Net JRF Hindi Unit 9 : विवेकी राय का निबन्ध उठ जाग मुसाफिर निबन्ध | Viveki Rai’s Essay Ut Jaag Musafir Essay

Net JRF Hindi Unit 9 : विवेकी राय का निबन्ध उठ जाग मुसाफिर निबन्ध

उठ जाग मुसाफिर निबन्ध का परिचय (Introduction to Uth Jaag Musafir Essay)

उठ जाग मुसाफिर के लेखक विवेकी राय हैं। इस निबन्ध का संकलन – उठ जाग मुसाफिर में किया गया है, इसमें कुल 10 निबन्ध संकलित है।
इसका प्रकाशन 2012 में किया गया है। विवेकी राय ग्रामीण चेतना के निबन्धकार हैं।

विषय – जगदीश बाबू नामक पात्र का वर्णन करते हुए, ग्रामीण जीवन के सौंदर्य और बदलाव को दिखाते हैं।

विवेकी राय ग्रामीण चेतना के निबन्धकार है। कोई अपनी माता अर्थात मातृ भूमि से अलग नहीं हो सकता है। मात्र भूमि हमेशा स्वीकार करेगी। कभी न हार मानने की जिद जगदीश बाबू के अन्दर दिखाई देती है, जो इस निबन्ध के पात्र हैं।

लेखक बनारस से गाँव जा रहे हैं, क्योंकि उनके करीबी जगदीश बाबू बहुत बीमार हैं, परिणाम स्वरूप वह उनसे मिलने जा रहे हैं।

उठ जाग मुसाफिर निबन्ध का सारांश (Summary of Uth Jaag Musafir Essay)

वहाँ जाते समय कल्पना कर रहा था कि सदा की भाँति तन-मन से पूर्ण स्वस्थ होंगे, पूर्ववत धधाकार सहास मिलेंगे, सदाबहार से दिखेंगे फुल्ल कुसमित। ऐसी संक्रामक नीरोगता की प्रतिमूर्ति के चाहक ग्राहक कम नहीं होते। सो घिरे होंगे गाँव के या इधर-उधर के प्रबुद्ध लोगों से। कुछ ले लो इस अंतिम आदमी से क्यो लोगे भाई?

कहाँ टिक रहे हैं उनके गुरू गंभीर जीवनानुभव या चिंतन-निष्कर्ष तुम्हारी फटी झोली में? अच्छा, चलो मनोरंजन ही सही। पिछली बार गया तो एक सवाल खड़ा मिला, आपने इतना बड़ा पुस्तकालय गाँव में खड़ा तो कर दिया पर कोई पुस्तक पढ़नेवाला नहीं रहा तो उसका क्या होगा?

प्रश्न सुनकर मास्टर साहब अर्थात् जगदीश बाबू का चिरपरिचित मुक्तहास बिखर गया और आधा उत्तर तो प्रश्नकर्ताओं को जैसे इसी में मिल गया कि यह भी कोई प्रश्न है? और यदि है तो इसे स्वयं से पूछो। शेष आधे उत्तर के रूप पूरे आत्मविश्वास के साथ एक प्रश्न ही उन्होंने उछाल दिया, अरे भाई, रात होती है, अँधेरा होता है तो तुम चाहो या ना चाहो, प्रभात का प्रकाश स्वयमेव उतर आता है कि नहीं? और फिर वही मुक्त मृदुमंद हास। और तब ऐसा लगा था जैसे दिनकर की कविता- पंक्तियाँ आकर खड़ी हो मास्टर साहब के पक्ष में गवाही दे रही हैं, “जवानी की आँखों में ज्वाला होती है, बुढ़ापे की आँखों में प्रकाश होता है”।

उसके आदर में निद्वंद्व विश्राम है और वह निर्विघ्न आश्रय है। उसके आदर में ही विश्राम की और आश्रय की स्थिति है। इसीलिए जीवन की बीहड़ बेला में उसे स्मरण करते हैं। क्रूर कठिन संसार द्वारा झटक दिए जाने पर जब धुँधलके – धुंध में किसी अवांछित हाशिए पर पहुँच गए तो और किसे याद करें? उस आदर का स्मरण मात्र एक दु:खहर सहलाव है, सांत्वना का बल है, एक रोमांच है।

अहोभाव है और हर्षित विराम है। किसी कवि की पंकतियाँ उमड़ रही हैं, माँ चंदन की गंध है, माँ रेशम का तार, बँधा हुआ जिस तार में सारा ही घर द्वार। यहाँ वहाँ सारा जहाँ, नाए अपने पाँव, माँ के आँचल सी नहीं और कहीं भी छाँव। थके, यात्री को अब ठहराव चाहिए, विश्राम चाहिए, माँ के आँचल की छाँव चाहिए। माता बिन आदर कौन करे? कुल मिलाकर यह निज घर वापस लौटने की लालसा है। पर घर की आपाधापी से, श्रम से छुट्टी मिले। दासत्व स छुट्टी मिले। “सर्वोहि आत्मगृहे राजा” स्वस्थ रहें तो सानंद रहें। जो देखा, जो सुना और जो सोचा – समझा और कुल मिलाकर जो जिया वह सब मोह मूल परमारथ नहीं। और मोह सकल ब्याधिन कर मूला। इन्ही सारी सारी ब्याधियों से ग्रस्त दुखिया सब संसार है।

उलटवाँसी में जीती है। लोगों ने कहा मास्टर साहब बीमार हैं। बीमार अर्थात् रोगग्रस्त अस्वस्थ अभी कुछ माह पूर्व तक आँख, कान, दिल दिमाग, चलना-फिरना, हँसना बोलना, खाना-पीना और व्यावहारिक जीवन जीना दुरुस्त था तो समझ लिया तंदुरुस्त हैं। वह तन अब दुरुस्त नहीं है, उसके अंग काम नहीं करते हैं। कोई भी व्यक्ति उत्तम नहीं है। वह उसके भीतर, उसका संचालक नियामक बनकर बैठा है।

सुहावन पावन जैसा वह आवास उदास था। उधर मैं अपने सोच में डूबा था, उधर कई लोग वहाँ पहुँचकर उन्हें जगाने लगे थे, बाबा, बाबा, यह देखिए, आप से मिलने कौन आए हैं? आँखें खोलकर मेरी ओर देखते उन्होंने कहा- शरदचंद्रजी। बैठ जाइए। अर्थात् वे मुझे पहचान न सके। शरदचंद्र उनके विद्यालय के प्राचार्य का नाम था। बहुत कड़वा सत्य था। भीतर बेचैनी होने लगी। सामने वे ही तो हैं पर यह कौन बोल रहा है? कितना क्रूर, कठोर और दुर्दम है समय के हाथों इस प्रकार झटक दिया जाना। उनके एक स्वजन ने कान के पास मुँह कर जोर जब मेरा नाम बताया तो जैसे तरंगित हो गए, सोए-सोए सुपरिचित खुले हुए ऊँचे स्वर में बोले, क्षमा, बारंबार, क्षमा हजार बार, क्षमा बैठिए बैठिए शरीर है न ठीक हो जाता है तो पिछली बार की तरह बनारस चला जाएगा। आप कहेंगे तो आगे इलाहाबाद या फिर दिल्ली तक चले चलेंगे। अरे, आपको चाय पिलाओ, भाई भोजन का भी वक्त है फिर न हो तो आज पुस्तकालय के लिए एक बैठक भी कर लेंगे। बोलते-बोलते एकदम चुप हो गए। लगा कि बोलने में कठिनाई हो रही है। खुले हुए ऊँचे नीरोग जैसे स्वर की उनक तो वही थी पर उसका आत्मविश्वास से पूर्ण पहले जैसा स्वाभाविक ताप नहीं था और ठंडापन छिप नहीं रहा था।

सामनेवाला चकितकारी सत्य बहुत आहत कर रहा था। एक साल के भीतर ही यह क्या हुआ? क्या सचमुच बुढ़ापा अचानक धमककर चकित कर देता है कि अरे, यह क्या हुआ? राष्ट्रिय स्तर के एक विद्यामंदिर के इस तेजस्वी शिक्षक, गांधीवादी चिंतन और जीवन शैली में आजीवन रसे बसे सदाबहार, स्वास्थ्य के लिए प्रसिद्ध ग्राम मनीषी तथा सुरुचिपूर्ण सुवेस में सदा सहास मिलनेवाले इस समाजसेवी को ऐसे बेहाल कैसे देख रहा हूँ?…लेकिन बेहाल कैसे? संभवत: यह नियति और जिजीविषा का संघर्ष है। अभी यात्राएँ करनी हैं। पुस्तकालय के भविष्य को सँवारना है।

जगतेर माझ खने दाँड़ाइया। बाजाइबि सौंदर्येर बाँशि।

मकान जर्जर होने से क्या? मकान मालिक जवान है। वह इस सुंदर संसार को और सुंदर बनाने के लिए जिएगा। यहाँ खड़े होकर बंशी बजाएगा। हाय रोग, हाय दैया करे उसकी बलाय नहीं, वह रोएगा धोएगा नहीं पड़ा रहेगा शांत, मौन। कोई शिकवा-शिकायत नहीं।

अपने प्रिय कवि कबीर साहब की तरह बेहद के मैदान में सोया है। कुछ निरंतर हो रहा है। क्या हो रहा है? शायद सुमिरन भजन? आश्चर्य? इधर मैं उनके एक स्वजन से उसकी अप्रत्याशित अवस्था के विषय में जानकारी ले रहा था और उधर अपनी मौज में जैसे मुझे सुना रहे हैं।

फिर चहककर कुछ मौज में
माता बिन आदर कौन करे?
बरखा बिन सागर कौन भरे?
राम बिना दुख कौन हरे?

तराने पर विराम लगा तो मैं सामने हाथ जोड़कर खड़ा हुआ। अब चलने की आज्ञा दीजिए। तो अपने साहित्यिक अच्छा। अगली बार जल्दी पुस्तकालय पर चौबीस घंटे का हरिकीर्तन कराया जाए। वही मुद्रा, वही अधमुँदी आँखें, वही निर्भाव भाव में चौकी पर लेटे-लेटे बोलना, जैसे किसी औऱ से नहीं, स्वयं से बोल रहे हैं, आत्मलीन, आत्म संबोधन। अब मैं बहुत हैरान हूँ। इस रामनाम लड्डू, सुमिरन भजन, हरिकीर्तन और राम बिना दुख कौन हरे वाली धार्मिक लाइन पर कभी उन्हें इस प्रार्थी भाव में देखा नहीं फिर दुख हरने में माता की सनातन भूमिका का स्मरण?

उनके जीवन और चिंतन शैली को देखते, ये बातें बेमेल पड़ गले से उतर नहीं रही हैं। तो क्या मान लें कि यह हारे को हरि नाम, वाली स्थिति है? मगर हारे कहाँ हैं? अभी तो मन जवान है, लड़ रहा है, पुस्तकालय की मीटिंग कर रहा है। यात्राएँ कर रहा है। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। तो, यहाँ तो जीत ही जीत है, अंत भला तो सब भला। यात्रा के इस पड़ाव की यह श्रेष्ठतम स्थिति है कि आधि व्याधि सहित मौत को पछाड़कर आदमी अपनी मौज में दहाड़ता रहे। नहीं, यहाँ पराजय का अस्तित्व नहीं है। कहाँ किसी अपनी बीमारी या किसी डॉक्टर या स्वजन की चर्चा हो रही है?

स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में लोग एक गीत गया करते थे-

हम दीवानों की क्या हस्ती हैं आज यहाँ कल वहाँ रहे, मस्ती का आलम सात चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले। और अब लगता है, उसी गीत की अंतिम पंक्तियों को ये जी रहे हैं अब अपना और पराया क्या? आबाद रहें जीने वाले। हम स्वयं बँधे थे और स्वयं ही, सारा बंधन तोड़ चले। कहाँ चले? माता का प्यार पाने के लिए उनकी गोद में? मगर वह तो बहुत-बहुत पीछे छूट गई। जन्मदात्री माँ की गोद अब असंभव। संभव है उनकी भारतमाता की गोद, प्रकृति माता की गोद में हम भारतवासी कितने सौभाग्यशाली हैं और हमारी संस्कृति कितनी समृद्ध है कि आदर, प्यार और दुलार सहित जीवनदात्री हमारी माताओं की विस्तृत सूची है। गंगा, गीता, गायत्री और धरती सहित अनेक देवी देवताओं की अधिक पवित्र संज्ञाएँ माता शब्द से जुड़ती हैं। जन्मदात्री भौतिक माता से कुछ अधिक ही भावात्मक संबंधोंवाली माताओं के स्मरण में रोमांच देखते हैं। भौतिक जीवन की माताएँ कुमाता भी हो जाती हैं।

इस बीसवीं, इक्कीसवीं शताब्दी का आधुनिक दौर इस संदर्भ में बहुत कुख्यात हुआ। परंतु भावात्मक संबंधवाली माताओं का स्नेह कोष सुपुत्रों के लिए कभी रिक्त नहीं होता। उनका आदर, अवदान और आशीर्वाद बहुत ही शक्तिशाली होता है, साथ ही अकृत्रिम, सहज और निस्वार्थ भारतमाता के प्रति भक्ति, समर्पण और सेवा भाव की तरंगों ने एक तिरंगा इतिहास रच दिया, लिखा, सुना नहीं, वह सब आँखों देखा सच है। समस्त भूगोल, इतिहास और पुराण से जुड़ी माताएँ जन्मदात्री माँ सहित एक भारतमाता के भावों में तब समाहित हो गई थीं, वंदे मातरम क्या पता, मास्टर साहब उसी माता की सुधि में अलख जगा रहे हों माता बिन आदर कौन करे?


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