निरबंसिया होने का ताना देती है।

जब चन्दा गर्भवती हो जाती है, तो उसे चरित्र पर लोगों द्वारा अनैतिक बाते कही जाती है, जिसे सुनकर जगपती भी चन्दा पर शक करता है। परिणाम स्वरूप उसे मायके जाना पड़ता है। एक दिन मुंशीजी द्वारा चन्दा के बेटे होने की बात पता चलती है, साथ ही यह भी पता चलता है, कि वह किसी और के घर बैठने वाले है, अर्थात किसी और से शादी करने वाली है, जिसे जानकर जगपती को पछतावा होता है।

वह तेल और अफीम पीकर आत्महत्या कर लेता है। चन्दा के लिए खत लिखता है, जिसमें उसे बच्चे को लेकर चले आने की बात कहता है। अपनी अंतिम इच्छा में, आग बच्चे से ही दिलवाने को कहता है।

कहानी घटना व संवाद (Story Events And Dialogues)

निरबंसिया कथा के घटना-संवाद (Events and dialogues of Nirbansiya story)

एक राजा निरबंसिया थे, माँ कहानी सुनाया करती थीं।

“एक राजा निरबंसिया थे,” मां सुनाया करती थीं, “उनके राज में बड़ी खुशहाली थी। सब वरण के लोग अपना-अपना काम-काज देखते थे। कोई दुखी नहीं दिखाई पडता था। राजा के एक लक्ष्मी रानी थी, चंद्रमा-सी सुन्दर और राजा को बहुत प्यारी। राजा राज-काज देखते और सुख-से रानी के महल में रहते।”

कहानी राजा की तरफ चली जाती है- राजा के न लौटने पर रानी मन्त्री के साथ उसे खोजने जाती है, लेकिन जब महल में वापस आती है, तो राजा महल में ही मिल जाता है, लेकिन “राजा को रानी का इस तरह मन्त्री के साथ जाना अच्छा नहीं लगा”। रानी राजा को समझाती है – राजा से अटूट प्रेम के कारण रानी राजा को खोजने गई थी।

लेखक की माँ जो कहानी सुनाती थी, उसमें राजा बुहत-सा धन कमाकर गाड़ी में लादकर वापस आया, रास्ते में दो बच्चे उसे मिले, जिन्होने राजा की मदद की, बदले में राजा से राजा का आधा धन माँग लिया। राजा ने उनकी यह बात मान ली।

राजा जब महल पहुँचा तो उसने अपने बच्चों को अपना बच्चा मानने से इंकार कर दिया, क्योंकि जिस समय वह अपनी पत्नी से मिला था, वह एक भटियारिन के रूप में थी। परिणाम स्वरूप वह अपने बच्चे को अपना नहीं मान पा रहा था। रानी कुल देवता के मन्दिर में गई, अपने सतीत्व को सिद्ध करने के लिए घोर तपस्या की।

कुल-देवता प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी दैवी शक्ति से दोनों बालकों को तत्काल जन्मे शिशुओं में बदल दिया। रानी की छातियों में दूध भर आया…

राजा को रानी के सतीत्व का सबूत मिल गया। उन्होंने रानी के चरण पकड़ लिए। फिर से राज-काजल संभाल लिया।

राजा ने रानी के नामस से बहुत बड़ा मन्दिर बनवाया और राज्य के नए सिक्कों पर बड़े राजकुमार का नाम खुदवाकर चालू किया।

जगपती चन्दा कथा की घटना संवाद (Jagpati Chanda Katha Incident Dialogue)

मेरे सामने मेरे ख्यालों का राजा था, राजा जगपती। जगपती लेखक के बचपन का मित्र था, जिसके लिए लेखक दांतकाटी दोस्ती होने की बात करता है।

जगपती की पत्नी थोडी-बहुत पढी-लिखी थी, पर घर की लीक को कौन मेटे! बारात बिना बहू के वापस आ गई और लड़केवालों ने तय कर लिया कि अब जगपती की शादी कहीं और कर दी जाएगी, चाहें कानी-लूली से हो, पर वह लडक़ी अब घर में नहीं आएगी। लेकिन साल खतम होते-होते सब ठीक-ठाक हो गया। लडकीवालों ने माफी मांग ली और जगपती की पत्नी अपने ससुराल आ गई।

चंदा की सास की मृत्यु हो जाती है, अन्तिम घडियां गिनते हुए चन्दा को पास बुलाकर समझाया था –“बेटा, जगपती बडे लाड-प्यार का पला है…. छोटे-छोटे हठ को पूरा करती रही हूँ, अब तुम ध्यान रखना। जगपती किसी लायक हुआ है, तो रिश्तेदारों की आंखों में करकने लगा है…. जगपती के ब्याह क्या हुआ, उन लोगों की छाती पर सांप लोट गया। घर की लाज तुम्हारी लाज है…” इसके तुरन्त बाद जगपती की माँ की मृत्यु हो जाती है।

माँ सुनाती थीं, राजा आखेट को जाते थे, सातवें रोज ज़रूर लौट आते थे।

वर्तमान की कहानी में जगपति को दयाराम की शादी में जाना पड़ा।

दयाराम के घर डाका पड गया। डाका डालने वालों ने जब बन्दूकें चलाई, तो सब डर गए लेकिन दयाराम और जगपती उनसे लड़ाई की।

जगपती ने कहा – “ये हवाई बन्दूकें इन तेल-पिलाई लाठियों का मुकाबला नहीं क र पाएँगी, जवानो”।

चन्दा को जगपती की देखभाल के लिए वहीं अस्पताल में जहाँ रिश्तेदारों के लिए कोठरियां थीं, रूकना पड़ा।

जगपती की जांघ की हड्डी चटख गई थी और कूल्हे में ऑपरेशन में छ: इंच गहरा घाव था।

कस्बे का अस्पताल था। कम्पाउण्डर ही मरीजों की देखभाल रखता था। छोटे लोग उसे ईश्वर का अवतार मानते थे।

कम्पाउण्डर का नाम बचनसिंह था।

बचनसिंह ने चंन्दा से कहा- “किसी चीज की जरूरत हो तो मुझे बताना। रही दवाइयां, सो कहीं न कहीं से इन्तजाम करके ला दूंगा।

जगपती चन्दा से कहता है- “देखो चन्दा, चादर के बराबर ही पैर फैलाए जा सकते हैं। हमारी औकात इन दवाइयों की नहीं है।

चन्दा – “औकात आदमी की देखी  जाती है कि पैसे की, तुम तो…”

जगपती कहता है – “तुम नहीं जानतीं, कर्ज कोढ का रोग होता है, एक बार लगने से तन तो गलता ही है, मन भी रोगी हो जाता है”।

चन्दा जगपती की दवाइयाँ लाती है, जिसके लिए कहती हैं, मैंने हाथ का कडा बेचने को दे दिया था, उसी में आई हैं। चन्दा अपना कड़ा बेचने को देती है, लेकिन बाद में बच्चन उसे लौटा देता है, जिसे घर में देखकर जगपती चन्दा पर शक करता है।

जगपती सोचता है – कडा बेचने से तो अच्छा था कि बचनसिंह की दया ही ओढ ली जाती।

चन्दा ने जब कडा बच्चन सिंह को दिया तो उसने वह कडा उससे लेकर – “वह कडा उसकी कलाई में पहना दिया”।

बचनसिंह का दबादल मैनपुरी के सदर अस्पताल में हो गया है और वह परसों यहाँ से चला जाएगा।

जगपती का घर भी मैनपुरी में था।

पन्द्रह-बीस रोज़ बाद जब जगपती की हालत सुधर गई, तो चन्दा उसे लेकर घर लौट आई। जगपती चलने-फिरने लायक हो गया था। घर का ताला जब खोला, तब रात झुक आई थी। और फिर उनकी गली में तो शाम से ही अंधेरा झरना शुरू हो जाता था। पर गली में आते ही उन्हें लगा, जैसे कि वनवास काटकर राजधानी लौटे हों। नुक्कड़ पर ही जमुना सुनार की कोठरी में सुरही फिंक रही थी।

जगपती की चाची ने कहा- “अपने घर के भीतर से ऐलान कर दिया, राजा निरबंसिया अस्पताल से लौट आए कुलमा भी आई हैं”।

चाची की बात सुनकर जगपती गहन चिन्ता मे डूब गया जिसे लेखक ने कुछ ऐसे व्यक्त किया है- उसके हाथ शरीर के अनुपात से बहुत बड़े, डरावने और भयानक हो गए, उनके लम्बे-लम्बे नाखून निकल आए वह राक्षस हुआ, दैत्य हुआ…आदिम, बर्बर।

गुस्से में जगपती ने चन्दा से कह दिया तुम्हारे कभी कुछ नहीं होगा।

रात को जगपती को चन्दा के कड़े मिल जाते हैं – “उसी अन्धेरे में उस रूमाल को खोला, तो जैसे सांप सूंघ गया, चन्दा के हाथों के दोनों सोने के कड़े उसमें लिपटे थे।

कहानी का अंश – एक स्त्री से यदि पत्नीत्व और मातृत्व छीन लिया गया, तो उसके जीवन की सार्थकता ही क्या?

दूसरी आँख की रोशनी – कड़ा गहना (पत्नीत्व)।

चन्दा का कथन बचनसिंह से – “अपनी आंख से देख लीजिए और  उहें समझाते जाइए कि अभी तन्दुरूस्ती इस लायक नहीं, जो दिन-दिन भर घूमना बर्दाश्त कर सकें”।

चन्दा जगपती से कहती है- “इतनी छोटी जान-पहचान में तुम मर्दों के घर में न रहते घुसकर बैठ सकते हो?”

जगपती बोला – “बचनसिंह अपनी तरह का आदमी है, अपनी तरह का अकेला”।

जगपती ने कहा – “आड़े वक़्त काम आने वाला आदमी है, लेकिन उससे फ़ायदा उठा सकना जितना आसान है उतना…मेरा मतलब है कि जिससे कुछ लिया जाएगा, उसे दिया भी जाएगा”।

“वह कुछ क्या है, जो उसकी आत्मा में नासूर-सा रिसता रहता है, अपना उपचार मांगता है? शायद काम!

हां, यही, बिल्कुल यही, जो उसके जीवन की घड़ियों को निपट सूना न छोड़े, जिसमें वह अपनी शक्ति लगा सके, अपना मन डुबो सके, अपने को सार्थक अनुभव कर सके, चाहे उसमें सुख हो या दुख, अरक्षा हो या सुरक्षा, शोषण हो या पोषण..उसे सिर्फ़ काम चाहिए! करने के लिए कुछ चाहिए” लेखक यह जगपती के लिए कहता है।

क्योंकि वह उस घर में नहीं पैदा हुआ, जहाँ सिर्फ जबान हिलाकर शासन करनेवाले होते हैं। काम तो चाहिए…

एक दिन जगपती ने तालाब वाले उंचे मैदान के दक्षिण ओर लकड़ी की टाल खोल लिया।

दिन भर में वह एक घंटे के लिए किसी का मित्र हो सकता है, कुछ देर के लिए वह पति हो सकता है, पर बाक़ी समय? – लेखक कहता है।

बचनसिंह जब जगपती के सामनेजब वह आकर खड़ा होता, तो वह उसे बहुत विशाल-सा लगने लगता, जिसके सामने उसे अपना अस्तित्व डूबता महसूस होता।

बचनसिंह बोलता जाता – “क्या तरकारी बनी है, मसाला ऐसा पड़ा है कि उसकी भी बहार है और तरकारी का स्वाद भी न मरा। होटलों में या तो मसाला ही मसाला रहेगा या सिर्फ तरकारी ही तरकारी, वाह, वाह

“लेटे-लेटे उसकी निगाह ताड़ के उस ओर बनी पुख्ता क़ब्र पर जम जाती, जिसके सिराहने कंटीला बबूल का एकाकी पेड़ सुन्न-सा खड़ा रहता. जिस क़ब्र पर एक पर्दानशीन औरत बड़े लिहाज़ से आकर सवेरे सवेरे बेला और चमेली के फूल चढ़ा जाती, घूम-घूमकर उसके फेरे लेती और माथा टेककर कुछ क़दम उदास-उदास-सी चलकर एकदम तेज़ी से मुड़कर बिसातियों के मुहल्ले में खो जाती”

जगपती चन्दा से कहता है – “यह सब मुझे क्या दिखा रही है? बेशर्म बेगैरत! उस वक़्त नहीं सोचा था, जब…जब…मेरी लाश तले…”

तब…तब की बात झूठ है, सिसकियों के बीच चन्दा का स्वर फूटा, – “लेकिन जब तुमने मुझे बेत दिया”।

दूसरे दिन चन्दा घर छोड़ अपने गाँव चली गई।

उसके बाद जगपती दिन रात टाल पर ही काट देता। उसका मन मुर्दा हो गया था।

जगपती घर पर ताला लगा, नज़दीक के गाँव में लकड़ी कटाने चला गया, उसे लग रहा था कि अब वह पंगु हो गया है, बिलकुल लंगड़ा, एक रेंगता कीड़ा, जिसके न आंख है, न कान, न मन, न इच्छा। वह उस बाग़ में पहुंच गया, जहाँ ख़रीदे पेड़ कटने थे।

जगपती को चन्दा की बात याद आई – लेकिन जब तुमने मुझे बेच दिया। क्या वह ठीक कहती थी? क्या बचनसिंह ने टाल के लिए जो रूपए दिए थे, उसका ब्याज इधर चुकता हुआ?

शकूरे ने कहा – “हरा होने से क्या, उखट तो गया है। न फूल का, न फल का। अब कौन इसमें फल-फूल आएंगे, चार दिन में पत्ती झुरा जाएंगी”

गाड़ियों जब टाल पर आकर लगीं और जगपती तखत पर हाथ-पैर ढीले करके बैठ गया, तो पगडंडी से गुजरते मुंशीजी ने उसके पास आकर बताया, अभी उस दिन वसूली में में तुम्हारी ससुराल के नजदीक एक गाँव में जाना हुआ, तो पता लगा कि पन्द्रह-बीस दिन हुए, चंदा के लड़का हुआ है।”

मुंशीजी ने कहा – “देर और अंधेर दोनों है, अंधेर तो सरासर है तिरिया चरित्तर है सब बड़े-बड़े हार गए हैं।

“मुंशीजी ने उसकी नाक के पास मुँह ले जाते हुए कहा – “चंदा दूसरे के घर बैठ रही है कोई मदसूदन है वहीं का। पर बच्चा दीवार बन गया है। चाहते तो वो यही है कि मर जाए तो रास्ता खुले, पर रामजी की मर्जी। सुना है, बच्चा रहते भी वह चंदा को बैठाने को तैयार है”।

जगपती ने मुंशीजी से कहा – अपना कहकर किस मुँह से माँगूँ, बाबा? हर तरफ तो कर्ज से दवा हूँ, तन से, मन से, पैसे से, इज्जत से, किसके बल पर दुनिया संजोने की कोशिश करूँ?”

जगपती सोचता है – हर औरत वेश्या है और हर आदमी वासना का कीड़ा। तो क्या चंदा औरत नहीं रही? वह जरूर औरत थी, पर स्वयं मैंने उसे नरक में डाल दिया। वह बच्चा मेरा कोई नहीं, पर चंदा तो मेरी है।

उसी रात जगपती सारा कारोबार त्याग, अफीम ओर तेल पीकर मर गया, क्योंकि रानी की तरफ चंदा के पास कोई दैवी शक्ति नहीं थी।

जगपती ने मरते समय दो परचे छोड़े, एक चंदा के नाम और दूसरा कानून के नाम पर।

1) चंदा को उसने लिखा था, – ‘चंदा, मेरी अन्तिम चाह यही है कि तुम बच्चे को लेकर चली आना अभी एक-दो दिन मेरी लाश की दुर्गति होगी, तब तक तुम आ सकोगी। चंदा, आदमी को पाप नहीं, पश्चाताप मारता है, मैं बहुत पहले मर चुका था। बच्चे को लेकर जरूर चली आना।”

2 कानून को उसने लिखा था – “किसी ने मुझे मारा नहीं है किसी आदमी ने नहीं। में जानता हूँ कि मेरे जहर की पहचान करने के लिए मेरा सीना चीरा जाएगा। उसमें जहर है। मैंने अफीम नहीं, रूपए खाए हैं।

उन रूपयों में कर्ज का जहर था, उसी ने मुझे मारा है। मेरी लाश तब तक न जलाई जाए, जब तक चंदा बच्चे को लेकर न आ जाए। आग बच्चे से दिलवाई जाए। बस।”

माँ जब कहानी समाप्त करती थीं, तो आसपास बैठे बच्चे फूल चढ़ाते थे। मेरी कहानी भी खत्म हो गई, पर…

कहानी का निष्कर्ष (Conclusion of the Story)

इसमें समानांतर रूप से चल रही दो कथाओं में एक का अंत सुखान्त होता है, दूसरी का अंत दुखान्त होता है। जगपती अपनी पत्नी पर विश्वास कर भी लेता, लेकिन उसके मन के शक को यकीन का साकार रूप देने में समाज का योगदान है, जिसमें उसकी चाची और पास-पडोस के लोगो के अनैतिक शब्दों का योगदान है।

लगभग यही स्थिति हमारे समाज में भी व्याप्त है, हम उन बातों सच मानने से पहले जो सच में सच है। उन बातों पर पहले यकीन करते हैं, जो समाज के लोग बिना सोचे-समझे, परिस्थिति को जाने बगैर करते हैं।

चन्दा ने जगपती की जान बचाने के लिए ही बचनसिंह से मदद ली, लेकिन जगपती ने इसमें उसका साथ देने के स्थान पर ही गलत समझा।


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